बरकरार है मोदी का मैजिक






 महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावी महासमर
Bhaskar news | Oct 20, 2014,
शरद पवार|टीम इंडिया
महाराष्ट्र. चुनाव डेस्क, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावी महासमर में कई मंत्री और विधायकों को पराजय का सामना करना पड़ा तो कई उम्मीदवारों ने पहली बार में ही किला फतह कर लिया। कई स्थानों पर निर्दलीयों ने राष्ट्रीय दलों के उम्मीदवारों को मात देते हुए रण जीत लिया।

विदर्भ : अब प्रबल संभावना है

राजनीतिक दलों और नेताओं के मन में इच्छा थी। कर नहीं पा रहे थे। जनादेश के जरिए मतदाता ने आसानी से गुत्थी सुलझा दी। भारतीय जनता पार्टी को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सहयोगी दलों समेत लगभग सवा सौ क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला है। इनमें से विदर्भ अंचल के 62 क्षेत्रों में 40 से अधिक भाजपा प्रत्याशी जीतकर आए हैं। लगभग दो तिहाई। विदर्भ में मनसे का नामोनिशान नहीं है। महाराष्ट्र के विभाजन की विरोधी शिवसेना को नाममात्र की सीटें मिली हैं। राज्य में शिवसेना 63 स्थानों पर जीतकर पिछली हैसियत बचाने में सफल हुई है। विदर्भ में जीते कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस के लगभग सभी विजयी प्रत्याशी समर्थक हैं। अलग विदर्भ राज्य के पक्ष में शिवसेना क्यों तैयार हो? यह पहला तथा सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है।

इसलिए कि विदर्भ उस संयुक्त महाराष्ट्र का कभी हिस्सा नहीं था जिसकी परिकल्पना उद्घव ठाकरे करते हैं। पौराणिक काल से लेकर मुगलों तक भी नहीं। वर्तमान विदर्भ और गोंडवाना सहित बुंदेलखंड पेशवा राज का हिस्सा था।

इस पैमाने पर ओडिशा से लेकर तमिलनाडु तक पेशवाई रही। अनेक हिंदीभाषी राज्य, दो बांग्लाभाषी, दो तेलुगुभाषी राज्य हैं। एक भाषा के अधिक राज्य होने से न विखंडन होता है न विकास रुकता है। लेकिन ये सब नीति और सिद्घांत की बातें हैं। व्यवहार की राजनीति के हिसाब से भाजपा और शिवसेना के 288 में 180 से अधिक प्रतिनिधि विराजमान होंगे। शिवसेना तालमेल कर उपमुख्यमंत्री पद पा सकती है, मुख्यमंत्री नहीं बन सकता। भाजपा के तालमेल से शिवसेना को लंबी दौड़ में बने रहने में आसानी होगी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पर निर्भरता से मुक्ति मिलगी। विदर्भ अलग होने पर शेष महाराष्ट्र के 226 प्रतिनिधियों में भाजपा-शिवसेना के 120 रहेंगे। बहुमत तब भी होगा। भाजपा के एक दो अधिक। चाहें तो दोनों बारी बारी से शेष अवधि को मुख्यमंत्री की खातिर बांट सकते हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को बाहर से समर्थन देने का वादा किया है। इस तरह का गोलमोल वादा विदर्भ के बारे में करना उनकी आदत में शुमार है। अलग विदर्भ राज्य का समर्थन कर शरद पवार अपनी साख बचाने का प्रयत्न कर सकते हैं।
अलग राज्य बनने पर विदर्भ में कांग्रेस की निश्चित ही इतनी बुरी हालत नहीं रहेगी। फजल अली आयोग ने विदर्भ को राज्य बनाने की अनुशंसा की थी। इस एक अधूरी सिफारिश को 50 बरस बाद पूरा कर कांग्रेस अपराध से मुक्त हो सकती है। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने महाराष्ट्र के तत्कालीन नेताओं के दबाव में विदर्भ राज्य नहीं बनाया था। शिवसेना की संयुक्त महाराष्ट्र
बचाने की दलील देने वाले कांग्रेसजनों को इतिहास का कड़वा सच स्वीकार करना चाहिए-

1- संयुक्त महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण संयुक्त महाराष्ट्र अांदोलन के विरोध में थे। उनका कहना था कि राज्य के समर्थन से अधिक नेता जवाहर लाल मेरे लिए अधिक  महत्वपूर्ण हैं।
2- विदर्भ का विकास करने के लिए किए गए करार बेकार रहे। न अकोला करार पर अमल हुआ और न नागपुर करार पर। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ ही शिवसेना और भाजपा में शामिल हुए पुराने कांग्रेसजन विचार करें।
3- शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने एक बार कहा था कि पांच वर्ष में विकास नहीं हुआ तो विदर्भ की मांग की जा सकती है।
4- जनमंच सहित कुछ गैरराजनीतिक संगठनों ने कई जगह जनमत संग्रह कराया। 90 प्रतिशत लोग पृथक विदर्भ के पक्ष में रहे।

इससे शेष महाराष्ट्र का क्या लाभ होगा?

मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने की आशंका सदा के लिए समाप्त होगी। तुल्य-बल होने के कारण न मुंबई के समृद्घ वर्ग की किसानों पर दादागीरी चलेगी और न राज्य में जाति, उपजाति, धर्म, क्षेत्रीय आधार पर अस्थिरता और अशांति होगी। ठाणे से लेकर नंदूरबार तक आदिवासी
पट्टी तथा सांगली सतारा से लेकर उस्मानाबाद- लातूर के दुष्काल की मार सहने वाले इलाकों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा। शेष महाराष्ट्र के इलाकों पर मुंबई का राजस्व खर्च होगा। वर्तमान महाराष्ट्र में उद्घव ठाकरे या आदित्य ठाकरे का मुख्यमंत्री बनने का सपना सच नहीं होगा। शेष महाराष्ट्र में इसकी संभावना है।

विदर्भ राज्य बनने से आम विदर्भवासी को क्या मिलेगा? ऐसा राज्य जिसमें प्रचुर संसाधन हैं। बस, विकास नहीं है। पड़ोसी छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की तरह विकास होगा। बेकारी और विफलता से उपजने वाली माओवाद जैसी समस्या का हल मिलेगा। गड़चिरोली से हजार किलोमीटर दूर बसी महंगी राजधानी मुुंबई पहुंच से दूर है। हर विर्दर्भवासी राजधानी नागपुर में काम निबटाकर उसी दिन घर पहुंच सकेगा।

भाजपा, शिवसेना सहित हर भविष्यदर्शी राजनीतिक दल के लिए यह अवसर है। वरना उक्ति है- अवसर चूके नर्तकी नाचे ताल बेताल। -प्रकाश दुबे  
   
ऐसे बदली सियासत की तस्वीर

हारकर चौंकाया-  नारायण राणे, हर्षवर्धन पाटील, नितीन राऊत, अनिल देशमुख, गणेश नाईक।

कांग्रेस के गढ़ ढहे- नागपुर्, यवतमाल, अमरावती, चंद्रपुर, गड़चिरोली, गोंदिया, भंडारा।
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बरकरार है मोदी का करिश्मा
प्रदीप सिंह , लेखक
विधानसभा चुनाव के नतीजों का असर देश की राजनीति पर हो, ऐसे अवसर कम ही आते हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव के नतीजे के कई निहितार्थ हैं.


इन नतीजों से एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश में एक दल के प्रभुत्व का दौर लौट रहा है. भाजपा अब कांग्रेस की जगह देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में राज्यों में भी स्थापित होने की राह पर है. इन चुनावों ने एक बात और स्थापित की है कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी वोट दिलाने वाले देश के सबसे बड़े नेता हैं. लेकिन चिंता की बात यह है कि विपक्ष का दायरा घटता जा रहा है. भाजपा जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसी अनुपात में कांग्रेस घट रही है.

नरेंद्र मोदी और भाजपा ने इन दोनों राज्यों के चुनावों में अकेले लड़ने का फैसला करके एक जोखिम उठाया था. दोनों राज्यों में पार्टी की हार की आंच सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचती. खासतौर से ऐसी परिस्थिति में जब गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने पर जीत तय मानी जा रही हो. इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी. महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने का फायदा एनसीपी और कांग्रेस को हुआ है. दोनों दल पूरी तरह साफ होने की शर्मिंदगी से बच गए. बल्कि कह सकते हैं कि एनसीपी ने अपनी इज्जत बचा ली है. उसका वोट बढ़ा है. सीटें कम भले हुई हैं, पर इससे भी कम की उम्मीद थी. शरद पवार ने अपने किले को पूरी तरह ढहने से बचा लिया है. राज्य में भाजपा की संभावित सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा करके शरद पवार अब भ्रष्टाचार में फंसे अपने लोगों को बचाने का उपाय कर रहे हैं.

लेकिन कांग्रेस को क्या कहें. राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी जो पंद्रह साल से सरकार में थी, पहले नंबर से चौथे नंबर पर पहुंच गई. फिर भी कह रही है कि उतना नहीं हारे जितना हार सकते थे. इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए. पैर के नीचे से जमीन लगातार खिसकती जा रही है लेकिन कांग्रेस और उसके नेताओं को यकीन ही नहीं हो रहा. यह मासूमियत ओढ़ी हुई है या वास्तविक, कहना कठिन है. लेकिन नुक्सान दोनों ही हालत में है. क्योंकि जब तक आपको वास्तविकता का एहसास नहीं होगा तब तक सुधार के कदम नहीं उठा सकते.

शिवसेना तय नहीं कर पा रही है कि वह इन नतीजों से खुश हो या दुखी. क्योंकि मतदाता ने उसे पूरा दिया नहीं. आधे के लिए वह भाजपा पर निर्भर हो गई है. लेकिन उसे इस बात की ज्यादा खुशी है कि भाजपा को उसकी जरूरत है. जरूरत है यानी सौदेबाजी के लिए मैदान खुला है. उसने शुरु आत कर दी है. उसके नेता कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री पद से कम पर बात नहीं बनेगी. मुख्यमंत्री पद भी चाहिए और कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की महाराष्ट्र में कोई लहर नहीं है. मतलब कि हम तुम्हें गाली देंगे और तुम हमें मुख्यमंत्री पद दो. राजनीति में ऐसा व्यवहार शिवसेना ही कर सकती है. शिवसेना के नेता हकीकत जानने के बाद भी उसे मानने को तैयार नहीं हैं. शिवसेना की राजनीति से भाजपा पीछा छुड़ाना चाहती है. इसलिए वह शिवसेना की मांग एक हद के बाद नहीं मानेगी यह तय है. ऐसे में शिवसेना में टूट की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इस मामले में एनसीपी ने भाजपा की सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा करके भाजपा को शिवसेना से बचा लिया है. लेकिन सवाल है कि अब शिवसेना को कौन बचाएगा!

भाजपा के लिए महाराष्ट्र अवसर और चुनौती एक साथ लेकर आया है. चुनाव नतीजे एक तरह से मुनाफे में घाटे वाली स्थिति हैं. उसे उम्मीद से कम सीटें मिली हैं. उम्मीद क्या करती है, इसका उदाहरण भाजपा है. महाराष्ट्र के प्रदेश बनने के बाद से इस राज्य में भाजपा तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी रही है. अब वह एकदम से पहले नंबर की पार्टी बन गई है. इसके बावजूद उसके विरोधी ऐसी तस्वीर पेश कर रहे हैं मानो वह हार गई हो. चौथे नंबर की पार्टी छह महीने से भी कम समय में पहले नंबर पर आ जाए तो यह कोई सामान्य बात नहीं है. लेकिन पहले नंबर पर आना जितना मुश्किल था उससे भी ज्यादा मुश्किल मतदाताओं की अपेक्षा पर खरा उतरना है.

हरियाणा एक ऐसा राज्य है जो और चाहे जिस बात के लिए जाना जाता हो, पर विचारधारा की राजनीति के लिए तो नहीं ही जाना जाता. वहां एक विचारधारा पर आधारित पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलना आश्चर्य से कम नहीं है. हरियाणा में आज तक भाजपा को जो भी मिला है गठबंधन के जरिए ही. वह हरियाणा में हाशिए की पार्टी थी. विधानसभा का पिछला चुनाव अकेले लड़कर उसे चार सीटें मिली थीं. राज्य में पार्टी का कोई संगठन भी नहीं है. जिस राज्य में जाट मतदाता राजनीति को संचालित करते हों वहां जाटों में उसका कोई जनाधार नहीं है. ऐसे में भाजपा को अकेले दम पर सत्ता में लाने का श्रेय सिर्फ मोदी को जाता है. इस जनादेश से हरियाणा की जनता ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन से राज्य को मुक्ति तो दिलाई ही है, साथ ही यह भी बता दिया कि वह तिहाड़ से किसी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए तैयार नहीं है. हरियाणा की राजनीति अब एक नए रास्ते पर जा रही है. इस राजनीति ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया है. सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पाई.

राजनीति का यह नया स्वरूप इन प्रदेशों में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखेगा. भाजपा की ताकत इस नतीजे से बढ़ेगी. केवल इसलिए नहीं कि दो और राज्यों में उसकी सरकार बन गई. इसलिए भी कि उसे केंद्रीय योजनाओं को लागू कराने के लिए दो और सरकारें मिल गई. इससे राज्यसभा में भी उसकी संख्या बढ़ेगी. उप चुनावों में भाजपा की हार के बाद मोदी का प्रभाव खत्म होने की बात करने वालों का मुंह महाराष्ट्र और हरियाणा की जनता ने फिलहाल बंद करा दिया है. नतीजे प्रमाण हैं कि लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मतदाता ने जो विास जाहिर किया था, वह अभी क्षीण नहीं हुआ है. बिना प्रादेशिक नेतृत्व और कमजोर संगठन के होने के बावजूद इन दोनों राज्यों में पार्टी को सत्ता में लाकर मोदी ने साबित किया है कि लोगों का उन पर भरोसा अभी कायम है.

 लेकिन इस नतीजे से कांग्रेस में बहुत से मुंह खुल जाएंगे. सोनिया गांधी पार्टी में बढ़ रहे असंतोष के पतीले पर जो ढक्कन लगाकर बैठी थीं, उसमें उबाल से ढक्कन अब खुल जाएगा. कांग्रेस को अपने भावी नेतृत्व के बारे में कोई फैसला करना ही पड़ेगा. फैसला गांधी परिवार को करना है. फैसले को टालने का विकल्प अब सोनिया गांधी के पास नहीं रह गया है. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर ‘प्रियंका लाओ देश बचाओ’ के लगने वाले नारे में दरअसल किसी को हटाने की मांग भी छिपी है.  कांग्रेस के लिए बेहद विकट स्थिति बन गई है. वह भीतर के संघर्ष से उबरे तो बाहर के संघर्ष के बारे में सोचे.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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