राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और स्वयंसेवक


विश्व के सबसे बडे स्वंयसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की भारत में संघ की आवश्यता क्यों हुई और उसका स्वंयसेवक कौन है । इन प्रश्नों का संझिप्त उत्तर यह शब्द हैं।











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दृष्टी और दर्शन
दिनांक: 04-Jun-2017
प्राचीन काल से चलते आए अपने राष्ट्रजीवन पर यदि हम एक सरसरी नजर डालें तो हमें यह बोध होगा कि अपने समाज के धर्मप्रधान जीवन के कुछ संस्कार अनेक प्रकार की आपत्तियों के उपरांत भी अभी तक दिखार्इ देते हैं। यहाँ धर्म-परिपालन करनेवाले, प्रत्यक्ष अपने जीवन में उसका आचरण करनेवाले तपस्वी, त्यागी एवं ज्ञानी व्यक्ति एक अखंड परंपरा के रूप में उत्पन्न होते आए हैं। उन्हीं के कारण अपने राष्ट्र की वास्तविक रक्षा हुर्इ है और उन्हीं की प्रेरणा से राज्य-निर्माता भी उत्पन्न हुए हैं।

उस परंपरा को युगानुकूल बनाएँ
अत: हम लोगों को समझना चाहिए कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ, सुप्रतिष्ठित, सद्धर्माघिष्ठित बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परंपरा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएँगे। युगानुकूल कहने का यह कारण है कि प्रत्येक युग में वह परंपरा उचित रूप धारण करके खड़ी हुर्इ है। कभी केवल गिरि-कंदराओं में, अरण्यों में रहनेवाले तपस्वी हुए तो कभी योगी निकले, कभी यज्ञ-यागादि के द्वारा और कभी भगवद्-भजन करनेवाले भक्तों और संतों के द्वारा यह परंपरा अपने यहाँ चली है।

युगानुकूल सद्य: स्वरूप
आज के इस युग में जिस परिस्थिति में हम रहते हैं, ऐसे एक-एक, दो-दो, इधर-उधर बिखरे, पुनीत जीवन का आदर्श रखनेवाले उत्पन्न होकर  उनके द्वारा धर्म का ज्ञान, धर्म की प्रेरणा वितरित होने मात्र से काम नहीं होगा। आज के युग में तो राष्ट्र की रक्षा और पुन:स्थापना करने के लिए यह आवश्यक है कि धर्म के सभी प्रकार के सिद्धांतों को अंत:करण में सुव्यवस्थित ढंग से ग्रहण करते हुए अपना ऐहिक जीवन पुनीत बनाकर  चलनेवाले, और समाज को अपनी छत्र-छाया में लेकर चलने की क्षमता रखनेवाले असंख्य लोगों का सुव्यवस्थित और सुदृढ़ जीवन एक सच्चरित्र, पुनीत, धर्मश्रद्धा से परिपूरित शक्ति के रूप में प्रकट हो और वह शक्ति समाज में सर्वव्यापी बनकर खड़ी हो। यह आज के युग की आवश्यकता है।

कौन पूर्ण करेंगे
इस आवश्यकता को पूरा करनेवाला जो स्वयंस्फूर्त व्यक्ति होता है वही स्वयंसेवक होता है और ऐसे स्वयंसेवकों की संगठित शक्ति ही इस आवश्यकता को पूर्ण करेगी ऐसा संघ का विश्वास है।

स्वयंसेवक
दिनांक: 04-Jun-2017

स्वयंसेवक होने से बढ़कर गर्व और सम्मान की दूसरी बात हमारे लिए कोर्इ नहीं है। जब हम कहते हैं कि मैं एक साधारण स्वयंसेवक हूँ, तब इस दायित्व का बोध हमें अपने हदय में रखना चाहिए कि यह दायित्व बहुत बड़ा है। समाज भी हमारी ओर देख रहा है और समाज हमें एक स्वयंसेवक के रूप में देखता है। समाज की हमसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ रहें और उन अपेक्षाओं को पूर्ण करते हुए हम उनसे भी अधिक अच्छे प्रमाणित हों।
शाखा के विषय में नित्य करणीय बातें
संघ-शाखा के विषय में ध्यान रखें कि हमारी शाखा निम्नलिखित अपेक्षाओं को पूर्ण करनेवाली हो
* शाखा नित्य लगनी चाहिए।
* वह निश्चित समय पर लगनी चाहिए।
* शाखा में भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यक्रम होने चाहिए।
* सब स्वयंसेवकों में परस्पर मेलजोल, स्नेह, प्रेम और शुद्धता का वातावरण हो।
* आपस में विचार-विनिमय, चर्चा आदि कर अपने अंत:करण में ध्येय  साक्षात्कार नित्य अधिकाधिक सुस्पष्ट और बलवान करते रहने की हमारे अंदर प्रेरणा व इच्छा रहे।
* सामूहिक रूप से नित्य अपनी प्रार्थना का उच्चारण गंभीरता, श्रद्धा तथा उसका भाव समझकर करें।
* हमारे परम पवित्र प्रतीक के रूप में जो अपना भगवा ध्वज है, उसे मिलकर नम्रतापूर्वक प्रणाम करें।
* ‘‘शाखा विकिर’ के अनंतर बैठकर आपस में बातचीत करें। कौन आया, कौन नहीं आया, इसकी पूछताछ करें।
ऐसी अपनी दैनिक शाखा के विषय में नित्य करणीय बातें हैं।
नित्य न्यूनतम कार्य
* यदि शाखा नियमित एवं समय पर प्रारंभ करनी है तो शाखा के निर्धारित समय से पर्याप्त पूर्व अपने निवास से निकलें और शाखा के समय से कम से कम दो मिनट पूर्व संघस्थान पर उपस्थित रहें।
* कोर्इ हमें बुलाने आएगा तब जाएँगे, ऐसी प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं है। बुलाने वाला अपना कर्तव्य करेगा, पर उसे कर्तव्य करने का अवसर देने के लिए घर पर ही बैठे रहें, यह उचित नहीं, इसका ध्यान रखें।
* विचार करें कि मैं संगठन करनेवाला मनुष्य हूँ, अकेलाराम नहीं। तब शाखा के लिए कुछ पहले निकलकर आसपास जो स्वयंसेवक रहते हों, उन्हें पुकारकर अपने साथ ले जाएँ। इसमें दायित्व का प्रश्‍न नहीं उठता। गटनायक अथवा गणशिक्षक बनने पर ही करने का काम नहीं है। सामान्य बात है कि जब भी हम किसी अच्छे काम के लिए जाते हैं, तो अपने साथ अपने मित्रों को बुलाकर ले जाते हैं। यह हमारे लिये स्वाभाविक कार्य होना चाहिए।
* संघस्थान पर सभी कार्यक्रम मन लगाकर, अनुशासनपूर्वक, नियमानुसार करें। उसमें कष्ट हो तो रुष्ट न हों। अपने कार्यक्रम कष्टकर होते हैं। कष्ट करने का अभ्यास कर बड़े-बड़े काम सहज करने की शक्ति बढ़ानी चाहिए। इसलिए उन्हें प्रयत्नपूर्वक करें। ये कार्यक्रम अंत:करण में निर्भयता, आत्मविश्‍वास, पराक्रम के भाव उत्पन्न कर सबको एक अनुशासन में गूँथकर, हम सब एक महती शक्ति के अंग हैं, इस अनुभूति को निरंतर जागृत रखने के लिए हैं। इसलिए उन कार्यक्रमों का उत्तम अभ्यास करें।
* विकिर होने पर तुरत-फुरत घर भागने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। घर जाने अथवा और कहीं घूमने जाने की इच्छा होने का अभिप्राय होगा कि हम शाखा में अनिच्छा से बलात् आए थे। विकिर होते ही इस बला से मुक्त होने का अनुभव करते हैं। हम किसी के दबाव में शाखा नहीं आते। आना भी नहीं चाहिए। अत: बैठकर दो काम करें
        पहला यह कि शाखा में आनेवाले स्वयंसेवक बंधुओं में से कौन आए, कौन नहीं आए, इसकी जानकारी कर लें और जो नहीं आया हो, उसकी चिंता करें। वे क्यों नहीं आए इसका पता लगाने छोटी-छोटी टोलियों में सबके यहाँ जाएँ। कोर्इ कठिनार्इ हो तो उसका निवारण करने का प्रयास करें। कठिनार्इ न हो, तो अकारण शाखा से अनुपस्थित रहना ठीक नहीं यह बात उसे भली-भाँति समझाएँ।
      दूसरा यह कि नित्य अपने ध्येय का स्मरण करें। हिमालय से लेकर दक्षिणी महासागर के तट तक असंख्य पवित्र स्थान बिखरे हैं, उनका स्मरण करें। अनेक ऐतिहासिक स्थल हैं, प्रत्येक स्थल से किसी महापराक्रमी पुरुष की कुछ न कुछ विशेषता जुड़ी हुर्इ है, उसका स्मरण करें। उस महापुरुष की विशेषता में से जो गुण प्रकट होते हैं, उनका सब मिलकर स्मरण करें और उन्हें अपने में उतारने के प्रयास का निश्‍चय करें।
यह है हमारा नित्य का न्यूनतम कार्य। ‘‘साधारण स्वयंसेवक’ के रूप में इतना हमें करना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त भी हमारे लिए कुछ कर्तव्य हैं।

पड़ोसी धर्म
अपना कुछ पड़ोस धर्म भी है। उस धर्म के अनुसार हमें यह जानकारी करनी चाहिए कि इन पड़ोसियों का जीवनयापन कैसे चलता है? उनकी कठिनाइयाँ, दु:ख क्या हैं? उनकी सहायता में तत्पर रहना पड़ोसी का धर्म है। पड़ोस में कोर्इ गड़बड़ हुर्इ, तो अपना दरवाजा अंदर से बंदकर बैठना पड़ोस-धर्म नहीं है। पड़ोस में कोर्इ अस्वस्थ हुआ तो अपने भाग्य से हुआ होगा, वह जिए चाहे मरे, ऐसा सोचकर उसकी अनदेखी करना पड़ोसी का धर्म नहीं है। इसमें पड़ोस-धर्म तो दूर की बात रही, मनुष्यता भी नहीं है। अत: पड़ोस-धर्म का पालन करने हेतु घर-घर में जाना, सबसे मिलना, बोलना, सबसे अत्यंत स्नेह और आत्मीयता के संबंध रखने का प्रयास करना और इस बात का भी कि सबके हृदय में हमारे बारे में ऐसी धारणा बने कि यह व्यक्ति विश्‍वास करने योग्य है, इसमें अपने प्रति निष्कपट, नि:स्वार्थ प्रेम है। यह अपना सच्चा मित्र है, अपने को कोर्इ कष्ट नहीं होने देगा, नित्य अपना साथ देगा और जरूरत पड़ने पर सहायता के लिए दौड़ा आएगा। इस विश्‍वास के बल पर सब पड़ोसी मानो एक बड़ा परिवार बने हैं, ऐसा हम प्रयास करें।


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