रोहिंगिया देश की सुरक्षा व एकात्मता पर संकट ही बनेंगे : परम पूज्य सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत
परम पूज्य सरसंघचालक जी डॉ. मोहन राव भागवत का संबोधन
इस वर्ष की विजयादशमी के पावन अवसर को संपन्न करने के लिये हम सब आज यहाँ पर एकत्रित हैं। यह वर्ष परमपूज्य पद्मभूषण कुषोक बकुला रिनपोछे ( His eminence Kushok Bakula Rinpoche ) की जन्मशती का वर्ष है। पूज्य कुषोक बकुला रिनपोछे तथागत बुद्ध के 16 अर्हतों में से बकुल के अवतार थे ऐसी पूरे हिमालय बौद्धों में मान्यता है। वर्तमान काल में आप लद्दाख के सर्वाधिक सम्मानित लामा थे। पूरे लद्दाख में शिक्षा का प्रसार, कुरीतियों का निवारण एवं समाज सुधार व राष्ट्रभाव जागरण में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1947 में जब कबाईलियों के वेश में पाकिस्तान की सेना ने जम्मूकश्मीर पर आक्रमण किया तो उनकी प्रेरणा से वहाँ के नौजवानों ने नुबरा ब्रिगेड का गठन कर आक्रमणकारियों को स्कर्दू से आगे बढने नहीं दिया। जम्मू कश्मीर की विधानसभा के सदस्य, राज्य सरकार में मंत्री व भारतीय संसद में लोकसभा सांसद के रूप में अखिल भारतीय दृष्टिकोण के साथ आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आप 10 वर्ष मंगोलिया में भारत के राजदूत रहे। उस कालखंड में मंगोलिया में लगभग 80 वर्ष से चली आ रही कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था के अंत के पश्चात् परंपरा से चली आ रही बौद्ध परंपरा को पुनर्जीवित करने के वहाँ के समाज के सफल प्रयासों में आपके महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण आप वहाँ सर्वदा श्रद्धेय बन गये। उन्हें 2001 में मंगोलिया के नागरिक सम्मान Polar Star से सम्मानित किया गया। आध्यात्मिक अनुभवसंपदा, अविचल राष्ट्रनिष्ठा तथा निःस्वार्थ बुद्धि से सतत लोकहितरत रहने के कारण वे हम सब के श्रद्धेय तथा अनुकरणीय भी हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने शिकागो अभिभाषण में भारत की विश्वमानवता के प्रति जिस राष्ट्रीय दृष्टि की घोषणा की थी उसी का व्यक्तिगत व सार्वजनिक जीवन में प्रकटीकरण ही आचार्य बकुला जी के द्वारा किया गया।
समाज को राष्ट्रगौरव से परिपूर्ण पुरूषार्थ के लिये खड़ा करना है तो देश के चिंतकों को, बुद्धिधर्मियों को पहले अपने स्वयं के चित्त से उस विदेशी दृष्टि के विचारों को व संस्कारों को - जो गुलामी के कालखंडों में हमारे चित्त को व्याप्त कर उसे आत्महीन, भ्रमित व मलिन कर चुके हैं - हटाकर उनसे मुक्त होना ही होगा। जन्मगत युरोपीय संस्कारों से पूर्ण मुक्ति पाकर पूर्णतः भारतीय जनता के मानस, मूल्यों तथा संस्कारों के साथ एकात्म होने की भगिनी निवेदिता की साधना हम सब भारतवासियों को भी उस सनातन राष्ट्रीय दृष्टि व मूल्यों के साथ तन्मय होने की प्रेरणा देती रहती है।
राष्ट्र कृत्रिम पद्धतियों से बनाये नहीं जाते। सत्ता आधारित Nation State की कल्पना से हमारी संस्कृति व लोक आधारित राष्ट्र की वस्तुस्थिति एकदम अलग व विशिष्ट है। हम सब की भाषाएँ, प्रान्त, पंथसंप्रदाय, जाति उपजाति, रीतिरिवाज, रहन-सहन की विविधताओं को एकसूत्र में पिरोकर जोड़ने वाली हमारी संस्कृति व उसके जनक, विश्वमानवता को कौटुंबिक दृष्टि से देखकर विकसित हुए सनातन जीवनमूल्य, हमारी ‘‘हमभावना’’ है। वह राष्ट्र को जोड़ने वाली जीवनदृष्टि, उस राष्ट्र की अपनी भूमि में समाज के सदियों तक साथ-साथ बिताऐ जीवन के सब प्रकार के अनुभवों से, मिलकर किये हुए पुरुषार्थ से, उसमें से प्राप्त जीवन सत्य के साक्षात्कार तथा सामूहिक समझदारी से बनती है। वही भावना समाज के व्यक्ति, परिवार तथा समाज के जीवन के सभी अंगों को अनुप्राणित करती हुई उनके क्रियाकलापों से स्पष्ट रुप में आविष्कृत होती है। तब ही अपने राष्ट्र का वास्तविक विकास होता है; उसे जगन्मान्यता प्राप्त होती है; विश्व जीवन में अपनी भूमिका का योग्य व समर्थ निर्वहन कर वह राष्ट्र अपना अपेक्षित सार्थक योगदान करता है।
पश्चिम सीमा पर पाकिस्तान की तथा उत्तर सीमा पर चीन की कारवाईयों के प्रति, ‘‘डोकलाम’’ जैसी घटनाओं में उजागर भारत का सीमाओं पर तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनय में सशक्त व दृढ प्रतिभाव हमारे मन में स्वसामर्थ्य की आश्वासक अनुभूति जगाने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी भारत की प्रतिमा को नयी सम्मानजनक उँचाई प्रदान करता है।
काश्मीर पर दृढ़ता का स्वागत, परंतु लद्दाख, जम्मू सहित संपूर्ण जम्मूकश्मीर राज्य में भेदभावरहित, पारदर्शी, स्वच्छ प्रशासन की अभी भी आवश्यकता है - डॉ. मोहन राव भागवत
कश्मीर घाटी की परिस्थिति को लेकर जिस दृढ़ता के साथ सीमा के उस पार से होने वाली आतंकियों की घुसपैठ व बिना कारण गोलीबारी का सामना किया जा रहा है, उसका स्वागत हो रहा है। सेना सहित सभी सुरक्षाबलों को अपने कर्तव्य को करने की छूट दी गई। अलगाववादी तत्वों की उकसाऊ कारवाई व प्रचार-प्रसार को, उनके अवैध आर्थिक स्रोतों को बंद करके तथा राष्ट्रविरोधी आतंकी शक्तियों से उनके संबंधों को उजागर कर तथा रोककर नियंत्रित किया जा रहा है। उसके सुपरिणाम भी वहाँ की परिस्थिति में प्राप्त हो रहे दिखते हैं।
परंतु लद्दाख, जम्मू सहित संपूर्ण जम्मूकश्मीर राज्य में भेदभावरहित, पारदर्शी, स्वच्छ प्रशासन के द्वारा राज्य की जनता तक विकास के लाभ पहुँचाने का कार्य त्वरित व अधिक गति से हो; इसकी अभी भी आवश्यकता है। राज्य में विस्थापितों की समस्या का निदान अभी भी नहीं हुआ है। भारतभक्त व हिन्दू बने रहने के लिये ही कई दशकों से थोपी गई विस्थापित अवस्था को उनकी पीढ़ियाँ झेल रही हैं। भारत के नागरिक होते हुए भी राज्य की भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते मूल अधिकारों से वंचित रह जाने के कारण शिक्षा, आजीविका तथा प्रजातांत्रिक सुविधाओं से अभी भी दूर हैं, बहुत पिछड़ गये हैं। राज्य के ही स्थाई निवासी पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर से 1947 में आये व कश्मीर घाटी से 1990 से विस्थापित बंधुओं की समस्याएँ भी पहले की तरह ही बनी हुई हैं। भारतभक्ति व स्वधर्मभक्ति पर अडिग रहते हुए हमारे यह सब बंधु बराबरी से अपने प्रजातांत्रिक कर्तव्यों का वहन तथा प्रजातांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए सुख, सम्मान व सुरक्षा के साथ सब देशवासियों के साथ रह सकें ऐसी परिस्थिति लानी होगी। यह न्याय कार्य संपन्न हो सके इसलिये आवश्यकतानुसार संवैधानिक प्रावधान करने होंगे, पुराने बदलने होंगे। तब ही जम्मू कश्मीर की प्रजा का शेष भारतीय प्रजा के मानस से सात्मीकरण तथा संपूर्ण राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया में सहयोग व समभाग संभव होगा।
राज्य व केन्द्र शासन प्रशासनों के साथ समाज की भूमिका का भी अहम् महत्व – सरसंघचालक, रा.स्व.संघ
राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों में रहने वाले नागरिक सदैव सीमापार से चलने वाली गोलीबारी, आतंकी घुसपैठ आदि की छाया में वीरतापूर्वक डटे हैं, एक प्रकार से वे भी राष्ट्रविरोधी शक्तियों के साथ प्रत्यक्ष युद्धरत हैं। उनको सदैव इन स्थितियों में सतत असुरक्षा तथा जीवन व आजीविका की अस्तव्यस्तता को झेलते रहना पड़ता है। शासन व प्रशासन के द्वारा उनको पर्याप्त राहत आदि की व्यवस्था करवाने के साथ-साथ समाज के विभिन्न संगठनों को भी वहाँ संपर्क बनाकर, अपनी शक्ति में संभव हो उतनी तथा आवश्यकतानुसार सुयोग्य सेवाओं की व्यवस्था करनी चाहिये। इस दिशा में संघ के स्वयंसेवक पहले से ही वहाँ कार्य में लगे हैं। समाज का सोचना, करना बढ़ने से, प्रशासन व समाज के संयुक्त प्रयासों से व्यवस्था अधिक अच्छी हो सकती है। कश्मीर घाटी तथा लद्दाख के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा संस्कार करने वाले कार्यों की और अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। समाज के सकारात्मक संपर्क, जागरण व प्रबोधन का कार्य, जनमानस को सुविहित आकार देने के लिये समाज के ही प्रयत्नों द्वारा संपन्न कराना इस परिस्थिति की अनिवार्य आवश्यकता है। वर्षों से योजनाबद्ध असत्य कुप्रचार के द्वारा मनों में घोले गये अलगाव व असंतोष के विष को दूर करने के लिये स्वाभाविक अकृत्रिम आत्मीयता का परिचय भी समाज के द्वारा किये गये ऐसे सकारात्मक कार्यों से दिलवाना होगा। राष्ट्रविरोधी शक्तियों के षड़यंत्रों को दृढतापूर्वक, सामर्थ्य के साथ निपटने की सुविचारित नीति के पीछे जब सम्पूर्ण समाज भी अपना बल समेटकर खडा होगा तब समस्या के सम्पूर्ण निराकरण का मार्ग प्रशस्त होगा।
रोहिंगिया देश की सुरक्षा व एकात्मता पर संकट ही बनेंगे यह ध्यान में रखकर उनका विचार व निर्णय करना चाहिये - डॉ. मोहन राव भागवत
भाषा, प्रान्त, पंथसंप्रदाय, समूहों की स्थानीय तथा समूहगत महत्वाकांक्षाओं को उभाडकर समाज में आपस में असंतोष, अलगाव, हिंसा, शत्रुता या द्वेष तथा संविधान कानून के प्रति अनादर का वातावरण बढाते हुए अराजकसदृश्य स्थिति उत्पन्न करने का खेल राष्ट्रविरोधी शक्तियाँ अन्य सीमावर्ती राज्यों में भी खेलती हुई दिखाई देती हैं। बंगाल व केरल की परिस्थितियाँ किसी से छिपी नहीं हैं। वहाँ के राज्यशासन व उनके द्वारा योजनापूर्वक राजनीतिक रंग चढाया हुआ प्रशासन इस गंभीर राष्ट्रीय संकट के प्रति केवल उदासीन ही नहीं, तो केवल अपने संकुचित राजनीतिक स्वार्थ के चलते उन राष्ट्रविरोधी शक्तियों की ही सहायता करते हुए दिखते हैं। राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की यह सारी सूचनाएँ केन्द्र शासन व प्रशासन के पास पहुँचती हैं। इन सबको निष्फल करने का उनका भी प्रयास निश्चित रुप से चल रहा होगा। परंतु सीमापार से होने वाली गौ-तस्करी सहित सभी प्रकार की तस्करी चिन्ता का विषय बनी ही है। देश में पहले से ही अनधिकृत बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या है उस पर अब म्यांमार से खदेडे गये रोहिंगिया भी घुसे हैं तथा बहुत अधिक संख्या में घुसने को तैयार हैं। म्यांमार से लगातार चलती आयी उनकी अलगाववादी हिंसक व अपराधी गतिविधि तथा आतंकियों से सांठगाठ ही वहाँ से उनके खदेडे जाने का मुख्य कारण है। यहाँ पर वे केवल देश की सुरक्षा व एकात्मता पर संकट ही बनेंगे यह ध्यान में रखकर ही उनका विचार व निर्णय करना चाहिये। शासन की सोच भी वही दिख रही है। परंतु परिस्थिति की इस जटिलता में पूर्ण सफलता समाज के सहयोग के बिना मिलना संभव नहीं। इसलिये इन प्रदेशों में विद्यमान सज्जनशक्ति को निर्भयतापूर्वक आगे आना पड़ेगा। संगठित होकर अधिक मुखर व सक्रिय होते हुए समाज को भी निर्भय, सजग व प्रबुद्ध बनाना पड़ेगा।
देश के सीमाओं की व देश की अंतर्गत सुरक्षा का व्यवस्थागत दायित्व सेना, अर्धसैनिक व पुलिस बलों का होता है। स्वतंत्रता के बाद अब तक उसको निभाने में पूरी जिम्मेवारी के साथ परिश्रम व त्यागपूर्वक वे लगे हैं। परंतु उनको पर्याप्त साधनसंपन्न करना, आपस में व देश के सूचना तंत्र के साथ तालमेल बिठाना, उनकी तथा उनके परिवारों के कल्याण की चिंता करना, युद्धसाधनों में देश की आत्मनिर्भरता, इन बलों में पर्याप्त मात्रा में नई भरती व प्रशिक्षण इसमें शासन के पहल की गति अधिक बढ़ानी पड़ेगी, इन बलों से शासन को सीधा संवाद बढ़ाना पड़ेगा। समाज से भी उनके प्रति अधिक आत्मीयता व सम्मान की व उनके परिवारों के देखभाल की अपेक्षा है। अपने राष्ट्रीय हित, आकाँक्षायें, आवश्यकतायें तथा परिवेश के संदर्भ में सुयोग्य नीतियों के साथ ही समाज भी राष्ट्र गौरव की स्पष्ट कल्पना से अनुप्राणित होकर, संगठित व गुणसंपन्न होकर चले इसकी आवश्यकता सर्वत्र दिखाई देती है। प्रशासन उन नीतियों के मर्म को समझकर उनके क्रियान्वयन को परिणाम तक पहुँचाने की मानसिकता में आये इसकी भी आवश्यकता है।
आर्थिक परिदृश्य - जनधन, मुद्रा, गैस सबसिडी, कृषि बीमा जैसी अनेक लोककल्याणकारी योजनाएँ
आर्थिक परिदृश्य भी हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाता है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, आर्थिक स्थिति में द्रुतगति से प्रगति तथा समाज के अंतिम व्यक्ति को लाभ पहुँचाने के लिये शासन के द्वारा जनधन, मुद्रा, गैस सबसिडी, कृषि बीमा जैसी अनेक लोककल्याणकारी योजनाएँ व कुछ साहसी निर्णय किये गये। परंतु अभी भी एकात्म व समग्र दृष्टि से देश की सभी विविधताओं व आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उद्योग, व्यापार, कृषि, पर्यावरण को एकसाथ चलाने वाली, देश के बड़े उद्योगों से लेकर छोटे मध्यम व लघु उद्योगों को तक, खुदरा व्यापारियों, कृषकों व खेतीहर मजदूरों तक सबके हितों का ध्यान रखने वाली समन्वित नीति की आवश्यकता प्रतीत होती है। दुनिया के प्रचलन में वहाँ के दोषपूर्ण, कृत्रिम व समृद्धि का आभास उत्पन्न करने वाले तथा नैतिकता, पर्यावरण, रोजगार तथा स्वावलंबन का हृास करने वाली नीति व मानकों पर चलने की अनिवार्यता एक मर्यादा तक समझी जा सकती है। परंतु अर्थशास्त्र व नीति के पुनर्विचार की तथा प्रत्येक देश के अपने विशिष्ट अर्थव्यवस्था प्रतिमान की आवश्यकता तो अब सारा विश्व मानने लगा है। विश्व के अद्यतन अनुभव व अपने देश के धरातल की वास्तविकता दोनों का ध्यान रखते हुए, अपने देश का आदर्श, परंपरा, आकांक्षा, आवश्यकता व संसाधनों का एकत्र विचार करते हुए, घिसीपिटी आर्थिक मतवादों की लीक से बाहर आकर हमारे नीति आयोग व राज्यों के नीति सलाहकारों को सोचना पड़ेगा। समाज को भी दिन प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुएँ तथा अन्य खरीददारी में स्वदेशी उत्पादन की खरीदी का आग्रह कठोरतापूर्वक रखना पड़ेगा।
स्वरोजगार के लिए लघु, मध्यम, कुटीर उद्योगों का, सहकार क्षेत्र का तथा कृषि और कृषि पर निर्भर कार्यों का बड़ा योगदान – सरसंघचालक
त्रुटिपूर्ण होकर भी सकल घरेलु उत्पाद का मानक अर्थव्यवस्था की सुदृढता व बढ़त की गति का मापक इस नाते प्रचलित है। खाली हाथों को काम मिलना, उसमें से आजीविका की न्यूनतम पर्याप्त व्यवस्था होना यानी रोजगार, वह भी अपने देश की मुख्य आवश्यकता मानी जाती है। इन दोनों में सबसे बड़ा योगदान हमारे लघु, मध्यम, कुटीर उद्योगों का, खुदरा व्यापार तथा स्वरोजगार के छोटे-छोटे नित्य चलने वाले अथवा तात्कालिक रूप से करने के काम करने वालों का, सहकार क्षेत्र का तथा कृषि और कृषि पर निर्भर कार्यों का है। जागतिक व्यापार के क्षेत्र में होने वाले उतार-चढाव तथा आर्थिक भूचालों से समय-समय पर वे हमारी सुरक्षा का भी कारण बने हैं। अभी भी सुदृढ़ बनी हुई हमारी परिवार व्यवस्था में घर की महिलाएँ भी घर बैठे छोटा-मोटा काम कर परिवार की आजीविका में योगदान करती रहती हैं। कभी-कभी इसको अनौपचारिक अर्थव्यवस्था भी कहा जाता है। आर्थिक भ्रष्टाचार का प्रमाण भी यहाँ न्यूनतम है। करोडों जनता को इनसे नौकरी अथवा स्वरोजगार प्राप्त होता है। समाज के अंतिम पंक्ति के व्यक्ति भी अधिकतर इसी में खडे़ मिलते हैं। अर्थव्यवस्था के सुधार और स्वच्छता के उपायों में यद्यपि सर्वत्र थोड़ी बहुत उथल-पुथल व अस्थिरता अपेक्षित है, इन क्षेत्रों में उसका परिणाम न्यूनतम हो व अंततोगत्वा इनका बल बढे़ यह ध्यान में रखना पड़ेगा। उनकी कौशल-गुणवत्ता बढ़े, उनके उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़े, उनके लिये बाजार की सुविधाएँ उत्पन्न हों ऐसे अनेक कार्य, शासन, स्वयंसेवी संगठन तथा कुछ बडे़ उद्योग भी नैगमिक सामाजिक दायित्व (कार्पोरेट सोशल रिस्पान्सिबिलिटी) की कल्पना प्रचलित होने के पहले से हमारी परंपराओं के संस्कार के कारण कर रहे हैं। उन सबके प्रयासों का समन्वय भी विचार की एक दिशा हो सकती है। परंतु कुल मिलाकर हमारे आर्थिक चिन्तन में अर्थव्यवस्था उत्पादन को विकेन्द्रित, उपभोग को संयमित, रोजगार को परिवर्धित तथा मनुष्य को संस्कार केन्द्रित बनाने वाली हो तथा ऊर्जा की बचत करने वाली व पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली हो ऐसा सोचकर बढ़े बिना; देश में अंत्योदय तथा अंतर्राष्ट्रीय जगत में संतुलित, धारणक्षम व गतिमान अर्थव्यवस्था का उदाहरण बनने का हमारा स्वप्न साकार हो नहीं सकेगा। आज की अपनी आर्थिक स्थिति में से मार्ग निकालकर आगे बढ़ते समय यह बात हम सबके ध्यान में रहनी चाहिये। अनुसूचित जाति, जनजाति, घुमंतु जाति जैसे सुविधाओं से वंचित वर्गों के लिये केन्द्र व राज्यों में अनेक प्रावधान है। उनका लाभ इन वर्गों के सभी लोगों को मिले, शासन प्रशासन इस विषय में सजग व संवेदनशील होकर ध्यान दें इसमें शासन प्रशासन की तत्परता व सावधानी व समाज के भी सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की आवश्यकता है।
जैविक कृषि, गौआधारित पशुपालन सहित कृषि का प्रचलन बढ़ाना होगा - डॉ. मोहन राव भागवत
अपने देश में उद्योग, व्यापार व कृषि इनकी कभी प्रतिस्पर्धा नहीं रही, इनको परस्पर पूरक माना गया। इसलिये कृषि का क्षेत्र हमारे देश में बहुत बड़ा है तथा हमारा किसान स्वभाव से न केवल अपने परिवार का, अपितु सबका भरणपोषण करने वाला है। वह आज दुखी है। वह बाढ़, अकाल की, आयात निर्यात नीति की, फसल बढाने पर भारी कर्जे की व कम भाव की व फसल बर्बाद होने पर सब तरह से नुकसान की मार झेलकर निराश होने लगा है। एक भाव घर करता जा रहा है कि नयी पीढ़ी पढ़ेगी तो शहरों में जाकर बेरोजगार बन जायेगी, देहात में रहकर खेती में काम करना पसंद नहीं करेगी और यदि खेती में काम करती है तो देहातों के सुविधाशून्य जीवन में ही पड़ी रहेगी। परिणामस्वरुप गाँव खाली हो रहे हैं व शहरों पर दबाव बढ़ता चला जा रहा है। दोनों में विकास की समस्या, शहरों में अपराध की समस्या बढ़ रही है। फसल बीमा जैसी अच्छी योजनाएँ प्रवर्तित हुई हैं। मृदा परीक्षण, बाजार से संगणकों द्वारा सीधी खरीदी ऐसे उपयुक्त कदम भी बढाए जा रहे हैं। परंतु धरातल पर इसका अमल ठीक से हो इसलिये केन्द्र व राज्य शासनों के द्वारा अधिक चौकसी होनी चाहिये। कर्जमाफी जैसे कदम भी शासन की संवेदना व सद्भावना के परिचायक हैं परंतु केवल तात्कालिक राहत यह इस समस्या का उपाय नहीं है। नई तकनीकि व अप्रदूषणकारी परंपरागत तरीकों से कहीं से कर्जा लिये बिना किसान कम लागत में खेती कर सके यह रीति सीखनी पडे़गी। नई तकनीकि को भी उसके जमीन, पर्यावरण व मनुष्य के स्वास्थ्य पर कोई घातक, दीर्घकालिक दुष्परिणाम नहीं है इसकी व्यापक परीक्षा करने के बाद ही स्वीकार करना होगा। अपने परिवार को चलाकर अगले वर्ष की खेती कर सके इतना लागतव्यय पर लाभ देने वाला फसल का न्यूनतम मूल्य किसानों को मिलना चाहिये। फसल की समर्थनमूल्य पर खरीददारी शासन के द्वारा सुनिश्चित करनी पडे़गी। जैविक कृषि, मिश्र कृषि, गौआधारित पशुपालन सहित कृषि का प्रचलन बढ़ाना होगा। अन्न, जल व जमीन को विषयुक्त बनाने वाली, किसान का खर्चा बढाने वाली रासायनिक खेती धीरे-धीरे बंद करनी पड़ेगी।
गौरक्षा व गौरक्षकों को हिंसक घटनाओं के साथ जोड़ना व सांप्रदायिक प्रश्न के नाते गौरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाना ठीक नहीं
कम खर्चे में कृषि, जैविक कृषि की बात आती है तो स्वाभाविक ही वह बात भी सामने आती है कि अपने देश में बड़े प्रमाण में कृषक अल्पभूधारक तथा सिंचन व्यवस्थारहित भूमि में कृषि करने वाला है। उसके लिये तो कम व्यय में विषमुक्त खेती करने का सहजसुलभ उपाय गौआधारित खेती ही है। इसलिये गौरक्षा तथा गोसंवर्धन की गतिविधि संघ के स्वयंसेवक, भारतवर्ष के सभी संप्रदायों के संत, अनेक अन्य संगठन संस्थाएँ तथा व्यक्ति चलाते हैं। गौ अपनी सांस्कृतिक परंपरा में श्रद्धा का एक मानबिंदु है। गौरक्षा का अंतर्भाव अपने संविधान के मार्गदर्शक तत्वों में भी है, अनेक राज्यों में उसके लिये कानून विभिन्न राजनीतिक दलों के शासनों के काल में बन चुके हैं। देशी गाय के दूध में ए-2 (A-2) प्रकार का दूध जिनकी मनुष्य के पोषण के दृष्टि से श्रेष्ठतम उपयुक्तता तथा गोमय व गोमूत्र में पाए जाने वाली मनुष्य व पशुओं की चिकित्सा तथा भूमि सुधार में भी योगदान करने वाले, व हानिकारक प्रभावों से रहित खाद व कीट नियंत्रकों के निर्माण में उपयुक्तता अब विज्ञान सिद्ध है और उसके कई अनुसंधान भी चल रहे हैं। गोधन की तस्करी एक चिंताजनक समस्या बनकर सभी राज्यों में व विशेषतः बंगलादेश की सीमा पर उभरकर आयी है। ऐसी स्थिति में ये गतिविधियाँ और अधिक उपयुक्त हो जाती हैं। ये सभी गतिविधियाँ उनके सभी कार्यकर्ता कानून, संविधान की मर्यादा में रहकर करते है। हिंसा व अत्याचार के बहुचर्चित प्रकरणों में जाँच के बाद इन गतिविधियों से व कार्यकर्ताओं से उसका कोई संबंध नहीं यह भी सामने आया है। इधर के दिनों में उलटे गोरक्षा का प्रयत्न अहिंसक रीति से करने वाले कई कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हुई है उसकी न कोई चर्चा है न कोई कार्यवाही। वस्तुस्थिति न जानते हुए अथवा उसकी उपेक्षा करते हुए गौरक्षा व गौरक्षकों को हिंसक घटनाओं के साथ जोड़ना व सांप्रदायिक प्रश्न के नाते गौरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाना ठीक नहीं। अनेक मुस्लिम मतानुयायी सज्जनों के द्वारा भी गौरक्षा, गौपालन व गौशालाओं का उत्तम संचालन किया जाता है। गौरक्षा के विरोध में होने वाला कुत्सित प्रचार बिना कारण ही विभिन्न संप्रदायों के लोगों के मन पर तथा आपस में तनाव उत्पन्न करता है यह मैने कुछ मुस्लिम मतानुयायी बंधुओं से ही सुना है। ऐसे में हाल में सद्हेतु से दिये गये शासन में उच्चपदस्थों के बयान तथा सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से, सात्विक भाव से संविधान कानून की मर्यादा का पालन कर चलने वाले गौरक्षकों को, गौपालकों को चिन्तित या विचलित होने की आवश्यकता नहीं। हिंसा में लिप्त आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिये वह चिन्ता का विषय होना चाहिये। हितसंबंधी शक्तियों द्वारा ऐसे वाक्यों के गलत अर्थ लगाकर सभी के दृष्टिकोणों को प्रभावित करने के चंगुल से शासन प्रशासन के लोग भी मुक्त रहे, कानून का अमल अपराधी को अवश्य दंड दें, सज्जनों को उसका उपद्रव न हों इसकी चिन्ता करें। गौरक्षा व गौसंवर्धन का वैध व पवित्र लोकोपकारी कार्य चलेगा, बढे़गा। यही इन परिस्थितियों का उत्तर भी होगा।
जलसिंचन की व्यवस्था कृषि की सफलता का और एक प्रमुख कारण होता है। देश को प्रतिवर्ष प्राप्त होने वाली जलराशी के वैज्ञानिक व्यवस्थापन का हमें समग्रता से विचार करना पड़ेगा। विषमुक्त खेती व जलव्यवस्थापन में शासन के द्वारा जलसंचयन, जलसंरक्षण, नदी प्रवाहों का निर्मलीकरण व अविरलीकरण, वृक्षारोपण जैसी उपयुक्त पहलें हो चुकी हैं। समाज में अनेक व्यक्ति जलव्यवस्थापन जैसे विषय पर ‘‘असरकारी’’ पद्धति से काम कर रहे हैं। वृक्षों व जंगलों के विषयों पर भी Rally for Rivers जैसे अनेक उपक्रम हो रहे हैं। जंगलों की सुरक्षा व रखरखाव का दायित्व जंगलों में ही स्थित ग्रामवासियों को अधिकृत कर देने के स्तुत्य उपक्रम भी कहीं-कहीं प्रारम्भ हुआ यह अच्छा लक्षण है। इन सब प्रयासों के समन्वय से देश का पर्यावरण व कृषि कोई नया समृद्ध रूप लेकर उभरेगी यह आशा है।
शिक्षा सत्य का ज्ञान कराने वाली, राष्ट्रीयता व राष्ट्रगौरव का बोध जागृत कराने के साथ-साथ शील, विनय, संवेदना, विवेक व दायित्वबोध जगाने वाली बने – सरसंघचालक
राष्ट्र के नवोत्थान में शासन, प्रशासन के द्वारा किये गये प्रयासों से अधिक भूमिका समाज के सामूहिक प्रयासों की होती है। इस दृष्टि से शिक्षा व्यवस्था महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज के मानस में आत्महीनता का भाव व्याप्त हो इसलिये शिक्षा व्यवस्था की रचनाओं में, पाठ्यक्रम में व संचालन में अनेक अनिष्टकारी परिवर्तन विदेशी शासकों के द्वारा पारतंत्र्यकाल में लाये गये। उन सब प्रभावों से शिक्षा को मुक्त होना पड़ेगा। नई शिक्षानीति की रचना हमारे देश के सुदूर वनों में, ग्रामों में बसने वाले बालक-तरुण भी शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे उतनी सस्ती व सुलभ होनी पड़ेगी। उसके पाठ्यक्रम मतवादों के प्रभाव से मुक्त रहकर सत्य का ही ज्ञान कराने वाले, राष्ट्रीयता व राष्ट्रगौरव का बोध जागृत कराने वाले तथा प्रत्येक छात्र में आत्मविश्वास, उत्कृष्टता की चाह, जिज्ञासा, अध्ययन व परिश्रम की प्रवृत्ति जगाने के साथ-साथ शील, विनय, संवेदना, विवेक व दायित्वबोध जगाने वाले होने पड़ेंगे। शिक्षकों को छात्रों का आत्मीय बनकर स्वयं के उदाहरण से यह बोध कराना पड़ेगा। शिक्षा परिसरों का वातावरण तदनुकूल बनाना पड़ेगा। उचित प्रकार के भवन, उपकरण, वाचनालयों से व प्रयोगशालाओं से सुसज्जित होने पड़ेंगे। शिक्षा का बाजारीकरण समाप्त हो इसलिये शासकीय विद्यालयों, महाविद्यालयों को भी व्यवस्थित कर स्तरवान बनाना पड़ेगा। इस दिशा में समाज में भी अनेक सफल प्रयोग चल रहे है उनके अनुभवों का भी संज्ञान लेना पड़ेगा। शिक्षकों के योगक्षेम की उचित व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह पुनरुक्ती इस आशा में, कि इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने वाली बहुप्रतीक्षित, आमूलाग्र परिवर्तनकारी शिक्षानीति शीघ्र ही देश के सामने रखी जायेगी, मैं कर रहा हूँ।
परंतु क्या शिक्षा केवल विद्यालयीन शिक्षा होती है? क्या अपने स्वयं के घरपरिवार, अपने माता-पिता, घर के ज्येष्ठ, अड़ोस-पड़ोस के वरिष्ठों के कथनी व करनी से उनको आचरण के प्रामाणिकता व भद्रता की, संस्कारों से युक्त मनुष्यता के व्यवहार, करुणा व सहसंवेदना की सीख नहीं मिलती? क्या समाज में चलने वाले उत्सव, पर्वों सहित सभी उपक्रमों, अभियानों, आंदोलनों से मन, वचन, कर्म के संस्कार उन्हें नहीं मिलते? क्या माध्यमों के द्वारा, विशेषकर अंतरताने पर चलने वाले सूचना प्रसारण के द्वारा उनके चिन्तन व व्यवहार पर परिणाम नहीं होता? ब्लू व्हेल खेल इसका ही उदाहरण है। इस खेल के कुचक्रों से अबोध बालकों को निकालने के लिये शीघ्र ही परिवार, समाज एवं शासन द्वारा प्रभावी कदम उठाने होंगे।
कुटुंब एवं समाज प्रबोधन के माध्यम से सद्संस्कार जागरण के कार्य को अधिक गति से बढ़ाना होगा - डॉ. मोहन राव भागवत
पिछले कुछ समय से पारिवारिक संबंधों में बिखराव एवं सामाजिक विद्रूपताओं के अनेक चिंताजनक उदाहरण सामने आये हैं, ये घटनायें परिवारों एवं समाजजीवन में संस्कारों के स्खलन के ही संकेत हैं। अतः हमें कुटुंब एवं समाज प्रबोधन के माध्यम से सद्संस्कार जागरण के कार्य को अधिक गति से बढ़ाना होगा। हम सभी को अंतर्मुख होकर आत्मशोधन के द्वारा अपने व्यक्तिगत आचरण, पारिवारिक वातावरण तथा सामाजिक क्रियाकलापों की निर्वहण पद्धति को सुधारना पड़ेगा, क्योंकि स्वतंत्र विजिगीषु राष्ट्र में राष्ट्रीय भावना को पोषण देने वाला नागरिक व्यवहार ही होता है। इस संबंध में भगिनी निवेदिता ने कहा है -
The Samaj is the strength of the family: the home is behind the civic life and the civic life sustains the nationality. This is the formula of human combination. The essentials of all four elements we have among us, in our ancient Dharma. But we have allowed much of their consciousness to sleep. We have again to realize the meaning of our own treasure.
(‘‘ समाज कुटुंब की शक्ति है। नागरिक सभ्य जीवन की पृष्ठभूमि में गृहजीवन है और नागरिक सभ्य जीवन राष्ट्रीयता का पोषण करता है। मनुष्यों को जोड़ने वाला यह सूत्र है। इन चारों तत्वों के आवश्यक अंश को हमें हमारे प्राचीन धर्म ने दिया है, परंतु हमने उनके प्रति अपनी अधिकांश चेतना को सुला दिया है। हमें पुनः अपने स्वयं के संचित निधि के अर्थ को समझना पड़ेगा।’’)
इसलिये सद्यस्थिति में शासन की भारतीय मूल्याधारित नीति तथा प्रशासन द्वारा उसका प्रामाणिक, पारदर्शी व अचूक क्रियान्वयन जितना आवश्यक है उतना ही समाज का राष्ट्रहितैक बुद्धि से संघबद्ध, गुणवत्तायुक्त व अनुशासित होकर चलना इसकी आवश्यकता है। सनातन भारत युगानुकूल रुप लेकर अवतरित हो रहा है। समाज की सज्जनशक्ति अनेक क्षेत्रों में किये जाने वाले अपने उद्यम से उसके स्वागत के लिये सिद्ध हो रही है। आवश्यकता है समाज की सिद्धता की।
परमवैभवसंपन्न विश्वगुरु भारत के पूर्ण स्वरूप का प्रकटन हम आने वाले कुछ ही दशकों में कर सकेंगे – सरसंघचालक
1925 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी कार्य में लगा है। अपने राष्ट्र के स्वरूप की स्पष्ट कल्पना जिनकी बुद्धि में है तथा वाणी उतनी ही स्पष्टता से निर्भयतापूर्वक उसको मुखरित करने का साहस रखती है, मन में अपनी इस पवित्र अखंड मातृभूमि की भक्ति तथा उसके प्रत्येक पुत्र के प्रति अपार आत्मीयता व संवेदना भरी है, अपने पराक्रमी व त्यागी पूर्वजों का गौरव जिनके अंतःकरण का आलंबन है व इस राष्ट्र को परमवैभवसंपन्न बनाने के लिये सर्वस्वत्याग ही जिनकी सामूहिकता की व कर्म की प्रेरणा है, ऐसे कार्यकर्ताओं का देशव्यापी समूह बनाने का यह कार्य अपने 93वे वर्ष में पदार्पण कर रहा है। कार्य निरंतर गति से बढ़ रहा है। राष्ट्रजीवन के सभी अंगों में संघ के स्वयंसेवक सक्रिय हैं व अपने संपर्क से संस्कारों का वातावरण बना रहे हैं। अभावग्रस्तों की सेवा में भी समाज के सभी को साथ लेकर एक लाख सत्तर हजार के लगभग सेवा के कार्य विभिन्न संगठनों व संस्थाओं के माध्यम से चला रहे हैं। समाज में इन सब कार्यों से बने वातावरण से ही समाजमन के भेद, स्वार्थ, आलस्य, आत्महीनता आदि त्रुटियाँ दूर होकर उसके संगठितता व गुणवत्ता से परिपूर्ण आचरण का चित्र खड़ा होगा। समाज को समरस व संगठित बनाने का यह एकमेवाद्वितीय उपाय है। उसमें आप सभी के सहभागिता की आवश्यकता है। स्व आधारित सही नीति, उत्तम क्रियान्वयन, सज्जनशक्ति का सहयोग व तदनुसार समाज का संगठित, उद्यम व एकरस आचरण इस चतुर्विध संयोग से परमवैभवसंपन्न विश्वगुरु भारत के पूर्ण स्वरूप का प्रकटन हम आने वाले कुछ ही दशकों में कर सकेंगे ऐसी अनुकूलता सर्वदूर विद्यमान है, अवसर को तत्परतापूर्वक पकड़ना हमारा कर्तव्य है।
कोटि-कोटि हाथों वाली माँ का अद्भुत आकार उठे
लख विश्वनयन विस्फार उठे
जगजननी का जयकार उठे।।
हिन्दुभूमि का कण-कण हो अब शक्ति का अवतार उठे
जलथल से अंबर से फिर हिन्दू की जय-जयकार उठे
जगजननी का जयकार उठे।।
।। भारत माता की जय ।।
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