गोरक्षा आन्दोलन 1966 जब संतों के खून से नहाई थी दिल्ली, इंन्दिरा गांधी सरकार ने की थी गोलीबारी

 7 नवम्बर को,भारतीय संस्कृति के सभी बंधुओं को,गौ भक्त बलिदान दिवस के रूप में प्रतिवर्ष मनाना चाहिये

 

     सन १९६६ ई० के अक्‍तूबर-नवम्बर में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा आन्दोलन चला। ७ नवम्बर १९६६ को संसद् पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने निहत्थे हिंदुओं पर गोलियाँ चलवा दी थी जिसमें अनेक गौ भक्तों का बलिदान हुआ था। गौ हत्या बंदी के मामले में कांग्रेस का पहले भी स्टेंड यही रहा है कि गौ हत्या की इजाजत रहनी चाहिये। कुल मिला कर कांग्रेस गौ हत्या बंदी के विरूद्ध रही है।

मैं गोवधबंदी के विरुद्ध हूँ - जवाहरलाल नेहरू
       सन १९५५ में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचन्द्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने गोबध पर रोक के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया था। उस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में घोषणा की कि "मैं गोवधबंदी के विरुद्ध हूँ। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोई कार्यवाही।"


        इसके बाद 1965-66 में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री और देश के तमाम सन्तों ने इसे आन्दोलन का रूप दे दिया। गोरक्षा का अभियान शुरू हुआ। देशभर के सन्त एकजुट होने लगे। लाखों लोग और सन्त सड़कों पर आने लगे। इसकी गंभीरता को समझते हुए सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 21 सितम्बर 1966 को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि "गोवधबंदी के लिए लंबे समय से चल रहे आन्दोलन के बारे में आप जानती ही हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा सामने आया था और जहां तक मेरा सवाल है, मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत जैसे एक हिन्दू बहुल देश में, जहां गलत हो या सही, गोवध के विरुद्ध ऐसा तीव्र जन-संवेग है, गोवध पर कानूनन प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जा सकता?"

इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण की यह सलाह नहीं मानी। परिणाम यह हुआ कि सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान ने ७ नवम्बर १९६६ को दिल्ली में विराट आन्दोलन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बड़ा प्रदर्शन था।

सन 1966  का गोरक्षा आन्दोलन 

     उस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। कहते हैं कि करपात्रीजी से आशीर्वाद लेने के बाद इंदिरा गांधी ने वादा किया था कि चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्लखाने बन्द हो जाएंगे, जो अंग्रेजों के समय से चल रहे हैं। इंदिरा गांधी चुनाव जीत गईं। ऐसे में स्वामी करपात्री महाराज को लगा था कि इंदिरा गांधी मेरी बात अवश्य मानेंगी। उन्होंने एक दिन इंदिरा गांधी को याद दिलाया कि आपने वादा किया था कि संसद में गोहत्या पर आप कानून लाएंगी। लेकिन कई दिनों तक इंदिरा गांधी उनकी इस बात को टालती रहीं। ऐसे में करपात्रीजी को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा।

     करपात्रीजी देश के मान्य सन्त थे। उनके शिष्यों अनुसार जब उनका धैर्य समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा कि गोरक्षा तो होनी ही चाहिए। इस पर तो कानून बनना ही चाहिए। लाखों साधु-संतों ने उनके साथ कहा कि यदि सरकार गोरक्षा का कानून पारित करने का कोई ठोस आश्वासन नहीं देती है, तो हम संसद को चारों ओर से घेर लेंगे।

 सन्तों ने 7 नवंबर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। इस धरने में मुख्य संतों के नाम इस प्रकार हैं- शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्रीजी महाराज और रामचन्द्र वीर। गांधीवादी बड़े नेताओं में विनोबा भावे थे। विनोबाजी का आशीर्वाद लेकर लाखों साधु-संतों ने करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में बहुत बड़ा जुलूस निकाला।

गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्रीजी महाराज ने चांदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरम्भ किया। करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय की सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पं. लक्ष्मीनारायणजी चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लाल किला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चौक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरम्भ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गई थी।

कहते हैं कि नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। लाखों लोगों की भीड़ जुटी थी जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। हजारों संत थे और हजारों गोरक्षक थे। सभी संसद की ओर कूच कर रहे थे।

कहते हैं कि दोपहर 1 बजे जुलूस संसद भवन पर पहुँच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब 3 बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानन्द भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानन्द ने कहा कि यह सरकार बहरी है। यह गोहत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा। 

 कहा जाता है कि जब इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली तो उन्होंने निहत्थे करपात्री महाराज और संतों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। माना जाता है कि एक नहीं, उस गोलीकांड में सैकड़ों साधु और गोरक्षक मारे गए, लेकिन मृतकों का सरकारी आंकड़ा ८ का था। दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। संचार माध्यमों को सेंसर कर दिया गया और हजारों संतों को तिहाड़ की जेल में ठूंस दिया गया। प्रदर्शनकारी साधु संतों को बसों में भर भर कर दिल्ली से बहुत दूर जंगलों में छोडा गया ।

गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा का इस्तीफा :-

 इस हत्याकाण्ड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने अपना त्यागपत्र दे दिया और इस कांड के लिए खुद एवं सरकार को जिम्मेदार बताया। इधर, संत रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, जो 166 दिनों के बाद समाप्त हुआ था।

 खमोश मीडिया :-

 देश के इतने बड़े घटनाक्रम को किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह खबर सिर्फ मासिक पत्रिका 'आर्यावर्त' और 'केसरी' में छपी थी। कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका 'कल्याण' ने अपने गौ विशेषांक में विस्तारपूर्वक इस घटना का वर्णन किया था।

ज्यादातर अखबारों में यह गोलीबारी की बहुत बडी घटना नहीं छपी । जिन अख़बारों कुछ छपा वह वही छपा जो केन्द्र सरकार ने कहा 8 नवंबर 1966 को लिखा था कि हिंसा के कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में क़र्फ्यू लगा दिया गया है। हज़ारों गोरक्षक मिलकर भारतीय संसद पर टूट पड़े और उन्होंने सरकारी वाहनों में आग लगा दी। इस घटना में सात लोगों की मौत हुई और क़रीब 100 लोग घायल हुए। दिल्ली में जुटे प्रदर्शनकारियों में जनसंघ, हिंदू महासभा, आर्य समाज और सनातन धर्म सभा के लोग शामिल थे।

ब्रितानी अख़बार ’द गार्डियन’ ने भी इस घटना पर रिपोर्ट लिखी थी जिसमें इन तथ्यों की पुष्टि होती है।
द हिंदू अख़बार के 2 दिसंबर 1966 के अंक के अनुसार, इस घटना के बाद इंदिरा गांधी ने संतों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि गोहत्या के खि़लाफ़ क़ानून बनाने के लिए शांति से भी बात की जा सकती है।
इंदिरा गांधी पर क़िताब लिखने वाले कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने भी अपनी क़िताब में ये दावा किया है कि इंदिरा गांधी ने 1966 की घटना के बाद गोहत्या पर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक कमेटी बनाई थी जिसमें कई बड़े हिंदू धार्मिक नेता शामिल थे। उसी कमेटी में आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर और भारत में श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज़ कुरियन को भी रखा गया था। मगर यह कमेटी सिर्फ कागजी लीपापोती मात्र रही ।


प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने गोरक्षा के लिए प्रदर्शनकारियों पर किए गए पुलिस जुल्म के विरोध में और गोवधबंदी की मांग के लिए 20 नवंबर 1966 को पुनः अनशन प्रारम्भ कर दिया। वे गिरफ्तार किए गए। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का अनशन 30 जनवरी 1967 तक चला। 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने अनशन तुड़वाया। अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा। उसी समय जैन सन्त मुनि सुशील कुमार ने भी लंबा अनशन किया था।

गौ हत्या बंदी की मांग कर रहे निहत्थे संतों पर इन्दिरा गांधी सरकार ने गोलीवारी की

घनश्याम तिवाड़ी ने अपने इस ब्लॉग में लिखा है, "जिस प्रकार कसाई गोमाता पर अत्याचार करता है, उसी प्रकार कांग्रेस सरकार ने उन गोभक्तों पर अत्याचार किये. सड़क पर गिरे साधुओं को उठाकर गोली मारी गई. फलतः हजारों लोग घायल हुए और सैकड़ों संत मारे गये।"

7 नवंबर 1966 के दिन दिल्ली में हुए हंगामे को इतिहासकार हरबंस मुखिया भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए 'सबसे पहले बड़े प्रदर्शन' के तौर पर याद करते हैं।

'संतों ने लगाई जान की बाज़ी'
    1966 की इस घटना से जुड़े जितने भी पोस्ट हमें मिले, उनका लब्बोलुआब यही था कि साल 1966 में भारत के हिंदू संतों ने गो-हत्या पर प्रतिबंध लगवाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाई थी लेकिन कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

     कुछ लोगों ने इस घटना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से भी की है और लिखा है कि भारतीय इतिहास में 1984 का ज़िक्र किया जाता है, लेकिन 1966 की बात कोई नहीं करता।


     साल 1966 की बताकर जो तीन-चार तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही हैं, वो 7 नवंबर 1966 को दिल्ली में हुए हंगामे की ही पाई गईं हैं। ग़ौर से देखें तो इन तस्वीरों में इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन के बीच पड़ने वाले लॉन और राजपथ के कुछ हिस्से दिखाई देते हैं।

करपात्रीजी का श्राप :-

  इस घटना के बाद स्वामी करपात्रीजी के शिष्य बताते हैं कि करपात्रीजी ने इंदिरा गांधी को श्राप दे दिया कि जिस तरह से इंदिरा गांधी ने संतों और गोरक्षकों पर अंधाधुंध गोलीबारी करवाकर मारा है, उनका भी हश्र यही होगा। कहते हैं कि संसद के सामने साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने रोते हुए ये श्राप दिया था।


'कल्याण' के उसी अंक में इंदिरा को संबोधित करके कहा था- 'यद्यपि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है फिर भी मुझे इसका दु:ख नहीं है, लेकिन तूने गौहत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। इसलिए मैं आज तुझे श्राप देता हूं कि 'गोपाष्टमी' के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा। आज मैं कहे देता हूं कि गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का भी नाश होगा।' जब करपात्रीजी ने यह श्राप दिया था तो वहां प्रमुख संत 'प्रभुदत्त ब्रह्मचारी' भी मौजूद थे। कहते हैं कि इस कांड के बाद विनोबा भावे और करपात्रीजी अवसाद में चले गए।

इसे करपात्रीजी के श्राप से नहीं भी जोड़ें तो भी यह तो सत्य है कि श्रीमती इंदिरा गांधी, उनके पुत्र संजय गांधी और राजीव गांधी की अकाल मौत ही हुई थी। श्रीमती गांधी जहां अपने ही अंगरक्षकों की गोली से मारी गईं, वहीं संजय की एक विमान दुर्घटना में मौत हुई थी, जबकि राजीव गांधी लिट्‍टे द्वारा किए गए धमाके में मारे गए थे।







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