Dev-Uthani-Ekadashi देव उठनी एकादशी Devutthana-Ekadashi
देव उठनी ग्यारस का सबसे बडा असर समाज में यह होता है कि लाखों वैवाहिक कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाते है। जिनकी शहनाई गुजनें लगती है। उत्सव का माहौल बन जाता है। व्यापार में पढी सुस्ती समाप्त हो जाती है। आनन्द मय वातावरण समाज में प्रारम्भ हो जाता है।
भगवान विष्णु जी के चार मास शयन के पश्चात होनें वाले जागरण को देव उठनी ग्यारस कहा जाता है। वे सभी कार्य जो देव शयन में बंद होते है, वे सभी पुनः प्रारम्भ हो जाते है। विशेष कर विवाह समारोहों का आयोजन एवं मांगलिक कार्यों का प्रारम्भ हो जाता है। इस अवसर पर तुलसी विवाह की भी परम्परा है।
Dev Uthani Ekadashi
देव उठनी ग्यारस -
देवउठनी या देव प्रबोधिनि ग्यारस के दिन से शुभ एवं मांगलिक आयोजनों के कार्य पुनः प्रारम्भ हो जाते है। कार्तिक शुक्ल एकादशी का यह दिन तुलसी विवाह के रूप में भी मनाया जाता है और इस दिन पूजन के साथ ही यह कामना की जाती है कि घर में आने वाले मंगल कार्य निर्विघ्न संपन्न हों। तुलसी का पौधा चूंकि पर्यावरण तथा प्रकृति का भी द्योतक है। ईश्वर की वंदना भी है।
हिंदू धर्म में कार्तिक मास का विशेष महत्व बताया जाता है। इस महीने धन व ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी और जगत के पालनहार भगवान विष्णु की विशेष उपासना की जाती है। इस महीने हिंदू धर्म के कई महत्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं, जिनमें से एक है कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की देव उठनी एकादशी , जिसे देवोत्थान एकादशी और प्रबोधिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस पावन तिथि को करीब चार महीने के बाद भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते हैं। जिसके साथ चातुर्मास समाप्त हो जाता है और मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है।
चातुर्मास
आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को ’पद्मनाभा’ भी कहते हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।
पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को ’देवशयनी’ तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है। संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है।
हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।
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