स्वतंत्रता संग्राम के महानायक मामा टंट्या भील को सलामी देती हैं ट्रेनें,पाताल पानी रेल्वे स्टेशन पर
स्वतंत्रता संग्राम के महानायक मामा टांटया भील को सलामी देती हैं ट्रेनें,पाताल पानी रेल्वे स्टेशन पर
ये भी कहा जाता है कि ट्रेन यहाँ से आगे आदिवासियों के ’रॉबिनहुड’ कहे जाने वाले शहीद मामा टंट्या भील के मंदिर को सलामी देकर ही आगे गुजरती हैं। महू मीटरगेज लाइन पर स्थित आजादी के जननायक टंट्या मामा भील के मंदिर के पास से गुजरने वाली ट्रेनें उन्हें होर्न बजा कर , एक मिनट रूक कर सलामी के कर ही आगे बढती है।
माना जाता है कि यदि यहां पर ट्रेन रुक कर सलामी न दे आगे बढ जाती है तो वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है या खाई में गिर जाती है। ऐसी भी कहानियां हैं कि सलामी देना भूलने पर कई बार तो ट्रेन उस स्थान से आगे ही नहीं बढ़ सकी। इसलिए यहां भारतीय रेल ने खुद एक अघोषित नियम बना लिया है कि यहां रेल ड्राइवर कुछ देर ट्रेन को रोके और सलामी के रूप में हार्न बजाकर ही गाडी आगे बढ़ाए।
दफनाने के बाद होने लगे थे हादसे
माना जाता है कि शहीद मामा टांटया भील अंग्रेजों के द्वारा फांसी पर चढ़ाने और रेलवे ट्रैक के पास उनका शव दफनाने के बाद यहां लगातार रेल हादसे होनें लगे थे। लगातार होने वाले इन हादसों को देखते हुए क्षेत्रवासियों ने यहां टंट्या मामा का मंदिर बनवाया। तभी से लेकर अब तक मंदिर के सामने हर ट्रेन रुकी है और प्रतीकात्मक सलामी देने के बाद ही घाट की ओर बढ़ती है।
रेल्वे सीधे तो यह नहीं कह सकता कि वह आस्था की सलामी को ट्रेन रोक कर श्रृद्धा प्रगट करता है। इसलिये वे एक अलग तर्क देकर , सीधे जबाव से बचते है। कि पातालपानी से कालाकुंड स्टेशन तक का ट्रैक घाट सेक्शन है। कालाकुंड का ट्रैक पहाडिय़ों के बीच होने से यहां खतरनाक चढ़ाई है। यही कारण है कि महू से खंडवा की ओर जाने वाली ट्रेन यहां रुकती है। यहां गाड़ी के ब्रेक चेक किए जाते हैं, तथा यहां शहीद मामा का मंदिर बना है। इसलिए आस्था के साथ सिर झुकाकर ही आगे बढ़ते हैं।
बात किसी भी जरह से की जाये किन्तु पाताल पानी रेल्वे स्टेशन पर ट्रेनें रूकती हैं सलामी देती है। तभी आगे बढती है, यही सत्य है। अब इस स्टेशन का नामकरण भी शहीद टांटया मामा भील के नाम पर ही किया जा रहा है। यह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को अच्छी एवं सच्ची श्रृद्धांजली एवं सम्मान है।
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4 दिसम्बर टंट्या भील (टंट्या मामा) शहीद दिवस
- ओम प्रकाश त्यागी
टंट्या भील (टंट्या मामा)- (26.01.1842 To 04.12.1889): बिरसा ब्रिगेड के अनुसार टंट्या भील (मामा ) की जन्म तारिख 26 जनवरी 1842 है । इसी तारिख को मामा का जन्म मध्यप्रदेश में हुआ था । टंट्या मामा को इसलिए स्वाधीनता दिवस ( गणतंत्र दिवस ) भी कहते है । टंट्या भील अंग्रेजी दमन को ध्वस्त करने वाली जिद तथा संघर्ष की मिसाल है। टंट्या भील के शौर्य की छबियां वर्ष 1857 के बाद उभरीं जिस ने ब्रिटिश लोगों की हुकूमत द्वारा ग्रामीण आदिवासी जनता के साथ शोषण और उनके मौलिक अधिकारों के साथ हो रहे अन्याय-अत्याचार की खिलाफत की । दिलचस्प पहलू यह है कि स्वयं प्रताड़ित अंग्रेजों की सत्ता ने जननायक टंट्या को “इण्डियन रॉबिनहुड’’ का खिताब दिया ।
टंट्या मामा ने जल जमीन और जंगल, अन्याय, अत्यचार, अधिकार, और शोषण के विरुद्ध 36 वर्ष तक आंदोलन किया, यह विश्व का सबसे लम्बा और अधिक वर्षों का आंदोलन रहा । टंट्या भील के 36 वर्ष के आंदोलन के कार्यकाल या आंदोलित तिथि तक भारत के सतपुड़ा पर्वत से लेकर सह्यद्री पर्वत में किसी भी आदिवासी समाज का कोई भी गरीब व्यक्ति, बच्चा, या परिवार भूख से नही मरा, आदिवासी समाज की कोई भी बहन बिन बिहाई नही मरी । इसलिए आदिवासी समाज ने टंट्या भील को टंट्या मामा की उपाधी से सम्मानित किया ।
टंट्या मामा ने जल जमीन और जंगल, अन्याय, अत्ययाचार, अधिकार, और शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया । उन्होंने 46 लोगों की आर्मी बनाई जिसमे आदिवासी समाज से मध्यप्रदेश की 46 जनजातियाँ को रखा और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजा दिया था । टंट्या मामा के आंदोलन से ब्रिटिश सरकार परेशान हो गई और टंट्या मामा को भारत देश की सरकार की ब्रिटिश पुलिस नही पकड़ पाई तो ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश से टंट्या मामा को पकड़ने के लिए पुलिस की एक स्पेशल टीम बुलवाई गई और ब्रिटिश सरकार टंट्या मामा को 11 वर्ष तक पकड़ नही पायी थी । इसलिए टंट्या मामा को ब्रिटिश सरकार ने रॉबिनहुड से सम्मानित किया ।
टंट्या भील (टंट्या मामा) की स्वंय की आर्मी थी, स्वयं की अदालत थी । टंट्या भील की आदालत पर क्षमा शब्द नही था । पुलिस द्वारा चारो तरफ से उसकी घेराबंदी की गई । भूखे-प्यासे रहकर उसे जंगलो में भागना पड़ा | कई दिनों तक उसे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला और जंगली फलो से गुजर करना पड़ा ।
11 अगस्त, 1889 को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, जहा पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या को दबोच लिया । टंट्या को हथकड़ियो और बेड़ियों में जकड दिया गया । कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया । जहा-जहा टंट्या को ले जाया गया, उसे देखने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ा । सत्र न्यायालय, जबलपुर ने 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की उसे सजा सुनाई । मध्यप्रदेश के जबलपुर जेल में टंटया मामा को 4 दिसम्बर 1889 को को फाँसी दे दी गई तथा महान क्रांतिकारी टंट्या मामा शहीद हो गए ।
गरीबो को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या का शव उसके परिजनों को सौपने से भी अंग्रेज डर गये और उनके शव को पातालपानी के जंगलों में फेंक दिया । जहा पर इस ‘वीर पुरुष’ की समाधि बनी हुई है वहा से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है । सैकड़ों वर्षों बाद भी ‘टंट्या भील’ का नाम श्रद्धा से लिया जाता है । अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले टंट्या का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरो से अंकित है ।
द न्यूयार्क टाइम्स के 10 नवंबर 1889 के अंक में टंट्या भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी । इसमें टंट्या भील को इंडिया का रॉबिनहुड बताया गया था । टंट्या भील अंग्रेजों का सरकारी खजाना और अंग्रेजों के चाटूकारों का धन लूटकर जरूरत मंदों और गरीबों में बांट देते थे ।
वह अचानक ऎसे समय लोगों की सहायता के लिए पहुंच जाते थे, जब किसी को आर्थिक सहायता की जरूरत होती थी । वह गरीब-अमीर का भेद हटाना चाहते थे, वह छोटे-बड़े सबके मामा थे। उनके लिए मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करता है ।
1857 की क्रांति के बाद टंट्या भील अंग्रेजो को चुनौती देने वाला ऐसा जननायक था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा । पीडितो-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह आराध्य बना, जिसकी बहादुरी के किस्से हजारों लोगो की जुबान पर थे । बारह वर्षों तक भीलो के एकछत्र सेनानायक टंट्या के कारनामे उस वक्त के अखबारों की सुर्खिया होते थे । अपने साहसिक जीवन एवं चरित्र के कारण टंट्या भील को निमाड़, मालवा, धार, झाबुआ, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में लोकचेतना में पूज्य स्थान मिला है। उन्हें लोक देवता माना जाता है और गाँवों में उनके चरित्र को संगीत में पिरोकर गाया जाता है ।
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