अमरीकी भ्रम जाल में नहीं फंसना चाहिए...!!
- अरविन्द सीसोदिया
अमरीका ; चीन के साथ पाकिस्तान के गहरे से भी गहरे संम्बध होने पर भी , लगातार उसकी मदद में कोई कमी नहीं रखता है , बल्की कुछ ज्यादा ही दे रहा है, इसका एक ही अर्थ है कि अमरीकी नीति के अनुसार आज भी पाकिस्तान आंग्ल- अमरीकी सैन्य गुट का सदस्य है और वह इस गुट के प्रति संवेदनशील है ! जबकि सच यह है कि जिस तरह से चीन की बातों में जवाहरलाल नेहरु ने फँस कर देश का सत्यानाश कर दिया, वही पाकिस्तान का होने वाला है ...! चीन की दोस्ती और दुश्मनी ; दोनों ही फायदे के , लाभ के दृष्टिकोण पर आधारित होती है.., जो भी है .., भारत को नुक्सान ही नुक्सान है ..!!
आज का मुख्य सवाल यह है कि ; भारत को अमरीका से पूछना चाहिए कि ' उसका भारत के प्रति दृष्टिकोण की सच्चाई क्या है ?' और यह पूछना चाहिए कि ' क्या वह आंग्ल- अमरीकी सैन्य गुट और गुटनिरपेक्षता के प्रति १९६२ - ६३ के दृष्टिकोण पर कायम है ? ' क्यों कि इस प्रश्न के उत्तर में ही भारत के प्रति अमरीका की सच्चाई व उसका दृष्टिकोण का सच निर्भर करता है...!!!
१९६२-६३ कि अमरीकी कहानीं ...
यह सभी को विदित ही है कि १९६२ में भारत पर चीन का हमला हुआ था , भारत बुरी तरह से हारा था...! पहलीवार देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश की सुरक्षा के विषय में सोचा था...! उन्होंने अत्यंत गुप्त रूप से तब अमरीका को दो पत्र लिखकर सैन्य मदद का अनुरोध किया था ...| उन्होंने १२ स्क्वाड्रन सुपरसोनिक फाईटरों और बी-४७ बमवर्षकों की २ स्क्वाड्रन की मांग देश की सुरक्षा जरूरतों के कारण मांगे थे |
पूर्व रक्षामंत्री जसवंतसिंह और पूर्व उपप्रधान मंत्री लालकृष्ण अडवाणी जी क़ी पुस्तकों में तब के अमरीका शासन के द्वारा दिए उत्तर के कुछ अंश छपे हैं...!! अपने काम के दो अंश इस प्रकार से हैं....
१- "...अमरीका भारत को अधितम सैन्य मदद इसलिए नहीं दे पायेगा ; क्योंकि भारत की अधिकांश सेना पाकिस्तान के खिलाफ एक ऐसे मसले पर तैनात है , जिसमें जानता के आत्मनिर्णय से सीधे जुड़े अमरीकी हित के कारण सन १९५४ से ही हमें पाकिस्तान के दावों के प्रती सहानुभूति पूर्ण रुख अपनाना पड़ा है |"
अर्थात यह अंश स्पष्ट कह रहा है समस्या कश्मीर में नहीं अमरीका में है.. उसके पेट में दर्द होने से यह मामला लगातार उलझा रहा और आज तक नासूर बना हुआ है !
२- "... प्रधानमंत्री की ओर से प्राप्त नवीनतम सन्देश का अर्थ भारत और अमरीका के बीच सैनिक गठबंधन ही नहीं , बल्कि लडाई में ( भारत की ओर से ) शामिल होने के लिए हमारी ओर से पूर्ण प्रतिबद्धता भी है | हम समझते हैं हताशा की स्थिति में किसी भी सरकार की यही प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन यह ऐसा प्रस्ताव है , जो भारत के गुटनिरपेक्ष नीति से मेल नहीं | अगर नेहरु के मन में यही बात है तो हमें अपने निर्णय पर विचार करने से पहले उन्हें इस ( गुट निरपेक्षता के ) बारे में पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए |"
अर्थात उसे हमारी गुट निरपेक्ष नीति पशन्द नहीं है .., जब तक हम इस नीति पर हैं तब तक वह हमारी सैन्य मदद नहीं कर सकता...!
( यह वृत्तांत तब के अमरीका के राष्ट्रपति को जान ऍफ़ कैनेडी को नेहरु जी द्वारा लिखे पत्रों के जबाव में; उनके विदेश मंत्री डीन रस्क की और से , भारत में अमरीका के नियुक्त राजदूत जान के गैलब्रेथ के पास भेजे तार के अंश के रूप में सामने आये थे...!)
इसके अतिरिक्त जब भारत - पाकिस्तान युद्ध १९७१ में चल रहा था तब पाकिस्तान की मदद के लिए अमरीकी बेडा भारत
से युद्ध करने आने वाला था ...!
अमरीका यह अच्छी तरह से जानता है कि पाकिस्तान उसकी मदद का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों में कर रहा है तब भी मदद जारी रहने का मतलव यही है की अमरीका की भी नियत भारत के विरुद्ध अभी भी ठीक नहीं है !अमरीका यह अच्छी तरह से जानता है क़ी भविष्य का तीसरा विश्व युद्ध चीन - अमरीका में संभव है तव भी उसका पाकिस्तान प्रेम कई तरह की आशंकाएं उत्पन्न किये हुए है...!
अमरीका से दो टूक बात हो...
इस समय भारत क़ी मनमोहन सिंह सरकार अमरीका के प्रति गजब क़ी श्रद्धावान है.., इस समय इस देश में उनके कहने से ही सूरज उग रहा है , मगर उसी समय में जब कश्मीर में पत्थर अभियान होता है तब पाकिस्तान को भारी आर्थिक मदद अमरीका के द्वारा दी जाती है..., कुल मिला कर भारत को दो टूक बात अमरीका से करनीं चाहिए..., कि उसका भारत के प्रति क्या नीति है....? १९६२-६३ की नीति में बदलाव नहीं है तो भारत को अमरीकी भ्रम जाल में नहीं फंसना चाहिए...!!
अमरीका ; चीन के साथ पाकिस्तान के गहरे से भी गहरे संम्बध होने पर भी , लगातार उसकी मदद में कोई कमी नहीं रखता है , बल्की कुछ ज्यादा ही दे रहा है, इसका एक ही अर्थ है कि अमरीकी नीति के अनुसार आज भी पाकिस्तान आंग्ल- अमरीकी सैन्य गुट का सदस्य है और वह इस गुट के प्रति संवेदनशील है ! जबकि सच यह है कि जिस तरह से चीन की बातों में जवाहरलाल नेहरु ने फँस कर देश का सत्यानाश कर दिया, वही पाकिस्तान का होने वाला है ...! चीन की दोस्ती और दुश्मनी ; दोनों ही फायदे के , लाभ के दृष्टिकोण पर आधारित होती है.., जो भी है .., भारत को नुक्सान ही नुक्सान है ..!!
आज का मुख्य सवाल यह है कि ; भारत को अमरीका से पूछना चाहिए कि ' उसका भारत के प्रति दृष्टिकोण की सच्चाई क्या है ?' और यह पूछना चाहिए कि ' क्या वह आंग्ल- अमरीकी सैन्य गुट और गुटनिरपेक्षता के प्रति १९६२ - ६३ के दृष्टिकोण पर कायम है ? ' क्यों कि इस प्रश्न के उत्तर में ही भारत के प्रति अमरीका की सच्चाई व उसका दृष्टिकोण का सच निर्भर करता है...!!!
१९६२-६३ कि अमरीकी कहानीं ...
यह सभी को विदित ही है कि १९६२ में भारत पर चीन का हमला हुआ था , भारत बुरी तरह से हारा था...! पहलीवार देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश की सुरक्षा के विषय में सोचा था...! उन्होंने अत्यंत गुप्त रूप से तब अमरीका को दो पत्र लिखकर सैन्य मदद का अनुरोध किया था ...| उन्होंने १२ स्क्वाड्रन सुपरसोनिक फाईटरों और बी-४७ बमवर्षकों की २ स्क्वाड्रन की मांग देश की सुरक्षा जरूरतों के कारण मांगे थे |
पूर्व रक्षामंत्री जसवंतसिंह और पूर्व उपप्रधान मंत्री लालकृष्ण अडवाणी जी क़ी पुस्तकों में तब के अमरीका शासन के द्वारा दिए उत्तर के कुछ अंश छपे हैं...!! अपने काम के दो अंश इस प्रकार से हैं....
१- "...अमरीका भारत को अधितम सैन्य मदद इसलिए नहीं दे पायेगा ; क्योंकि भारत की अधिकांश सेना पाकिस्तान के खिलाफ एक ऐसे मसले पर तैनात है , जिसमें जानता के आत्मनिर्णय से सीधे जुड़े अमरीकी हित के कारण सन १९५४ से ही हमें पाकिस्तान के दावों के प्रती सहानुभूति पूर्ण रुख अपनाना पड़ा है |"
अर्थात यह अंश स्पष्ट कह रहा है समस्या कश्मीर में नहीं अमरीका में है.. उसके पेट में दर्द होने से यह मामला लगातार उलझा रहा और आज तक नासूर बना हुआ है !
२- "... प्रधानमंत्री की ओर से प्राप्त नवीनतम सन्देश का अर्थ भारत और अमरीका के बीच सैनिक गठबंधन ही नहीं , बल्कि लडाई में ( भारत की ओर से ) शामिल होने के लिए हमारी ओर से पूर्ण प्रतिबद्धता भी है | हम समझते हैं हताशा की स्थिति में किसी भी सरकार की यही प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन यह ऐसा प्रस्ताव है , जो भारत के गुटनिरपेक्ष नीति से मेल नहीं | अगर नेहरु के मन में यही बात है तो हमें अपने निर्णय पर विचार करने से पहले उन्हें इस ( गुट निरपेक्षता के ) बारे में पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए |"
अर्थात उसे हमारी गुट निरपेक्ष नीति पशन्द नहीं है .., जब तक हम इस नीति पर हैं तब तक वह हमारी सैन्य मदद नहीं कर सकता...!
( यह वृत्तांत तब के अमरीका के राष्ट्रपति को जान ऍफ़ कैनेडी को नेहरु जी द्वारा लिखे पत्रों के जबाव में; उनके विदेश मंत्री डीन रस्क की और से , भारत में अमरीका के नियुक्त राजदूत जान के गैलब्रेथ के पास भेजे तार के अंश के रूप में सामने आये थे...!)
इसके अतिरिक्त जब भारत - पाकिस्तान युद्ध १९७१ में चल रहा था तब पाकिस्तान की मदद के लिए अमरीकी बेडा भारत
से युद्ध करने आने वाला था ...!
अमरीका यह अच्छी तरह से जानता है कि पाकिस्तान उसकी मदद का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों में कर रहा है तब भी मदद जारी रहने का मतलव यही है की अमरीका की भी नियत भारत के विरुद्ध अभी भी ठीक नहीं है !अमरीका यह अच्छी तरह से जानता है क़ी भविष्य का तीसरा विश्व युद्ध चीन - अमरीका में संभव है तव भी उसका पाकिस्तान प्रेम कई तरह की आशंकाएं उत्पन्न किये हुए है...!
अमरीका से दो टूक बात हो...
इस समय भारत क़ी मनमोहन सिंह सरकार अमरीका के प्रति गजब क़ी श्रद्धावान है.., इस समय इस देश में उनके कहने से ही सूरज उग रहा है , मगर उसी समय में जब कश्मीर में पत्थर अभियान होता है तब पाकिस्तान को भारी आर्थिक मदद अमरीका के द्वारा दी जाती है..., कुल मिला कर भारत को दो टूक बात अमरीका से करनीं चाहिए..., कि उसका भारत के प्रति क्या नीति है....? १९६२-६३ की नीति में बदलाव नहीं है तो भारत को अमरीकी भ्रम जाल में नहीं फंसना चाहिए...!!
आप किससे उम्मीद कर रहे है मनमोहन ,सोनिया तो अमेरिका गिरोह क़े ही है अमेरिका ने चर्च को माध्यम बनाया है ,सोनिया उसकी संरक्षक है.भारत सरकार उसकी आज्ञाकारी नौकर.
जवाब देंहटाएंआओ हमसब मिलकर भारत क़ा जन जागरण करे दूसरा रास्ता नहीं है/