इज्जत की जिंदगी, गरीबी का पैमाना - एन के सिंह





इज्जत की जिंदगी, गरीबी का पैमाना

एन के सिंह, राज्यसभा सदस्य और पूर्व केंद्रीय सचिव

गरीबी की राजनीति उसके अर्थशास्त्र पर भारी है। सरकार उम्मीद कर रही थी कि गरीबी के तेजी से नीचे आने का श्रेय उसे मिलेगा, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता और मध्य वर्ग के लोग इस बात से सकते में हैं कि गरीबी के आधार को इतना नीचा क्यों रखा गया है? राज्य सरकारें और वे संस्थाएं चिंता में हैं, जिन्हें गरीबी के लिए किए जाने वाले प्रावधानों का फायदा मिलता है। और सबसे बढ़कर यह मानव सम्मान का मामला है। आम धारणा यह है कि गरीबी की रेखा या गरीबों की संख्या को तय करने तरीका सम्मानजनक जिंदगी तक तो पहुंचना ही चाहिए। लेकिन क्या गरीबी की कोई ऐसी परिभाषा है, जो सबको स्वीकार्य हो? हम गरीब को कैसे परिभाषित करें, जबकि यह एक तुलनात्मक स्थिति है? आर्थिक रणनीति का तरीका यह होता है कि गरीबी का ऐसा पैमाना बनाया जाए, जिससे गरीब कम गरीब से अलग दिखे। ताजा विवाद योजना आयोग के उन आंकड़ों से पैदा हुआ है, जिनके अनुसार गरीबों की संख्या में तेजी से कमी आई है। ये अनुमान बताते हैं कि साल 2004-05 से लेकर 2011-12 तक 13.7 करोड़ लोग, यानी आबादी का करीब 15 फीसदी हिस्सा गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गया है। ये अनुमान तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के हिसाब से लगाए गए हैं, जिनके अनुसार गांवों में रोजाना 27.2 रुपये और शहरों में 33.3 रुपये से कम खर्च करने वाला आदमी गरीब है।

इस हिसाब से पांच लोगों के परिवार की मासिक आमदनी यदि ग्रामीण क्षेत्र में 4,080 रुपये व शहरी क्षेत्र में 5,000 रुपये से कम है, तो वह परिवार गरीब है। आलोचकों ने काफी ज्यादा खाद्य मुद्रास्फीति और मानव सम्मान इन दोनों तर्को के आधार पर गरीबों की संख्या में आई कमी के दावे की आलोचना की है। मगर इसका समर्थन वे लोग कर रहे हैं, जो यह मानते हैं कि यह पैमाना संयुक्त राष्ट्र के सवा डॉलर की क्रय क्षमता के फॉर्मूले जैसा ही है।
गरीबी का अलग-अलग देशों में अलग-अलग अर्थ है। इंग्लैंड जैसे कुछ देशों में उन परिवारों को गरीब माना जाता है, जिनकी आमदनी राष्ट्रीय औसत आय के 60 फीसदी से कम होती है। इसका अर्थ हुआ कि अगर अमीरों की आय बढ़ती है, तो औसत आय के साथ ही गरीबी की रेखा भी स्वत: ऊंची हो जाएगी। अमेरिका में गरीबी की रेखा भोजन की कीमत से तय होती है, जिसमें हर साल महंगाई दर को भी शामिल कर दिया जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गरीबी की तीन रेखाएं हैं- भोजन, मध्य और उच्च। ज्यादातर अफ्रीकी देशों में खर्च करने की क्षमता को ही गरीबी की रेखा का पैमाना बनाया गया है।

भारतीय संदर्भ में साल 1967-68 में दादाभाई नौरोजी ने सबसे पहले गरीबी का पैमाना तैयार किया था- यह था 16 से 35 रुपये, प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष। आजादी के बाद कई बड़े अर्थशास्त्रियों ने साल 1962 में ग्रामीण क्षेत्र के लिए 100 रुपये प्रति माह और शहरी क्षेत्र के लिए 125 रुपये मासिक को गरीबी का पैमाना बनाया। भारत की पहली गरीबी-रेखा साल 1978 में वाई के अलघ की अध्यक्षता वाले कार्य दल ने तय की। इसके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी खुराक के लिए न खर्च कर सकने वाले को गरीब माना गया। साल 1993 में लकड़वाला समिति ने कैलोरी के मानदंड को जारी रखा, लेकिन अखिल भारतीय गरीबी की रेखा की बजाय इसका राज्य स्तरीय सूचकांक बनाने की सिफरिश की। साल 2005 में तेंदुलकर समिति ने कैलोरी वाले पैमाने को खत्म कर दिया और खर्च के पैमाने पर गरीबी की रेखा तैयार की। हाल ही में सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली समिति ने इस तरीके को फिर से बदलने की सिफारिश की है।

इसके बावजूद गरीबी की परिभाषा का विवाद सुलझ नहीं रहा। इसके मुख्य मद्दे क्या हैं? पहला, भारत का गरीबी का आकलन गरीबी के बहुआयामी रूप पर विचार नहीं करता। यह पोषण, स्वास्थ्य, सफाई और स्वच्छ पेयजल जैसी चीजों के अभाव को दायरे में नहीं ले पाता। एक बहुआयामी गरीबी सूचकांक नैतिक रूप से ज्यादा स्वीकार्य हो सकता है और यह मानव सम्मान के लिए भी ठीक रहेगा। दूसरे, वर्तमान सूचकांक धीमी पड़ती विकास दर के वर्षों में तेजी से कम होती गरीबी के विरोधाभास की व्याख्या नहीं करता। इससे गरीबी के ताजा आंकड़ों पर संदेह पैदा होता है। साथ ही, गरीबी कम होने और आर्थिक विकास के बीच का रिश्ता समझ में नहीं आता। तीसरे, कम होती गरीबी और सामाजिक खुशहाली में विरोधाभास है। साक्षरता, विद्यालयों में प्रवेश की दर, बाल मृत्यु दर और कुपोषण के आंकड़े गरीबी में कमी के आकड़ों से मेल नहीं खाते। यह विरोधाभास बताता है कि हमें अपनी नीतियों में इसका ध्यान रखना होगा। चौथे, गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों, इससे बाहर निकलने वालों और इसमें शमिल होने वालों के हिसाब में कई खामियां हैं। पहले योजना आयोग गरीबी की रेखा इस सोच के साथ बनाता था कि इससे लोगों को मदद देने का आधार तय होगा, लेकिन अब इस मामले में सरकार ही इस रेखा से दूर होती जा रही है। इसका ताजा उदाहरण है, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून। अगर देश की 21.9 फीसदी आबादी गरीब है, तो फिर 67 फीसदी आबादी को सस्ता गेहूं और चावल देने का क्या अर्थ है? पांचवां, खाद्य पदार्थों की तेजी से बढ़ती महंगाई वाले दौर में गरीबी का तेजी से कम होना भी सवाल खड़े करता है।

तेंदुलकर का फॉर्मूला राष्ट्रीय नमूना सर्वे से कीमतों के आंकड़े लेता है, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से नहीं। यह कीमतों में बढ़ोतरी को हर राज्य के उपभोग और खर्च के सर्वेक्षण से आंकता है, इसमें कीमतों का वह उतार-चढ़ाव नहीं आ पाता, जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में दिखता है। छोटे से अरसे में इतने लोगों का गरीबी की रेखा से ऊपर आ जाना यह बताता है कि वे अभी उसी स्तर पर जीवन-यापन कर रहे हैं, लेकिन महंगाई ने उन्हें गरीबी  की रेखा से ऊपर कर दिया है। अंत में, गरीबी के स्तर का बने रहना भी चिंताजनक है। 2004-05 से लेकर 2011-12 तक गरीबी में 15 फीसदी कमी आई, लेकिन फिर भी देश में 27 करोड़ लोग गरीब हैं। इतने ज्यादा गरीब दुनिया के किसी और देश में नहीं हैं। इसका मतलब है कि कमी के बावजूद लोगों का जीवन स्तर सुधारने की कोशिशें हमें अभी और ज्यादा करनी होंगी। संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि बिहार, ओडिशा, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे सबसे पिछड़े राज्यों में गरीबी में कमी सबसे तेजी से आई है।

भारत में गरीबी जितनी गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी है, उसे आंकड़ों सें पूरी तरह नहीं दिखाया जा सकता। गरीबी को परिभाषित करने और हर राज्य में इसके आंकड़ों को जांचने का काम स्वतंत्र आकलन के जरिये होना चाहिए। सम्मानजनक जीवन ही गरीबी से जंग का असली पैमाना है, आंकड़े इसका विकल्प नहीं हो सकते।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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