आधुनिक पूंजीवाद का क्रूर जंगल
आधुनिक पूंजीवाद का क्रूर जंगल
- केबिन रैफट्री
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ब्रिटेन के केंद्रीय बैंक, बैंक ऑफ इंग्लैंड के पहले विदेशी गवर्नर मार्क कार्नी को चर्चा में रहना पसंद है। पिछले हफ्ते दो साहसी बयान दिए हैं। पहले तो उन्होंने कहा कि वे मौजूदा 0.5 फीसदी की कम ब्याज दरें तब तक नहीं बढ़ाएंगे जब तक कि बेरोजगारी की दर 7 फीसदी तक नहीं गिरती, जो शायद 2016 तक न हो। इसके बाद उन्होंने और भी बड़ा विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने देश के बैंकों को चेताते हुए कहा कि उन्हें निवेश के जरिये बिजनेस की मदद कर रोजगार पैदा करने चाहिए वरना वे 'सामाजिक रूप से अनुपयोगी' हो जाएंगे। उन्होंने बैंकों की संस्कृति में बदलाव लाने की भी बात कही।
उन्होंने जो कहा वह काफी हद तक सही है, लेकिन कुछ लोगों को यह सलाह हजम नहीं होगी। इसकी वजह यह है कि यह बात ऐसे व्यक्ति के मुंह से आ रही है जिसने खून चूसने वाले दैत्य जिसे प्यार से गोल्डमैन सैक्स भी कहते हैं, में 15 साल तक वरिष्ठ पद पर काम किया है। बेहतर होगा कि वे बदलती दुनिया में बैंकों की भूमिका पर गहरा और व्यापक चिंतन करें।
कार्नी की बजाय क्योटो की दोशिशा यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नोरिको हामा ने आर्थिक स्थिति पर अधिक गहरा वैश्विक दृष्टिकोण रखा है। उन्होंने आज के मानव-जंगल में व्याप्त खतरों को लेकर चेतावनी दी है और एबोनॉमिक्स यानी जापानी के प्रधानमंत्री शिंजो अबे की आर्थिक नीतियों पर भी जमकर प्रहार किए। वे नीतियां जिनके बलपर वे एक दशक से डिफ्लेशन (अपस्फीति) में चल रहे जापान को वृद्धि के नए युग में लाने का प्रयास कर रहे हैं। हामा की आधारभूत दलील यह है कि आधुनिक पूंजीवाद ने जिस जंगल का निर्माण किया है उसके केंद्र में मानवता को वापस लाना होगा वरना दुनिया खत्म हो जाएगी। उन्होंने कहा, 'मानवता अर्थशास्त्र से अधिक बड़ी और महत्वपूर्ण है। मानव ही हैं जो आर्थिक गतिविधियों को चलाते हैं।' हामा के मुताबिक दुनिया जिस प्रकार चल रही है तथा विजेताओं और पराजितों पर केंद्रित प्रसार माध्यम उसे जिस तरह और बिगाड़ रहे हैं उसमें मजबूत व शक्तिशाली फल-फूल रहे हैं जबकि कमजोर लगातार हाशिये पर धकेले जा रहे हैं। उन्होंने सिर्फ आर्थिक वृद्धि पर जोर देने वालेे जापानी प्रधानमंत्री की निंदा की और ध्यान दिलाया कि पिछले माह एक भाषण में उन्होंने इस शब्द का 42 बार उल्लेख किया। उन्हें जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे के इस मुहावरे पर भी आपत्ति है जिसमें दुनिया जीतने की जरूरत बताई गई है। हामा के मुताबिक दुनिया में अधिक तालमेल व एक-दूसरे के लिए सहारे की भावना होनी चाहिए। उन्होंने दावा किया कि असली जंगल में भी शेर चाहे राजा होगा पर उसके लालच व प्रभुत्व की भी सीमा है। जंगल जानवरों, पक्षियों, सरिसृपों, कीटों व पेड़-पौधों के एक जटिल इकोसिस्टम को सहारा देता है, जिसमें तालमेल व परस्पर सहयोग भी प्रतिद्वंद्विता जितना महत्वपूर्ण है।
संभव है हामा का वल्र्ड विजन बाइबिल में वर्णित स्वर्ग की कल्पना से प्रेरित हो जहां मेमना निश्चिंतता से शेर के साथ रह सकता है। इसे हासिल करना मानव या प्राणियों के संसार में असंभव लगता है। पर आधुनिक पूंजीवादी विश्व को घोर लालच कहां ले जा रहा है इस बात पर चिंतित होने वाली वे अकेली नहीं हैं। द ऑटोमेटिक अर्थ के एडिटर इन चीफ राउल मीजर ने हाल ही तर्क दिया था कि हर चीज को पैसे से जोडऩे से पता चलता है कि पूंजीवाद दिवालिया हो गया है। भंवरे यदि लुप्त हो रहे हैं तो कहेंगे 6000 करोड़ रुपए के भंवरे गायब हो गए हैं, मीथेन गैस छोड़े जाने से आर्कटिक को 3600 खरब रुपए की क्षति हो गई। यह क्या बकवास है! उनका कहना है कि आपके पास यदि हर चीज के लिए डॉलर वेल्यू ही बची है तो हो सकता है कि आपकी कोई कीमत न बची हो। वे कहते हैं, 'हम अपनी भावनाएं, प्रेम, दुख या उम्मीदों को तो आंकड़ों में बयां नहीं कर सकते न! टेक्नोलॉजी को लेकर हमारा सपना यह है कि हम ऐसे रोबोट बनाएं जिनमें मानवीय चेतना, भावनाएं हों न कि यह कि हम आदमी को रोबोट बना डालें। पूंजीवाद और टेक्नोलॉजी जिस शाश्वत प्रगति का वादा करते हैं वह विनाश को जायज ठहराने के भरोसे पर आधारित है और हमें इस भरोसे पर सवाल खड़े करने होंगे।'
बेहतर होता कि कार्नी अपने ही विभाग में फाइनेंशियल स्टेबिलिटी के डायरेक्टर एंडी हैल्डेन से बात कर लेते, जो ग्लोबल फाइनेंस के सबसे प्रखर विचारक माने जाते हैं। हैल्डेन ने हाल ही चेतावनी दी थी कि आधुनिक वित्तीय व्यवस्था का नियमन बहुत जटिल हो गया है। चूंकि जटिलता से अनिश्चितता पैदा होती है, नियमन जटिलता पर नहीं सरलता पर आधारित होना चाहिए। उन्होंे बड़े बैंकों की -टू बिग टू फेल- अवधारणा पर सवाल उठाते हुए कहा कि अपने विशाल आकार के कारण ही वे सालभर में ही खरबों डॉलर की सरकारी सब्सिडी हजम कर जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि कनाडा से ब्रिटेन आने के पहले ही कार्नी सार्वजनिक रूप से हैल्डेन की निंदा कर चुके हैं और अपने डेप्यूटी के रूप में उन्होंने हैल्डेन के बजाय ट्रेजरी के आदमी को लिया।
कार्नी को मेगा बैंकों से कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन उन्होंने रोजगार पैदा करने वाले निवेश को मदद करने की जो बात कही है वह उससे एकदम उलट है जो ये बड़े बैंक कर रहे हैं। ब्याज की नीची दरों के रहते भी वे निवेश बढ़ाकर रोजगार बढ़ाने के लिए प्रयास करते नजर नहीं आते। अमेरिका में तो बैंकों के कमॉडिटी बाजार में काम करने पर बड़ी बहस चल रही है।
ओहियो के सीनेटर शेरॉड ब्राउन सवाल करते हैं, 'हम बैंकों से क्या चाहते हैं? वे बिजनेस लोन जारी करें या तेल को रिफाइन व ट्रांसपोर्ट करें? सरकारी गारंटी व फंड तक पहुंच होने के कारण बैंक बड़ी औद्योगिक कंपनियों पर भी भारी पड़ते हैं।' शून्य ब्याज जैसी स्थितियों का सामना करने वाले बचतकर्ताओं के हश्र की बात तो छोड़ें यदि कार्नी को बिजनेस और नौकरियों की भी वाकई चिंता है तो उन्हें उचित स्पद्र्धा सुनिश्चित करनी पड़ेगी। उन्हें यह देखना होगा कि बैंक गारंटियों का दुरुपयोग न करें और आधुनिक पूंजीवादी जंगल वास्तविक जंगल से ज्यादा डरावना व खतरनाक न बन जाए।
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