भारतीय काल गणना का इतिहास bhartiy kaal ganna ka itihasa

भारतीय काल गणना का इतिहास
(आलेख April 5, 2022)
- अरविन्द सिंह
(लेखक ‘मंथन’ पत्रिका के प्रबंध-सम्पादक हैं।)

भारतीय काल गणना का इतिहास
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि (2 अप्रैल 2022) से भारतीय नव वर्ष आरम्भ हो रहा है। भारतीय कालगणना के अनुसार चैत्र महीना अत्यंत विशेष होता है क्योंकि यह माह भारतीय नववर्ष का पहला महीना होता है। चैत्र माह से भारतीय नववर्ष आरंभ हो जाता है। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि भारतीय नववर्ष का पहला दिन माना जाता है। भारतीय काल गणना पद्धति पर आधारित कई सम्वत् (कैलेंडेर वर्ष) भारत में प्रचलित है जिसमें सृष्टि सम्वत, विक्रम सम्वत, शक सम्वत् और गुप्त सम्वत् विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सृष्टि सम्वत् के मान्यता के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1, रविवार को हुआ। इस दिन के पहले ‘होरा’ का स्वामी सूर्य था, उसके बाद के दिन के प्रथम होरा का स्वामी चन्द्रमा था। इसलिये रविवार के बाद सोमवार आया। इस प्रकार सातों वारों के नाम सात ग्रहों पर रखा गया। बाद में पश्चिमी देशों ने हमारी पौराणिक संगणना को मान्य किया किन्तु वे उसमें चतुरता पूर्वक अपने पुट मिलाते हुए उसे अपना नाम देते और अपना आविष्कार बताते चले गए।

स्वतंत्रता के पश्चात भारतवर्ष ने शक सम्वत् को अपने राष्ट्रीय सम्वत् के रूप में अंगीकार किया। अंग्रेजों के भारत में आगमन के पूर्व भारत में अपनी काल गणना पद्धति के ही आधार पर दिन, तिथियों और महीनों आदि का निर्धारण किया जाता था और उसी का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता था।

भारतीय काल गणना पद्धति विश्व की सबसे सटीक एवं विस्तृत काल गणना पद्धति है। साथ ही यह सबसे प्राचीनतम पद्धति भी है। पश्चिमी देशों के लोग जिस समय 1000 से ऊपर गिनती गिनना नहीं जानते थे, भारतीय ऋषियों को काल की गणना करने की कई पद्धतियों का ज्ञान था। यह गणना पद्धति इतनी सटीक थी कि सूर्योदय और सूर्यास्त के समय निर्धारण से लेकर चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण तक के समय के गणना में कोई त्रुटि नहीं होती थी। यही नहीं हमारे ऋषियों को पृथ्वी से सूर्य और चंद्र की दूरी का ठीक-ठीक ज्ञान था जो आज के पश्चिमी गणना पद्धति से निकाले गए पृथ्वी से सूर्य और चंद्र के दूरी के बराबर बैठता है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किमी. है। इसका अनुसंधान पश्चिमी जगत द्वारा 20वीं शताब्दी में हुआ है किन्तु 1 भारतीय ऋषियों ने इसकी गणना बहुत पहले कर ली थी। 16वीं शताब्दी के सन्त गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चालीसा के 18वीं चौपाई में पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी का सटीक वर्णन है।

हनुमान चालीसा की वह चौपाई निम्नवत है –
जुग सहस्र योजन पर भानु।              
लील्यो  ताहि मधुर फल जानू।।

अर्थात हनुमान जी ने एक सहस्र योजन पर स्थित भानु (सूर्य) को मीठा फल समझ कर निगल लिया। उपर्युक्त दोहे के प्रत्येक शब्द में छुपे वैदिक गणित को निम्न प्रकार समझा जा सकता है –

जुग  (युग)             = 12000 वर्ष
एक सहस्र              = 1000
एक योजन            = 8 मील इसलिए धरती से सूर्य की दूरी = 12000*1000*8 =                     96000000 मील
चूंकि 1 मील        = 1.6 कि.मी.
इसलिए पृथ्वी  से सूर्य की दूरी = 96000000*1.6= 153600000 किमी.।
आधुनिक विज्ञान भी पृथ्वी से सूर्य की दूरी इतनी ही मानता है।

सामान्यतया बहुत से लोगो के मध्य यह मिथ्या धारणा होती है कि भारतीय काल गणना पद्धति त्रुटिपूर्ण होती है, या यह पद्धति काल गणना में इतनी अचूक नहीं होती जितनी की पश्चिमी काल गणना पद्धति।

जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारतीय काल गणना की विशेषता ही यह है कि यह अचूक एवं अत्यंत सूक्ष्म है,

जिसमें ‘त्रुटी’ (समय गणना के सहारे छोटी इकाई) से लेकर प्रलय तक की काल गणना का प्रावधान है।

ऐसी सूक्ष्म काल गणना विश्व के किसी और सभ्यता में नहीं मिलती, चाहे आप कितना भी गहन अन्वेषण कर लीजिये। भारतीय मान्यता के अनुसार भारतीय सभ्यता के प्राचीनतम एवं अपौरशेय ग्रंथों में से एक ‘सूर्य सिद्धांत’ में काल के दो रूप बताये गए हैं –

अमूर्त काल : ऐसा सूक्ष्म समय जिसको न तो देखा जा सकता है और न ही उसकी गणना सामान्य तरीकों से की जा सकती हैं। ऐसे सूक्ष्म समय को इन सामान्य इन्द्रियों से अनुभव भी नहीं किया जा सकता।
मूर्त काल : अर्थात ऐसा समय जिसकी गणना संभव है एवं उसको देखा और अनुभव किया जा सकता है।
भारत में काल गणना की अनेक पद्धतियां प्रचलित रही हैं जिसमें ‘सूर्य सिद्धांत’ सबसे प्राचीन पद्धति मानी जाती है। इस सिद्धांत की व्याख्या करने हेतु ‘सूर्य सिद्धांत’ नामक ग्रंथ की रचना की गई। यह अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है। समय-समय पर इसमें संशोधन एवं परिवर्तन भी होते रहे हैं। अंतिम बार इसको भास्कराचार्य द्वितीय ने इसका वर्तमान स्वरुप दिया होगा ऐसा विद्वानों का मानना है। तो आइये काल गणना के इस सूर्य सिद्धांत को और समझते हैं। इसमें काल गणना की मूल इकाई को ‘त्रुटी’ नाम दिया गया है जो 0.0000001929 सेकेण्ड के समान होती है अर्थात समय की इस छोटी इकाई ‘त्रुटी’ के माध्यम से सेकेण्ड के करोड़ वें हिस्से तक की सटीक गणना की जा सकती है। त्रुटी से ‘प्राण’ तक का समय अमूर्त एवं उसके बाद का समय मूर्त कहलाता है।

अर्थात 8 अरब 64 करोड़ वर्ष का एक सृष्टि चक्र होता है। किन्तु ये मनुष्यों का सृष्टि चक्र है। काल गणना के अनुसार, इस ब्रह्माण्ड में बहुत सी दूसरी योनियां हैं जिनका सृष्टि चक्र अलग है। इसके आगे ब्रह्मा के 360 अहोरात्र ब्रह्मा जी के 1 वर्ष के बराबर होते हैं और उनके 100 वर्ष पूरे होने पर इस अखिल विश्व ब्रह्माण्ड के महाप्रलय का समय आ जाता है तब सर्वत्र महाकाल ही विराजते हैं, काल का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता।

महर्षि नारद की गणना
महर्षि नारद की गणना इससे भी सूक्ष्म है। नारद संहिता के अनुसार ‘लग्न काल’ त्रुटी का भी हजारवां भाग है अर्थात 1 लग्न काल, 1 सेकेण्ड के 32 अरब वें भाग के बराबर होगा।  इसकी सूक्ष्मता के बारे में उनका कहना है कि स्वयं ब्रह्मा भी इसे अनुभव नहीं करते तो साधारण मनुष्य कि बात ही क्या। तो इन सबसे सहज ही अनुमान लगता है कि प्राचीन काल में भारतीय काल गणना कितनी सूक्ष्म थी। वर्तमान समय में वैज्ञानिक कार्बन डेटिंग पद्धति के आधार पर हमारी पृथ्वी की आयु 2 अरब वर्ष बताते हैं और आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय काल गणना पद्धति से भी पृथ्वी की आयु इतनी ही निकलती है। हमारी काल गणना पद्धति वैज्ञानिक और व्यावहारिक दोनों आधारों पर पूर्णत: खरी उतरती है। किंतु दुर्भाग्य से हम अपनी श्रेष्ठ काल गणना पद्धति को भूलते जा रहे हैं। आज हम समय की गडऩा अंग्रेजी पद्धति से करने लगे हैं। हम समय को गिनते हैं – सेकेण्डस में, मिनट्स में, आवर्स में। हम महीनों को जनवरी, फरवरी, मार्च आदि में गिनते हैं। हम महीनों को चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रवण आदि में गिनना भूल गए हैं। घरों में भी हम अंग्रेजी कलेंडेर ही दिवारों पर लटकाते हैं। हम में से बहुतों को प्रतीत होता है कि अंग्रेजी कैलेंडेर बहुत ही वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है जबकि यह बात वास्तविकता से कोसों दूर है। प्रारम्भ में तो अंग्रेजी/पश्चिमी कलेंडेर में मात्र 10 महीने होते थे। मार्च से लेकर दिसम्बर तक। इस बात की गवाही इन अंग्रेजी महीनों के नाम स्वयं देते हैं। सितम्बर में रोमन शब्द सेप्ट प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ होता है –सेवन (7), सात। अक्टूबर में ऑक्ट शब्द, ऐट (8), आठ के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार नवम्बर याने 9 वां महीना और डिसेम्बर यानि 10 वां महीना। बाद में जब पश्चिम को पता चला कि उनकी वर्ष की गणना पद्धति अवैज्ञानिक है तो उन्होंने इसमें जनवरी और फरवरी दो महीने और जोड़कर भारतीयों की तरह अपने वर्ष में 12 महीने बना लिए।

पहले पश्चिमी जगत यह मानता था कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है। पहली बार पोलैंड के वैज्ञानिक कॉपरनिकस ने 16वीं शताब्दी में पश्चिम को यह बताया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। जबकि भारतीय ऋषियों  को यह बात कॉपरनिकस के जन्म  से हजारों वर्ष पूर्व से ज्ञात थी। प्राचीन भारतीय ग्रन्थ ‘सतपथ ब्राह्मण’ में इस बात का उल्लेख है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है और परिक्रमा करते समय वह अपने अक्ष पर भी घूमती रहती है। आर्यभट्ट ने भी कहा है कि पृथ्वीअपनी घुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। भारतीय मनीषियों को यह विदित था कि पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने के कारण दिन और रात होते हैं। तथा पृथ्वी  द्वारा सूर्य का परिक्रमा करने के कारण मौसम में परिवर्तन होता है। संक्षेप में, भारतीय काल गणना पद्धति अत्यन्त प्राचीन, विशद् एवं वैज्ञानिक है। दुर्भाग्य से हम लंबी गुलामी एवं पश्चिमी प्रभाव के कारण अपनी उपलब्धियों को विस्मृत कर चुके हैं। आवश्यकता है अपने उपलब्धियों को जानने की और उनका अनुपालन करने की।

अरविंद सिंह
(लेखक ‘मंथन’ पत्रिका के प्रबंध-सम्पादक हैं।)

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