क्या राहुल गाँधी संसद के योग्य हैं ....? - अरविन्द सिसोदिया
क्या राहुल गाँधी संसद के योग्य हैं - अरविन्द सिसोदिया
Rahul gandhi
rahul gandhi ki sansad sadasyata samapt
कांग्रेस के युवराज और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भावी प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गाँधी को पूरे मोदी समाज के अपमान करने एवं उस अपमान को लेकर माफ़ी नहीं मांगने की हठधर्मिता के चलते 2 साल की सजा हो गईं और सजा से साथ ही कानूनी निर्णय के चलते लोकसभा की सदस्यता भी समाप्त हो गईं। इससे पहले भी राहुल गाँधी न्यायालय के समक्ष माफ़ी मांग चुके हैं। सारा घटनाक्रम कानूनी प्रक्रिया से हुआ और मेरी निजी राय में यह सब अहंकारयुक्त मानसिकता के कारण हुआ।
संसद जनता के उन जनप्रतिनिधियों का सदन होता है जो जिम्मेवारी से देश की सुरक्षा , देश के विकास और समाज को सुव्यवस्थित रखनें की चिंता करते हैं। देशहित और जनहित के लिये क़ानून बनाते हैं, संसोधित करते हैं, व्यवस्था निर्माण करवाते हैं।
यह सही है कि भारत के संविधान में एक संसद सदस्य होने के लिये जिस तरह के आचरण होना चाहिए, उस पर न के बराबर ही लिखा गया है। लेकिन कुछ आचरण व नैतिकतायें इस तरह की होती हैं कि वे स्वतः ही परंपरागत लागू होती है। उन्हें लिखने की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कि अच्छा आचरण।
संसद के सदन और विधानमंडल मूल रूप से विधायिका हैं, इन्हे क़ानून बनाने, समाप्त करने और संसोधित करने की शक्ति प्रदान की गईं है। यह सामान्य सी बात है की क़ानून बनाने वाले सदन में क़ानून तोड़नें वाले सदस्य कैसे हो सकते हैं? जो भारत के क़ानून को तोड़ता है वह तो सदन में रहने की योग्यता स्वतः ही खो देता है। इसमें बुरा मानने की जरूरत ही क्या है।
राहुल गाँधी नें जब सदन में आँख मारी की घटना को अंजाम दिया तभी उनकी सदस्यता समाप्त होनी चाहिए थी। क्यों कि यह आचरण समाज में भी अवांछित है। बुरे आचरण का प्रतीक है, गैर जरूरी भी है। असंसदीय भी है, किन्तु तब वे बच गये।
सदन में बोलने के लिये कुछ नियम होते हैं, बात की प्रमाणिकता के संदर्भ भी होते हैं। किसीके विरुद्ध कुछ तो भी मनगणन्त कहने की अथवा झूठ बोलने की अनुमति नहीं होती। सदन की एक प्रमाणिकता एवं परिपक्वता होती है। राहुल गांधी के रुपमें इसका हमेशा आभाव ही दिखा है। उनके कारण अन्य कांग्रेसजन एवं अन्य दलों को भी अनुशरण करना पड़ता है। उन्होंने अपने आपको हमेशा ही नियम क़ानून से ऊपर दिखानें का आचरण किया, जो कि अस्वीकार्य है।
दुनिया के तमाम देश अपने देश के और देश के नागरिकों के भले के लिये, सदन का उपयोग करते हैं। मगर इसमें राहुल गाँधी के माध्यम से आभाव ही देखा गया। अडानी अंबानी, टाटा, बिरला सहित भारत के सभी उद्योगपति देश के लिये महत्वपूर्ण हैं। भारत अपने उद्योगपति या व्यापारी के माध्यम से तरक्की करता है तो इसमें बुरा क्या है। उससे देश के रेवेन्यू को भी फायदा होता है, रोजगार के अवसर भी मिलते हैं। मगर राहुल गाँधी और कांग्रेस अडानी के खिलाफ शत्रुतापूर्ण मानसिकता से पीछे पड़े हुए हैं, जैसे कोई चौथ वसूली वाला पीछे पड़ जाता है। राहुल अपनी आलोचनाओं के द्वारा देश के ओधोगिक वातावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं, वे विदेशी विनिवेश को भी भारत आनें से अपरोक्ष रोक रहे हैं, उनका भारतीय उघोग जगत की क्षति पहुंचा कर किसे लाभ पहुंचाना चाहते हैं। सिर्फ अनावश्यक आलोचनाएँ करके वे अडानी को ही नहीं संपूर्ण देश को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। जिसका फायदा चीन उठा रहा है।
जबकि अनेकों विदेशी कंपनियां भारत के व्यापारियों, उद्योगपतियों को हानी पहुंचा रहीं हैं। ऑनलाइन व्यापार के माध्यम से भारत के आंतरिक व्यापार पर अनेकों विदेशी मल्टीनेशन कंपनियों ने अपना वर्चस्व बना लिया है। भारत के उद्योगपति एवं व्यापारियों के हितों की दृष्टि से इन विषयों को संसद में विपक्ष द्वारा उठाया जाना चाहिए, मगर भारत के हितों की चिंता को विपक्ष के माध्यम से कभी भी प्रखरता से उठते नहीं देखा गया।
जबकि विशेष कर हिडन वर्ग रिपोर्ट झूठ के आधार पर भारत के प्रति शत्रुता है और वह भारत की अर्थ व्यवस्था को तहस-नहस करने की साजिश और हमला है। यह एक सोची समझी विदेशी साजिस भी प्रतीत हो ही रही है। लेकिन भारत के ही राजनैतिक दलों द्वारा विदेशी साजिस के साथ खड़ा होना दुर्भाग्यपूर्ण है ।
इस तरह के संदर्भ में एक सार्थक चर्चा, देश हित की चर्चा अभी तक देखने को नहीं मिली। एक स्वर में विदेशी साजिस की निंदा सदन में होनी चाहिए थी और उसके खिलाफ एक जुट सदन देश का दिखना चाहिए था। मगर यहसन तो होड़ लगी है कि देश को नीचा कैसे दिखाया जाये, एक भ्रम उत्पन्न करने वाले को स्पोर्ट दिया जा रहा है।
कुल मिला कर राहुल गाँधी के नेतृत्व से , उनकी सोच से , उनके निर्णयों से और उनके आचरण से, कांग्रेस तो बड़ा नुकसान भुगत ही रही है। मगर इस तरह के नुकसान से भारत की संसद और भारत के लोकतंत्र को तो बचाना अत्यंत आवश्यक है ।
यूँ भी राहुल गाँधी अपने ही वाक्यों के कारण, अपनी ही हठधर्मिता के कारण या यूँ कहें की अपने आपको देश के नियम क़ानून से ऊपर समझनें की प्रव्रती के कारण ही फंस गये हैं।
लगता है कि उनके अधिवक्ताओं नें भी उतनी सजगता नहीं दिखाई जिसकी आवश्यकता थी। हो सकता है कि स्वयं कांग्रेस का ही कोई बड़ा गेम प्लान हो.....। सच क्या है ये तो भगवान ही जानें । क्योंकि इस तरह के घटनाक्रम से सहानुभूति अर्जित तो की ही जा सकती है ।
इस घटनाक्रम के बाद तो देश में कोई सहानुभूति राहुल के प्रति नजर नहीं आ रही बल्कि यह उनकी आदत का ही हिस्सा माना जा रहा है। खैर यह एक सबक उन सभी को तो है जो उटपटांग ब्यानबाजी करते हैं।
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- माँ सरस्वती ही जानें उन्होने राहुल का “दुर्भाग्य” या “सौभाग्य” लिखा है- कांग्रेस सरकार रहते सजा होती,,तो अब तक आपातकाल लग जाता
* क्या मनमोहन सिंह कि बददुआ लगी है?
- राहुल को अध्यादेश फाड़ना इतना महंगा पड़ेगा यह कभी सोचा भी नहीं होगा
सूरत कि एक कोर्ट से आपराधिक मानहानि के मुकदमे में, कांग्रेस नेता राहुल गांधी को 2 साल की सजा सुना दी इसी के साथ राहुल गाँधी की लोकसभा की सदस्यता भी समाप्त हो गईं। अब वे 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए भी “अयोग्य” घोषित हो गये हैं। कुछ रिपोर्ट कह रहीं हैं कि यह अवधी 8 साल होती है। यह तो समय ही बतायेगा कि क्या क्या होगा।
आने वाले समय में चल रहे 6 अन्य केसों में, ऐसे ही फैसले आते हैं तो लोकसभा का चुनाव लड़ना भी संभव नहीं होगा कांग्रेस युवराज के लिए।
फैसला आने से करीब एक सप्ताह पहले 16 मार्च 2023 को ही राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि “दुर्भाग्य से मैं सांसद हूँ”। और घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि अब वे सांसद नहीं हैं ।
कांग्रेस के लोग बिफर रहे हैं। अदालत के फैसले के लिए भी मोदी और भाजपा को दोष दे रहे हैं। जबकि सारा किया धरा स्वयं राहुल गांधी और उनके अधिवक्ताओं का है। बड़बोलेपन की क़ीमत चुका रहे हैं। अब इस घटनाक्रम को भी भुनाने में कांग्रेस पूरी ताकत लग गईं है। लेकिन देश कह रहा है कि आज यदि कांग्रेस सत्ता में होती और राहुल को सजा होती , तो अब तक देश में आपातकाल लग चुका होता ।
क्योंकि 1975 में कांग्रेस सत्ता में न्यायालय द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया गया था। जिसके कारण देश में आपातकाल 1975 -77 लगा था। जनता और नेता दोनों ही इन्दिराजी के कोप के भाजन बनें थे।
इस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेस राजकुमार की पुरानी नासमझी भी बार - बार चर्चा में आ रही है। यह 2 साल की सजा और सदस्यता ख़त्म होने की कहानी, इस तरह अचानक अंजाम पर पहुंचेगी, यह राहुल गाँधी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
-10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने लिलि थामस बनाम एस एन शुक्ला लोक प्रहरी की याचिका पर फैसला दिया था कि यदि किसी सिटिंग एमपी - एमएलए को आपराधिक मामले में 2 साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसकी सदन की सदस्यता तुरंत प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और उसकी सीट खाली मानी जाएगी।
तब इस निर्णय की गंभीरता व भावी परिणामों को कांग्रेस की ही मनमोहन सिंह सरकार समझ गईं थी कि इससे भविष्य में बडी घटनायें भी घट सकती हैं। इसलिये वह सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को बदलना चाहती थी। इस हेतु आध्यादेश भी ला रही थी, जिसे राहुल गांधी ने नहीं लाने दिया।
- क्यों कि 30 अक्टूबर, 2013 को चाईबासा चारा घोटाले केस -आरसी 20(ए)/96 - (37.80 करोड़) में सी बी आई विशेष अदालत ने लालू प्रसाद यादव को 5 साल की सजा सुनाई थी जब लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद यूपीए की घटक थी और केन्द्र सरकार का अंग थी। मनमोहन सिंह सरकार को सजा होनें व सदस्यता जानें काअनुमान था, वे घटक दल के नेता की रक्षा करना चाहते थे।
- लालू प्रसाद यादव को बचाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार नें निर्णय आने से पूर्व ही सितम्बर, 2013 में सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय को पलटने के लिए एक अध्यादेश लाई जिसमें 2 साल की सजा की जगह 5 साल की सजा पर सदस्यता ख़त्म करने का प्रावधान किया गया था तथा कुछ अन्य राहतें भी सम्मिलित कीं थीं।
- परंतु राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को दिल्ली में ही, इस संदर्भ में हो रही प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ते हुए कहा था “मेरा मानना है कि ये ऑर्डिनेंस बकवास है और इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए। अंदर की बात बताता हूं कि हर पार्टी ऐसा करती है चाहे वो मेरी हो या कोई और अब समय है कि इसे रोका जाना चाहिए। अगर हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो हमें ऐसे छोटे-छोटे समझौते नहीं करने चाहिए। ”
इस विषय में राहुल के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मतभेद थे या नहीं किन्तु इस घटना नें यह दर्ज करवाया कि वह अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की कितनी इज़्ज़त कर सकते थे। वहीं यह भी साबित हुआ कि कांग्रेस में नेहरू परिवार से इतर अन्य व्यक्ती की क्या हैसियत है । यह घटना राजनैतिक रूप से न केवल अपरिपक्वता थी बल्कि भारत के निर्वाचित प्रधानमंत्री का सार्वजनिक बड़ा अपमान भी था। इस मसले को बंद कमरे में निंबटना चाहिए था। इसी के साथ यह समझने में भी चूक नहीं करनी चाहिए कि इस तरह की मानसिकता वाला व्यक्ति , विरोधी पार्टी के प्रधानमंत्री मोदी जी की क्या इज़्ज़त करेगा और अपमान में किस सीमा तक जा सकता है।
क्यों कि जिस घर में तीन प्रधानमंत्री हुए हों और जिनके परिवार और वंश के नाम पर पार्टी को वोट मिलते हों, पार्टी चलती हो, उन्हें इस तरह का अहंकार होना स्वाभाविक है। मगर इस पर कुशलता से नियंत्रण और सही आचरण का शिक्षिण होना ही चाहिए था। यह नहीं होनें से पार्टी सिकुड गई और हालात नहीं संभले तो समाप्त होने की भी संभावना है।
क्योंकि कि अभी तक संभवतः 11 सांसद/विधायक गणों कि सदस्यता समाप्त घोषित हो चुकी हैं।
अलबत्ता राहुल को अध्यादेश फाड़ते हुए यह आभास नहीं होगा कि एक दिन वह खुद इसका शिकार हो जायेंगे।
- राहुल को अध्यादेश फाड़ना इतना महंगा पड़ेगा यह कभी सोचा भी नहीं होगा
सूरत कि एक कोर्ट से आपराधिक मानहानि के मुकदमे में, कांग्रेस नेता राहुल गांधी को 2 साल की सजा सुना दी इसी के साथ राहुल गाँधी की लोकसभा की सदस्यता भी समाप्त हो गईं। अब वे 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए भी “अयोग्य” घोषित हो गये हैं। कुछ रिपोर्ट कह रहीं हैं कि यह अवधी 8 साल होती है। यह तो समय ही बतायेगा कि क्या क्या होगा।
आने वाले समय में चल रहे 6 अन्य केसों में, ऐसे ही फैसले आते हैं तो लोकसभा का चुनाव लड़ना भी संभव नहीं होगा कांग्रेस युवराज के लिए।
फैसला आने से करीब एक सप्ताह पहले 16 मार्च 2023 को ही राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि “दुर्भाग्य से मैं सांसद हूँ”। और घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि अब वे सांसद नहीं हैं ।
कांग्रेस के लोग बिफर रहे हैं। अदालत के फैसले के लिए भी मोदी और भाजपा को दोष दे रहे हैं। जबकि सारा किया धरा स्वयं राहुल गांधी और उनके अधिवक्ताओं का है। बड़बोलेपन की क़ीमत चुका रहे हैं। अब इस घटनाक्रम को भी भुनाने में कांग्रेस पूरी ताकत लग गईं है। लेकिन देश कह रहा है कि आज यदि कांग्रेस सत्ता में होती और राहुल को सजा होती , तो अब तक देश में आपातकाल लग चुका होता ।
क्योंकि 1975 में कांग्रेस सत्ता में न्यायालय द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया गया था। जिसके कारण देश में आपातकाल 1975 -77 लगा था। जनता और नेता दोनों ही इन्दिराजी के कोप के भाजन बनें थे।
इस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेस राजकुमार की पुरानी नासमझी भी बार - बार चर्चा में आ रही है। यह 2 साल की सजा और सदस्यता ख़त्म होने की कहानी, इस तरह अचानक अंजाम पर पहुंचेगी, यह राहुल गाँधी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
-10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने लिलि थामस बनाम एस एन शुक्ला लोक प्रहरी की याचिका पर फैसला दिया था कि यदि किसी सिटिंग एमपी - एमएलए को आपराधिक मामले में 2 साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसकी सदन की सदस्यता तुरंत प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और उसकी सीट खाली मानी जाएगी।
तब इस निर्णय की गंभीरता व भावी परिणामों को कांग्रेस की ही मनमोहन सिंह सरकार समझ गईं थी कि इससे भविष्य में बडी घटनायें भी घट सकती हैं। इसलिये वह सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को बदलना चाहती थी। इस हेतु आध्यादेश भी ला रही थी, जिसे राहुल गांधी ने नहीं लाने दिया।
- क्यों कि 30 अक्टूबर, 2013 को चाईबासा चारा घोटाले केस -आरसी 20(ए)/96 - (37.80 करोड़) में सी बी आई विशेष अदालत ने लालू प्रसाद यादव को 5 साल की सजा सुनाई थी जब लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद यूपीए की घटक थी और केन्द्र सरकार का अंग थी। मनमोहन सिंह सरकार को सजा होनें व सदस्यता जानें काअनुमान था, वे घटक दल के नेता की रक्षा करना चाहते थे।
- लालू प्रसाद यादव को बचाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार नें निर्णय आने से पूर्व ही सितम्बर, 2013 में सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय को पलटने के लिए एक अध्यादेश लाई जिसमें 2 साल की सजा की जगह 5 साल की सजा पर सदस्यता ख़त्म करने का प्रावधान किया गया था तथा कुछ अन्य राहतें भी सम्मिलित कीं थीं।
- परंतु राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को दिल्ली में ही, इस संदर्भ में हो रही प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ते हुए कहा था “मेरा मानना है कि ये ऑर्डिनेंस बकवास है और इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए। अंदर की बात बताता हूं कि हर पार्टी ऐसा करती है चाहे वो मेरी हो या कोई और अब समय है कि इसे रोका जाना चाहिए। अगर हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो हमें ऐसे छोटे-छोटे समझौते नहीं करने चाहिए। ”
इस विषय में राहुल के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मतभेद थे या नहीं किन्तु इस घटना नें यह दर्ज करवाया कि वह अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की कितनी इज़्ज़त कर सकते थे। वहीं यह भी साबित हुआ कि कांग्रेस में नेहरू परिवार से इतर अन्य व्यक्ती की क्या हैसियत है । यह घटना राजनैतिक रूप से न केवल अपरिपक्वता थी बल्कि भारत के निर्वाचित प्रधानमंत्री का सार्वजनिक बड़ा अपमान भी था। इस मसले को बंद कमरे में निंबटना चाहिए था। इसी के साथ यह समझने में भी चूक नहीं करनी चाहिए कि इस तरह की मानसिकता वाला व्यक्ति , विरोधी पार्टी के प्रधानमंत्री मोदी जी की क्या इज़्ज़त करेगा और अपमान में किस सीमा तक जा सकता है।
क्यों कि जिस घर में तीन प्रधानमंत्री हुए हों और जिनके परिवार और वंश के नाम पर पार्टी को वोट मिलते हों, पार्टी चलती हो, उन्हें इस तरह का अहंकार होना स्वाभाविक है। मगर इस पर कुशलता से नियंत्रण और सही आचरण का शिक्षिण होना ही चाहिए था। यह नहीं होनें से पार्टी सिकुड गई और हालात नहीं संभले तो समाप्त होने की भी संभावना है।
क्योंकि कि अभी तक संभवतः 11 सांसद/विधायक गणों कि सदस्यता समाप्त घोषित हो चुकी हैं।
अलबत्ता राहुल को अध्यादेश फाड़ते हुए यह आभास नहीं होगा कि एक दिन वह खुद इसका शिकार हो जायेंगे।
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Rahul Gandhi: -
जिस अध्यादेश को राहुल ने 10 साल पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ने को कहा, वह होता तो नहीं जाती संसद सदस्यता
Rahul Gandhi Sentenced To 2 years Imprisonment: सूरत की एक कोर्ट के फैसले के चलते राहुल की लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई है। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या राहुल जेल जा सकते हैं ?
अयोग्यता के मुद्दे का उस अध्यादेश से क्या संबंध है, जो कभी लागू नहीं हो पाया और जिसे राहुल ने फाड़ने को कहा था?
तारीख 27 सितंबर 2013, अजय माकन दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे। बीच प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी आ जाते हैं। तब कांग्रेस उपाध्यक्ष रहे राहुल कहते हैं, ''मैं यहां अपनी राय रखने आया हूं। इसके बाद मैं वापस अपने काम पर चला जाऊंगा।'' इसके बाद राहुल कहते हैं, ''मैंने माकन जी (अजय माकन) को फोन किया। उनसे पूछा क्या चल रहा है। उन्होंने कहा- मैं यहां प्रेस से बातचीत करने जा रहा हूं। मैंने पूछा- क्या बात चल रही है। उन्होंने कहा- ऑर्डिनेंस के बारे में बात हो रही है। मैंने पूछा क्या? इसके बाद वे सफाई देने लगे। मैं आपको इस अध्यादेश के बारे में अपनी राय देना चाहता हूं। मेरी राय में इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए।''
10 साल पुराना यह वाकया आज क्यों प्रासंगिक है, इसकी वजह हम आपको बता रहे हैं। दरसअल, राहुल गांधी को मानहानि मामले में सूरत की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई है। हालांकि, कोर्ट से तुरंत उन्हें जमानत मिल गई और सजा को 30 दिन के लिए निलंबित कर दिया गया। कोर्ट के आदेश के 24 घंटे बाद ही राहुल की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया गया। यह सब 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की वजह से हुआ है, जिससे बचने के लिए यूपीए सरकार के समय एक अध्यादेश आया था, जो अमल में आते-आते रह गया। इसी अध्यादेश की कॉपी को राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ने के लिए कहा था और विपक्षी आज भी अक्सर इनके इस कदम की आलोचना करते हैं।
क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला और अध्यादेश क्यों लाया जा रहा था?
बात 2013 की है। सुप्रीम कोर्ट ने लोक-प्रतिनिधि अधिनियम 1951 को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। कोर्ट ने इस अधिनियम की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार दे दिया था। इस प्रावधान के मुताबिक, आपराधिक मामले में (दो साल या उससे ज्यादा सजा के प्रावधान वाली धाराओं के तहत) दोषी करार किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को उस सूरत में अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था, अगर उसकी ओर से ऊपरी न्यायालय में अपील दायर कर दी गई हो। यानी धारा 8(4) दोषी सांसद, विधायक को अदालत के निर्णय के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान पद पर बने रहने की छूट प्रदान करती थी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से किसी भी कोर्ट में दोषी ठहराए जाते ही नेता की विधायकी-सासंदी चली जाती है। इसके साथ ही अगले छह साल के लिए वह व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाता है।
सदस्यता तुरंत खत्म होने के फैसले को पलटने के लिए कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार एक अध्यादेश लेकर आई थी । इसी अध्यादेश को राहुल ने फाड़ने की बात की थी।
अगर अध्यादेश पास हो गया होता तो क्या होता?
सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिए विधायकों-सासंदों की अयोग्यता को लेकर अपना आदेश दिया। यह वही दौर था, जब राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में फंसे हुए थे। दोषी पाए जाने पर उनकी सदस्यता पर भी खतरा था। तब के राज्यसभा सांसद राशिद मसूद पहले ही भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराए जा चुके थे। विपक्ष की तीखी आलोचना के बाद भी सितंबर 2013 में मनमोहन सरकार एक अध्यादेश लेकर आई।
अध्यादेश में कहा गया था कि मौजूदा सांसद या विधायक अगर किसी अदालत में दोषी करार दिए जाते हैं और अगर ऊंची अदालत में मामला विचाराधीन है तो सदस्यता नहीं जाएगी। हालांकि, इस दौरान वे सदन में वोट नहीं दे सकेंगे, न ही वेतन मिलेगा। राहुल ने इस अध्यादेश को "पूरी तरह से बकवास" करार दिया था और कहा था कि इसे "फाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिए"।
यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो राहुल की लोकसभा सदस्यता नहीं जाती। यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो सपा विधायक आजम खान, अब्दुला आजम से लेकर भाजपा विधायक विक्रम सैनी तक की सदस्यता बरकरार रहती।
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