हिन्दू संवत ईश्वरीय नववर्ष, विकृतिमुक्त धर्मिक एवं सामाजिक उत्सव hindu nvvarsh snvtsar
हिन्दू संवत ईश्वरीय नववर्ष, विकृति मुक्त धर्मिक एवं सामाजिक अधिमान्य उत्सव
भारतीय दर्शन, भारतीय अनुसंधान, भारतीय ज्ञान, भारतीय अनुभव आदि का महान संग्रह हिंदुत्व के नाम से जाना जाता है। इसी को कई लोग सनातन हिंदुत्व कहते हैं। तो कई जन सामान्य इसे भारतीय कहते हैं। किन्तु हजार वर्ष पूर्व तक भी सब कुछ हिंदुत्व ही था और हिंदुत्व ही है।
अगर असली ईश्वर तक पहुंचने की कई भी कोशिश ईमानदारी से करनी है तो उसका माध्यम सिर्फ और सिर्फ सनातन - हिंदुत्व का अनुसंधान ही मार्गदर्शन करता है। अन्य सभी बातें कपोल कलपित साबित होती हैं।
संपूर्ण सृष्टि में असंख्य आकाशगंगाओं में करोड़ो करोड़ो पिंड गतिमान हैं। जो ईश्वरीय व्यवस्था के नियमों के बंधन में बंधे होकर, आदि से अनंत की यात्रारत हैं। उन्ही में एक हमारी आकाशगंगा है, उसमें ही एक हमारा सौर परिवार है जिसमें 9 नवग्रह हैं। इसी सौर परिवार का सदस्य हमारी पृथ्वी है। अर्थात प्रत्यक्ष देव सूर्यनारायण हैं।
हमारी पृथ्वी नें जब व्यवस्थित स्वरूप प्राप्त किया और उसका प्रथम सूर्योदय जिस तिथि से, जिस तारीख से प्रारंभ हुआ, उसे प्रतिपदा कहा गया, जो कि एकम तिथि है। इसी से संवत व्यवस्था का शुभारम्भ होता है। इसीलिए कहा गया है कि ब्रह्मा ने इसीदिन से सृष्टि की रचना की।
हमारी पृथ्वी प्रत्यक्ष देव सूर्यनारायण के चारों ओर परी भ्रमण करते हुये, उसी के प्रकाश के पोषण से प्रकृति का संचालन करती है। प्राणी सत्ता का जीवन सूर्य के प्रकाश से ही जीवित रहता है। भगवान सूर्य नारायण के स्वागत अभिनन्दन का यह पर्व ही संवतसर पर्व है जो अनादिकाल से वर्ष प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा के रूप में आयोजित होता है।
हम साइंस की भाषा में यह कह सकते हैं कि प्रकृति सत्ता की घड़ी, अपना नववर्ष इसी समय अर्थात प्रथम तिथि से प्रारंभ करती है। इसके अनेकों साक्ष्य प्रकृति अपने परिवर्तनों एवं कार्यों के द्वारा हमें अनुभव करवाती है।
जैसे कि वृक्ष पतछड़ के बाद नई कोंपलों से अपना नया वर्ष चक्र प्रारंभ करते हैं। कृषि अपना कार्य चक्र पूर्ण कर नया वर्ष प्रारंभ करती है। समुद्र नये बादलों का निर्माण कर वर्षा के प्रबंध में जुट जाते है। पृथ्वी पर मौसम संबंधी वर्ष इसी समय से प्रारंभ होता है। इसीलिए यह संवत वर्ष ईश्वरीय व्यवस्था का वर्ष है।
सनातन हिन्दू ही नहीं अंग्रेज भी इसी समय से अपना नववर्ष मनाते थे। वे भी मार्च से ही अपना नया साल मनाते रहे हैं। उनका नववर्ष भी मार्च से प्रारंभ होता था।
संवतसर का पर्व टी ब्रह्मा जी के सृजन से ही प्रारंभ होकर लगभग 2 अरब वर्ष की पूर्णता की ओर बड़ रहा है। समय समय पर इसके नामकरण भिन्न भिन्न होते रहे हैं। सप्तऋषि संवत, युधिष्ठिर संवत, कलयुग के प्रारंभ को युगाब्द कहा जाता है। वर्तमान में विक्रम संवत और शालीवाहन संवत अधिकांश मान्यता प्राप्त हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा नवसंबत पुण्य का पर्व है, देवत्व का पर्व है, संस्कारों एवं सदमार्ग का पर्व है। यह हर्ष का, उल्लास का, उत्साह का नववर्ष है। यह संस्कृति वैभव का, धर्मपथ है। इस उत्सव के आयोजन से पुण्य मिलता है।
जबकि पूरी तरह से अवैज्ञानिक एवं ईसाई राजाओं की मनमर्जी से ग्रस्त, पश्चात्य संस्कृति का अंग्रेजी नववर्ष मात्र व्याभिचार और विकृति का नववर्ष है, पाप मार्ग का नववर्ष है। जो हमारी संतानों में विकृति उत्पन्न करता है। तथा उसके आयोजन नैतिकता विरोधी है। व्याभिचार और घोर नैतिक पतन से ग्रस्त है। इसीलिए भारत में अब अंग्रेजी नववर्ष मनाना लगभग समाप्त हो गया है। यह सिर्फ व्याभिचार के अड्डों का लाभ कमानें का साधन मात्र रह गया है। यह मात्र वेतन लेने और हिसाब किताब का नववर्ष है। अंग्रेजी वर्ष का भारत में कोई सामाजिक एवं संस्कृतिक महत्व कभी नहीं था और कभी भी नहीं रहेगा।
भारतीय सवंतसर व्यवस्था का, तिथि व्यवस्था का सर्वमान्य एवं व्यापक प्रभाव है, इसी से सभी व्रत त्यौहार, पर्व मनाये जाते हैं.। सभी धर्मिक एवं संस्कृति आयोजन संवत पंचांग से ही मनाये जाते हैं। यहाँ तक की सभु शुभ अशुभ कार्यों को भी हिन्दू पंचाग से ही किया जाता है। भारत का संवेधानिक पंचांग भी शालीवाहन संवत है।
त्यौहार, व्रत, विवाह, मुंडन, शुभकार्य सभी कुछ हिन्दू पंचांग से मान्यता प्राप्त करते हैं। हिन्दू संवत व्यवस्था को धर्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक अधिमान्यता प्राप्त है।
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