अधिवक्ताओं के तर्क भी सुनना ही चाहिए - अरविन्द सिसोदिया vkilon ki hadtal
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के एक प्रसाशनिक आदेश के खिलाफ राज्य के अधिवक्तागण 23 मार्च 2023 से कार्यबहिस्कार की हड़ताल पर हैं। क्योंकि अधिवक्ता मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा जारी किए गए उस आदेश का विरोध कर रहे हैं, जिसमें न्यायाधीशों को कम से कम 25 लंबित मामलों तीन महीनेँ में (ऐसे मामले जो वर्षों से लंबित थे) निपटाने के लिए आदेशित किया गया है। ) ।
भारत में न्यायपालिका मुकदमों पर निर्णय देनें में जितना समय लगाती है उससे वह अन्यायपालिका बन जाती है। वहीं सुनबाई के मनमाने तरीके भी अपनाती है। निर्णयों में भी विविधता रहती है। सामान्य प्रकरण दसकों धूल खाते रहते हैं। जबकि आतंकवादी के लिये आधीरात को अदालत खुल जाती है। कुछ खास अधिवक्ता बिना वरीयता के ही अपना मामला सूची बद्ध करवा लेते हैं तो कुछ अधिवक्ता अपनी खास पसंद की बेंच का इंतजार करते हैं।
यह समसामायिक आवश्यकता है कि न्याय दान में लगने वाला ज्यादा समय कम किया जाना चाहिए, मगर वह सभी के लिये सामान प्रक्रिया से हो, यह संबिधान कहता है। प्रक्रिया को इस तरह से संसोधित कर उन्नत किया जाना चाहिए जो सभी प्रकरणों पर समान रूप से लागू हो। न्याय के विलंब की स्थिति तो इस तरह की भी है कि वादी और प्रतिवादी अंतिम निर्णय तक स्वर्गसिधार गये।
न्यायपालिका प्रक्रिया संहिताओं से चलती है मनमर्जी से नहीं। देश कि सरकार, सर्वोच्च न्यायालय और राज्य की सरकारें जो कानूनी प्रक्रिया व नियम बनाती हैं। उन्ही की अनुपालना न्यायालय करता है। निश्चित ही अंग्रेजों के जमाने के प्रक्रिया क़ानून और उनमें समयबद्ध सुधार न होना भी जल्दी निबटान में बाधा हैं। आधुनिक संसाधनों का बहुअयामी उपयोग उतना अभी तक नहीं है जितना उपलब्ध है।
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के निर्देश निश्चित रूप से अच्छा प्रयास है मगर वह व्यवहारिक प्रक्रियागत भी होना चाहिए, तीन माह में 25 प्रकरणों के निबटान का दवाब निश्चित ही क़ानूनी न्याय की गुणवत्ता को प्रभावित करेगा। किसी भी न्यायालय द्वारा आनन फानन में दिया गया आदेश या लिया गया निर्णय, निश्चित ही पूर्ण न्याय नहीं हो सकेगा। कई मामलों में अन्याय की भी संभावना उत्पन्न होती है।
यह आदेश महज हेडलाइन पढ़ कर निर्णय देनें जैसा होगा, जिसमें गलतियों की अधिक संभावना है। अख़बार की हेडलाइन पड़ना और पूरी खबर पढ़ने में जितना अंतर है, उतना ही अंतर इस प्रसाशनिक आदेश में प्रतीत हो रहा है। क्योंकि सतही जानकारी और संपूर्ण जानकारी में जमीन आसमान का फर्क होता है। सभी तथ्यों और तर्कोँ का विश्लेषण होना ही चाहिए। जल्दबाजी में यह संभव नहीं है।
यूँ भी न्यायाधीश की सुनवाई और अधिवक्ताओं की पक्ष प्रस्तुति लगभग समान बौद्धिक स्तर की ही होती हैं। सिर्फ निर्णय लेने का अधिकार ही तो न्यायाधीश को बड़ा बनाता है।
न्यायपालिका में कमसे कम तीन पक्ष बनते हैं, न्यायाधीश एवं उनके सहायक कर्मचारी गण, दूसरा पक्ष अधिवक्तागण और तीसरा पक्ष वादी प्रतिवादी। विस्तार से जाएँ तो पुलिस या इस तरह की संस्थायें भी जो अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिये कार्यवाही को करती हैं। अच्छा होता कि सभी से नहीं तो भी अधिवक्तागणों के संगठनों के साथ व्यापक चर्चा द्वारा आसान तरीके खोजे जाते । न्याय में विलंब के कारण सूची बद्ध किये जाते और समझकर समाधान तक पहुंचा जाता । किन्तु सर्वोच्च न्यायालय का जो व्यवहार अधिवक्ता संगठन के साथ देखने को हाल ही में मिला वह एक लोकतान्त्रिक देश में चिंता बढ़ाने वाला है। मेरा आदेश सर्वोपरी का भाव अहंकार में या निर्दयता में नहीं बदलना चाहिए। मानवीय एवं समन्वयकारी दृष्टि अवश्य ही होनी चाहिए।
यह तो कोई बात नहीं हुई कि तीन महीनेँ में किसी भी तरह 25 मुकदमेँ निबटाओ। इस तरह के निबटान में तो हर न्यायाधीश आधी अधूरी जानकारी के आधार पर अपने अपने, अलग अलग दृष्टिकोण अपनायेगा और एक जैसे मामलों में ही भिन्न भिन्न निर्णय होंगे, विरोधाभास होगा।
अर्थात मुकदमों में समय कम लगे इस हेतु सर्वोच्च न्यायालय व केंद्र सरकार को प्रक्रियाओं में समय बचानें वाले संसोधन करने चाहिए, जो समान रूप से सभी को लाभान्वित करें।
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इस संदर्भ में प्राप्त जानकारी इस तरह से है......
मुख्य न्यायाधीश आरवी मलिमथ के निर्देश पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार ने इस संबंध में पिछले साल दिसंबर 2022 में एक अधिसूचना जारी की थी। तब से, अधिवक्ताओं की जिला बार काउंसिल सहित अधिवक्ताओं के विभिन्न संघ मप्र उच्च न्यायालय (HC) पर अपना अव्यवहारिक आदेश वापस लेने का आग्रह कर रहे हैं।
अधिवक्ताओं का कहना है कि "यह मुख्य न्यायाधीश के निर्देश पर एमपी एचसी के रजिस्ट्रार द्वारा जारी एक प्रशासनिक आदेश है। यदि यह एक कार्यकारी आदेश होता, तो हम सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील कर सकते थे। चूंकि यह आदेश जारी किया गया था, इसलिए हमने एचसी से कई अपीलें की हैं अपना निर्णय वापस लें। अब, हमारे पास काम से दूर रहने और अदालतों में सुनवाई में शामिल नहीं होने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं का कहना है कि इस आदेश से वकील और पक्षकार भारी दबाव में आ गए हैं। नियत समय-सीमा के भीतर पुराने मामले निपटाने के चक्कर में पक्षकारों को न्याय मिलने के स्थान पर महज मामलों का निपटारा होने जैसे हालत पैदा हो जाएंगे। इससे न्यायपालिका का मूलभूत उद्देश्य न्याय दान बाधित होगा। अधिवक्ताओं और पक्षकारों को अति आवश्यक होने पर भी आगामी तिथि दिए जाने की सुविधा से वंचित किया जाएगा।
''25 पुराने मामलों का महज तीन महीने में निस्तारण करना कोई आसान काम नहीं है क्योंकि मामले से जुड़े सभी व्यक्तियों का पता लगाने के लिए वकीलों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। हाईकोर्ट को व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिए। लंबित मामलों को कम करने के लिए लंबित मामलों के निपटान में सही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ।"
मध्य प्रदेश में जिला अदालतों में एक लाख से अधिक वकील प्रैक्टिस कर रहे हैं।
दूसरी पक्ष कहता है कि मुख्य न्यायाधीश आरवी मलीमथ द्वारा उठाए गए कदम का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह लंबित मामलों के बोझ को कम करने में मदद करता है। यह मुख्य न्यायाधीश आरवी मलीमथ द्वारा उठाया गया एक प्रायोगिक कदम है।
बताया गया है कि यही कदम न्यायमूर्ति मलिमथ ने हिमाचल प्रदेश में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवा देते हुए उठाए थे और वहाँ परिणाम सकारात्मक आये थे। इसलिए वकीलों को अदालतों के बोझ को कम करने के लिए काम करना चाहिए।" मान लीजिए, यदि एक विशेष अदालत के समक्ष 1000 मामले लंबित हैं और उनमें से 350 को तीन महीने में निपटाया जाता है, तो उस पर काम क्यों नहीं किया जा सकता।
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