हिन्दू हैं हम, सच है तो सिर चढ़कर बोलेगा !
हिन्दुत्व - हिन्दू हैं हम सच है तो सिर चढ़कर बोलेगा
तारीख: 30 Aug 2014
ये सामान्य भाव से कही गयी बात नहीं है। ये दुष्टों की आंखों में आंखें डाल कर कहा गया जवाब है। आज नहीं तो कल सम्पूर्ण विश्व उन हत्यारी विचारधाराओं से यह प्रश्न पूछेगा कि मानवीय मूल्यों और सहिष्णुता के नाम पर शांति के मजहब का खजाना खाली क्यों है? इस बात को पूछे-कहे बिना विश्व शांति संभव भी नहीं है। हिन्दुस्थान में रहने वाला 'हिन्दू' है। और इस सत्य को मानने में अपने पुरखों-परम्पराओं से साम्य रखने वाले देशवासियों को कोई आपत्ति नहीं है।
प्रस्तुत है पाञ्चजन्य का विशेष आयोजन
= तुफैल चतुर्वेदी
कुछ दिन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय भागवत जी के बयान हिंदुस्तान के सभी नागरिक हिन्दू हैं पर वामपंथी, मुस्लिम चरमपंथी, कांग्रेसी ता-ता-थैया कर रहे हैं। भागवत जी के बयान के दूरगामी निहितार्थ हैं अत: इस पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया अपेक्षित ही थी। इस परिप्रेक्ष्य में स्वयं को हिन्दू मानने से इंकार करने के कारणों पर विचार करना समीचीन होगा। आइये हिन्दू की परिभाषा क्या है इस विवाद में पड़े बिना हिन्दू धर्म को उसके ऐतिहासिक व्यवहार के सन्दर्भ में देखा-परखा जाये। पिछले 2000 वषोंर् के इतिहास पर संक्षिप्त दृष्टिपात करना पर्याप्त होगा। हिंदुस्तान ने 2000 वषोंर् के इतिहास में कभी किसी भी देश पर सैन्य आक्रमण नहीं किया। कभी किसी धर्म के पूजा स्थल नहीं तोड़े। कभी अपने से भिन्न मत-विश्वासियों की हत्यायें नहीं कीं। कभी मनुष्यों का व्यापार नहीं किया। आज जो संस्कृति केवल भारत और नेपाल में प्रमुख रूप से बची है, इसी को हिन्दू संस्कृति कहा, समझा जाता है। मगर इसके चिन्ह आज भी संसार के इस भाग को केंद्र मान लिया जाये तो सुदूर पूर्व के देशों थाईलैंड, कम्बोडिया से होते हुए उस क्षेत्र में भूमि की अंतिम सीमा समुद्र तक, पश्चिम में एक ओर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक से होते हुए धुर अरब देशों तक तो दूसरी ओर अजरबेजान, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान आदि में प्रखर रूप से मिलते हैं। भारतीय मन्दिरों के खण्डहर, यज्ञशालाएं, खंडित मूर्तियां आज भी इन सारे देशों में मिलती हैं। अरब में इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब के चाचा ने अंतिम समय तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया। वह इस्लाम की दृष्टि में काफिर और जहन्नुम जाने योग्य माने गए। उनके प्रति इस्लामी व्यवहार इतना कठोर रहा कि उनके मूल नाम की जगह इस्लामी ग्रंथों में उन्हें अबू जहल यानी जाहिल मूर्ख कहा, पुकारा, लिखा गया़ उनके तथा उनसे पहले के भक्त शायरों के अरबी भाषा में लिखे भगवान शिव के कसीदे इस्लाम के सारे ध्वंसक प्रयासों के बाद भी उपलब्ध हैं। अत: तथ्य यह हाथ आते हैं कि हिन्दू अर्थात वह लोग जो किसी पर भी बलात् कुछ भी थोपने, हिंसा करने के विरोधी हैं। जिनका सामान्य जीवन शांतिपूर्ण है और जो सैद्घांतिक रूप से शांतिपूर्ण सहजीवन में विश्वास करते हैं। दूसरी ओर सेमेटिक विश्वासी और कम्युनिस्ट हैं जो मानते हैं कि सत्य केवल उनके पास है और सारे संसार को मार-पीट कर, बहला-फुसला कर, बहला-बहका कर अपनी जड़ समझ के रास्ते पर लाना उनका दायित्व है।
इस कार्य के लिए सबसे नए प्रयासों में से एक सीरिया, इराक में आई एस आई एस के जघन्य हत्या-कांड हैं। इस संगठन को इस्लाम के शुरुआती क्रियाकलापों, भारत में इस्लाम फैलाने आये मुस्लिम आक्रमणकारियों के बाद सबसे खतरनाक कहा जा रहा है। अपने से भिन्न सोच रखने वाले लोगों के सर काटना कोई नई क्रिया नहीं है। ऐसा इस्लाम के जिहादी आतंक फैलाने और मतान्तरण के लिए हमेशा से करते रहे हैं। अन्य इस्लामी आक्रमणकारियों की तरह बाबर ने भी भारतीय लोगों के सर काट कर उनके मीनार बनाये थे। इसी हत्यारे ने इस्लाम के सबसे प्रबल वैचारिक उपकरण मदरसों की भारत में शुरुआत की थी।
सभ्य समाज में फांसी पाये अभियुक्त को फांसी देने वाले जल्लाद के लिए शराब का कोटा होता है। न्याय-प्रणाली के विभिन्न चरणों से गुजरने के बाद ही, अंतिम रूप से जघन्य पापी पाये जाने के बाद ही फांसी दी जाती है़ ऐसे व्यक्ति को भी फांसी देने के पहले जल्लाद का नशे में होना जरूरी होता है। ये कार्य कितना कठिन है इसे इस तरह समझें कि भारत को 125 करोड़ की जनसंख्या में केवल 2 लोग जल्लाद हैं। विभिन्न प्रदेशों में फांसी देने के लिए उन्हीं को जाना पड़ता है। जिसके इस्तेमाल से व्यक्ति की अंतरात्मा इस हद तक जड़ हो जाती है कि हत्यारा मरते हुए व्यक्ति की आंखों में आंखें डाल कर उसकी आधी कटी गर्दन पर ठोकरें मार सकता है? उसकी बुझती हुई आंखों की मोबाइल पर वीडियो बना सकता है? वहशियों की तरह उसकी गर्दन काटकर मृतक के सीने, पेट पर रख सकता है? वह कौन लोग हैं जो इस भयानक हत्या-कांड के समय अल्लाहो-अकबर के नारे लगा सकते हैं? अल्लाह महान है इस उद्घोष को इस तरह से करने वाला मानस कैसा होता है?
इस्लामिक स्टेट मिलिशिया का प्रारम्भ सीरिया के गृह-युद्घ के दौरान हुआ ये विद्रोह सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ स्थानीय सुन्नी कबीलों के लोगों ने भड़काया था। इन कबीलों के लोगों की ट्रेनिंग के लिए अमरीका की खुफिया एजेंसी सी आई ए के लोगों ने तुर्की और जर्डन में प्रशिक्षण शिविर चलाये। इन्हें हथियार और पैसा दिया। बशर अल असद को अमरीकी आवश्यकता के अनुरूप मीडिया में दैत्य बताया, दर्शाया गया। सीरिया की सेना में शिया-सुन्नी के आधार पर विभाजन और विद्रोह कराया। सऊदी अरब, कतर, कुवैत, सयुंक्त अरब अमीरात ने अपने खजाने सुन्नी जिहादियों के लिए खोल दिए़ सीरिया में प्रत्येक संस्थान को नष्ट करने, हो जाने दिया और इन सब सामूहिक कुकमोंर् का परिणाम आई एस आई एस की शक्ल में सभ्य समाज के सामने है।
अमरीका की करतूतों से ऐसा पहले भी कई बार हुआ है़ इस संघर्ष में अमरीका जिस ईरान की सहायता कर रहा है और सहायता ले रहा है वह दशकों से अमरीका का प्रबल शत्रु रहा है। इस क्षेत्र में अमरीका के सबसे अच्छे मित्र देश इस्रायइल का घोषित शत्रु है। ईरान के राष्ट्रपति, धार्मिक नेता इस्रायइल को संसार के मानचित्र से मिटा देने की खुली घोषणा करते रहे हैं। अफगानिस्तान, ईरान, इराक इत्यादि देशों में इतना सब कुछ करने, झेलने और न केवल मुंह की खाने बल्कि सभ्य समाज के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गए आतंकवाद की जड़ों को खाद पानी देने का काम आखिर अमरीका ने किस समझ और विश्वास के तहत किया?
अमरीका और पश्चिम का नेतृत्व शुरू से ही गलत रहा। अमरीका तथा इस क्षेत्र के बड़े खिलाड़ी पश्चिमी देशों में प्रजातंत्र की प्रणाली है। ये प्रणाली मानव इतिहास में प्रत्येक मनुष्य को सबसे पहले बराबरी का अधिकार देने वाली प्रणाली है। जबकि इस्लाम अपनी उम्मत यानी मुस्लिम समाज के विशेषाधिकार और अन्य विश्वासियों को नीचे दर्जे का मानने वाली व्यवस्था है। वह अन्य विश्वासियों से जजिया वसूल करती है। न केवल मध्य युग में बल्कि अभी कुछ वर्ष पहले अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान वहां रह रहे हिन्दुओं, सिखों से जजिया वसूला गया। परिणामत: वो लोग भाग कर भारत में शरण लेने के लिए बाध्य हुए़ स्त्रियों को केवल मुस्लिम बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले समाज के साथ स्त्री अधिकारों का सम्मान करने वाले समाज की, एक स्वतंत्र न्याय-प्रणाली में विश्वास करने वाले सभ्य समाज की पट ही कैसे सकती है?
अमरीका और पश्चिमी विश्व ने अच्छे उग्रवादियों और बुरे उग्रवादियों में विभाजन रेखा यह मानकर खींची कि वह लोग सभ्य हो जायेंगे। उग्रवादियों में अच्छे बुरे का विभाजन कैंसर में अच्छे-बुरे का चुनाव है। कैंसर अच्छा नहीं होता, हो ही नहीं सकता। ये संघर्ष अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया या विश्व के किसी अन्य भूभाग का स्थानीय संघर्ष नहीं है। ये मध्य-युगीन बर्बर जीवन मूल्यों को प्रत्येक मनुष्य के बराबर होने को मानने वाले सभ्य समाज पर स्थापित करने का संघर्ष है, इसको वैचारिक स्तर पर परास्त करना इसकी सैनिक पराजय के बराबर ही नहीं बल्कि अधिक आवश्यक है़ सीरिया में कोई भी शासन आये, बिन लादेन मार डाला जाये या जीवित रहे, इराक में शिया अथवा सुन्नी कैसा भी शासन आये मगर जब तक इस सोच में बदलाव नहीं आएगा विश्व में शांति नहीं आने वाली। आखिर इन जिहादियों की कोख कहां है? इन्हें पैदा कौन कर रहा है? अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग क्यों भयानक नृशंस हत्यारे बन गए? इन बातों पर गहन विचार-विमर्श, मंथन और फिर उससे निपटने की रणनीति बनाना आवश्यक है। अन्यथा दिन प्रति दिन नए अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, सीरिया़.़ बन रहे हैं, बनते रहेंगे। जब तक ऐसी कोई भी विचार-धारा, चिंतन-प्रणाली जो मनुष्य के बराबरी के सिद्घांत की जगह मनमाने विचार, उद्दंडता और उत्पात में विश्वास करती है कुचली, बदली नहीं जाएगी शांति कैसे आएगी? ये संघर्ष स्थानीय संघर्ष नहीं है बल्कि ये मानवता का संघर्ष है, सभ्यता का संघर्ष है। सभ्य समाज इन मूल्यों के असफल होने का खतरा मोल नहीं ले सकता। दूसरी ओर केवल जंगल के बीहड़ कानून हैं। विश्व के स्वयंभू नेता देश अमरीका के नेतृत्व ने आखिरकार वह निर्णय ले ही लिया जिसकी बहुत समय से प्रतीक्षा थी। महामहिम बराक ओबामा ने इस्लामिक स्टेट को कैंसर से भी खतरनाक कहा है और अमरीकी सेना ने आई. एस. आई. एस. के जिहादियों के ठिकानों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। सभ्य समाज विशेषरूप से ईसाई समाज ने ये विचार करने और समझने में बहुत देर कर दी है। ये हमेशा का जाना-पहचाना इस्लाम का आतंक फैलाने का तरीका है। सदियों से इस्लामी हत्यारे विश्व भर में ऐसे जघन्य हत्या-कांड करते रहे हैं़ उनका उद्देश्य आतंक नहीं होता अपितु आतंक फैला कर अपनी जीवन-शैली का वर्चस्व स्थापित करना अर्थात इस्लाम में लोगों को मतान्तरित करना होता है।
अत: भागवत जी के बयान पर वामपंथी, मुस्लिम चरमपंथी, कांग्रेसी तिलमिलाहट और ता-ता-थैया को सरलता से समझा जा सकता है़ उनके मिर्चें केवल इस कारण लग रही हैं कि उन्हें मालूम है यदि बहस बढ़ी तो ये प्रश्न आएगा ही आएगा कि हिन्दू सभ्यता के सदैव से जाने-परखे शांतिप्रिय लोग हत्यारों के समूह क्यों बन गए। यदि बहस नहीं बढ़ी तो उनके कुढब विश्वासों, उनकी उत्पाती जीवन शैली, उनके बर्बर जीवन-सिद्घांतों को त्यागने का दबाव बनेगा। ये सामान्य भाव से कही गयी बात नहीं है। ये दुष्टों की आंखों में आंखें डाल कर पूछा गया, छिपा हुआ वह प्रश्न है जो आज नहीं तो कल सम्पूर्ण विश्व इस हत्यारी विचारधारा से पूछेगा, कहेगा। इस बात को पूछे-कहे बिना विश्व शांति संभव भी नहीं है।
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