पाकिस्तानः ' एक भी हिंदू न बचे '

हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। यह रिपोर्ट 2011 की है, जिसे हाल ही में जारी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक "पाकिस्तान में 1947 में कुल आबादी का 25 प्रतिशत हिंदू थे। अभी इनकी जनसंख्या कुल आबादी का मात्र 1.6 प्रतिशत रह गई है।" वहां गैर-मुस्लिमों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। 24 मार्च, 2005 को पाकिस्तान में नए पासपोर्ट में धर्म की पहचान को अनिवार्य कर दिया गया। स्कूलों में इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। गैर-मुस्लिमों, खासकर हिंदुओं के साथ असहिष्णु व्यवहार किया जाता है। जनजातीय बहुल इलाकों में अत्याचार ज्यादा है। इन क्षेत्रों में इस्लामिक कानून लागू करने का भारी दबाव है। हिंदू युवतियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म, अपहरण की घटनाएं आम हैं। उन्हें इस्लामिक मदरसों में रखकर जबरन मतांतरण का दबाव डाला जाता है। गरीब हिंदू तबका बंधुआ मजदूर की तरह जीने को मजबूर है।

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पाकिस्तानः 'वो दिन दूर नहीं जब एक भी हिंदू न बचे'

  • 5 अगस्त 2015
हिंदू मंदिर
पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों को अक्सर यह शिकायत रही है कि उनके धर्म स्थलों को पाकिस्तान सरकार की ओर से सुरक्षा नहीं है.
ऐसी कई शिकायतें रिकॉर्ड होने और धार्मिक स्थलों को नुक़सान पहुंचाए जाने की कई घटनाओं के सामने आने के बावजूद अब तक कोई सुनवाई नहीं है.
मानवाधिकार संगठनों के अनुसार, पिछले पचास वर्षों में पाकिस्तान में बसे नब्बे प्रतिशत हिंदू देश छोड़ चुके हैं और अब उनके पूजा स्थल और प्राचीन मंदिर भी तेज़ी से ग़ायब हो रहे हैं.
ऐसा ही एक मामला, पिछले बीस साल से चल रहा है और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इस पर कोई अमल नहीं हुआ.
बात है, पाकिस्तान के प्रांत ख़ैबर पख्तूनख़्वा ज़िले में कर्क के एक छोटे से गांव टेरी में स्थित एक समाधि की.

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पेशावर में हिंदू
यहां किसी ज़माने में, कृष्ण द्वार नामक एक मंदिर भी मौजूद था. मगर अब इसके नामो निशान कहीं नहीं हैं.
समाधि मौजूद है, लेकिन इसके चारों ओर एक मकान बन चुका है और यहां तक कि वहां तक पहुचंने के सारे रास्ते बंद हैं.
मकान में रहने वाले मुफ़्ती इफ़्तिख़ारुद्दीन का दावा है कि 1961 में पाकिस्तान सरकार ने एक योजना (1975) लागू की थी, जिससे तत्कालीन पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में स्थानीय प्रमुख लोगों को ऐसी ग्रामीण संपत्ति मुफ़्त में दी गईं, जिनकी क़ीमत दस हज़ार रुपए से कम थी.
इसी योजना के तहत उन्हें भी जगह का मालिकाना अधिकार मिल गया और 1998 में उन्होंने इस मकान का निर्माण किया.
हिंदुओं के नेता परम हंस जी महाराज का 1929 में निधन हो गया था.
उन्हें श्रद्धांजलि देने दुनिया भर से कई हिंदू पाकिस्तान के क्षेत्र टेरी में स्थित उनकी इस समाधि पर आया करते थे.
1998 में यह मामला तब सामने आया जब कुछ हिंदू यहां पहुंचे तो पता चला कि समाधि को तोड़ने की कोशिश की गई.

समाधि कहां ले जाएं?

पाकिस्तानी दलित
इसके बाद बात पाकिस्तान हिन्दू परिषद तक पहुंची और परिषद ने इस मामले का बीड़ा उठाया.
परिषद के अध्यक्ष और नेशनल असेंबली के सदस्य डॉक्टर रमेश वांकोआनी ने बताया कि पिछले बीस साल के दौरान वे सभी राजनीतिक लोगों से प्रांतीय और संघीय स्तर पर बात कर चुके हैं मगर किसी ने नहीं सुना, अंततः उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया.
सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2015 में सभी परिस्थितियों को देखते हुए, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा की प्रांतीय सरकार को आदेश दिया कि वह इस समाधि में होने वाले तोड़फोड़ को रोके और हिंदुओं को उनकी जगह वापस दिलाए. मगर आज तक उस पर कोई अमल नहीं हुआ.
डॉक्टर रमेश कहते हैं, “तीर्थ स्थल तो ऐतिहासिक होते हैं, यह कोई मंदिर तो है नहीं कि क़ानून-व्यवस्था की स्थिति ख़राब होने के नाम पर मैं इसे कहीं और स्थानांतरित कर दूँ, यह तो समाधि है. एक ऐसी हस्ती का मंदिर जिसके करोड़ों श्रद्धालु हैं.”
मगर टेरी में यही अकेली समाधि या मंदिर नहीं है, जो बंद है.
पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के मुताबिक़, इस समय देश भर में सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के ऐसे 1,400 से अधिक पवित्र स्थान हैं जिन तक उनकी पहुंच नहीं है.
या फिर उन्हें समाप्त कर वहां दुकानें, खाद्य गोदाम, पशु बाड़ों में बदला जा रहा है.

मंदिर तो है, पर रास्ता नहीं

पाकिस्तान में हिंदू मंदिर
ऐसा ही एक मंदिर, रावलपिंडी के एक व्यस्त बाज़ार में मौजूद है जिसे यमुना देवी मंदिर कहा जाता है और यह 1929 में बनाया गया था.
चारों ओर छोटी दुकानों में धंसा यह मंदिर केवल अपने एक बचे हुए मीनार के कारण अब भी सांसें ले रहा है.
उसके अंदर प्रवेश से पहले छतों से बातें करती ऊँची क़तारों में चावल, दाल और चीनी से भरी बोरियों से होकर गुज़रना पड़ता है.
वक़्फ़ विभाग के अध्यक्ष सिद्दीकुलफ़ारुख़ का कहना है कि, “जो योजना 1975 की है, मैं उसके बारे में जानता हूँ और इससे पहले क्या था, उसकी जानकारी मुझे नहीं है. संसद के बने इस योजना के तहत, इबादतगाह कोई भी हो, वह किराए पर नहीं दिया जा सकता, लेकिन इससे सटी भूमि को किराए पर दिया जा सकता है.”
विशेषज्ञों के अनुसार, सरकार की अनदेखी और ग़लत नीतियों के कारण देश में सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले धार्मिक अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय से हैं, जिन्हें पिछड़े होने के कारण हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है.

सरकारी उदासीनता

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू मंदिर.
Image captionपाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू मंदिर.
उपमहाद्वीप के बंटवारे के समय, पश्चिमी पाकिस्तान या मौजूदा पाकिस्तान में, 15 प्रतिशत हिंदू रहते थे.
1998 में देश में की गई अंतिम जनगणना के अनुसार, उनकी संख्या मात्र 1.6 प्रतिशत रह गई और देश छोड़ने की एक बड़ी वजह असुरक्षा थी.
शोधकर्ता रीमा अब्बासी के अनुसार, “पिछले कुछ वर्षों में लाहौर जैसी जगह पर एक हज़ार से अधिक मंदिर ख़त्म कर दिए गए हैं. पंजाब में ऐसे लोगों को भी देखा है जो नाम बदल कर रहने को मजबूर हैं.”
वो कहती हैं, “इन सभी बातों की बड़ी वजह क़ब्ज़ा माफ़िया तो हैं, मगर साथ ही बेघरों के लिए सुरक्षा की कमी भी है, जो आतंकवाद के कारण अपना घर-बार छोड़कर पाकिस्तान के अन्य ऐसे क्षेत्रों में स्थानांतरित हो रहे हैं, जहां उनके धर्म स्थल क़रीब हैं.”
पाकिस्तान हिंदू धर्मस्थल
Image captionपेशावर में स्थित एक मंदिर.
उनके मुताबिक़, “मगर उन्हें वहाँ से डरा-धमका कर निकाल दिया जाता है ताकि वहां पहले से रह रहे लोगों को कोई कठिनाई न हो.”
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि पाकिस्तान से पलायन कर गई हिंदुओं की नब्बे प्रतिशत आबादी का कारण बढ़ती असहिष्णुता और सरकार की उदासीनता है.
पाकिस्तान के वक़्फ़ विभाग में पुजारी की नौकरी करने वाले जयराम के अनुसार, “1971 के बाद देश में हिंदू संस्कृति ही समाप्त हो गई. कहीं भी अब शास्त्रों को नहीं पढ़ाया जाता, संस्कृत नहीं पढ़ाई जाती, यहाँ तक कि सिंध सरकार से एक बिल पास करवाने की कोशिश हुई कि सिंध में पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल किया जाए, हिंदू बच्चों के लिए एक हिंदी शिक्षक दिया जाए, मगर वह विधेयक पारित नहीं हुआ. तो यदि इस प्रकार का क़ानून नहीं बन सकता तो वह दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान में एक भी हिंदू नहीं रहेगा.”

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अल्पसंख्यक हिंदुओं की त्रासदी

सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुंबकम को जीवन का आधार मानने वाले हिंदुओं की स्थिति उन देशों में काफी बदतर है जहां वे अल्पसंख्यक हैं। भारत से बाहर रह रहे हिंदुओं की आबादी लगभग 20 करोड़ है।सबसे ज्यादा खराब स्थिति दक्षिण एशिया के देशों में रह रहे हिंदुओं की है। दक्षिण एशियाई देशों- बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ-साथ फिजी, मलेशिया, त्रिनिदाद-टौबेगो में हाल के वर्षों में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के मामले बढ़े हैं। इनमें जबरन मतांतरण, यौन उत्पीड़न, धार्मिक स्थलों पर आक्रमण, सामाजिक भेदभाव, संपत्ति हड़पना आदि शामिल है। कुछ देशों में राजनीतिक स्तर पर भी हिंदुओं के साथ भेदभाव की शिकायतें सामने आई है। हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। यह रिपोर्ट 2011 की है, जिसे हाल ही में जारी किया गया है।
  • रिपोर्ट के मुताबिक "पाकिस्तान में 1947 में कुल आबादी का 25 प्रतिशत हिंदू थे। अभी इनकी जनसंख्या कुल आबादी का मात्र 1.6 प्रतिशत रह गई है।" वहां गैर-मुस्लिमों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। 24 मार्च, 2005 को पाकिस्तान में नए पासपोर्ट में धर्म की पहचान को अनिवार्य कर दिया गया। स्कूलों में इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। गैर-मुस्लिमों, खासकर हिंदुओं के साथ असहिष्णु व्यवहार किया जाता है। जनजातीय बहुल इलाकों में अत्याचार ज्यादा है। इन क्षेत्रों में इस्लामिक कानून लागू करने का भारी दबाव है। हिंदू युवतियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म, अपहरण की घटनाएं आम हैं। उन्हें इस्लामिक मदरसों में रखकर जबरन मतांतरण का दबाव डाला जाता है। गरीब हिंदू तबका बंधुआ मजदूर की तरह जीने को मजबूर है। 
  • इसी तरह बांग्लादेश में भी हिंदुओं पर अत्याचार के मामले तेजी से बढ़े हैं। बांग्लादेश ने "वेस्टेड प्रापर्टीज रिटर्न (एमेंडमेंट) बिल 2011"को लागू किया है, जिसमें जब्त की गई या मुसलमानों द्वारा कब्जा की गई हिंदुओं की जमीन को वापस लेने के लिए क्लेम करने का अधिकार नहीं है। इस बिल के पारित होने के बाद हिंदुओं की जमीन कब्जा करने की प्रवृति बढ़ी है और इसे सरकारी संरक्षण भी मिल रहा है। इसका विरोध करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर भी जुल्म ढाए जाते हैं। इसके अलावा हिंदू इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर भी हैं। उनके साथ मारपीट, दुष्कर्म, अपहरण, जबरन मतांतरण, मंदिरों में तोडफोड़ और शारीरिक उत्पीड़न आम बात है। अगर यह जारी रहा तो अगले 25 वर्षों में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी ही समाप्त हो जाएगी। 
  • बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश कहे जाने वाले भूटान में भी हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार हो रहा है। 1990 के दशक में दक्षिण और पूर्वी इलाके से एक लाख हिंदू अल्पसंख्यकों और नियंगमापा बौद्धों को बेदखल कर दिया गया। 
  • ईसाई बहुल देश फिजी में हिंदुओं की आबादी 34 प्रतिशत है। स्थानीय लोग यहां रहने वाले हिंदुओं को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। 2008 में यहां कई हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया गया। 2009 में ये हमले बंद हुए। फिजी के मेथोडिस्ट चर्च ने लगातार इसे इसाई देश घोषित करने की मांग की, लेकिन बैमानिरामा के प्रधानमंत्रित्व में गठित अंतरिम सरकार ने इसे खारिज कर दिया और अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं के संरक्षण की बात कही।
  • मलेशिया घोषित इस्लामी देश है, इसलिए वहां की हिंदू आबादी को अकसर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थानों को अक्सर निशाना बनाया जाता है। सरकार मस्जिदों को सरकारी जमीन और मदद मुहैया कराती है, लेकिन हिंदू धार्मिक स्थानों के साथ इस नीति को अमल में नहीं लाती। हिंदू कार्यकर्ताओं पर तरह-तरह के जुल्म किए जाते हैं और उन्हें कानूनी मामलों में जबरन फंसाया जाता है। उन्हें शरीयत अदालतों में पेश किया जाता है। 
  • सिंहली बहुल श्रीलंका में भी हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। पिछले कई दशकों से हिंदुओं और तमिलों पर हमले हो रहे हैं। हिंसा के कारण उन्हें लगातार पलायन का दंश झेलना पड़ रहा है। हिंदू संस्थानों को सरकारी संरक्षण नहीं मिलता है।
  • त्रिनिदाद-टोबैगो में भारतीय मूल की 'कमला परसाद बिसेसर' के सत्ता संभालने के बाद आशा बंधी है कि हिंदुओं के साथ साठ सालों से हो रहा अत्याचार समाप्त होगा। इंडो-त्रिनिदादियंस समूह सरकारी नौकरियों और अन्य सरकारी सहायता से वंचित है। हिंदू संस्थाओं के साथ और हिंदू त्यौहारों के दौरान हिंसा होती है। हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार का भी जिक्र है। पाकिस्तान ने कश्मीर के 35 फीसदी भू-भाग पर अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है। 1980 के दशक से यहां पाकिस्तान समर्थित आतंकी सक्रिय हैं। कश्मीर घाटी से अधिकांश हिंदू आबादी का पलायन हो चुका है। तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी हिंदू अपने ही देश में शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी कैंप में बदतर स्थिति में रहने को मजबूर हैं। यह चिंता की बात है कि दक्षिण एशिया में रह रहे हिंदुओं पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन चंद मानवाधिकार संगठनों की बात छोड़ दें तो वहां रह रहे हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। जिस तरह से श्रीलंका में तमिलों के मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर अमेरिका, फ्रांस और नार्वे ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में प्रस्ताव रखा और तमिल राजनीतिक दलों के दबाव में ही सही भारत को प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालना पड़ा उसी तरह की पहल भारत को भी दक्षेस के मंच पर तो करनी ही चाहिए।

कमलेश रघुवंशी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)   

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