महारानी कर्णावती का जौहर ही इस्लामी अत्याचार का सत्य Queen Karnavati
महारानी कर्णावती की सत्य गाथा जो हर महिला को अवस्य पढ़नी चाहिए
The jewel of Queen Karnavati is the truth of Islamic tyranny
(इस सत्य गाथा से हुमायूं को राखी के झूंठ का भी पर्दाफाश हो जाता है ।)
*👉सन 1535 दिल्ली का शासक है हुमायूँ, बाबर का बेटा। उसके सामने देश में दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, पहला अफगान शेर खाँ, और दूसरा गुजरात का शासक बहादुरशाह। पर तीन वर्ष पूर्व सन 1532 में चुनार दुर्ग पर घेरा डालने के समय शेर खाँ ने हुमायूँ का अधिपत्य स्वीकार कर लिया है और अपने बेटे को एक सेना के साथ उसकी सेवा में दे चुका है। अफीम का नशेड़ी हुमायूँ शेर खाँ की ओर से निश्चिन्त है, हाँ पश्चिम से बहादुर शाह का बढ़ता दबाव उसे कभी कभी विचलित करता है।*
*👉हुमायूँ के व्यक्तित्व के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा दोष है कि वह घोर नशेड़ी है। इसी नशे की जद में वह पिछले तीन वर्षों से दिल्ली में ही पड़ा हुआ है और उधर बहादुर शाह अपनी शक्ति बढ़ाता जा रहा है। वह मालवा को जीत चुका है और मेवाड़ भी उसके अधीन है।*
*👉पर अब दरबारी अमीर, सामन्त और उलेमा हुमायूँ को चैन से बैठने नहीं दे रहे। बहादुर शाह की बढ़ती शक्ति से सब भयभीत हैं। आखिर हुमायूँ उठता है और मालवा की ओर बढ़ता है।*
*👉इस समय बहादुरशाह चित्तौड़ दुर्ग पर घेरा डाले हुए है। चित्तौड़ में किशोर राणा विक्रमादित्य के नाम पर राजमाता कर्णावती शासन कर रहीं हैं। उनके लिए यह विकट घड़ी है। सात वर्ष पूर्व खनुआ के युद्ध मे महाराणा सांगा के साथ अनेक योद्धा सरदार वीरगति प्राप्त कर चुके हैं।*
*👉रानी के पास है तो विक्रमादित्य और उदयसिंह के रुप में दो अबोध बालक, और एक राजपूतनी का अदम्य साहस। सैन्य बल में चित्तौड़ बहादुर शाह के समक्ष खड़ा भी नहीं हो सकता, पर साहसी राजपूतों ने बहादुर शाह के समक्ष शीश झुकाने से इनकार कर दिया है।*
*👉इधर बहादुर शाह से उलझने को निकला हुमायूँ अब चित्तौड़ की ओर मुड़ गया है। अभी वह सारंगपुर में है तभी उसे बहादुर शाह का सन्देश मिलता है जिसमें उसने लिखा है-" _चित्तौड़ के विरुद्ध मेरा यह अभियान विशुद्ध जेहाद है। जबतक मैं काफिरों के विरुद्ध जेहाद पर हूँ तबतक मुझपर हमला गैर-इस्लामिल है। अतः हुमायूँ को चाहिए कि वह अपना अभियान रोक दे।"_*
*🤷♂️हुमायूँ का बहादुर शाह से कितना भी वैर हो पर दोनों का मजहब एक है, सो हुमायूँ ने बहादुर शाह के जेहाद का समर्थन किया है। अब वह सारंगपुर में ही डेरा जमा के बैठ गया है, आगे नहीं बढ़ रहा।*
*🔥इधर चित्तौड़ राजमाता ने कुछ राजपूत नरेशों से सहायता मांगी है। पड़ोसी राजपूत नरेश सहायता के लिए आगे आये हैं पर वे जानते हैं कि बहादुरशाह को हराना अब सम्भव नहीं। पराजय निश्चित है सो सबसे आवश्यक है चित्तौड़ के भविष्य को सुरक्षित करना। और इसी लिए रात के अंधेरे में बालक युवराज उदयसिंह को पन्ना धाय के साथ गुप्त मार्ग से निकाल कर बूंदी पहुँचा दिया जाता है।*
*🔥अब राजपूतों के पास एकमात्र विकल्प है वह युद्ध, जो पूरे विश्व में केवल वही करते हैं। शाका और जौहर…*
*🔥आठ मार्च 1535, राजपूतों ने अपना अद्भुत जौहर दिखाने की ठान ली है। सूर्योदय के साथ किले का द्वार खुलता है। पूरी राजपूत सेना माथे पर केसरिया पगड़ी बांधे निकली है। आज सूर्य भी रुक कर उनका शौर्य देखना चाहता है, आज हवाएं उन अतुल्य स्वाभिमानी योद्धाओं के चरण छूना चाहती हैं, आज धरा अपने वीर पुत्रों को कलेजे से लिपटा लेना चाहती है, आज इतिहास स्वयं पर गर्व करना चाहता है, आज भारत स्वयं के भारत होने पर गर्व करना चाहता है।*
*🔥इधर मृत्यु का आलिंगन करने निकले बीर राजपूत बहादुरशाह की सेना पर विद्युतगति से तलवार भाँज रहे हैं, और उधर किले के अंदर महारानी कर्णावती के पीछे असंख्य देवियाँ मुह में गंगाजल और तुलसी पत्र लिए अग्निकुंड में समा रही हैं। यह जौहर है। वह जौहर जो केवल राजपूत देवियाँ जानती हैं। वह जौहर जिसके कारण भारत अब भी भारत है।*
*🔥किले के बाहर गर्म रक्त की गंध फैल गयी है, और किले के अंदर जलते जीवित मांस की गंध। पूरा वायुमंडल बसा उठा है और घृणा से नाक सिकोड़ कर खड़ी प्रकृति जैसे चीख कर कह रही है-*
*👉"भारत की आने वाली पीढ़ियों! इस दिन को याद रखना, और याद रखना इस गन्ध को। जीवित जलती अपनी माताओं के देह की गंध जबतक तुम्हें याद रहेगी, तुम्हारी सभ्यता जियेगी।*
*🤨जिस दिन यह गन्ध भूल जाओगे तुम्हें फारस होने में दस वर्ष भी नहीं लगेंगे…"*
*🤺दो घण्टे तक चले युद्ध में स्वयं से चार गुने शत्रुओं को मार कर राजपूतों ने वीरगति पा ली है, और अंदर किले में असंख्य देवियों ने अपनी राख से भारत के मस्तक पर स्वाभिमान का टीका लगाया है। युद्ध समाप्त हो चुका। राजपूतों ने अपनी सभ्यता दिखा दी, अब बहादुरशाह अपनी सभ्यता दिखायेगा।*
*😡अगले तीन दिन तक बहादुर शाह की सेना चित्तौड़ दुर्ग को लुटती रही। किले के अंदर असैनिक कार्य करने वाले लुहार, कुम्हार, पशुपालक, व्यवसायी इत्यादि पकड़ पकड़ कर काटे गए। उनकी स्त्रियों को लूटा गया। उनके बच्चों को भाले की नोक पर टांग कर खेल खेला गया। चित्तौड़ को तहस नहस कर दिया गया।*
*🤨और उधर सारंगपुर में बैठा बाबर का बेटा हुमायूँ इस जेहाद को चुपचाप देखता रहा, खुश होता रहा।*
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*✍️युग बीत गए पर भारत की धरती राजमाता कर्णावती के जलते शरीर की गंध नहीं भूली। फिर कुछ गद्दारों ने इस गन्ध को भुलाने के लिए कथा गढ़ी- "राजमाता कर्णावती ने हुमायूँ के पास राखी भेज कर सहायता मांगी थी।"*
*✊अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए मुह में तुलसी दल ले कर अग्निकुंड में उतर जाने वाली देवियाँ अपने पति के हत्यारे के बेटे से सहायता नहीं मांगती पार्थ!
राखी की इस झूठी कथा के षड्यंत्र में कभी मत फंसना।*
🙏🚩🇮🇳🔱🏹🐚🕉️
भाई बनकर मुगल बादशाह हुमायूँ ने कैसे रानी कर्णावती को धोखा दिया
बचपन में हमें अपने पाठयक्रम में पढ़ाया जाता रहा है कि रक्षाबंधन के त्योहार पर बहने अपने भाई को राखी बांध कर उनकी लम्बी आयु की कामना करती है। रक्षा बंधन का सबसे प्रचलित उदहारण चित्तोड़ की रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ का दिया जाता है। कहा जाता है कि जब गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तोड़ पर हमला किया तब चित्तोड़ की रानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पत्र लिख कर सहायता करने का निवेदन किया। पत्र के साथ रानी ने भाई समझ कर राखी भी भेजी थी। हुमायूँ रानी की रक्षा के लिए आया मगर तब तक देर हो चुकी थी। रानी ने जौहर कर आत्महत्या कर ली थी। इस इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम एकता तोर पर पढ़ाया जाता हैं।
अब इस सेक्युलर घोटाले की वास्तविकता देखिये –
मेवाड़ साम्राज्य के महानायक राणा सांगा का नाम कौन नहीं जानता, जिन्होंने सबसे पहले आतताई बाबर का सामना किया | 1526 ईसवी में जब बाबर ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा संग्राम सिंह उर्फ़ राणा सांगा ने इस विदेशी आक्रान्ता के खिलाफ राजपूत राजाओं को एकत्रित किया और बाबर पर धावा बोला । लेकिन 1527 में खानुआ की लड़ाई में, यह संयुक्त हिंदू शक्ति बाबर के तोपखाने से पराजित हो गई | बहादुरी से लड़ते हुए राणा सांगा के शरीर पर 80 घाव आये, और देश धर्म की बलिवेदी पर उनका बलिदान हुआ ।
इन्ही राणा सांगा की धर्मपत्नी थीं रानी कर्णवती । वह चित्तौड़गढ़ के अगले दो राणा, राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माता और महान महाराणा प्रताप की दादी थी। 1527 से 1533 तक अपने अल्पवयस्क बड़े पुत्र विक्रमादित्य के संरक्षक के रूप में उन्होंने ही राजकाज संभाला ।
इसी दरम्यान गुजरात के शासक बहादुर शाह द्वारा मेवाड़ पर हमला किया गया । राणा सांगा के बाद सिसौदिया वंश के अन्य परिजन अल्पवयस्क राणा के आधीन रहने को तैयार नहीं थे | किन्तु महारानी कर्णावती ने उन्हें सिसौदिया वंश की खातिर युद्ध करने हेतु मनाया । उन लोगों ने शर्त रखी कि युद्ध के दौरान राणा सांगा के दोनों बेटे व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टि से बुंदी जायें। इसी दौरान वह प्रसंग भी हुआ, जिसने पन्ना धाय को इतिहास में अमर कर दिया |
रानी कर्णावती अपने बेटों को बूंदी भेजने को राजी हो गईं तथा उन्होंने अपनी भरोसेमंद दासी पन्ना दाई को उनकी जिम्मेदारी सोंपी | सत्ता की हवस में बच्चों के चाचाओं ने ही उनकी जान लेने का प्रयत्न किया | किन्तु पन्ना धाय ने राजकुमार के स्थान पर अपने जिगर के टुकडे अपने इकलौते बेटे को राजकुमार बताकर अपनी आँखों के सामने उसे तलवार से दो टुकड़े होते देखा |
इस घटना से आहत कर्णावती ने तत्कालीन मुग़ल सम्राट हुमायूं को राखी भेजकर मदद मांगी | किन्तु वे मुगालते में थीं | जिसे उन्होंने भाई बनाते हुए मदद की आशा की थी, वह पहले विदेशी आक्रान्ता था, जिसकी नजर में मेवाड़ को काफिरों के शासन से मुक्त करना, प्राथमिक कर्तव्य था |
हमारे देश का इतिहास सेक्युलर इतिहासकारों ने लिखा है। भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम थे। जिन्हें साम्यवादी विचारधारा के नेहरू ने सख्त हिदायत देकर यह कहा था कि जो भी इतिहास पाठयक्रम में शामिल किया जाये, उस इतिहास में यह न पढ़ाया जाये कि मुस्लिम हमलावरों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा, हिन्दुओं को जबरन धर्मान्तरित किया, उन पर अनेक अत्याचार किये। मौलाना ने नेहरू की सलाह को मानते हुए न केवल सत्य इतिहास को छुपाया अपितु उसे विकृत भी कर दिया।
रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ के किस्से के साथ भी यही अत्याचार हुआ।
यह तो सच है कि रानी ने हुमायूँ को पत्र लिखा। मगर इसकी जानकारी मिलते ही गुजरात के शासक बहादुर खान ने भी हुमायूँ को पत्र लिख कर इस्लाम की दुहाई दी और एक काफिर की सहायता करने से रोका। मिरात-ए-सिकंदरी में गुजरात विषय से पृष्ठ संख्या 382 पर लिखा मिलता है-
सुल्तान के पत्र का हुमायूँ पर असर हुआ। वह आगरे से चित्तोड़ के लिए निकल गया था। अभी वह गवालियर ही पहुंचा था कि तभी उसे विचार आया कि अगर मैंने चित्तोड़ की मदद की तो मैं एक प्रकार से एक काफिर की मदद करूँगा। इस्लाम के अनुसार काफिर की मदद करना हराम है। इसलिए देरी करना सबसे सही रहेगा। “
यह विचार कर हुमायूँ गवालियर में ही रुक गया और आगे नहीं सरका। इधर बहादुर शाह ने जब चित्तोड़ को घेर लिया। रानी ने पूरी वीरता से उसका सामना किया। हुमायूँ का कोई नामोनिशान नहीं था। अंत में जौहर करने का फैसला हुआ। किले के दरवाजे खोल दिए गए। केसरिया बाना पहनकर पुरुष युद्ध के लिए उतर गए। पीछे से राजपूत औरतें जौहर की आग में कूद गई। 8 मार्च, 1535 को रानी कर्णावती 13000 स्त्रियों के साथ जौहर में कूद गई। 3000 छोटे बच्चों को कुँए और खाई में फेंक दिया गया। ताकि वे मुसलमानों के हाथ न लगे। कुल मिलकर 32000 निर्दोष लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
बहादुर शाह किले में लूटपाट कर वापिस चला गया। हुमायूँ चित्तोड़ आया। मगर पुरे एक वर्ष के बाद आया।परन्तु किसलिए आया? अपने वार्षिक लगान को इकठ्ठा करने आया। ध्यान दीजिये यही हुमायूँ जब शेरशाह सूरी के डर से रेगिस्तान की धूल छानता फिर रहा था। तब उमरकोट सिंध के हिन्दू राजपूत राणा ने हुमायूँ को आश्रय दिया था। यही उमरकोट में अकबर का जन्म हुआ था। एक काफ़िर का आश्रय लेते हुमायूँ को कभी इस्लाम याद नहीं आया। हिन्दू राजपूत राणा ने अगर हुमायूँ को आश्रय नहीं दिया होता तो इतिहास कुछ और ही होता । अगर हुमायूँ रेगिस्तान में ही दफ़न हो जाता तो भारत से मुग़लों का अंत तभी हो जाता। न आगे चलकर अकबर से लेकर औरंगज़ेब के अत्याचार हिन्दुओं को सहने पड़ते।
इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर सरीखे इतिहासकारों ने इतिहास को केवल विकृत ही नहीं किया अपितु उसका पूरा बलात्कार ही कर दिया। हुमायूँ द्वारा इस्लाम के नाम पर की गई दगाबाजी को हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे और रक्षाबंधन का नाम दे दिया। हमारे पाठयक्रम में पढ़ा पढ़ा कर हिन्दू बच्चों को इतना भ्रमित किया गया कि उन्हें कभी सत्य का ज्ञान ही न हो। इसीलिए आज हिन्दुओं के बच्चे दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के दर्शन करने जाते हैं। जहाँ पर गाइड उन्हें हुमायूँ को हिन्दूमुस्लिम भाईचारे के प्रतीक के रूप में बताते हैं।
बचपन में हमें अपने पाठयक्रम में पढ़ाया जाता रहा है कि रक्षाबंधन के त्योहार पर बहने अपने भाई को राखी बांध कर उनकी लम्बी आयु की कामना करती है। रक्षा बंधन का सबसे प्रचलित उदहारण चित्तोड़ की रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ का दिया जाता है। कहा जाता है कि जब गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तोड़ पर हमला किया तब चित्तोड़ की रानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पत्र लिख कर सहायता करने का निवेदन किया। पत्र के साथ रानी ने भाई समझ कर राखी भी भेजी थी। हुमायूँ रानी की रक्षा के लिए आया मगर तब तक देर हो चुकी थी। रानी ने जौहर कर आत्महत्या कर ली थी। इस इतिहास को हिन्दू-मुस्लिम एकता तोर पर पढ़ाया जाता हैं।
अब इस सेक्युलर घोटाले की वास्तविकता देखिये –
मेवाड़ साम्राज्य के महानायक राणा सांगा का नाम कौन नहीं जानता, जिन्होंने सबसे पहले आतताई बाबर का सामना किया | 1526 ईसवी में जब बाबर ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा संग्राम सिंह उर्फ़ राणा सांगा ने इस विदेशी आक्रान्ता के खिलाफ राजपूत राजाओं को एकत्रित किया और बाबर पर धावा बोला । लेकिन 1527 में खानुआ की लड़ाई में, यह संयुक्त हिंदू शक्ति बाबर के तोपखाने से पराजित हो गई | बहादुरी से लड़ते हुए राणा सांगा के शरीर पर 80 घाव आये, और देश धर्म की बलिवेदी पर उनका बलिदान हुआ ।
इन्ही राणा सांगा की धर्मपत्नी थीं रानी कर्णवती । वह चित्तौड़गढ़ के अगले दो राणा, राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माता और महान महाराणा प्रताप की दादी थी। 1527 से 1533 तक अपने अल्पवयस्क बड़े पुत्र विक्रमादित्य के संरक्षक के रूप में उन्होंने ही राजकाज संभाला ।
इसी दरम्यान गुजरात के शासक बहादुर शाह द्वारा मेवाड़ पर हमला किया गया । राणा सांगा के बाद सिसौदिया वंश के अन्य परिजन अल्पवयस्क राणा के आधीन रहने को तैयार नहीं थे | किन्तु महारानी कर्णावती ने उन्हें सिसौदिया वंश की खातिर युद्ध करने हेतु मनाया । उन लोगों ने शर्त रखी कि युद्ध के दौरान राणा सांगा के दोनों बेटे व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टि से बुंदी जायें। इसी दौरान वह प्रसंग भी हुआ, जिसने पन्ना धाय को इतिहास में अमर कर दिया |
रानी कर्णावती अपने बेटों को बूंदी भेजने को राजी हो गईं तथा उन्होंने अपनी भरोसेमंद दासी पन्ना दाई को उनकी जिम्मेदारी सोंपी | सत्ता की हवस में बच्चों के चाचाओं ने ही उनकी जान लेने का प्रयत्न किया | किन्तु पन्ना धाय ने राजकुमार के स्थान पर अपने जिगर के टुकडे अपने इकलौते बेटे को राजकुमार बताकर अपनी आँखों के सामने उसे तलवार से दो टुकड़े होते देखा |
इस घटना से आहत कर्णावती ने तत्कालीन मुग़ल सम्राट हुमायूं को राखी भेजकर मदद मांगी | किन्तु वे मुगालते में थीं | जिसे उन्होंने भाई बनाते हुए मदद की आशा की थी, वह पहले विदेशी आक्रान्ता था, जिसकी नजर में मेवाड़ को काफिरों के शासन से मुक्त करना, प्राथमिक कर्तव्य था |
हमारे देश का इतिहास सेक्युलर इतिहासकारों ने लिखा है। भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम थे। जिन्हें साम्यवादी विचारधारा के नेहरू ने सख्त हिदायत देकर यह कहा था कि जो भी इतिहास पाठयक्रम में शामिल किया जाये, उस इतिहास में यह न पढ़ाया जाये कि मुस्लिम हमलावरों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा, हिन्दुओं को जबरन धर्मान्तरित किया, उन पर अनेक अत्याचार किये। मौलाना ने नेहरू की सलाह को मानते हुए न केवल सत्य इतिहास को छुपाया अपितु उसे विकृत भी कर दिया।
रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ के किस्से के साथ भी यही अत्याचार हुआ।
यह तो सच है कि रानी ने हुमायूँ को पत्र लिखा। मगर इसकी जानकारी मिलते ही गुजरात के शासक बहादुर खान ने भी हुमायूँ को पत्र लिख कर इस्लाम की दुहाई दी और एक काफिर की सहायता करने से रोका। मिरात-ए-सिकंदरी में गुजरात विषय से पृष्ठ संख्या 382 पर लिखा मिलता है-
सुल्तान के पत्र का हुमायूँ पर असर हुआ। वह आगरे से चित्तोड़ के लिए निकल गया था। अभी वह गवालियर ही पहुंचा था कि तभी उसे विचार आया कि अगर मैंने चित्तोड़ की मदद की तो मैं एक प्रकार से एक काफिर की मदद करूँगा। इस्लाम के अनुसार काफिर की मदद करना हराम है। इसलिए देरी करना सबसे सही रहेगा। “
यह विचार कर हुमायूँ गवालियर में ही रुक गया और आगे नहीं सरका। इधर बहादुर शाह ने जब चित्तोड़ को घेर लिया। रानी ने पूरी वीरता से उसका सामना किया। हुमायूँ का कोई नामोनिशान नहीं था। अंत में जौहर करने का फैसला हुआ। किले के दरवाजे खोल दिए गए। केसरिया बाना पहनकर पुरुष युद्ध के लिए उतर गए। पीछे से राजपूत औरतें जौहर की आग में कूद गई। 8 मार्च, 1535 को रानी कर्णावती 13000 स्त्रियों के साथ जौहर में कूद गई। 3000 छोटे बच्चों को कुँए और खाई में फेंक दिया गया। ताकि वे मुसलमानों के हाथ न लगे। कुल मिलकर 32000 निर्दोष लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
बहादुर शाह किले में लूटपाट कर वापिस चला गया। हुमायूँ चित्तोड़ आया। मगर पुरे एक वर्ष के बाद आया।परन्तु किसलिए आया? अपने वार्षिक लगान को इकठ्ठा करने आया। ध्यान दीजिये यही हुमायूँ जब शेरशाह सूरी के डर से रेगिस्तान की धूल छानता फिर रहा था। तब उमरकोट सिंध के हिन्दू राजपूत राणा ने हुमायूँ को आश्रय दिया था। यही उमरकोट में अकबर का जन्म हुआ था। एक काफ़िर का आश्रय लेते हुमायूँ को कभी इस्लाम याद नहीं आया। हिन्दू राजपूत राणा ने अगर हुमायूँ को आश्रय नहीं दिया होता तो इतिहास कुछ और ही होता । अगर हुमायूँ रेगिस्तान में ही दफ़न हो जाता तो भारत से मुग़लों का अंत तभी हो जाता। न आगे चलकर अकबर से लेकर औरंगज़ेब के अत्याचार हिन्दुओं को सहने पड़ते।
इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर सरीखे इतिहासकारों ने इतिहास को केवल विकृत ही नहीं किया अपितु उसका पूरा बलात्कार ही कर दिया। हुमायूँ द्वारा इस्लाम के नाम पर की गई दगाबाजी को हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे और रक्षाबंधन का नाम दे दिया। हमारे पाठयक्रम में पढ़ा पढ़ा कर हिन्दू बच्चों को इतना भ्रमित किया गया कि उन्हें कभी सत्य का ज्ञान ही न हो। इसीलिए आज हिन्दुओं के बच्चे दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के दर्शन करने जाते हैं। जहाँ पर गाइड उन्हें हुमायूँ को हिन्दूमुस्लिम भाईचारे के प्रतीक के रूप में बताते हैं।
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राजस्थान की वीर-नारियाँ
Veer women of Rajasthan
Veer women of Rajasthan
Veer women of Rajasthan
Veer women of Rajasthan
पद्मिनी :- महारानी पद्मिनी चित्तौड़ के रावल रतनसिंह की पत्नी थी। पद्मिनी इतनी सुन्दर थी कि काव्य में उसे उपमान के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जब पद्मिनी की सुन्दरता के बारे में सुना तो वह उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपनी इच्छापूर्ति के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण भी किया, किन्तु जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने रावल रतनसिंह को सन्देश भेजा कि यदि उसे पद्मिनी को केवल दिखा दिया जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।
चित्तौड़ को विनाश से बचाने के लिए खिलजी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। सुल्तान किले में बुलाया गया और उसे पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखाया गया। उसे चाहकर भी पद्मिनी प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिली। रावल रतनसिंह जब खिलजी को औपचारिकता वश छोड़ने के लिए गए तो वहा¡ उन्हें कैद कर लिया गया और सुल्तान के द्वारा रतनसिंह को छोड़ने के लिए पद्मिनी को साथ ले जाने की शर्त रखी।
सुल्तान की चाल का जबाब भी चाल से दिया गया। रानी ने दिलेरी के साथ सुल्तान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह सुल्तान के साथ जाने को तैयार है किन्तु वह अपने साथ अपनी दासियों को भी ले जाना चाहती है। सुल्तान को इससे क्या आपत्ति हो सकती थी। योजनानुसार पालकिया¡ तैयार की गयीं। प्रत्येक पालकी में एक वीर योद्धा शस्त्रों सहित बैठ गया। पालकी उठाने के लिए भी कहारों के रूप में छ: सशस्त्र योद्धाओं का चयन किया गया। गोरा के नेतृत्व में पालकिया¡ सुल्तान के डेरे पर पहु¡ची। गोरा ने सुल्तान से कहा कि रानी अन्तिम बार अपने पति से मिलना चाहतीं हैं।
सुल्तान की अनुमति के बाद पालकिया रतनसिंह के खेमें में पहची और वहा¡ पहुचते ही पालकियों में छिपे योद्धाओं ने राव रतनसिंह को मुक्त करा कर किले में भेज दिया। मुगल सैनिक उन्हें नहीं रोक पाये। निराश होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया किन्तु उसने कुछ समय बाद पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिसमें राजपूतों को पीले वस्त्र पहनकर मरने-मारने के संकल्प के साथ किले से निकलना पड़ा।
पद्मिनी के नेतृत्व में महिलाओं ने अपना बलिदान करके अपनी पवित्रता व चित्तौड़ के आत्मसम्मान की रक्षा की और सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारिया¡ सुन्दरता में ही नहीं, वीरता और बलिदान में भी आगे हैं; उन्हें शक्ति के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं ।
रानी कर्मवती - राणा सांगा खानवा के युद्ध में घायल होकर अधिक समय तक जीवित न रह सके। उनकी मृत्यु के बाद विक्रमादित्य को गद्दी पर बिठाया गया किन्तु वे अयोग्य शासक सिद्ध हुए, उनकी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए गुजरात के शासक बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।
विक्रमादित्य ने बहादुरशाह से सन्धि कर ली। राणा सांगा की पत्नी वीरांगना कर्मवती को यह सन्धि अपमान के रूप में लगी। उसने मेवाड़ के सामन्तों व सैनिकों को इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। सभी ने रानी के सामने मातृभूमि की रक्षा में मर मिटने का संकल्प लिया। बहादुर शाह ने जब सन्धि तोड़ते हुए चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण किया तो कर्मवती की प्रेरणा से उत्साहित राजपूत सेना ने शत्रु-सेना का डटकर मुकाबला किया।
बहादुर शाह की विशाल सेना को रोक पाना संभव न रहा तो रानी ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि शत्रु हमारे जीवित रहते हुए किले में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। रानी ने स्वयं सेना का नेतृत्व किया। रानी ने हुमायू¡ की सहायता प्राप्त करने के लिए उसे राखी भी भेजी। रानी कर्मवती ने दुर्ग के द्वार खोलकर मातृभूमि की के लिए युद्ध करते हुए रानी ने प्राण न्यौछावर कर दिए।
हाड़ी रानी :- सलूम्बर के युवा सामन्त चुण्डावत की नवविवाहिता पत्नी का नाम हाड़ी रानी था। मेवाड़ में महाराणा राजसिंह का शासन था। महाराणा राजसिंह का विवाह चारूमती (रूपमती) के साथ होने जा रहा था, उसी समय औरंगजेब ने अपनी सेना लेकर आक्रमण कर दिया।
विवाह होने तक मुगल सेना को आगे बढ़ने से रोकना आवश्यक था। औरंगजेब की सेना को रोकने का दायित्व नव विवाहित राव चुण्डावत ने स्वीकार किया। महाराणा ने चुण्डावत से कहा - `आपका कल ही तो विवाह हुआ है, आप युद्ध में न जाए¡।´ चुण्डावत सरदार ने उत्तर दिया, ``महाराणा! राजपूतों के लिए युद्ध भी विवाह के समान ही है। युद्ध में मौत का वरण किया जाता है। युद्ध में भाग लेना ही राजपूतों का धर्म है।´´
चुण्डावत सरदार महाराणा की आज्ञा प्राप्त कर अपनी हवेली पहु¡चे और रानी को दरबार में हुई बात के बारे मेें जानकारी दी। अपने वीर पति की वीरता से रोमांचित रानी प्रसन्न हो उठी, उसने सोचा मेरा जीवन धन्य हो गया, जो मुझे ऐसे वीर पति मिले। मैं आदश क्षत्राणी धर्म का पालन करूगी। हाड़ी रानी ने अपने हाथों से अपने पति को अस्त्र-शस्त्र धारण कराये, टीका लगाया और आरती उतार कर युद्ध क्षेत्र के लिए विदा किया।
चुण्डावत सरदार ने सेना के साथ युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया किन्तु जाते समय उन्हें अपनी नव-विवाहिता पत्नी की याद सताने लगी। उन्होंने अपने एक सेवक से कहा, ``जाओ! रानी से सैनाणी (निशानी) लेकर आओ।´´ सेवक ने हवेली में जाकर सरदार का संदेश सुनाया। रानी ने सोचा युद्ध क्षेत्र में भी उन्हें मेरी याद सतायेगी तो वे कमजोर पड़ जायेंगे, युद्ध कैसे कर पायेंगे। मैं उनके कर्तव्य में बाधक क्यों बनू¡? यह सोचकर हाड़ी रानी ने सेवक के हाथ से तलवार लेकर सेवक को अपना सिर ले जाने का आदेश देते हुए तलवार से अपना सिर काट डाला। सेवक रानी का कटा सिर अपनी थाली में लेकर, सरदार के पास पहु¡चा। रानी का बलिदान देखकर चुण्डावत की भुजाए¡ फड़क उठी। उत्साहित सरदार तलवार लेकर शत्रु-दल पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए ।
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