अटल बिहारी वाजपेयी :



पूर्व प्रधानमंत्री और 'भारत रत्न' अटल बिहारी वाजपेयी देश के एकमात्र ऐसे राजनेता थे, जो चार राज्यों के छह लोकसभा क्षेत्रों की नुमाइंदगी कर चुके थे। उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बलरामपुर, गुजरात के गांधीनगर, मध्यप्रदेश के ग्वालियर और विदिशा और दिल्ली की नई दिल्ली संसदीय सीट से चुनाव जीतने वाले वाजपेयी इकलौते नेता हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्‍म 25 दिसंबर 1924 को हुआ, इस दिन को भारत में बड़ा दिन कहा जाता है। वाजपेयी 1942 में राजनीति में उस समय आए, जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनके भाई 23 दिनों के लिए जेल गए। 1951 में आरएसएस के सहयोग से भारतीय जनसंघ पार्टी का गठन हुआ तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं के साथ अटलबिहारी वाजपेयी की अहम भूमिका रही।

वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली। वे उत्तरप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में उतरे थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार सफलता 1957 में मिली थी। 1957 में जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वे चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर वे लोकसभा पहुंचे।


वाजपेयी के असाधारण व्‍यक्तित्‍व को देखकर उस समय के वर्तमान प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आने वाले दिनों में यह व्यक्ति जरूर प्रधानमंत्री बनेगा।

वाजपेयी तीसरे लोकसभा चुनाव 1962 में लखनऊ सीट से उतरे, लेकिन उन्हें जीत नहीं मिल सकी। इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य चुने गए। बाद में 1967 में फिर लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। इसके बाद 1967 में ही उपचुनाव हुआ, जहां से वे जीतकर सांसद बने।

इसके बाद 1968 में वाजपेयी जनसंघ के राष्ट्रीय अध्‍यक्ष बने। उस समय पार्टी के साथ नानाजी देशमुख, बलराज मधोक तथा लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे नेता थे।

1971 में पांचवें लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी मध्यप्रदेश के ग्वालियर संसदीय सीट से चुनाव में उतरे और जीतकर संसद पहुंचे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में 1977 और फिर 1980 के मध्यावधि चुनाव में उन्होंने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।

1984 में अटलजी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर से लोकसभा चुनाव का पर्चा दाखिल कर दिया और उनके खिलाफ अचानक कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया, जबकि माधवराव गुना संसदीय क्षेत्र से चुनकर आते थे। सिंधिया से वाजपेयी पौने दो लाख वोटों से हार गए।

वाजपेयीजी ने एक बार जिक्र भी किया था कि उन्होंने स्वयं संसद के गलियारे में माधवराव से पूछा था कि वे ग्वालियर से तो चुनाव नहीं लड़ेंगे। माधवराव ने उस समय मना कर दिया था, लेकिन कांग्रेस की रणनीति के तहत अचानक उनका पर्चा दाखिल करा दिया गया। इस तरह वाजपेयी के पास मौका ही नहीं बचा कि दूसरी जगह से नामांकन दाखिल कर पाते। ऐसे में उन्हें सिंधिया से हार का सामना करना पड़ा।

इसके बाद वाजपेयी 1991 के आम चुनाव में लखनऊ और मध्य प्रदेश की विदिशा सीट से चुनाव लड़े और दोनों ही जगह से जीते। बाद में उन्होंने विदिशा सीट छोड़ दी।

1996 में हवाला कांड में अपना नाम आने के कारण लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से चुनाव नहीं लड़े। इस स्थिति में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ सीट के साथ-साथ गांधीनगर से चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की। इसके बाद वाजपेयी ने लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बना ली। व़े 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव लखनऊ सीट से जीतकर सांसद बने।

आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई थी और वे मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्‍व वाली सरकार में विदेश मामलों के मंत्री बने। विदेश मंत्री बनने के बाद वाजपेयी पहले ऐसे नेता थे जिन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र महासंघ को हिन्‍दी भाषा में संबोधित किया।

इसके बाद जनता पार्टी अंतर्कलह के कारण बिखर गई और 1980 में वाजपेयी के साथ पुराने दोस्‍त भी जनता पार्टी छोड़ भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गए। वाजपेयी भाजपा के पहले राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बने और वे कांग्रेस सरकार के सबसे बड़े आलोचकों में शुमार किए जाने लगे।

1994 में कर्नाटक 1995 में गुजरात और महाराष्‍ट्र में पार्टी जब चुनाव जीत गई उसके बाद पार्टी के तत्कालीन अध्‍यक्ष लालकृष्‍ण आडवाणी ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित कर दिया था।

वाजपेयीजी 1996 से लेकर 2004 तक तीन बार प्रधानमंत्री बने। 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने। हालांकि उनकी सरकार 13 दिनों में संसद में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं करने के चलते गिर गई।

1998 के दोबारा लोकसभा चुनाव में पार्टी को ज्‍यादा सीटें मिलीं और कुछ अन्‍य पार्टियों के सहयोग से वाजपेयीजी ने एनडीए का गठन किया और वे फिर प्रधानमंत्री बने। यह सरकार 13 महीनों तक चली, लेकिन बीच में ही जयललिता की पार्टी ने सरकार का साथ छोड़ दिया, जिसके चलते सरकार गिर गई। 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर से सत्‍ता में आई और इस बार वाजपेयीजी ने अपना कार्यकाल पूरा किया।

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प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल
भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बनाना
इन्हें भी देखें: भारतीय परमाणु परीक्षण
अटल सरकार ने ११ और १३ मई १९९८ को पोखरण में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट करके भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया। इस कदम से उन्होंने भारत को निर्विवाद रूप से विश्व मानचित्र पर एक सुदृढ वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। यह सब इतनी गोपनीयता से किया गया कि अति विकसित जासूसी उपग्रहों व तकनीक से संपन्न पश्चिमी देशों को इसकी भनक तक नहीं लगी। यही नहीं इसके बाद पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर अनेक प्रतिबंध लगाए गए लेकिन वाजपेयी सरकार ने सबका दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए आर्थिक विकास की ऊँचाईयों को छुआ।

पाकिस्तान से संबंधों में सुधार की पहल
19 फ़रवरी 1999 को सदा-ए-सरहद नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू की गई। इस सेवा का उद्घाटन करते हुए प्रथम यात्री के रूप में वाजपेयी जी ने पाकिस्तान की यात्रा करके नवाज़ शरीफ से मुलाकात की और आपसी संबंधों में एक नयी शुरुआत की।[11]

कारगिल युद्ध
मुख्य लेख: कारगिल युद्ध
कुछ ही समय पश्चात् पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ की शह पर पाकिस्तानी सेना व उग्रवादियों ने कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ करके कई पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लिया। अटल सरकार ने पाकिस्तान की सीमा का उल्लंघन न करने की अंतर्राष्ट्रीय सलाह का सम्मान करते हुए धैर्यपूर्वक किंतु ठोस कार्यवाही करके भारतीय क्षेत्र को मुक्त कराया। इस युद्ध में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण भारतीय सेना को जान माल का बहुत नुकसान हुआ और पाकिस्तान के साथ शुरु किए गए संबंध सुधार एकबार फिर शून्य हो गए।

स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना
भारत भर के चारों कोनों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना (अंग्रेजी में- गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल प्रोजैक्ट या संक्षेप में जी॰क्यू॰ प्रोजैक्ट) की शुरुआत की गई। इसके अंतर्गत दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई व मुम्बई को राजमार्गों से जोड़ा गया। ऐसा माना जाता है कि अटल जी के शासनकाल में भारत में जितनी सड़कों का निर्माण हुआ इतना केवल शेरशाह सूरी के समय में ही हुआ था।

वाजपेयी सरकार के अन्य प्रमुख कार्य[संपादित करें]
एक सौ वर्ष से भी ज्यादा पुराने कावेरी जल विवाद को सुलझाया।
संरचनात्मक ढाँचे के लिये कार्यदल, सॉफ्टवेयर विकास के लिये सूचना एवं प्रौद्योगिकी कार्यदल, विद्युतीकरण में गति लाने के लिये केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग आदि का गठन किया।
राष्ट्रीय राजमार्गों एवं हवाई अड्डों का विकास; नई टेलीकॉम नीति तथा कोकण रेलवे की शुरुआत करके बुनियादी संरचनात्मक ढाँचे को मजबूत करने वाले कदम उठाये।
राष्ट्रीय सुरक्षा समिति, आर्थिक सलाह समिति, व्यापार एवं उद्योग समिति भी गठित कीं।
आवश्यक उपभोक्ता सामग्रियों के मूल्योंं को नियन्त्रित करने के लिये मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन बुलाया।
उड़ीसा के सर्वाधिक निर्धन क्षेत्र के लिये सात सूत्रीय निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया।
आवास निर्माण को प्रोत्साहन देने के लिए अर्बन सीलिंग एक्ट समाप्त किया।
ग्रामीण रोजगार सृजन एवं विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के लिये बीमा योजना शुरू की।
सरकारी खर्चे पर रोजा इफ़्तार शुरू किया
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अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक सफर : जब अटल जी की मथुरा में हुई थी जमानत जब्त
अटल बिहारी वाजपेयी 1951 में जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने लेकिन लखनऊ में लोकसभा उप चुनाव हार गए, 1957 में जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया लखनऊ में हारे, मथुरा में जमानत जब्त हुई, लेकिन बलरामपुर से जीतकर दूसरी लोकसभा में पहुंचे, यह उनके अगले पांच दशकों के अटूट संसदीय करियर की शुरुआत थी।

घनशयाम बादल
25 Dec 2018

काल के कपाल पर लिखता,
मिटाता हूं मैं गीत नया गाता
और मैंने जन्म नहीं मांगा था
किंतु मरण की मांग करुंगा,
जाने कितनी बार जिया हूं
जाने कितनी बार मरा हूं,
जन्म मरण के फेरे से मैं
इतना पहले नहीं डरा हूं।

25 दिसंबर, 1924 को जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी का आज जन्मदिन है। अटल में काल से अटल रार करने का एक ऐसा माद्दा था जिसने उन्हें राजनीति जैसे कलुष से भरे क्षेत्र में भी एक चमकदार नायाब हीरा बनाए रखा। अटल जी वे पहले शख्स थे जिन्होने इस मिथक को तोड़ा कि भारतीय राजनीति में नेहरु वंश के सिवा कोई और देश नहीं चला सकता। वे ऐसे अजातशत्रु राजनेता थे जिन्होंने अपनी वाक्पटुता और अद्भुत भाषण कला से ने केवल आम जनता को अपना मुरीद बनाया अपितु उनके कट्टर विरोधी भी उनके कायल रहे। Also Read - Rajasthan Congress: सचिन पायलट की वापसी के बाद राजस्थान में बड़ा बदलाव, अजय माकन को बनाया गया इंचार्ज ब्रिटिश दल के भारत आने पर नेहरु जी ने उनका परिचय कुछ यूं कराया था, यें हमारे विपक्ष के युवा नेता हैं, जो मेरे कटु आलोचना का कोई मौका नहीं खेाते, पर उनमें एक उज्जवल भविष्य देखता हूं। यानि अटल जी में नेहरु ने बहुत पहले ही भावी प्रधानमंत्री देख लिया था। इंदिरा गांधी ने कांगेस में आने को कहा पर अटल नही माने। अटल बिहारी वाजपेयी जीवट के धनी थे उन्होंने सारी दुनिया की परवाह किए बगैर भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाया, विपक्ष में रहकर भी संयुक्त राष्ट्रसंघ में देश का प्रतिनिधित्व किया, वहां पहली बार हिंदी का परचम लहराया। 1951 में जनसंघ के संस्थापक सदस्य अटल ने अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति में रंग जमाया। Also Read - उत्तर प्रदेश में कोरोना से 2 मंत्रियों की मौत, पीएम मोदी और सीएम योगी ने जताया दुख पर वे लखनऊ में लोकसभा उप चुनाव हार गए, 1957 में जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया लखनऊ में हारे, मथुरा में जमानत जब्त हुई, लेकिन बलरामपुर से जीतकर दूसरी लोकसभा में पहुंचे, यह उनके अगले पांच दशकों के अटूट संसदीय करियर की शुरुआत थी। 1968 से 1973 तक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे अटल आपातकाल में जेल में गए व 1977 में जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री बने, इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया। 1980 में वे बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे और 1986 तक अध्यक्ष व बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे। अटल बिहारी वाजपेयी नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए, दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति भी रही। 1962 से 1967 और 1986 में राज्यसभा के सदस्य रहे। 16 मई 1996 को पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को संख्या बल के आगे नतमस्तक होने के वक्तव्य के साथ त्यागपत्र दे दिया। Also Read - लखनऊ: आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह के खिलाफ दर्ज हुई FIR, जानें क्या है मामला 1999 में एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली इस बार वे पूरे कार्यकाल के प्रधानमंत्री रहे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के शासन काल में भारत एक सशक्त परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बना और स्वच्छ सुशासन की राजनीति का उद्घोष हुआ। अटलजी महान राजनेता ही नहीं अपितु साहित्यकार, पत्रकार, संपादक व कुशल कवि तथा वक्ता भी थे। उनकी वकतृत्व कला के लिए नेहरु व इंदिरा जैसे विपक्षी नेता भी उन पर फिदा रहे हैं, इसी वजह से विदेशमंत्री के रूप में वें सर्वाधिक लोकप्रिय हुए तथा विदेशों में व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को निखारने में अद्भुत योगदान दिया। यह अटल जी के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान जैसी भारत विरोधी शक्तियां भारत के प्रति विद्वेष की भावना भरने में नाकामयाब रहीं।

वे खुद विद्वेष से दूर थे इसीलिए खुद समझौता एक्स्प्रेस लेकर पाकिस्तान गए, मुशर्रफ को आगरा बुलवाया पर उनकी चिकन बिरयानी के जवाब में जब कारगिल हुआ तो अटल ने पाक को मुंह तोड़ ज़वाब भी दिया। अटल राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय व संवैधानिक विषयों के गूढ़ ज्ञाता रहे। 1946 में वकालत की पढ़ाई बीच में ही छोड़ खुद को संघ के प्रति समर्पित कर दिया। अटल कहते थे कि भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्र पुरूष है। यह जीवन का आदर्श व एक जीवन पद्धति है जहां से ज्ञान की रश्मियां सम्पूर्ण विश्व में फैली हैं। यही वह देश है जिसने सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्म का संदेश दिया है और विश्वगुरू कहलाया है। यह सदैव से धर्म, दर्शन, अध्यात्म के उच्चतम सिध्दान्तों का देश रहा है और जिसके वातावरण में मानवता तथा विश्व के बंधुत्व का राग ध्वनित होता रहता है। हमारी विरासत है, हमारी संस्कृति। भारत वन्दन की, अभिनन्दन की भूमि है। प्रधामंत्रीत्व काल में अटल का रणनीतिक कौशल देखकर राजनीतिक समीक्षक दंग रहे। विपरीत रीतियों-नीतियों वाले दलों के गठबंधन को उन्हानें कुशल ढंग से संभाला। परमाणु बम बनाने के बाद भी उन्होंने देश को अमेरिका व दूसरे देशों के दबाव में नही आने दिया। उस समय वे बहुत कम बोले परन्तु जो बोलेे वह अन्तर को छूने वाला व रणनीतिक कौशल से भरा होता था। एक परिश्रमी भारत व विजयी भारत बनाने का अटल का सदा ही सपना रहा। जब अटल जी ने राजनीति को अलविदा कह रखा है तब उनके धुर विरोधी रहे नेता भी मानते थे कि उनका चिंतन व मनन अद्भुत रहा, एक हिंदुवादी दल में होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में अटल बेमिसाल रहे हैं। अटल की खास बात रही है कि वे वक्त पड़ने पर अपनी बेलाग बातें कहने से कभी नहीं चूके। जब लालकृष्ण अडवाणी की रथ यात्रा के बाद संसद में उन्हें संसदीय दल का नेता बनाया जा रहा था तब उन्होंने कहा था, आड़वाणी जी के इन भालू बंदरों को संभालना मेरे बस की बात नहीं है। पर न केवल संभाला अपितु अगले ही चुनाव में सरकार बनाने में सफल रहे। जब गोधरा कांड हुआ तब वे प्रधानमंत्री थे। जब पत्रकारों ने पूछा अब मुख्यमंत्री को क्या करना चाहिए तब अटल ने बेलाग कहा था उन्हे अपना राजधर्म निभाना होगा। बिना किसी के दबाव में आए अटल ने अपना तीसरा कार्यकाल जिस तरह पूरा किया वह भारत के धर्मरिपेक्ष स्वरूप की छवि का एक स्वर्णकाल कहा जा सकता है। दंगे व पंगे से रहित उस काल ने अटल को बहुत पहले ही भारतरत्न बना दिया था जिस पर भारत सरकार की मोहर तो बहुत बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लगी। अटल 94 साल हमारे बीच रहे अटल 16 अगस्त को इस वर्ष दैहिक से दैविक हो गए पर उनकी छवि, अद्भुत भाषण कला वह रुक-रुककर बोलना और देश के लिए दल को गौण कर देना हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा।
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अटल बिहारी वाजपेयी के 10 फ़ैसले जिनके आईने में इतिहास उन्हें तौलेगा
प्रदीप कुमार
बीबीसी संवाददाता
25 दिसंबर 2018

अटल बिहारी वाजपेयी जीवित होते तो 95 साल के हो गए होते. हालांकि वे अब नहीं हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी भारतीय राजनीति में हमेशा रहेगी.
16 अगस्त, 2018 को वाजपेयी का निधन हो गया था. उनके गुजरने के कुछ महीने बाद अब उनके जन्मदिन को भारतीय जनता पार्टी व्यापक तौर पर मना रही है.
केंद्र सरकार ने इस मौके पर वाजपेयी की तस्वीर वाला 100 रुपये का सिक्का भी जारी किया है.
बतौर राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी हर मुमकिन ऊंचाई तक पहुंचे, वे प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे.
कभी महज़ दो सीटों वाली पार्टी रही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनाने की उपलब्धि केवल अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय राजनीति में सहज स्वीकार्यता के बूते की बात थी, जिसे भांपते हुए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी लालकृष्ण आडवाणी को पीछे रखकर वाजपेयी को आगे बढ़ाना पड़ा था.

वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे, पहले 13 दिन तक, फिर 13 महीने तक और उसके बाद 1999 से 2004 तक का कार्यकाल उन्होंने पूरा किया. इस दौरान उन्होंने ये साबित किया कि देश में गठबंधन सरकारों को भी सफलता से चलाया जा सकता है.
ज़ाहिर है कि जब वाजपेयी स्थिर सरकार के मुखिया बने तो उन्होंने ऐसे कई बड़े फ़ैसले लिए जिसने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया, ये वाजपेयी की कुशलता ही कही जाएगी कि उन्होंने एक तरह से दक्षिणपंथ की राजनीति को भारतीय जनमानस में इस तरह रचा बसा दिया जिसके चलते एक दशक बाद भारतीय जनता पार्टी ने वो बहुमत हासिल कर दिखाया जिसकी एक समय में कल्पना भी नहीं की जाती थी.
एक नज़र बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उन फ़ैसलों की जिसका असर लंबे समय तक भारतीय राजनीति में नज़र आता रहेगा.
1. भारत को जोड़ने की योजना
प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी के जिस काम को सबसे ज़्यादा अहम माना जा सकता है वो सड़कों के माध्यम से भारत को जोड़ने की योजना है.
उन्होंने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना लागू की. साथ ही ग्रामीण अंचलों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना लागू की. उनके इस फ़ैसले ने देश के आर्थिक विकास को रफ़्तार दी.
हालांकि, उनकी सरकार के दौरान ही भारतीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना का ख़ाका भी बना था. उन्होंने 2003 में सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स का गठन किया था. हालांकि, जल संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने काफ़ी विरोध किया था.

2. निजीकरण को बढ़ावा-विनिवेश की शुरुआत
वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान देश में निजीकरण को उस रफ़्तार तक बढ़ाया गया जहां से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं बची. वाजपेयी की इस रणनीति के पीछे कॉर्पोरेट समूहों की बीजेपी से सांठगांठ रही होगी हालांकि उस दौर में इसे उनके नज़दीकी रहे प्रमोद महाजन की सोच का असर भी माना गया था.
वाजपेयी ने 1999 में अपनी सरकार में विनिवेश मंत्रालय के तौर पर एक अनोखा मंत्रालय का गठन किया था. इसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गए थे. शौरी के मंत्रालय ने वाजपेयी जी के नेतृत्व में भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को), हिंदुस्तान ज़िंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू की थी.
इतना ही नहीं वाजपेयी से पहले देश में बीमा का क्षेत्र सरकारी कंपनियों के हवाले ही था, लेकिन वाजपेयी सरकार ने इसमें विदेशी निवेश के रास्ते खोले. उन्होंने बीमा कंपनियों में विदेशी निवेश की सीमा को 26 फ़ीसदी तक किया था, जिसे 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बढ़ाकर 49 फ़ीसदी तक कर दिया.
इन कंपनियों के निजीकरण से नियुक्तियों में आरक्षण की बध्यता भी ख़त्म हो गई. बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी के निजीकरण को बढ़ाने वाले इस क़दम की आज भी ख़ूब आलोचना होती है.
आलोचना करने वालों के मुताबिक़, निजीकरण से कंपनियों ने मुनाफ़े को ही अपना उद्देश्य बना लिया. हालांकि, बाज़ार के दख़ल के हरकारे लगाने वालों के लिए इससे लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलनी शुरू हुईं लेकिन इन सेक्टर में काम करने वालों के लिए ये बदलाव मुफ़ीद नहीं रहा.
ध्यान रहे सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन की स्कीम को वाजपेयी सरकार ने ही ख़त्म किया था. लेकिन उन्होंने जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले पेंशन की सुविधा को नहीं बदला था.

3. संचार क्रांति का दूसरा चरण
भारत में संचार क्रांति का जनक भले राजीव गांधी और उनके नियुक्त किए गए सैम पित्रोदा को माना जाता हो लेकिन उसे आम लोगों तक पहुंचाने का काम वाजपेयी सरकार ने ही किया था. 1999 में वाजपेयी ने भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के एकाधिकार को ख़त्म करते हुए नई टेलिकॉम नीति लागू की.
इसके पीछे भी प्रमोद महाजन का दिमाग़ बताया गया. रेवेन्यू शेयरिंग मॉडल के ज़रिए लोगों को सस्ती दरों पर फ़ोन कॉल्स करने का फ़ायदा मिला और बाद में सस्ती मोबाइल फ़ोन का दौर शुरू हुआ.
हालांकि नई टेलिकॉम नीति के तहत वो दुनिया खुली थी जिसका एक रूप 2जी घोटाले के रूप में यूपीए कार्यकाल में सामने आया था.

4. सर्व शिक्षा अभियान
छह से 14 साल के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का अभियान वाजपेयी के कार्यकाल में ही शुरू किया गया था. 2000-01 में उन्होंने ये स्कीम लागू की. जिसके चलते बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में कमी दर्ज की गई. 2000 में जहां 40 फ़ीसदी बच्चे ड्रॉप आउट्स होते थे, उनकी संख्या 2005 आते आते 10 फ़ीसदी के आसपास आ गई थी.
इस मिशन से वाजपेयी के लगाव का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने स्कीम को प्रमोट करने वाली थीम लाइन 'स्कूल चले हम' ख़ुद से लिखा था.

5. पोखरण का परीक्षण
मई 1998 में भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था. ये 1974 के बाद भारत का पहला परमाणु परीक्षण था. वाजपेयी ने परीक्षण ये दिखाने के लिए किय़ा था कि भारत परमाणु संपन्न देश है. हालांकि उनके आलोचक इस परीक्षण की ज़रूरत पर सवाल उठाते रहे हैं, क्योंकि जवाब के तौर पर पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किया था.
प्रसिद्ध लेखिका अरूंधति राय ने आउटलुक के 5 अगस्त, 1998 के अंक में परमाणु परीक्षण की आलोचना करते हुए 'द इंड ऑफ़ इमेजिनेशन' नाम से एक लंबा आर्टिकल लिखा था. इसमें अरूंधित राय ने लिखा था, ''अगर परमाणु युद्ध होता है तो यह एक देश का दूसरे देश के खिलाफ युद्ध नहीं होगा, हमारा दुश्मन ना तो चीन होगा ना ही अमरीका. हमारी दुश्मन पृथ्वी होगी. उसके तत्व- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, ये सब हमारे ख़िलाफ़ हो जाएंगे. उनका आक्रोष हमारे लिए बेहद ख़तरनाक होगा.''
वैसे ये वो दौर था जब विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने ये मांग की थी कि पोखरण की रेत को पूरे भारत में प्रसाद के तौर पर बांटा जाए. इसका जिक्र करते हुए अरुंधति राय ने लिखा था ये लोग देश भर में कैंसर की यात्रा चाहते हैं क्या?
इस परीक्षण के बाद अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा और कई पश्चिमी देशों ने आर्थिक पांबदी लगा दी थी लेकिन वाजपेयी की कूटनीति कौशल का कमाल था कि 2001 के आते-आते ज़्यादातर देशों ने सारी पाबंदियां हटा ली थीं.

6. लाहौर-आगरा समिट और करगिल-कंधार की नाकामी
प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों को सुधारने की कवायद को तेज़ किया था. उन्होंने फरवरी, 1999 में दिल्ली-लाहौर बस सेवा शुरू की थी. पहली बस सेवा से वे ख़ुद लाहौर गए और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के साथ मिलकर लाहौर दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए. ये क़दम उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में किया था.
इतना ही नहीं, वाजपेयी अपनी इस लाहौर यात्रा के दौरान मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए. दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से पाकिस्तान के अस्तित्व को नकारता रहा था और अखंड भारत की बात करता रहा था. वाजपेयी का मीनार-ए-पाकिस्तान जाना एक तरह से पाकिस्तान की संप्रभुता को संघ की ओर से भी स्वीकार किए जाने का संकेत माना गया.
ये बात दीगर है कि तब तक भारत का कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी मीनार-ए-पाकिस्तान जाने का साहस नहीं जुटा पाए थे. मीनार-ए-पाकिस्तान वो जगह है जहां पाकिस्तान को बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को पास किया गया था.
मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर वाजपेयी ने कहा था कि मुझे काफ़ी कुछ कहा गया है लेकिन मुझे उसमें कोई लॉजिक नज़र नहीं आता. इसलिए मैं यहां आना चाहता था. मैं कहना चाहता हूं कि पाकिस्तान के अस्तित्व को मेरे स्टांप की ज़रूरत नहीं है, मुझसे अगर भारत में सवाल पूछे गए तो मैं वहां भी जवाब दूंगा.
वरिष्ठ पत्रकार किंग्शुक नाग ने वाजपेयी पर लिखी पुस्तक आल सीज़ंड मैन में लिखा है कि उनसे तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कहा था कि अब तो वाजपेयी जी पाकिस्तान में भी चुनाव लड़े तो जीत जाएंगे.

हालांकि इसके तुरंत बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने करगिल में भारतीय सीमा में घुसपैठ कर ली. इसके बाद पाकिस्तानी सैनिकों को उनकी जगह वापस पहुंचाने के लिए दो महीने तक संघर्ष चला. इस संघर्ष में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत की तरफ़ से 500 से ज़्यादा लोग मारे गए.
ये पहला मौका था जब पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सीमा के अंदर आकर आक्रमण किया था, इसको लेकर वाजपेयी की आलोचना होती रही.
इसके बाद एक बड़ी नाकामी वाजपेयी को कंधार हाइजैक मसले के दौरान भी हुई. 24 दिसंबर को पाकिस्तान स्थित चरमपंथी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन के लोगों ने आईसी-814 विमान का अपहरण कर लिया था. काठमांडू से दिल्ली आ रहे इस विमान में 176 यात्री और चालक दल के 15 लोग सवार थे.
भारतीय सीमा में इस विमान का अपहरण कर लिया गया और अपहरणकर्ता इस विमान को अफ़ग़ानिस्तान के कंधार ले गए. इन लोगों ने भारत सरकार से तीन चरमपंथी मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद ओमार सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को रिहा करने की मांग की.
तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह इन चरमपंथियों को लेकर कंधार गए और यात्रियों को रिहा कराया. ये कहा जाता रहा है कि वाजपेयी सरकार ने आमलोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी लेकिन कंधार संकट को नज़दीक से देखने वाले और भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुल्लत ने कई बार इस बात को दोहराया है कि तब दिल्ली में सरकार के स्तर पर इस मामले को ठीक ढंग से हैंडल नहीं किया गया.
इसके बाद पाकिस्तान की कमान परवेज़ मुशर्रफ़ के हाथों में आ गई, वाजपेयी ने तब भी रिश्ते को सुधारने के लिए बातचीत को तरजीह दी, आगरा में दोनों नेताओं के बीच हाई प्रोफ़ाइल मुलाकात हुई भी हालांकि ये बातचीत नाकाम हो गई थी.
7. पोटा क़ानून
प्रधानमंत्री के तौर पर ये वाजपेयी के पूर्ण कार्यकाल का दौर था जब 13 दिसंबर, 2001 को पांच चरमपंथियों ने भारतीय संसद पर हमला कर दिया. ये भारतीय संसदीय इतिहास का सबसे काला दिन माना जाता है.
इस हमले में भारत के किसी नेता को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था लेकिन पांचों चरमपंथी और कई सुरक्षाकर्मी मारे गए थे. इससे पहले नौ सितंबर को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर सबसे भयावह आतंकी हमला हो चुका था.
अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी
इन सबको देखते हुए आतंरिक सुरक्षा के लिए सख़्त क़ानून बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी थी और वाजपेयी सरकार ने पोटा क़ानून बनाया, ये बेहद सख़्त आतंकवाद निरोधी क़ानून था, जिसे 1995 के टाडा क़ानून के मुक़ाबले बेहद कड़ा माना गया था.
हालांकि इस क़ानून के बनने के बाद ही इसको लेकर आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया कि इसके ज़रिए सरकार विरोधियों को निशाना बना रही है. महज दो साल के अंदर इस क़ानून के तहत 800 लोगों को गिरफ़्तार किया गया और क़रीब 4000 लोगों पर मुक़दमा दर्ज किए गए. तमिलनाडु में एमडीएमके नेता वाइको को भी पोटा क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया था.
महज दो साल के दौरान वाजपेयी सरकार ने 32 संगठनों पर पोटा के तहत पाबंदी लगाई. 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तब ये क़ानून निरस्त कर दिया गया.

8. संविधान समीक्षा आयोग का गठन
वाजपेयी सरकार ने संविधान में संशोधन की ज़रूरत पर विचार करने के लिए एक फरवरी, 2000 को संविधान समीक्षा के राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था. हालांकि ऐसे आयोग के गठन का विरोध विपक्षी दलों के अलावा तत्कालीन राष्ट्रपति आरके नारायणन ने भी किया था.
26 जनवरी, 2000 को 50वें गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने संबोधन में आरके नारायणन ने संविधान समीक्षा की ज़रूरत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि जब संशोधन की व्यवस्था है ही तो भी फिर समीक्षा क्यों होनी चाहिए?
लेकिन वाजपेयी सरकार ने आयोग का गठन किया और उसे छह महीने का वक्त दिया गया. उस वक्त इस बात पर अंदेशा जताया गया था कि जिस संविधान को तैयार करने में तीन साल के करीब वक्त लगा उसकी समीक्षा महज छह महीने में कैसे हो पाएगी.
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलाइया के अगुवाई वाले आयोग ने 249 सिफ़ारिशें की थीं, लेकिन इस आयोग और उनकी सिफ़ारिशों का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था, जिसके बाद वाजपेयी सरकार संविधान को संशोधित करने के काम को आगे नहीं बढ़ा पाई.
9. जातिवार जनगणना पर रोक
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बनने से पहले एचडी देवगौड़ा सरकार ने जातिवार जनगणना कराने को मंजूरी दे दी थी जिसके चलते 2001 में जातिगत जनगणना होनी थी. मंडल कमीशन के प्रावधानों को लागू करने के बाद देश में पहली बार जनगणना 2001 में होनी थी, ऐसे मंडल कमीशन के प्रावधानों को ठीक ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं इसे देखने के लिए जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग ज़ोर पकड़ रही थी.
न्यायिक प्रणाली की ओर से बार बार तथ्यात्मक आंकड़ों को जुटाने की बात कही जा रही थी ताकि कोई ठोस कार्य प्रणाली बनाई जा सके. तत्कालीन रजिस्टार जनरल ने भी जातिगत जनगणना की मंजूरी दे दी थी. लेकिन वाजपेयी सरकार ने इस फ़ैसले को पलट दिया. जिसके चलते जातिवार जनगणना नहीं हो पाई.
इसको लेकर समाज का बहुजन तबका और उसके नेता वाजपेयी की आलोचना करते रहे हैं, उनके मुताबिक वाजपेयी के फ़ैसले से आबादी के हिसाब से हक की मुहिम को धक्का पहुंचा.

10. राजधर्म का पालन
हर प्रधानमंत्री की तरह वाजपेयी के फ़ैसलों को अच्छे और ख़राब की कसौटी पर कसा जाता रहा है. लेकिन गुजरात में 2002 में हुए दंगे के दौरान एक सप्ताह तक उनकी चुप्पी को लेकर वाजपेयी की सबसे ज़्यादा आलोचना होती है.
गोधरा कांड 26 फरवरी, 2002 से शुरू हुआ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी का पहला बयान तीन मार्च, 2002 को आया जब उन्होंने कहा कि गोधरा से अहमदाबाद तक जिस तरह से लोगों को ज़िंदा जलाया जा रहा है वो देश के माथे पर दाग़ है. लेकिन उन्होंने इसे रोकने के लिए ठोस क़दम नहीं उठाए.
क़रीब एक महीने बाद चार अप्रैल, 2002 को वाजपेयी अहमदाबाद गए और वहां वाजपेयी बोले भी तो केवल इतना ही कहा कि मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए.
हालांकि वे खुद राजधर्म का पालन क्यों नहीं कर पाए, ये सवाल उठता रहा और संभवत ये बात वाजपेयी को भी सालती रही. उन्होंने बाद में कई मौकों पर ये ज़ाहिर किया कि वे चाहते थे मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा दे दें.
लेकिन ना तो तब नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के पद से अपना इस्तीफ़ा दिया और ना ही वाजपेयी राजधर्म का पालन करते हुए उन्हें हटा पाए. इसके बाद 2004 में एनडीटीवी के लिए राजदीप सरदेसाई को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि 'अगर हिंदुओं को जलाया नहीं जाता तो गुजरात में भी दंगे नहीं होते.'
इतिहास वाजपेयी की तमाम ख़ासियतों के साथ इस 'राजनीतिक चूक' के लिए भी उन्हें हमेशा याद रखेगा.
( ये नजरिया बी बी सी का जिसकी सभी बातें स्विकार नहीं की जा सकती, मगी एक अच्छा विश्लेष्ण है।)


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