शिवाजी का आगरा जेल से मुक्त होना

Goal of Chhatrapati Shivaji Maharaj's life was to create Hindu ...



आगरा किले में कैद है शिवाजी की जेल





                                          19 अगस्त  के दिन शिवाजी औरंगजेब की आगरा कैद से निकले थे

शिवाजी की आगरा यात्रा -  अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर छत्रपति शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए तैयार हो गए। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुगल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगजेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगजेब को विश्वश्घाती  कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगजेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को  जयपुर भवन  में कैद कर दिया। वहां से शिवाजी 17 अगस्त, 1666 ई ( यह तारीख कही 13, 16,18   और कहीं 19  भी लिखी है ) को फलों की टोकरी में छिपकर फरार हो गए और 22 सितम्बर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुंचे।

शिवाजी का फलों की टोकरी में छुपकर कर आगरा जेल से मुक्त होना  :
समर्थ गुरु रामदास की योजना के मुताबिक, औरंगजेब को भेंट के तौर पर फलों की टोकरियां भिजवाई जाती थीं.  गुरूजी ने भी ये सिलसिला अपने एक भक्त के जरिए शुरू कराया था. मुगल सेना का विश्वास जीतने के बाद उस भक्त ने 17 अगस्त 1666 को दो बड़ी और कवर्ड टोकरियां भेजी. टोकरियों खाली होने के बाद शिवाजी ने अपने हमशक्ल हीरो जी फरजन्द को अपनी जगह लिटाया, और अपने पुत्र के साथ इन टोकरियों में छुपकर भाग निकले.

सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ा. और शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए 2 सितम्बर 1666 को सकुशल रायगढ़ पहुँच गये. इससे मराठों को नवजीवन मिल गया. औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा दी. जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की. औरंगजेब को शिवाजी को राजा की मान्यता देनी पड़ी. और शिवाजी के पुत्र संभाजी को 5000 की मनसबदारी दी. शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया. पर सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा.

शिवाजी का अदम्य साहस और सूझबूझ हमें झकझोर देती है. शिवाजी के साहस और सूझबूझ भरे कारनामे हमारी प्रेरणा के श्रोत हैं.
सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ा. और शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए 2 सितम्बर 1666 को सकुशल रायगढ़ पहुँच गये. इससे मराठों को नवजीवन मिल गया. औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा दी. जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की. औरंगजेब को शिवाजी को राजा की मान्यता देनी पड़ी. और शिवाजी के पुत्र संभाजी को 5000 की मनसबदारी दी. शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया. पर सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा.

शिवाजी का अदम्य साहस और सूझबूझ हमें झकझोर देती है. शिवाजी के साहस और सूझबूझ भरे कारनामे हमारी प्रेरणा के श्रोत हैं.


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छत्रपति शिवाजी- एक महान मराठा शासक

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शिवाजी ( पूरा नाम: 'शिवाजी राजे भोंसले', जन्म: 19 फ़रवरी, 1630 ई.; मृत्यु: 3 अप्रैल, 1680 ई.) पश्चिमी भारत के मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे। शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले और माता का नाम जीजाबाई था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है।

 शिवाजी भारत के महान् योद्धा एवं रणनीतिकार थे, जिन्होंने 1674 ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुग़ल साम्राज्य से संघर्ष किया। सन 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वे छत्रपति बने। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किये तथा छापामार युद्ध की नयी शैली (शिवसूत्र) को विकसित किया। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनैतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और फ़ारसी के स्थान पर मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया।

पिता द्वारा माता का त्याग-
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत-से लोगों ने शिवाजी के जीवन-चरित से प्रेरणा लेकर भारत की स्वतन्त्रता के लिये अपना तन, मन धन न्यौछावर कर दिया। शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं।

पालन-पोषण-
जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव, जीजाबाई तथा समर्थ गुरु रामदास की देखरेख में हुआ।शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तोरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया।

विवाह-
शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।

शिवाजी का आरम्भिक जीवन -

शिवाजी बचपन से ही उत्साही योद्धा थे, हालांकि इस वजह से उन्हें केवल औपचारिक शिक्षा दी गयी, जिसमें वे लिख पढ़ नहीं सकते थे; लेकिन फिर भी उनको सुनाई गई बातें उन्हें अच्छी तरह याद रहती थीं। शिवाजी ने मावल क्षेत्र से अपने विश्वस्त साथियों और सेना को इकट्टा किया। मावल साथियों के साथ शिवाजी खुद को मजबूत करने और अपनी मातृभूमि के ज्ञान के लिए सहयाद्रि पर्वतमाला की पहाड़ियों और जंगलो में घूमते रहते थे ताकि वे सैन्य प्रयासों के लिए तैयार हो सकें।


हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा-

12 वर्ष की उम्र में शिवाजी को बंगलौर ले जाया गया, जहाँ उनका ज्येष्ठ भाई शम्भाजी और उनका सौतेला भाई एकोजी पहले ही औपचारिक रूप से प्रशिक्षित थे। शिवाजी का 1640 ई. में निम्बालकर परिवार की सइबाई से विवाह कर दिया गया। 1645 ई. में किशोर शिवाजी ने प्रथम बार हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा दादाजी नरस प्रभु के समक्ष प्रकट की। शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमान शासकों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा।

लोकप्रियता-

शिवाजी की विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थीं, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 ई. में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिन्दुओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए, जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।

शिवाजी और जयसिंह-

शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया, जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गईं और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा।

पुरन्दर की सन्धि-

शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया।

शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और 22 जून, 1665 ई. को 'पुरन्दर की सन्धि' सम्पन्न हुई।


इतिहास प्रसिद्ध पुरन्दर की सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-

*शिवाजी को मुग़लों को अपने 23 क़िले, जिनकी आमदनी 4 लाख हूण प्रति वर्ष थी, देने थे।
*सामान्य आय वाले, लगभग एक लाख हूण वार्षिक की आमदनी वाले, 12 क़िले शिवाजी को अपने पास रखने थे।
*शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की सेवा में अपने पुत्र शम्भाजी को भेजने की बात मान ली एवं मुग़ल दरबार ने शम्भाजी को 5000 का मनसब एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।
*मुग़ल सेना के द्वारा बीजापुर पर सैन्य अभियान के दौरान बालाघाट की जागीरें प्राप्त होती, जिसके लिए शिवाजी को मुग़ल दरबार को 40 लाख हूण देना था।


शिवाजी की आगरा यात्रा-

पुरन्दर की संधि के दौरान अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी आगरा के दरबार में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह 9 मई, 1666 ई. को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए।

बरार की जागीरदारी-

मुग़ल दरबार में बादशाह औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई. को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और 22 सितम्बर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि- "यदि सम्राट उन्हें (शिवाजी को) क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उन्हें 'राजा' की उपाधि प्रदान की। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से 9 मार्च, 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को बरार की जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया।

सन्धि का उल्लंघन-

1667-1669 ई. के बीच के तीन वर्षों का उपयोग शिवाजी ने विजित प्रदेशों को सुदृढ़ करने और प्रशासन के कार्यों में बिताया। 1670 ई. में शिवाजी ने 'पुरन्दर की संधि' का उल्लंघन करते हुए मुग़लों को दिये गये 23 क़िलों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। तानाजी मालसुरे द्वारा जीता गया कोंडाना, जिसका फ़रवरी, 1670 ई. में शिवाजी ने नाम बदलकर 'सिंहगढ़' रखा दिया था, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क़िला था।


दुर्गों पर विजय-

13 अक्टूबर, 1670 ई. को शिवाजी ने तीव्रगति से सूरत पर आक्रमण कर दूसरी बार इस बन्दरगाह नगर को लूटा। शिवाजी ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण सफलता के बाद दक्षिण की मुग़ल रियासतों से हीं नहीं, बल्कि उनके अधीन राज्यों से भी 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' लेना आरम्भ कर दिया। 15 फ़रवरी, 1671 ई. को 'सलेहर दुर्ग' पर भी शिवाजी ने क़ब्ज़ा कर लिया। शिवाजी के विजय अभियान को रोकने के लिए औरंगज़ेब ने महावत ख़ाँ एवं बहादुर ख़ाँ को भेजा। इन दोनों की असफलता के बाद औरंगज़ेब ने बहादुर ख़ाँ एवं दिलेर ख़ाँ को भेजा। इस तरह 1670-1674 ई. के मध्य हुए सभी मुग़ल आक्रमणों में शिवाजी को ही सफलता मिली और उन्होंने सलेहर, मुलेहर, जवाहर एवं रामनगर आदि क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1672 ई. में शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को बीजापुर से छीन लिया। मराठों ने पाली और सतारा के दुर्गों को भी जीत लिया।

शिवाजी का राज्याभिषेक -

सन 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था, जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राह्मणों ने उनका घोर विरोध किया।


बालाजी आवजी का योगदान-

शिवाजी के निजी सचिव बालाजी आवजी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने काशी में गंगाभ नामक एक ब्राह्मण के पास तीन दूतों को भेजा, किन्तु गंगाभ ने प्रस्ताव ठुकरा दिया, क्योंकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे। उसने कहा कि क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा। बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे, जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया ओर उसने राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया। विवश होकर शिवाजी को 'अष्टप्रधान मंडल' की स्थापना करनी पड़ी।

'छत्रपति' की उपाधि-

विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था, पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण से 4 अक्टूबर, 1674 ई. को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण की विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुद्ध भेजा, पर वे असफल रहे।


शिवाजी का अंतिम समय -

शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है। यद्यपि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था। अपने समकालीन मुग़लों की तरह वह भी निरंकुश शासक थे, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी।


पुत्र की धर्मविमुखता-

शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच मराठा साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया था। लॉर्ड मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 ई. में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।

मराठा साम्राज्य की स्थापना-

अपनी मृत्यु से पूर्व ही शिवाजी ने मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना कर दी थी। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे थे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऐसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया।

जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक और आदर्शवादी व्यक्ति थे।

शिवाजी का व्यक्तित्व -

भारत के जिन वीरों ने अपनी असाधारण वीरता, त्याग और बलिदान से भारतभूमि को धन्य किया है, उनमें वीर शिवाजी का नाम अग्रगण्य है। मातृभूमि भारत की स्वतन्त्रता एवं गौरव के रक्षक वीर शिवाजी एक साहसी सैनिक, दूरदर्शी इंसान, सतर्क व सहिष्णु देशभक्त थे। उनकी चारित्रिक श्रेष्ठता, दानशीलता के अनेक उदाहरण गौरवगाथा के रूप में मिलते हैं। वे महाराष्ट्र के ही नहीं, समूची मातृभूमि के सेवक थे। वे हिन्दुत्व के नहीं, राष्ट्रीयता के पोषक रहे थे।

समर्पित हिन्दू व सहिष्णु-

शिवाजी एक समर्पित हिन्दू होने के साथ-ही-साथ धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। उनके मराठा साम्राज्य में हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी पूरा सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। वह अपने अभियानों का आरंभ भी अकसर दशहरा के अवसर पर करते थे।


आदर्श पुत्र-

छत्रपति शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा ही मिली, जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी भोंसले को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी को छुड़वा लिया। इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव नजर आता है।शाहजी के मरने के बाद ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया। हालांकि वे उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे, यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी।


श्रेष्ठ सेनानायक व कूटनीतिज्ञ-

वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से भाग लिया था। लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही। शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद किया जाता है। शिवाजी महाराज के गौरव में निम्न पंक्तियाँ लिखी गई हैं-

 शिवरायांचे आठवावे स्वरूप। शिवरायांचा आठवावा साक्षेप ।
शिवरायांचा आठवावा प्रताप। भूमंडळी ॥

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