अजेय पेशवा बाजीराव
इतिहास तथा राजनीति के एक विद्वान् सर रिचर्ड टेंपिल ने बाजीराव की महत्ता का यथार्थ अनुमान एक वाक्य समूह में किया है, जिससे उसका असीम उत्साह फूट-फूट कर निकल रहा है। वह लिखता है - सवार के रूप में बाजीराव को कोई भी मात नहीं दे सकता था। युद्ध में वह सदैव अग्रगामी रहता था। यदि कार्य दुस्साध्य होता तो वह सदैव अग्नि-वर्षा का सामना करने को उत्सुक रहता। वह कभी थकता न था। उसे अपने सिपाहियों के साथ दुःख-सुख उठाने में बड़ा आनंद आता था। विरोधी मुसलमानों और राजनीतिक क्षितिज पर नवोदित यूरोपीय सत्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय उद्योगों में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे हिंदुओं के विश्वास और श्रद्धा में सदैव मिलती रही। वह उस समय तक जीवित रहा जब तक अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक संपूर्ण भारतीय महाद्वीप पर मराठों का भय व्याप्त न हो गया। उसकी मृत्यु डेरे में हुई, जिसमें वह अपने सिपाहियों के साथ आजीवन रहा। युद्धकर्ता पेशवा के रूप में तथा हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में मराठे उसका स्मरण करते हैं। जब भी इतिहास में महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्संदेह महान् पेशवा श्रीमंतबाजीराव के नाम से लोग ओत-प्रोत होंगे |
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साभार
बाजीराव का परिचय : पेशवा बाजीराव का जन्म 18 अगस्त सन् 1700 को एक भट्ट परिवार में पिता बालाजी विश्वनाथ और माता राधाबाई के घर में हुआ था। उनके पिताजी छत्रपति शाहू के प्रथम पेशवा थे। बाजीराव का एक छोटा भाई भी था चिमाजी अप्पा। बाजीराव अपने पिताजी के साथ हमेशा सैन्य अभियानों में जाया करते थे।
पेशवा बाजीराव की पहली पत्नी का नाम काशीबाई था जिसके 3 पुत्र थे- बालाजी बाजी राव, रघुनाथ राव जिसकी बचपन में भी मृत्यु हो गई थी। पेशवा बाजीराव की दूसरी पत्नी का नाम था मस्तानी, जो छत्रसाल के राजा की बेटी थी। बाजीराव उनसे बहुत अधिक प्रेम करते थे और उनके लिए पुणे के पास एक महल भी बाजीराव ने बनवाया जिसका नाम उन्होंने 'मस्तानी महल' रखा। सन 1734 में बाजीराव और मस्तानी का एक पुत्र हुआ जिसका नाम कृष्णा राव रखा गया था।
पेशवा बाजीराव, जिन्हें बाजीराव प्रथम भी कहा जाता है, मराठा साम्राज्य के एक महान पेशवा थे। पेशवा का अर्थ होता है प्रधानमंत्री। वे मराठा छत्रपति राजा शाहू के 4थे प्रधानमंत्री थे। बाजीराव ने अपना प्रधानमंत्री का पद सन् 1720 से अपनी मृत्यु तक संभाला। उनको बाजीराव बल्लाल भट्ट और थोरल बाजीराव के नाम से भी जाना जाता है।
इतिहास के अनुसार बाजीराव घुड़सवारी करते हुए लड़ने में सबसे माहिर थे और यह माना जाता है कि उनसे अच्छा घुड़सवार सैनिक भारत में आज तक देखा नहीं गया। उनके 4 घोड़े थे- नीला, गंगा, सारंगा और औलख। उनकी देखभाल वे स्वयं करते थे। बाजीराव 6 फुट ऊंचे थे, उनके हाथ भी लंबे थे। बलिष्ठ, तेजस्वी, कांतिवान, तांबई रंग की त्वचा उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगाती थी। न्यायप्रिय बाजीराव को सफेद या हल्के रंग के वस्त्र पसंद थे। पूरी सेना को वे सख्त अनुशासन में रखते थे। अपने भाषण से वे सेना में जोश भर देते थे।
मराठा साम्राज्य के पेशवा :
सन् 1720 में उनके पिता विश्वनाथ की मृत्यु हो गई। उसके बाद बाजीराव को 20 साल की आयु में पेशवा के पद पर नियोजित किया गया। बाजीराव के पेशवा पद पर आते ही छत्रपति शाहू नाम मात्र के ही शासक बन गए और खासकर सतारा स्थित उनके आवास तक ही सीमित रह गए। मराठा साम्राज्य कुंके नाम पर तो चल रहा था, पर असली ताकत पेशवा बाजीराव के हाथ में ही थी।
महाराणा प्रताप और शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से लंबे समय तक लोहा लिया। बाजीराव बल्लाल भट्ट एक महान योद्धा थे। निजाम, मोहम्मद बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई-कई बार शिकस्त देने वाले बाजीराव के समय में महाराष्ट्र, गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड सहित 70 से 80 फीसदी भारत पर उनका कब्जा था। इतिहास में ऐसे कई वीर हुए हैं जिन्होंने मुगलों को दिल्ली तक ही समेट दिया था। उनमें से एक थे बाजीराव। हालांकि आरोप है कि भारत के ऐसे वीरों को आजादी के बाद के शिक्षामंत्रियों और वामपंथी इतिहाकारों ने बड़ी चालाकी से इतिहास से हटाकर मुगल इतिहास को महिमामंडित किया।
बाजीराव ने शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था। देश में पहली बार 'हिन्दू पद पादशाही' का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हालांकि जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वे न्याय करते थे। उनकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, जो युद्ध से पहले 'हर-हर महादेव' का नारा भी लगाना नहीं भूलते थे। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिन्दू स्वराज लाने का सपना जो छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था उसे काफी हद तक पेशवा बाजीराव ने पूरा किया।
होलकर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वे सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं। ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उनका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला।
हिन्दुस्तान के इतिहास के बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था जिसने 41 लड़ाइयां लड़ीं और एक भी नहीं हारीं। वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर' में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है।
बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई जिसे 'ब्लिट्जक्रिग' बोला गया। अमेरिकी सेना ने उनकी पालखेड़ की लड़ाई का एक मॉडल ही बनाकर रखा है जिस पर सैनिकों को युद्ध तकनीक का प्रशिक्षण दिया जाता है। बाजीराव का युद्ध रिकॉर्ड छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप से भी अच्छा माना जाता है। नर्मदा पार सेना ले जाने वाला और 400 वर्ष की यवनी सत्ता को दिल्ली में जाकर ललकारने वाला बाजीराव पहला मराठा था।
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निजाम के खिलाफ अभियान :
पेशवा बाजीराव 4 जनवरी 1721 में निजाम-उल-मुल्क असफ जह प्रथम से मिले और अपने विवादों को एक समझौते के तौर पर सुलझाया, पर तब भी निजाम नहीं माना और मराठों के अधिकार के खिलाफ डेक्कन से कर वसूलने लगा। सन् 1722 में निजाम को मुगल शासन का वजीर बना दिया गया, परंतु सन् 1723 में सम्राट मुहम्मद शाह ने निजाम को डेक्कन से अवध भेज दिया।
निजाम ने वजीर का पद छोड़ दिया और वो दोबारा डेक्कन चला गया। सन् 1725 में निजाम ने मराठा कर अधिकारियों को खदेड़ने का प्रयास किया और वह इस प्रयास में सफल हुआ। इसके एवज में 27 अगस्त सन् 1727 में बाजीराव ने निजाम के खिलाफ मोर्चा शुरू किया और उन्होंने जालना, बुरहानपुर और खानदेश सहित निजाम के कई राज्यों पर कब्जा कर लिया।
28 फरवरी 1728 में बाजीराव और निजाम की सेना के बीच एक युद्ध हुआ जिसे 'पल्खेद की लड़ाई' कहा जाता है। इस लड़ाई में निजाम की हार हुई और उस पर मजबूरन शांति बनाए रखने के लिए दबाव डाला गया।
मालवा का अभियान :
बाजीराव ने सन् 1723 में दक्षिण मालवा की ओर एक अभियान शुरू किया जिसमें मराठा के प्रमुख रानोजी शिंदे, मल्हारराव होलकर, उदाजीराव पवार, तुकोजीराव पवार और जीवाजीराव पवार ने सफलतापूर्वक चौथ वसूला। अक्टूबर 1728 में बाजीराव ने एक विशाल सेना अपने छोटे भाई चिमनाजी अप्पा के नेतृत्व में भेजा जिसके कुछ प्रमुख थे शिंदे, होलकर और पवार। 29 नवंबर 1728 को चिमनाजी की सेना ने मुगलों को अमझेरा में हरा दिया।
बुंदेलखंड का अभियान :
बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मुगलों के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया था जिसके कारण दिसंबर 1728 में मुगलों ने मुहम्मद खान बंगश के नेतृत्व में बुंदेलखंड पर आक्रमण कर दिया और महाराजा के परिवार के लोगों को बंधक बना दिया। छत्रसाल राजा के बार-बार बाजीराव से मदद मांगने पर मार्च सन् 1729 को को बाजीराव ने उत्तर दिया और अपनी ताकत से महाराजा छत्रसाल को उनका सम्मान वापस दिलाया। महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव को बहुत बड़ी जागीर सौंपी और अपनी बेटी मस्तानी और बाजीराव का विवाह भी करवाया, साथ ही महाराजा छत्रसाल ने अपनी मृत्यु सन् 1731 के पहले अपने कुछ मुख्य राज्य भी मराठों को सौंप दिए।
गुजरात का अभियान :
सन् 1730 में पेशवा बाजीराव ने अपने छोटे भाई चिमनाजी अप्पा को गुजरात भेजा। मुगल शासन के गवर्नर सर्बुलंद खान ने गुजरात का कर इकट्ठा (चौथ और सरदेशमुखी) को मराठों को सौंप दिया। 1 अप्रैल 1731 में बाजीराव ने दाभाड़े, गायकवाड़ और कदम बंदे की सेनाओं को हरा दिया और दभोई के युद्ध में त्रिम्बकराव की मृत्यु हो गई। 27 दिसंबर 1732 में निजाम की मुलाकात पेशवा बाजीराव से रोहे-रमेशराम में हुई, परंतु निजाम ने कसम खाई कि वो मराठों के अभियानों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
सिद्दियों के खिलाफ अभियान :
जंजीरा के सिद्दी मुस्लिम राजा एक छोटा राज्य पश्चिमी तटीय भाग और जंजीर के किले को संभालते थे, पर शिवाजी की मृत्यु के बाद से वो धीरे-धीरे मध्य और उत्तर कोंकण पर भी राज करने लगे। सन् 1733 में सिद्दी प्रमुख रसूल याकूत खान की मृत्यु के बाद उसके बेटों के बीच युद्ध-सा छिड़ गया। उनके एक पुत्र अब्दुल रहमान ने बाजीराव पेशवा से मदद मांगी जिसके कारण बाजीराव ने कान्होजी अंगरे के पुत्र सेखोजी अंगरे के नेतृत्व में एक सेना मदद के लिए भेज दी। मराठों ने कोंकण और जंजीरा की कई जगहों पर काबू पा लिया और 1733 में ही उन्होंने रायगढ़ के किले पर भी कब्जा कर लिया। 19 अप्रैल 1736 में चिमनाजी ने सिद्दियों पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण लगभग 1,500 से ज्यादा सिद्दियों की मृत्यु हो गई।
मुगलों के गढ़ दिल्ली के खिलाफ अभियान :
बाजीराव के पद पर आने के बाद मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने मराठों को शिवाजी की मृत्य के बाद प्रदेशों की अधीनता को याद दिलाया। सन् 1719 में मुगलों ने यह भी याद दिलाया कि डेक्कन के 6 प्रांतों से कर वसूलने का मराठों का अधिकार क्या है? उस वक्त निजाम-उल-मुल्क असफ जह प्रथम मुगल साम्राज्य का वाइसराय था। उसने दक्कन में नया राज्य निर्माण किया और मराठों को कर वसूली के अधिकार के लिए चुनौती दी। बहुत जल्द ही मराठों ने मालवा और गुजरात में भी प्रदेशों को प्राप्त किया।
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19-20 साल के उस युवा बाजीराव ने 3 दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा था। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गए। ये घटना भंसाली की फिल्म में नहीं है।
दिल्ली पर आक्रमण उनका सबसे बड़ा साहसिक कदम था। वे अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहू से कहते थे कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू 7 से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे। वे मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था।
धीरे-धीरे उन्होंने महाराष्ट्र को ही नहीं, पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया था, फिर उन्होंने दक्कन का रुख किया। दक्कन में निजाम, जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया था।
इधर, उन्होंने बुंदेलखंड में मुगल सिपहसालार मोहम्मद बंगश को हराया। कई बार पेशवा से मात खा चुके मुगलों का हौसला कमजोर हो चुका था। 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उनके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।
इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था और निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था। औरंगजेब के वंशज और 12वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपहसालार विद्रोह कर रहे थे। उसने बंगश को हटाकर जयसिंह को भेजा जिसने बाजीराव से हारने के बाद उनको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गवर्नर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गवर्नर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहसालारों को हराने से कैसे पूरा होता?
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दिल्ली पर आक्रमण :
उन्होंने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गवर्नर सादात खां को उनसे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हारराव होलकर और पिलाजी जाधव की सेनाएं यमुना पार कर के दोआब में आ गईं। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति के चलते मल्हारराव होलकर ने रणनीति अनुसार मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने इसे मराठों का डरना समझा और उसने डींगें मारते हुए अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद सेना लेकर मथुरा की तरफ चला गया।
बस उसी वक्त बाजीराव ने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा-मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया।
10 दिन की दूरी बाजीराव ने केवल 500 घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की- बिना रुके, बिना थके। देश के इतिहास में ये अब तक 2 आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं- एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए 9 दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।
बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल 500 घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के अंदर सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में 8 से 10 हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के 500 लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन।
कितना आसान था बाजीराव के लिए लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी। वो 3 दिन तक वहीं रुका। एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली थी कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो 3 दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया।
अपनी इज्जत गंवा चुके मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी। निजाम दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों मध्यप्रदेश के सिरोंजी में मिले। लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उनको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है, किसी युद्ध के लिए नहीं। निजाम को मराठाओं ने रास्ता दे दिया।
निजाम दिल्ली आया और उसने कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाते हुए बाजीराव को धूल चटाने का संकल्प लेकर कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट दूरदर्शी योद्धा था। वह पहले से ही यह सब जानता था। वह अपने भाई चिमनाजी अप्पा के साथ 10,000 सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर 80,000 सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था ताकि वे फिर सिर न उठा सकें।
दिल्ली से निजाम की अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं। 24 दिसंबर 1737 के दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने 50 लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।
चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए। ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत।
पुर्तगालियों के खिलाफ अभियान :
पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट यहीं नहीं रुका, अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्धों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया। पुर्तगालियों ने कई पश्चिमी तटों पर कब्जा कर लिया था। साल्सेट द्वीप पर उन्होंने अवैध तरीके से एक फैक्टरी बना दी थी और वे हिन्दुओं में जातिवाद बढ़ाकर धर्मांतरण का कार्य कर रहे थे। वसई युद्ध के बाद मार्च 1737 में पेशवा बाजीराव ने अपनी एक सेना चिमनजी के नेतृत्व में भेजी और थाना किला और बेस्सिन पर कब्जा कर लिया।
बाजीराव की मृत्यु :
कहा जाता है कि बाजीराव पेशवा की मृत्यु 28 अप्रैल 1740 को 39 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से हुई थी। उस समय वे इंदौर के पास खरगोन शहर में रुके थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि बाजीराव का निधन मालवा में ही नर्मदा किनारे रावेरखेड़ी में लू लगने के कारण हुआ था।
अगर बाजीराव पेशवा कम उम्र में न चल बसता, तो न अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और न ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें होतीं। बाजीराव का केवल 40 साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं, देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले 200 साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता।
वाराणसी में उनके नाम का एक घाट है, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था। दिल्ली के बिड़ला मंदिर में उनकी एक मूर्ति है। कच्छ में उनका बनाया आईना महल, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा है। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाले बाजीराव बल्लाल भट्ट थे और सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए थे।
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18 अगस्त/जन्म-दिवस
अपराजेय नायक : पेशवा बाजीराव
Arun Kumar Sharma
छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा।
बाजीराव का जन्म 18 अगस्त, 1700 को अपने ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था। उनके दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने शिवाजी महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू जी महाराज के महामात्य (पेशवा) थे। उनकी वीरता के बल पर ही शाहू जी ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था।
बाजीराव को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी। जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ। उस समय उन्हें अनेक उपहार मिले। जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना। छत्रपति शाहू जी ने एक बार प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की माँग की। घुड़साल में ले जाने पर उन्होंने सबसे तेज और अड़ियल घोड़ा चुना। यही नहीं, उस पर तुरन्त ही सवारी गाँठ कर उन्होंने अपने भावी जीवन के संकेत भी दे दिये।
चौदह वर्ष की अवस्था में बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में जाने लगे। 5,000 फुट की खतरनाक ऊँचाई पर स्थित पाण्डवगढ़ किले पर पीछे से चढ़कर उन्होंने कब्जा किया। कुछ समय बाद पुर्तगालियों के विरुद्ध एक नौसैनिक अभियान में भी उनके कौशल का सबको परिचय मिला। इस पर शाहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी। दो अप्रैल, 1720 को बाजीराव के पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद शाहू जी ने 17 अपै्रल, 1720 को 20 वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बना दिया। बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम पर हमलाकर उसे धूल चटाई।
इसके बाद मालवा के दाऊदखान, उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर, गुजरात के मुश्ताक अली, चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खाँ को पराजित कर बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहरा दिया। इससे स्वराज्य की सीमा हैदराबाद से राजपूताने तक हो गयी। बाजीराव ने राणो जी शिन्दे, मल्हारराव होल्कर, उदा जी पँवार, चन्द्रो जी आंग्रे जैसे नवयुवकों को आगे बढ़ाकर कुशल सेनानायक बनाया।
पालखिण्ड के भीषण युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है। इसमें निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में फैल गयी। उन्होंने वयोवृद्ध छत्रसाल की मोहम्मद खाँ बंगश के विरुद्ध युद्ध में सहायता कर उन्हें बंगश की कैद से मुक्त कराया। तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को दिल्ली लूटने के बाद जब बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया।
सदा अपराजेय रहे बाजीराव अपनी घरेलू समस्याओं और महल की आन्तरिक राजनीति से बहुत परेशान रहते थे। जब वे नादिरशाह से दो-दो हाथ करने की अभिलाषा से दिल्ली जा रहे थे, तो मार्ग में नर्मदा के तट पर रावेरखेड़ी नामक स्थान पर गर्मी और उमस भरे मौसम में लू लगने से मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में 28 अपै्रल, 1740 को उनका देहान्त हो गया। उनकी युद्धनीति का एक ही सूत्र था कि जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी। पूना के शनिवार बाड़े में स्थित महल आज भी उनके शौर्य की याद दिलाता है।
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Bhajiravvancha murtukote zala
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