राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ RSS के संस्थापक परमपूज्य डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार

 हेडगेवार जन्मोत्सव : आज भी कायम है संघ के पितृपुरुष की दी हुई सेवा-परंपरा ⋆  Making India

 
भूमिका
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे संक्षिप्त में ‘संघ’ अथवा ‘आर.एस.एस.’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, जो आज भारत का ही नहीं वरन् विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन माना जाता है, जिसका विविध क्षैत्र में विविध संस्थाओं के माध्यम से एक वटवृक्ष जैसा रूप है। जो देश के राष्ट्र जीवन में एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस महान संगठन के संस्थापक डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार थे।
    आज हमारे देश में जितने भी राष्ट्रवादी कार्यक्रम होते है और उनमें दो चित्र प्रायः देखने को मिल जाते हे। वे ही चित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी एवं पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 अटलबिहारी वाजपेयी जी ं एवं बहुत सार महामहिम राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, केन्द्रीय मंत्रीयों , राज्य सरकार के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, जनप्रतिनिधियों, नेताओं और सामाजिक कार्यकताओं के आवासों एवं कार्यालयों में अक्सर एक साथ देखने को मिलते है। एक ओर कालीटोपी और रौबदार मूछों वाले परमपूज्य आदरणीय डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार और दूसरी ओर प्रभावशाली दाढ़ी वाले परमपूज्य आदरणीय माधव सदाशिवराव गोलवालकर अर्थात पूज्यश्री गुरूजी। यह दोनों चित्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम एवं द्वितीय सरसंघचालकों के है। यह चित्र विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सेवा भारती, संस्कार भारती,ग्राहक पंचायत,भारत विकास परिषद और भारतीय जनता पार्टी में भी आदर भाव से लगाये जाते है। मार्गदर्शी हैं,पूज्यनीय हैं।
    उनके प्रेरणामार्ग से जिन लोगों ने अपना जीवन यशस्वी बनाया उनमें परमपूज्य श्री गुरूजी, कश्मीर  पर अपना बलिदान करने वाले,जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रशाद मुखर्जी, एकात्म मानववाद के प्रणेता एवं भारतीय जनसंघ के संस्थापक महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय, पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी,वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी, विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंहल,जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक, प्रसि( उपन्यासकार गुरूदत्त, जनसंघ के ही पूर्व अध्यक्ष आचार्य रघुवीर,भाई महावीर,नानाजी देशमुख,कुशाभाउ ठाकरे,मुरली मनोहरजोशी,विष्णुकांत शास्त्री आदि अनगिनित हस्त्यिं और नाम हैं सहित...।
जन्म वृत्तांत
नाम     -    डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार
जन्म     -     1 अप्रैल 1889 वर्ष प्रतिपदा, गुडीपड़वा
माता -     रेवतीदेवी,पिता - बलीरामपंत हेडगेवार,    
स्थान -    नागपुर में अपने बड़े भाई पंडित महादेव शास्त्री के साथ रहते थे। मंझले भाई सीताराम और छोटे स्वंय केशव थे। तीन बहनें भी थीं।

बाल्यकाल की भूमिका
    केशव का जन्म यूं भी महाराष्ट्र में हुआ जो आजादी की मशाल अपने लहू से जला रहा था1उनके बाल मन मतिष्क पर बंगाल विभाजन और उसके विरू( चले प्रबल संर्घष और फिर बंगाल एकीकरण आन्दोलन का गहरा असर हुआ। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों और कलकत्ता की बम क्रांति का उन्होने प्रत्यक्ष अनुभव किया था।

- वन्दे मातरम् से स्वागत, शाला से निष्कासन।
- 1910 में कलकत्ता में शिक्षा हेतु नेशनल मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया। कलकत्ता का रहस्यपूर्ण कालखण्ड रहा इसी दौरान उन्हे डॉक्टर की उपाधी मिली।
- विवाह न करके और राष्ट्र कार्य करने का निर्णय।

- प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होते ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत में पनप रही स्वतंत्रता की ललक को दबाने में जुट गये। उन्होने रोलेट एक्ट लागू किया जिसका प्रबल  विरोध हुआ,इसी क्रम में जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा निहत्थे लोगों को गोलीयों से उडा देने का क्षोभ पूरे देश में था।
- डॉक्टर साहब का सक्रीय राजनीती में कांग्रेस के द्वारा प्रवेश, अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होना। नागपुर में कांग्रेस कार्यक्रमों में भागीदारी,‘राष्ट्रीय मण्डल’ की स्थापना, नागपुर नेशनल यूनियन की डॉक्टर जी द्वारा स्थापना, ‘संकल्प’ साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन।
- मोपला विद्रोह ने दिशा बदल दी। कुछ अलग से करने के लिये आक्रोशित किया।
राष्ट्र डॉक्टर का निदान......!
- हिन्दुस्तानी सेवादल के प्रमुख डॉ. ना.सु. हार्डिकर निरंतर संघ की आलोचना करने लगे, उनकी आलोचना का जवाब डॉक्टर जी ने भाषणों से नहीं, कार्यशक्ति से दिया। आगे चल कर पं. नेहरू के समर्थन सेउन्होने  कार्य को आगे बडाया भी, किन्तु उसमें भी उन्हें नाना प्रकार की दिक्कतें उठानी पड़ीं। उनका विरोध भी हुआ। फलस्वरूप वह दल सुचारू ढंग से प्रगति कर ही नहीं सका। डा. हार्डिकर डाक्टर हेडगेवार के कलकत्ता से ही मित्र थे। कहने का तात्पर्य यह है कि आन्दोलनों की पिटी पिटाई प(ति, उनका नेतृत्व, देश की समस्याओं के निवारण में उनकी उपादेयता आदि मामलों में जहां डा. हर्डीकर विफल रहे वहीं संघ के माध्यम से केशव सफल रहे! कारण....!
    डॉक्टर सहाब ने चिकित्सा विज्ञान को बडे मनोयोग से पढा था,वे जानते थे कि सिर्फ मर्ज जानने से कुछ नहीं होगा,बल्कि निदान हेतु औषध इत्यादी से प्रबंध करने होंगें। इसी लिए हिन्दुत्व की समस्यायें बहुतों ने जानी समझी मगर निदान संघ की स्थापना करके केशव ने ही दिया। वे सचमुच ही गीता के केशव की तरह अजुर्न रूपी हिन्दू समाज को दिशा दिखा रहे थे।
वे भी कभी हिन्दू थे...!
    केशव भारत में मौजूद मुसलमानों के संदर्भ में कहा करते थे कि ‘‘ये दस करोड़ लोग पहले कभी हिन्दू ही थे। किन्तु हम अपनी उदासीनता और निष्क्रियता के कारण उन्हें गंवा बैठे।’’
    उनका उन सभी कार्यों को समर्थन रहता था जो हिन्दुओं को मुसलमान व ईसाई मिशनरियों की आक्रामक और छद्म कार्रवाईयों से बचाने के लिए किये जाते थे। वे इस प्रकार के कार्यों के लिए प्रोत्साहन देते थे। उन्होंने अपने मित्र काका साहेब चोलकर से अनाथ हिन्दुओं के वास्ते नागपुर में एक अनाथ विद्यार्थी गृह स्थापित करवाया था।

कार्य से बडी लकीर खींचों.....
    केशव हमेशा दृढ़ता से कहते थे कि ‘‘संघ का कार्य और उसकी कार्यप(ति हम लोगों का कोई नया आविष्कार नहीं है। संघ में तो परम पवित्र सनातन हिन्दू धर्म , अपनी प्राचीन हिन्दू संस्कृति, अपने स्वयंसि( हिन्दू राष्ट्र और अनादि काल से चले आ रहे भगवा ध्वज को जैसा का तैसा सबके सामने रखा है। इन बातों में चैतन्य ;तेजस्विताद्ध भरने के लिए समय की आवश्यकता के अनुसार कार्यप(ति अपनाई जायेगी।
    डाक्टर साहब ने जो कार्य सूत्र हाथ में लिया था, उसी को पकड़कर श्री गुरूजी के मार्गदर्शन में शिक्षा क्षैत्र के समान ही मजदूर, किसान, सहकारिता, संगीत व कला और उपभोक्ता आदि क्षैत्रों में भी संघ के कार्यकर्ताओं ने संगठनात्मक कार्य प्रारम्भ किये और उन्हें निरंतर स्वंयसेवक आगे बढ़ा रहे हैं। वे कार्य अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, ग्राहक पंचायत विश्व हिन्दू परिषद आदि नामों से प्रसि( हैं,जिनका संगठन स्त्रोत संघ है। दीनदयाल शोध संस्थान और विवेकानन्द शिला स्मारक भी उसी श्रृंखला की महत्त्वपूर्ण उपलब्धिं हैं।

- स्वयंसेवकों ने डॉक्टर साहब को ‘सरसंघचालक’ पद दिया।
- 10 नवम्बर 1929 को पहली बार संघ की शाखा में ‘सरसंघचालक प्रमाण’ किया गया।

राज्यद्रोह में सजा
- राजद्रोही भाषण का मुकदमा, एक साल का सश्रम कारावास, 19.08.1921 से 12.07.1922 तक कैद में रहे। डॉक्टर सहाब की प्रगाढ़ देशभक्ति का उदाहरण उनके द्वारा दिया गया न्यायालय में एक लिखित बयान के कुछ अंश हैं जो अत्यंत स्मरणीय हैं - ‘‘भारत में किसी भारतीय के आचरण पर न्यायिक फैसला करने का दंभ कोई विदेशी राजसत्ता भरे, इसे मैं अपना तथा अपने महान देश का घोर अपमान मानता हूं। मैं नहीं समझता कि भारत में विधि द्वारा स्थापित कोई राजसत्ता है। हां, जबरदस्ती थोपी गई और पाशवी सामर्थ्य के भरोसे चल रही एक दमनशाही ; फिरंगी सरकार द्ध यहां अवश्य है। आज का कानून उसी दमनशाही का दलाल है और न्यायालय उसके हाथ का खिलौने। मेरे इस देश में, न्याय का ही विचार करना हो तो, जनता की, जनता द्वारा चलाई जाने वाली और जनता के लिए काम करने वाली सरकार का ही अस्तित्व होना चाहिए..।’’ सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने कहा ,जो भाषण आमसभा में दिया गया था,बचाव में दिया गया यह लिखित भाषण उससे कहीं अधिक गंभीर राष्ट्रद्रोह है।

संघ पर प्रतिबंध
- संघ पर स्वतंत्र भारत में तीन वार प्रतिबंध लगे और हटे, किन्तु परतंत्र भारत में भी 1932 में मध्य प्रांत की सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों को आपत्तिजनक घोषित कर दिया। सरकारी और स्थानीय स्वायत्त संस्थानों के कर्मचारियों को संघ कार्यक्रमों में भाग लेने पर मनाही के आदेश जारी कर दिये। इस आदेश के कारण मध्य प्रांत की लेजिस्लेटिव काउंसिल में काफी विवाद खड़ा हुआ।

कांग्रेस की कमजोरी : मुस्लिम हिंसा से भयग्रस्तता
    अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ चाल का मुसलमान समाज शिकार हो गया। कांग्रेस मुसलमानों का जितना अनुनय करती गई, उन्हें पुचकारती गई, उतना ही मुस्लिम समाज का आततायीपन बढ़ता गया। दक्षिण में इस हिंसक हिंदू-द्वेष के कारण मोपलाओं का विद्रोह फूट पड़ा। उस घटना की सत्यता का पर्दाफाश करने वाली काफी सामग्री प्रकाशित हो गई। मौके पर जाकर हालात देख कर  आए लोगों ने घटना का रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन किया। किंतु कांग्रेसजन मोपलाओं को दोषी ठहराने के लिए तैयार नहीं थे। देश में क्षुब्ध-मानस और कांग्रेसी नेताओं की भूमिका आपस में  बेमेल थी। यद्यपि मोपला विद्रोह काण्ड के समय डॉक्टर जी जेल में थे, बाद में काफी दिनों तक उनके परिणाम वातावरण में छाए दिखाई देते रहे।  कांग्रेस की आत्मघाती भूमिका डॉक्टर जी को मान्य नहीं थी, क्योंकि अन्याय के प्रति चिढ़ । अत्याचारों की उद्दण्डता का प्रतिकार उनके रक्त में था। उनके मन में एक सशक्त हिन्दू संगटन की बात घर करने लगी। जो प्रतिकार और प्रतिउत्तर में सक्षम हो।

हिन्दुत्व का स्थायी और जाग्रत नेतृत्व
    डॉक्टर साहब विविध आन्दोलनों, सभा-सम्मेलनों, मण्डलों, युवा-संगठनों का प्रत्यक्ष अनुभव लेते हुए अखण्ड चिन्तन कर रहे थे कि विशु( देशभक्ति से प्रेरित, व्यक्तिगत अहंकार से मुक्त, अनुशासित और चरित्रवान लोग निर्माण करने का कार्य कोई नहीं कर रहा है, उसके लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता की लहरें समय-समय पर उठती हैं और विलीन हो जाती हैं।
    हिन्दू राष्ट्र की बात समझना तो दूर, वैसा बोलना भी निरा पागलपन माना जाता था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में डाक्टर सहाब हिन्दू राष्ट्र का साक्षात्कार कर दृढ़तापूर्वक, आत्म-विश्वास के साथ खड़े हुए और संगठन की अपनी कल्पना को उन्होंने साकार कर दिखाया। संस्कृत में कहावत है : ‘‘कियासि(ः सत्वे भवति महतां नोपकरणे,’’ अर्थात बड़े लोगों की सफलता उनके सत्व पर निर्भर हुआ करती है, साधनों पर नहीं। इस कहावत को उन्होंने सत्य सि( कर दिखाया।

हिन्दुत्व को नेतृत्व : ‘संघ की स्थापना’
    1925 में विजयादशमी के पावन विजयोत्सव पर डॉक्टर सहाब ने साथियों के साथ संघ की स्थापना की,उनके ही शब्दों में ”संघ याने हिन्दुओं की संगठित शक्ति। हिन्दुओं की संगठित शक्ति इसलिए कि हिन्दू ही इस देश के भाग्य निर्माता हैं। वे इसके स्वाभाविक स्वामी हैं। उनका ही यह देश है और उन पर ही देश का उत्थान और पतन निर्भर है। इतिहास का निष्कर्ष है कि यह हिन्दू राष्ट्र है।“

सतत कार्य ही कार्य
    एक कहावत है कि सतत सतर्कता ही जीवन का मूल्य है! एक अन्य कहावत है कि सतर्कता हटी दुर्घटना घटी! इन्ही तथ्यों को ध्यान में रखते हुय केशव ने कहा था, ‘‘संघ कार्य आराम तथा फुरसत से करने की बात भी आपने सोची तो उसमें खतरा होगा। भविष्य पर निर्भर करना कदापि योग्य नहीं। कौन जानता है आगे चल कर परिस्थिति क्या करवट लेगी? भविष्य में हम पर कब क्या मुसीबतें आ पडेंगीं, कोई भरोसा नहीं। काम करने का समय हमेशा आज ही होता है।’’ डॉक्टर जी द्वारा दी गई इस चेतावनी के अनुसार आगे चल कर संघ पर काफी मुसीबतें आईं। बार बार उसे अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। फिर भी संघ उन सब मुसीबतों को पार करता हुआ, कुन्दन सा निखर गया, इसका सारा श्रेय डॉक्टर जी द्वारा रखी गयी कार्य की मजबूत नींव को, उनके द्वारा निर्माण किए गए कुशल कार्यकर्ताओं को,संघ की विशाल शक्ति को ही है।

हिन्दू मत का अंकुश : तुष्टिकरण से का मुक्तिमार्ग
राजनीतिक क्षेत्र में कुर्सी के लालच के कारण जन्मी विकृतियां राष्ट्र के लिए अत्यन्त हानिकारक सि( हो रही हैं। एक ओर भ्रष्टाचार, विलासी जीवन की लत, गुटबाजी व संकुचित निष्ठाएं राष्ट्र को खोखला बना रही है तो दूसरी ओर वोटों के लालच में तथाकथित अल्पसंख्यक समाजों के तलुवे सहलाने की प्रवृत्ति राष्ट्र के लिए बड़े संकट का कारण बन रही है। अल्पसंख्यकों के थोक वोटों की ओर ललचायी दृष्टि से देखने वाले कुछ नेताओं को इस बात की तनिक भी चिन्ता होती दिखाई नहीं दे रही है कि अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के कारण राष्ट्रीय हित और हिन्दू हित को अपनी चोट पहुंच रही है और उसके कारण राष्ट्र की सुरक्षा तथा अखण्डता के लिए कैसे-कैसे खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। संघ की दृष्टि में इसका कारण यह है कि ‘हिन्दू मत’ नाम की कोई शक्ति इन नेताओं को आज दिखाई नहीं देती जो उनके मन में भय उत्पन्न कर सके। यदि देश के 85 प्रतिशत हिन्दुओं को उनके मतों की शक्ति का ज्ञान कराया जा सके और उस आधार पर उनको संगठित किया जा सके, तभी हिन्दूहित-विरोधी राजनीतिक दलों को हिन्दू हितों की उपेक्षा न करने के लिए बाध्य किया जा सकेगा। उसके बाद ही राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त तुष्टीकरण का रोग दूर हो सकेगा।

संघशक्ति आगे बढ रही है...
    समाज की जागृति और प्रतिकार की सि(ता दिनों दिन बढ़ती चल रही है। इससे जिनके हितों को धक्का पहुंचता हैं, वे चिढ़कर संघ पर चोट भी करते हैं। उस चोट को पचाकर, जहां आवश्यक हो वहां जैसे को तैसा उत्तर देते हुए, संघ शक्ति अपने मार्ग पर आगे बढ़ रही है। इस सम्बन्ध में दक्षिण भारत में स्वयंसेवकों द्वारा चलाये जा रहे हिन्दू मुन्नड़ी नामक संगठन को जो जन समर्थन मिल रहा है वह अत्यन्त आशादायक है। उससे यह विश्वास पुष्ट हुआ है कि यदि योग्य दिशा में प्रयत्न किये गये और हिन्दू बान्धवों को परिस्थिति की सही जानकारी दी गयी तो वे संगठित होकर आक्रामक कार्यवाहियों को सफलतापूर्वक रोक सकते हैं।

हिन्दू समाज सतर्क हो...
    इस समय हमारे हिन्दू समाज और राष्ट्र को दुर्बल और जर्जर करने के लिए अनेक शक्तियां काम कर रही हैं। उनका एक प्रयत्न यह होता है कि हिन्दू समाज के भीतर झगड़े करवाये जायें। जान बूझकर झूठा और विकृत प्रचार कर किसी समूह की भावना को वे भड़काते हैं। इसके लिए उन्हें विदेशों से भरपूर पैसा मिलता है। यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि इसके पीछे राजनीतिक मंसूबे भी रहते हैं। झुग्गी-झोंपड़ियों में तथा वनांचल में रहने वाले हमारे बन्धुओं में उनकी उपेक्षित स्थिति, उनके प्रति हुए विषमतापूर्ण व्यवहार तथा समाज में फैली भीषण गरीबी और बेरोजगारी की बातों को लेकर असन्तोष भड़काया जाता है। दूसरी ओर दान का लालच दिखाकर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से काटने का योजनाब( प्रयास चल रहा है। हिन्दू समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इन तथ्यों से परिचित होना चाहिय व उसके प्रति सजग भी होना चाहिए।

अश्पृश्यता महापापःसभी इैश्वर की प्रतिकृति हैं!
    उनका कहना था ‘‘हमारा कार्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए होने के कारण उसके किसी भी अंश की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। समस्त हिन्दू बांधवों से, फिर वे किसी भी श्रेणी के क्यों न हों, हमारा व्यवहार समान रूप से प्रेम का होना चाहिए। किसी भी हिन्दू बंधु को निम्न समझकर दुतकारना महापाप है। सभी ईश्वर अंश हैं,उसकी प्रतिकृति हैं ।

अंतिम क्षण
    अंततः डॉक्टर सहाब को, बाबासाहब घटाटे के धरमपेठ स्थित हावादार बंगले में ले जाया गया। पीठ में असहनीय पीड़ा, तेज बुखार, नींद हराम, मन बेचैन, ऐसी अवस्था में दो दिन बीते। सभी चिन्तित हो गए। तीसरे दिन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आकर डाक्टर जी का हाल पूछ गए। स्वास्थ्य प्रतिक्षण गिरता जा रहा था। विशेषज्ञ डाक्टरों ने 20 जून को लंबर पंक्चर कर रीढ़ की हड्डी में जमा पानी निकाल लेने का निर्णय किया। डाक्टर जी जान गए कि अब वे चन्द घण्टों के ही मेहमान हैं। उन्होंने अपने मन की बात सबके सामने प्रकट कर दी। श्री गुरूजी को उन्होंने अपने पास बुलाया और कहा ‘‘इससे आगे संघ का कार्य अब आप सम्भालिए।’’ अपने पश्चात संघ का नेतृत्व कौन करे इस विषय में कोई संदिग्धता डाक्टर जी ने रहने नहीं दी। ‘संघ की विरासत’ इसी तरह दी जाती है और इसी तरह ली जाती है। डाक्टर जी ने संगठन का निर्माण किया, खून पसीना एक कर उसे बढ़ाया, हिंदू राष्ट्र का छोटा रूप संघ शिक्षा वर्ग में नागपुर में देख लिया और पार्थिव शरीर का त्याग करने से पहले सारा उत्तरदायित्व श्री गुरूजी के कन्धों पर विश्वासपूर्वक सौंप दिया।  बुखार 106 डिग्री पर पहुंच गया। सब निराश हो गए। इलाज करने वाले डाक्टरों ने भी हताश होकर कह दिया कि अंतिम क्षण समीप आ गया है। 21 जून प्रातः 9.25 पर डाक्टर जी की गर्दन ढुलक गई और 9.27 पर उनकी जीवनयात्रा समाप्त हो गई।

- राधाकृष्ण मंदिर रोड, डडवाडा, कोटा जं2, राजस्थान।

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डॉ. हेडगेवार ने किया था जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व, 9 माह का कारावास झेला था

नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों को जब विरोध का अन्य कोई आधार नहीं मिलता तो वे अक्सर स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को लेकर सवाल उठाते हैं. हालांकि, ये उनकी अज्ञानता व खीज को ही दर्शाता है.
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना देश की स्वतंत्रता के साथ ही सतत् जागरूक, एकजुट, शक्तिशाली, साधन संपन्न समाज के निर्माण के उद्देश्य से की थी, ताकि विदेशियों के बार-बार भारत पर आक्रमण करने और भारतीयों द्वारा बार-बार स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का सिलसिला समाप्त हो सके. वे समस्या का स्थाई समाधान चाहते थे. संघ ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में में तो भाग लिया ही, पर साथ-साथ व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का यज्ञ भी अनवरत चलता रहा जो आज भी जारी है. स्वतंत्रता संग्राम में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार सहित अन्य स्वयंसेवकों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता.
12 मार्च, 1930…. भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बहुत अहम तिथि है. अंग्रेजों द्वारा बनाए नमक कानून को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी जी ने इसी दिन दांडी यात्रा शुरू की थी. अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से शुरू हुई इस यात्रा का उद्देश्य नमक कानून को तोड़ना था जो अंग्रेजों के खिलाफ देश भर में विरोध का एक बड़ा संकेत था. इसी आंदोलन के निमित्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने जंगल सत्याग्रह किया था, जिसके चलते उन्हें 9 मास का सश्रम कारावास भी हुआ.
एक सुनियोजित आंदोलन
महात्मा गांधी जी अन्यायपूर्ण नमक कानून के विरोध को अंग्रेजों के विरोध के लिए हथियार बनाया. इस आंदोलन को लेकर पूरी योजना बनाई गई थी. इसमें कांग्रेस के सभी नेताओं की भूमिकाएं तय थीं. यह भी तय किया गया था कि अगर अंग्रेजों ने गिरफ्तारी की तो कौन-कौन-से नेता यात्रा को संभालेंगे. इस यात्रा को भारी जनसमर्थन मिला और जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती गई. बहुत सारे लोग जुड़ते चले गए.
गांधी जी अपने 79 साथियों के साथ 240 मील यानि 386 कोलीमीटर लंबी यात्रा कर नवसारी के एक छोटे से गांव दांडी पहुंचे, जहां समुद्री तट पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा. 25 दिन तक चली इस यात्रा में बापू रोज 16 किलोमीटर की यात्रा करते थे. वे 06 अप्रैल को दांडी पहुंचे थे.
तोड़ा अंग्रेजी हुकूमत का घमण्ड
दांडी मार्च खत्म होने के बाद चले असहयोग आंदोलन के तहत बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के सभी नेता गिरफ्तार होते रहे, लेकिन आंदोलनकारियों और उनके समर्थकों ने किसी तरह से हिंसा का सहारा नहीं लिया. यहां तक कि अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने अंग्रेजों के सत्याग्रहियों पर हुए अत्याचार की कहानी दुनिया के सामने रखी तो पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य की बहुत बेइज्जती हुई.
संघ का योगदान
संघ का कार्य अभी मध्य प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था. यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोड़कर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंप स्वयं अन्य स्वयंसेवकों, समाजजनों के साथ सत्याग्रह करने गए. सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार जी के सम्बोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है.
उन्होंने कहा था – स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के बूट की पॉलिश करने से लेकर उनके बूट को पैर से निकालकर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है. डॉ. हेडगेवार जी के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में अप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह), दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक शामिल थे. उनको 9 माह का सश्रम कारावास दिया गया. उसके बाद अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) मार्तण्ड जोग जी, नागपुर के जिला संघचालक अप्पा जी ह्ळदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे. 08 अगस्त को गढ़वाल दिवस पर धारा 144 तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए. विजयादशमी, 1931 को डॉक्टर जी जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया था – देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता, तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं.
भारतीय स्वतंत्रता की नींव
इस आंदोलन की समाप्ति गांधी इरविन समझौते के साथ हुई. इसके बाद अंग्रेजों ने भारत को स्वायत्तता देने के बारे में विचार करना शुरू कर दिया था. 1935 के कानून में इसकी झलक भी देखने को मिली और सविनय अवज्ञा की सफलता के विश्वास को लेकर गांधी जी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया. जिससे अंग्रेजों को भारत छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. 06 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्र तट पर गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया.
स्वाभाविक है कि देश को स्वतंत्रता किसी एक दल, एक परिवार, एक व्यक्ति, एक समुदाय विशेष के प्रयासों से नहीं, बल्कि समूचे देशवासियों के संयुक्त प्रयासों से मिली है. यह बात दीगर है कि एक दल इसका विशेष श्रेय लेता रहा और स्वतंत्रता संग्राम को राजनीतिक लाभ लेने का माध्यम भी बन चुका है. चाहे इन कदमों को उस दल के विवेक पर छोड़ सकते हैं, परंतु स्वतंत्रता संग्राम में दूसरों पर, विशेषकर संघ जैसे देशभक्त व राष्ट्रनिष्ठ संगठन पर अंगुली उठाई जाए, इसका किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता.
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