मीडिया में बैठे ‘कामरेडों’ का दोहरा चरित्र

पांचजन्य साप्ताहिक का एक पुराना आलेख जो वर्तमान को समझनें में सहायक है - अरविन्द सिसोदिया 9414180151

मीडिया में बैठे 'कामरेडों' का दोहरा चरित्र
06 Sep 2019 
 

भारतीय मीडिया का एक वर्ग स्वभावत: देशविरोधी है। इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण वामपंथ है। आज भी तमाम समाचार संस्थानों में संपादकीय पदों पर वामपंथियों की भरमार है। यह स्थिति कई दशक के कांग्रेसी प्रश्रय के चलते पैदा हुई है।

 यही कारण है कि एनडीटीवी बहुत ही सहजता से लिख देता है कि वायुसेना के पायलट अभिनंदन वही हैं जिन्हें पाकिस्तानी सेना ने पकड़ लिया था। चैनल के पत्रकारों को अभिनंदन का यह परिचय महत्वपूर्ण नहीं लगा कि उन्होंने अपने मिग विमान से पाकिस्तानी एफ-16 को मार गिराया था। इसी प्रवृत्ति के कारण कई तथाकथित दिग्गज पत्रकार पिछले दिनों यह कहते देखे गए कि धारा 370 हटाने के बाद पाकिस्तान के पास अब यही रास्ता बचा है कि वह भारत में कोई बड़ा आतंकवादी हमला करवाए। ऐसा लगा मानो वे इसके लिए पाकिस्तान की सरकार से प्रार्थना कर रहे हों।
 
इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें दावा किया गया कि जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाने और राज्य के पुनर्गठन में संवैधानिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। दरअसल केंद्र सरकार के इस फैसले में कानूनी खामी निकालने का काम लगातार चल रहा है। जब कुछ नहीं मिला तो फर्जी तथ्य गढ़ने का काम शुरू हो गया, ताकि उनके आधार पर भ्रम पैदा किया जा सके। हम कई हालिया मामलों में फर्जी मीडिया रिपोर्ट का ऐसा खेल देख चुके हैं। गृह मंत्रालय ने पूरे तथ्यों के साथ इंडियन एक्सप्रेस की इस शरारतपूर्ण रिपोर्ट का खंडन किया और साथ ही अखबार से कहा कि वह इसके पीछे के लोगों के खिलाफ कार्रवाई करे। हो सकता है कि अखबार बाद में इस झूठ के लिए खेद जताए, लेकिन जो नुकसान होना था, वो हो चुका है। इस फर्जी रिपोर्ट को पाकिस्तान अपने दुष्प्रचार के लिए खूब इस्तेमाल कर रहा है।
 
मीडिया के जरिए गढ़ी गईं ऐसी झूठ खबरों का एक पूरा सिलसिला है। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए जरूरी है कि इन पर चुप न बैठा जाए, बल्कि पूरी ताकत के साथ सच को सामने लाया जाए। वरना वामपंथी नेटवर्क ऐसे को बार-बार बोलकर सच बना देता है। ऐसा ही अमित शाह के बेटे जय शाह के मामले में हमने देखा, जब कांग्रेस की कृपा से चल रही फेक न्यूज वेबसाइट 'द वायर' की रिपोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय ने 'पीत पत्रकारिता' का उदाहरण बताया। गुजरात दंगों से लेकर आज तक इन कांग्रेसी-वामपंथी समाचार संस्थानों को ऐसी जालसाजी में महारत हासिल हो चुकी है। मीडिया कॉमरेड दूसरे संस्थानों में कुंडली मारे बैठे अपने साथियों के हितों की रक्षा के लिए बेहद सजग रहते हैं। जेएनयू ने 75 साल से अधिक के सभी एमेरिटस प्रोफेसरों की समीक्षा के लिए उनकी जानकारी मांगी तो तमाम अखबारों और चैनलों ने यह फर्जी खबर चलाई कि ऐसा सिर्फ विवादित इतिहासकार रोमिला थापर के साथ किया जा रहा है। उन्होंने यह बात भी छिपाई कि विवि के नियमों के तहत यह जरूरी है। द टेलीग्राफ, इंडिया टुडे और द हिंदू जैसे अखबारों ने इस बारे में जो रिपोर्ट प्रकाशित कीं, उन्हें देखें तो लगता है कि इन्हें किसी एक ही व्यक्ति की तरफ से लिखकर दिया गया है, जिसे इन संस्थानों ने बिना तथ्यों की जांच के छाप दिया।
 
उधर, कांग्रेस नेता पी चिदंबरम के भ्रष्टाचार की तहें देश के सामने आ चुकी हैं। इस केस में जिस तरह कानूनी दांवपेच खेले जा रहे हैं, वो भी सबके आगे है। लेकिन मीडिया का रवैया बेहद नरम है। चिदंबरम हो या डीके शिवकुमार, मीडिया की नजर में उन पर चल रही कार्रवाई 'राजनीतिक कारणों' से है। आजतक चैनल ने इशारों-इशारों में इसे मंदी से ध्यान बंटाने वाला कृत्य बता डाला। दरअसल मुख्यधारा मीडिया लंबे समय तक चिदंबरम के इशारों पर नाच चुका है। उसकी ये आदत अब भी बनी हुई है।

मीडिया ने बड़ी मेहनत से यह माहौल बनाया है कि मॉब लिंचिंग के शिकार सिर्फ मुसलमान हैं। शायद इसीलिए उसके असम में एक 75 वर्षीय डॉक्टर और मुंबई में एक ड्राइवर की हत्या पर चुप्पी साध ली। मुंबई में जिस ड्राइवर रंजीत पांडेय की हत्या पीट-पीटकर की गई उसमें आरोपी मुसलमान हैं। इसलिए मीडिया ने इसे 'लिंचिंग' मानने से ही इनकार कर दिया। कहीं खबर छपी भी तो मारे गए व्यक्ति और आरोपियों के नाम छिपाते हुए। मध्य प्रदेश में एक आदिवासी महिला को अर्धनग्न करके पीटा गया। इसका वीडियो भी सामने आया, लेकिन मीडिया ने नहीं दिखाया क्योंकि राज्य में कांग्रेस की सरकार है। अगर यही घटना किसीभाजपा शासित राज्य में हुई होती तो यह अंतरराष्ट्रीय मामला बना होता और यह साबित कर दिया जाता कि 'भाजपा के शासन में दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार हो रहा है।'
     

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