ग्वालियर के प्रतिहार क्षत्रिय : जौहर की ज्वालायें सुनाती वीर गाथायें

-----> ग्वालियर का प्रतिहार क्षत्रिय वंश < ----- 


आज हम आप लोगो को ग्वालियर के प्रतिहार वंश एवं उनके संघर्ष की कहानी बतायेंगे। जब तुर्कों के आक्रमण से परिहार रानी तोंवरी देवी को जौहर करना पडा था। जिसमे उनके साथ 1500 से ऊपर राजपूत महिलाएं भी थी।।

ग्वालियर पर प्रतिहार क्षत्रियों ने लगभग 150 वर्ष शासन किया है। यहां के प्रतिहार कन्नौज के प्रतिहारो के सामंत के रुप मे कार्य करते थे और इन्ही के भाई परिवार थे। ग्वालियर पर नागभट्ट द्वितीय ने सन 795 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया था। कुछ दिनो के बाद दुर्ग की हालत खराब हो रही थी तब सन 850 ईस्वी मे मिहिरभोज प्रतिहार ने ग्वालियर को अपने साम्राज्य कन्नौज की उपराजधानी बनाया और ग्वालियर दुर्ग को सजाया और संवारा। इस विशाल राजप्रसाद को बागों झरनों से सुसज्जित किया एवं रानियों के लिए अनेक बिहार स्थल भी बनवाये। मिहिरभोज के शासनकाल में उसका नाती किट्टपाल परिहार किले का रक्षक था।

सन 1036 ईस्वी में कन्नौज का सम्राट यशपाल था तभी महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया। प्रतिहार लोग कन्नौज छोडकर " बारी " चले गये थे। इस संस्कृति काल का लाभ उठाकर राठौर चंद्रदेव ने कन्नौज के खंडहर मे अपना डेरा जमा लिया और प्रतिहार परिवार को वहां से भगा दिया। संयोगवश इस समय ग्वालियर दुर्ग की देखभाल इल्लभट्ट परिहार एवं कछवाह दूल्हाराय तेजकर्ण था। वह कन्नौज के इस सरदार परमादेव का मामा था। उसने प्रतिहारो को निराश्रित देखकर भांजे परमादेव को बारी जाने से रोक लिया और सपरिवार ग्वालियर दुर्ग में शरण दे दिया।। 

परमादेव हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला नही था। उसने एक संगठित सेना बनाई सभी को एक किया। एक सुदृढ सैन्य संगठन हो जाने पर सन 1045 ईस्वी मे प्रतिहारों ने पुनः ग्वालियर पर अधिकार जमा लिया और अपने को राज्य का राजा घोषित कर दिया। विरोध करने वालो को राज्य से भगा दिया। सन 1193 के आस पास ग्वालियर तथा चंदेरी राज्य के अंतर्गत वेतवा नदी के पश्चिम का चंबल यमुना संगम से लेकर उत्तरी मालवा तक का क्षेत्र प्रतिहारों के आधीन था।

किंतु मुहम्मद बिन साम गोरी से प्रतिहारों का यह अधिकार देखा न गया तो उसने 1195 ईस्वी मे ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उस समय प्रतिहारो की सहायता करने वाला कोई न रहा तो उन्होने गोरी से समझौता कर लिया। समझौता होने पर भी गोरी ने ग्वालियर पर तुगरिल को बयाना का हाकिम बनाकर उसे ग्वालियर दुर्ग जीतने का आदेश देकर चला गया। इस प्रकार तुगररिल ने आस पास के गांवो को काफी दिन तक लूटा खसोटा। किंतु नटुल प्रतिहार के पौत्र तथा प्रताप सिंह के पौत्र विग्रह प्रतिहार से ग्वालियर की यह दुर्दशा देखी न गई उसने तुर्कों की संरक्षण टोली को ग्वालियर से खदेड कर भगा दिया।और 14 वर्ष के अंतराल से पुनः ग्वालियर पर अपनी सत्ता स्थापित की। विग्रह प्रतिहार और उसके भाई नरवर्मा की वंशावली दो ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। अतः 100 वर्षो की अवधि में परमादेव के वंशज विजयपाल,  वासुदेव , कर्णदेव और सारंगदेव आदि ने ग्वालियर राज्य का संचालन किया - इस वंश की वंशावली इस प्रकार है- 

ग्वालियर और नरवर के बीच चटोली ग्राम में सन 1150 ई. का एक शिलालेख मिला है। जिसमे रामदेव प्रतिहार उल्लेख है। यह रामदेव प्रतिहार ग्वालियर के अंतिम प्रतिहार राजा कर्णदेव के तृतीय पुत्र थे, जिन्हें बाद मे औरैया इलाका दिया गया। इसके पश्चात ग्वालियर गढ के गंगोलाताल के वि. सं. 1250 तथा 1251 के दो शिलालेख प्राप्त हुए है। जिनसे यह ज्ञात होता है की इन वर्षों में गढ पर जयपाल देव राज्य कर रहे थे। उन जयपाल देव की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। हसन निजामी ने जिस सोलंखपाल का उल्लेख किया है वह इन्ही जयपाल के उत्तराधिकारी थे। जिसका वास्तविक नाम सुलक्षणपाल था एवं जिनका मुगल सम्राट शहाबुद्दीन के बीच युद्ध हुआ और शहाबुद्दीन ने ग्वालियर गढ को चारो ओर से घेर लिया। उसने यह अनुभव किया की सीधा आक्रमण करने से इस अभेद्य गढ को हस्तगत नही किया जा सकता इसके लिए बहुत दिनो तक गढ को घेरे रहना पडेगा। प्रतिहार राजा को त्रस्त करने के लिए मुगल सम्राट ने रसद पानी बंद करा दिया। हसन निजामी के ताजुल म आसिर के अनुसार - सुलक्षणपाल भयभीत और हताश हो गये तथा उन्होने संधि की चर्चा की और कर देने के लिए सहमत हो गये, दस हांथी उपहार में दिये गये। शहाबुद्दीन ने यह संधि स्वीकार कर ली और गजनी लौट गया। उसका सेनापति कुतुबुदीन ऐवक दिल्ली लौट गया और दूसरा सेनापति शहाबुद्दीन तुगरिल " त्रिभुवन गढ " चला गया।

उधर दिल्ली में भी इस काल मे भारी उथल पुथल मची थी। दिल्ली के सिंहासन पर कुतुबुद्दीन ऐवक बैठ गया। वह एक विलासी एवं मक्कार था। उसके हाथ मे प्रतिहार राजा सुलक्षणपाल ने ग्वालियर की सत्ता दे दी थी। जिससे कुतुबुद्दीन ऐवक तथा बहाउद्दीन तुगरिल के बीच मनमुटाव हो गया था। इसी मनमुटाव के कारण सन 1210 ई. में उसी के एक दास शमसुद्दीन इलतुमिश के हांथो हत्या करवा करवा दी गई और उसे स्वयं दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया। उसे शासन से नही धन से मतलब था। इसीलिए सुल्तान बनते ही देश नगरों ग्रामों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। उसको बताया गया की ग्वालियर दुर्ग मे बहुत धन संपदा है और उसने पहले ही तुर्को को मार भगाया, जो सुल्तान का शत्रु है।

अतः इलतुमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दिल्ली की भारी सेना के सामने राजपूत सेना बहुत कम थी, किंतु परिहार राजाओं ने न तो हथियार डाले और न ही शत्रु को किले मे घुसने दिया। प्रतिहारों की मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी की कभी - कभी सुल्तान को अपने सैनिकों को मौलवियों के भाषणों और उपदेशों से प्रोत्साहित करना पडता था। दृढ निश्चय के साथ किये जाने वाले युद्ध और सुल्तान के व्यक्तिगत नेतृत्व के कारण लगभग ग्यारह महीने तक इलतुमिश घेरा डाले रहा परंतु किले में घुसने मे सफल नहीं हो पाया। अंत में उसने चालबाजी करने की सोची रात्रि के अंधेरे में वह दुर्ग के पश्चिम की ओर से अंतरी बनाकर घुसा और वहीं से चोरों की भांति दुर्ग में सैनिकों को उतार दिया। चोरों ने दुर्ग का दक्षिणी भाग भी खोल दिया। दुर्ग के अंदर भयानक मारकाट भोर होते तक चली राजपूती सेना बाहर से आ गई सुल्तान भाग निकला। रात में कैद किये सैनिकों व महिलाओं को दुर्ग से निकाला जा चुका था। और इनमें 400 राजपूत और 200 महिलायें थी जिन्हें सुल्तान ने कत्ल करवा दिया।

सुल्तान का दूसरा आक्रमण भी विफल रहा। ग्वालियर के परिहारों ने ग्वालियर गढ प्राप्त करने का प्रयास किया। कुरैठा के वि. सं. 1277 ई. के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि उस समय ग्वालियर गढ पर विग्रहराज जो कर्णदेव का बडा पुत्र सारंगदेव (मलयवर्मन) ग्वालियर का राजा था, वह बडा नीतिज्ञ था। सुल्तान का तीसरा और अंतिम आक्रमण 12 दिसंबर 1232 को हुआ। मलयवर्मन ने देश पर आई आपदा का मान अन्य राजाओं को कराया। उसके आह्वान पर यदुवंशी,  तोमर , सिकरवार, और सूर्यवंशी राजाओ ने एकत्र होकर एक सुगठित सेना बनाई। इस सेना और दिल्ली की तुर्क सेना के मध्य ग्यारह माह तक भीषण संग्राम चलता रहा। तुर्क सेना लाख से भी उपर थी - उसने सारा ग्वालियर घेर लिया था। और चारो ओर से दुर्ग के लिए रसद पानी  बंद करवा दिया था। राजपूती सेना दिन - ब - दिन घटती जा रही थी। उधर मेरठ , आगरा , दिल्ली , कानपुर, से धन और जन दोनों आ रहे थे , किंतु फिर भी परिहारों की स्थिति काफी जर्जर होती जा रही थी। अब युद्ध अवसान की ओर जा रहा था।

अंत में 20 नवंबर 1233 ई. को ग्वालियर महारानी तोंवरीदेवी ने क्षत्रियों को अंतिम समर मे कूद पडने का संदेश भेज दिया। सभी क्षत्राणियों ने साज श्रंगार किया चंदन की विशाल चिता बनवाई गई और " जय दुर्गे जय भवानी " कहते हुए हजारो ललनाएं जौहर की धधकती ज्वाला मे स्वाहा हो गई। इस प्रकार प्रतिहार रानियाँ चिता में जौहर हुई और कुछ रानियाँ जौहर ताल में विलीन हुई।

स्वर्ग अवछरा आई लेन । देव सिया भरि देखई नैन।।
धन्य - धन्य तेउं उच्चरै । सुर मुनि देखी सर्वे जय करैं।।

क्षत्राणियों का जौहर क्षत्रियों ने देखा और वे पीत बसन बांधकर तुर्की सैनिकों पर टूट पडे। देखते - देखते उनहोंने 5000 से उपर शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। इस समर में 1500 परिहार राजपूत पहुंचे थे। इनमे से एक भी जिंदा नहीं लौटा।

पांच हजार तीन सौ साठ , परे अमीर लोह घटि।।
जूझो सारंगदेव रन संग ,  एक हजार पांच सौ संग।।

जौहर ताल के लिए भांट बताते है की प्रतिहार राजपूत स्त्रियों ने किस प्रकार जौहर कर अपने प्राणों की आहुति दी।।

पहले हमे जु जौहर पारि।
तब तुम जूझे कंध समहारि।।

इस घटना का उल्लेख एक शिलालेख में किया गया था, किंतु अब यह गुम हो गया। उरवाई घाटी को घेरने वाली दिवाल इलतुमिश के समय बनवाई थी। इस अंतिम युद्ध का सेनापति तेजस्वी परिहार मलयवर्मन कर रहा था। तथा उसके पुत्र हरिवर्मा , अजयवर्मा , वीरवर्मा मारे गये। सारंगदेव के बच्चे मऊसहानियां भेज दिये गये। अन्य भाई जिगनी - डुमराई चले गये। ग्वालियर में मलयवर्मन का सौतेला भाई नरवर्मा बच रहा था।

नरवर्मा प्रतिहार ने इलतुमिश के बेटे फिरोज रुकुनुद्दीन से समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार नरवर्मा तथा उसके कुछ साथी (राजपूत) को दुर्ग में रहने का अधिकार मिल गया। किन्तु दिल्ली मे जब रजिया सुल्तान का शासन काल आया तो उसने ग्वालियर पर डेरा डाला और समझौते को रद्द कर दिया। उसने नरवर्मा को दुर्ग से बाहर निकाल दिया एवं चाहडदेव को दुर्ग की देखभाल सौंप दिया। इस प्रकार कभी तुर्क तो कभी परिहार इस दुर्ग पर अधिकार करते रहे। चाहडदेव भी परिहार था उसने धीरे - धीरे जन - धन एकत्र कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दिल्ली पर पुनः तूफान आया और उलुग खान बलवन की शक्ति बढ गई। दिल्ली की गद्दी छिनने के बाद पहला आक्रमण ग्वालियर पर करके चाहडदेव को बंदी बनाना चाहा। परंतु अजेय दुर्ग के भीतर न घुस सका और वापस लौट गया। सन 1258 ई. मे बलबन बहुत शक्तिशाली हो गया था उसने बडी सेना लेकर ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया उस समय तक चाहडदेव स्वर्गवासी हो चुका था। उसका नाती " गणपति याजपल्ल " दुर्ग का अधिपति था।

इसमें इतनी क्षमता नही थी की कुछ हजार सैनिकों के बल पर वह दिल्ली की सेना का सामना कर सके। अस्तु वह रात में ही परिवार सहित बिहार चला गया। जहां इनके वंशजो ने परिहारपुर ग्राम बसाया और आज भी हजारो की संख्या में आबाद है। और बाकी कुछ प्रतिहार दल झगरपुर , वीसडीह , मैनीयर उत्तर सुरिजपुर , सुखपुरा, हरपुरा आदि ग्रामों मे आबाद है। चाहडदेव ने अपने राज्य का विस्तार चंदेरी तक कर लिया था। इस तरह कभी सत्ता मे तो कभी सत्ताहीन होकर ग्वालियर मे परिहारो का आवास रहा है और लगभग 150 वर्षो तक संघर्षरत शासन किया। और आज भी ग्वालियर अंचल मे लगभग 25 से उपर गांव है प्रतिहारो के जो आवासित है।

ग्वालियर प्रतिहार वंश के शासक

परमादेव प्रतिहार
विजयपाल प्रतिहार
जलहणसी प्रतिहार
वासुदेव प्रतिहार
संग्राम देव प्रतिहार
महिपालदेव प्रतिहार
जयसिंह प्रतिहार
कृपालदेव प्रतिहार
कर्णदेव प्रतिहार
सारंगदेव प्रतिहार

13 वीं शताब्दी तक ग्वालियर से परिहार वंश का पतन हो गया और बचे कुचे परिहार अलग अलग जगह बस गये। जिसमे सारंगदेव ग्वालियर को छोडकर मऊसहानियां आ गये। एवं इनके अन्य भाई राघवदेव परिहार रामगढ जिगनी चले गये, रामदेव परिहार औरैया गये एवं छोटे भाई गंगरदेव परिहार डुमराई में जा बसे जहां आज भी इनके वंशज लगभग 30 गांवो से उपर आबाद है।

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प्रतिहार\परिहार क्षत्रिय वंश।।

जय नागभट्ट।।
जय मिहिरभोज।।

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