राष्ट्रऋषि ‘भारत रत्न’ nanaji, ‘ नानाजी देशमुख ’
‘भारत रत्न’ नाना जी देशमुख
राष्ट्रऋषि ‘नानाजी देशमुख कार्यों से एक रत्न थे’
काजल की कोठरी में रहकर बिना कालिख लगे निकल जाना, आज के युग में लोग इसे आठवां आश्चर्य ही मानते हैं। राजनीति अपने लिए नहीं, अपनों के लिए नहीं, वरन देश के लिए करने का सामथ्र्य जिस महापुरुष में था, उस राष्ट्रऋषि का नाम है नानाजी देशमुख (Nanaji Deshmukh)। ‘भारत रत्न’ देने के जितने मानक भारत सरकार के होंगे उन मानकों से भी आगे जीवन जीने वाले, ऐसे नानाजी देशमुख को भारत रत्न देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) ने इसकी गरिमा बढ़ाई है।
सच में नानाजी देशमुख करोड़ों भारतीयों के बीच एक रत्न थे। वे ग्रामोदय और अंत्योदय के अखंड उपासक थे। वे राजनीति में रहकर भी रचनाधर्मी और सृजनकारी थे। उन्होंने स्कूल को स्कूल नहीं कहा, सरस्वती शिशु मंदिर कहा। सरस्वती शिशु मंदिर कहते ही, मां सरस्वती से शिशु का जो नाभि का संबंध है, बिना कुछ कहे स्वत: एहसास होने लगता है। नानाजी देशमुख द्वारा जड़ में बोया गया बीज ही आज पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक विद्या भारती द्वारा सरस्वती शिशु मंदिरों के रूप में पोषित और पल्लवित हो रहा है। भारतीय संस्कृति से दूर रहकर भारत का विद्यार्थी मां सरस्वती की आराधना भला कैसे कर सकता है! धरोहर को धरा पर नानाजी देशमुख ने न केवल उतारा बल्कि आज 28 लाख बच्चे विद्या भारती विद्यालयों के आंचल में अध्ययन कर रहे हैं।
नानाजी देशमुख एक सोच थे। नानाजी देशमुख एक विचार थे। नानाजी के पुरुषत्व में मातृत्व था। जिसके पुरुषत्व में मातृत्व होता है, उसे लोग ईश्वर का अंश ही मानते हैं। नानाजी का संबंध धनाढ्य लोगों से रहा परंतु उन्होंने धनाढ्य के धन का उपयोग ग्रामोदय और अंत्योदय में किया। ग्राम उनकी पूजा थी। उन पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बहुत प्रभाव था। वे सत्ता की चकाचौंध से कभी प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने सत्ता को सेवा से जोड़ा। जनसंघ के जो 10-12 प्रमुख प्रारंभिक स्तंभ थे, वे उनमें से एक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से निकले और आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार का सान्निध्य प्राप्त कर उन्होंने प्रारंभ में संघ के विचार को और जब संघ की प्रेरणा से जनसंघ बना, तो उसके दीये की अखंड ज्योति से उसका चिन्मयी बनकर वे भारत के कोने-कोने में जनसंघ के विचार को लेकर पहुंचे।
जनता पार्टी की सरकार बनी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी धराशायी हुईं। आपातकाल में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ कदम से कदम मिलाकर गुप्त क्रांति की प्रेरणा नानाजी देशमुख ने दी, वह आज भी प्रख्यात पत्रकार दीनानाथ मिश्र की किताब ‘गुप्त क्रांति’ में पढ़ी जा सकती है। नानाजी देशमुख कहा करते थे, ‘हौसले से बड़ा हथियार नहीं होता।’ जयप्रकाश नारायण के हौसले का नाम नानाजी देशमुख था। जयप्रकाश नारायण नानाजी से अटूट प्रेम करते थे।
यही कारण था कि आपातकाल के काले साए के दौरान जेल में रहने के बाद रोशनी देने वाले में जो अग्रणी थे, वे थे जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख। सन 77 में सत्ता आई जनता पार्टी की सरकार बनी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई सहित अनेक नेताओं ने आग्रह किया कि नानाजी जनसंघ कोटे से मंत्री बनें। लेकिन वे सत्ता की चकाचौंध में संगठन छोडऩे को तैयार नहीं थे। उन्होंने कह दिया, ‘‘मैं 60 वर्ष के बाद राजनीति से संन्यास ले लूंगा’’। वे 60 साल के हुए और अपने शब्दों को आचरण का परिधान पहनाते हुए उन्होंने घोषणा की, ‘‘मैं राजनीति से संन्यास लेता हूं, सेवा से नहीं’’।
नानाजी देशमुख को राष्ट्रपति ने उनके कृत्यों को देखकर राज्य सभा में मनोनीत किया। नानाजी ने जीवन मूल्यों पर आधारित समाज-पुनर्रचना को साकार करने की दिशा में अनेक पहलें कीं। नानाजी देशमुख 27 फरवरी 2010 को अपनी काया छोड़कर चले गए। वे इतने महान् थे कि उन्होंने दधीचि की तरह अपना प्रत्येक अंग दान कर दिया था। उन्होंने जीवित रहते हुए कह दिया था, ‘‘अंग जो भी काम का हो, दूसरे जीवन के लिए उपयोग में ले लेना चाहिए।’’
-प्रभात झा भाजपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद
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नानाजी देशमुख ने सत्ता की जगह संगठन को महत्व दिया
विजय कुमार Oct 11, 2021
नानाजी देशमुख ने सत्ता की जगह संगठन को महत्व दिया
शख्सियत
1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये। वहां से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य तथा दैनिक स्वदेश अखबार निकाले गये।
ग्राम कडोली (जिला परभणी, महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती राजाबाई की गोद में जन्मे चंडिकादास अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी। 1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ.प्र. में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया। अतः कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे। छात्र जीवन में निर्धनता के कारण अपनी पुस्तकों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे। 1934 में डॉ. हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया।
उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहाँ हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था। अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे। नानाजी के प्रयास से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं। विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला सरस्वती शिशु मंदिर स्थापित किया। आज तो ‘विद्या भारती’ संस्था के अन्तर्गत ऐसे विद्यालयों की संख्या 50,000 से भी अधिक है।
1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये। वहां से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य तथा दैनिक स्वदेश अखबार निकाले गये। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने से प्रकाशन संकट में पड़ गया। ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले। 1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उ.प्र. में यह कार्य उन्हें सौंपा गया। 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुँच गया। 1967 में वे राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनकर दिल्ली आ गये। दीनदयाल जी की हत्या के बाद 1968 में उन्होंने दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की।
विनोबा भावे के भूदान यज्ञ तथा 1974 में इंदिरा गांधी के कुशासन के विरुद्ध जयप्रकाश जी के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में वे खूब सक्रिय रहे। पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश जी पर लाठी बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी भुजा पर झेल लिया। इससे उनकी भुजा टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये। 1975 में आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे पहले महासचिव थे। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी हार गयीं और जनता पार्टी की सरकार बनी। नानाजी भी उ.प्र. में बलरामपुर से सांसद बने। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें मंत्री बनाना चाहते थे; पर नानाजी ने सत्ता के बदले संगठन को महत्व दिया। अतः उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया।
1978 में नानाजी ने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से गोंडा, नागपुर, बीड़ और अहमदाबाद में ग्राम विकास के कार्य किये। 1991 में उन्होंने चित्रकूट में देश का पहला ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ स्थापित कर आसपास के 500 गांवों का जन भागीदारी द्वारा सर्वांगीण विकास किया। इसी प्रकार मराठवाड़ा, बिहार आदि में भी कई गांवों का पुननिर्माण किया। 1999 में वे राज्यसभा में मनोनीत किये गये। अपनी सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन सेवा प्रकल्पों के लिए ही किया। नानाजी ने 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली।
उन्होंने अपने 81वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया। ‘पद्म विभूषण’ से वे अलंकृत हो चुके थे; पर राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने 25 जनवरी, 2019 को उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा की।
- विजय कुमार
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