समाज को सदाचरण की प्रेरणा देता है दशहरा Dashahara
समाज को सदाचरण की प्रेरणा देता है- दशहरा
- अरविन्द सिसौदिया
9414180151
पूरे देश में मूलरूप से विजया दसमी अर्थात दशहरा का पर्व श्रीराम की रावण पर विजय के उपलक्ष्य में ही मनाया जाता है। इसदिन रावण कुम्भकरण एवं मेघनाथ के पुतलों कों सार्वजनिकरूप से दहन होता है। रामलीलाओं का भी आज ही के दिन समापन का विधान है। भगवान श्रीराम रावण वध के बाद दीपावली के दिन अयोध्या प्रवेश करते है। जिसके उपलक्ष्य में दीपावली का पर्व मनाया जाता है। इन दोनों पर्वों की सघनता व्यापकता एवं लोक तान्यजा यह दर्शाता है कि भगवान श्रीराम इस देश के प्राण है। इस पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में, अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में, अहंकार पर सदाचार की जय के रूप में देखा जाता है। यह पर्व समाज में सदाचरण की प्रेरणा देता है तथा बताता है कि गलत मार्ग पर चलने वालों का हमेशा अंत भी बुरा ही होता है।
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अधर्म पर धर्म की विजय का पर्व विजया दसमी
दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था तथा देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। धर्म पर धर्म की जीत. अन्याय पर न्याय की विजय, बुरे पर अच्छे की जय जयकार, यही है दशहरा का त्योहार।
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सर्वमंगल के उल्लास का पर्व विजयादशमी - ज्ञानेन्द्र रावत
विजयादशमी कहें, दशहरा कहें, या फिर विजयोत्सव। इसके मर्म को समझने से पहले यदि हम वैदिक पुराणों की घटनाओं के प्रतीकों में छिपे रहस्यों पर विचार करें तो निश्चित ही यथार्थ को समझकर उन कथाओं के निहितार्थ को जान सकेंगे और उसके उद्देश्यों से भी भलीभांति परिचित हो पाने में समर्थ होंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे कि विजयादशमी को दशहरा भी कहते हैं। दशहरे का शाब्दिक अर्थ है-दस को हरने वाला। रावण को दशानन भी कहा जाता है। यदि हम जैन दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि रावण का सिर तो एक ही था, लेकिन उसके गले में दस मणियों का हार था। उसे देखने से दस सिर का भान होता था। इसे दूसरे अर्थ में देखें तो पाते हैं कि वह इतनी प्रखर बुद्धि का स्वामी था जिसका मस्तिष्क दस सिरों यानी दस मस्तिष्कों के मुकाबले काम करता था। लेकिन ऐसे प्रखर बुद्धि, बल, संपत्ति, धन-धान्य और चातुर्य के स्वामी रावण जो अन्याय, अनीति, अहंकार और अधर्म का प्रतीक था, का वध धर्म और न्याय के प्रतीक पुरुष राम ने इसी दिन किया था।
कहा जाता है कि इसी दिन महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ था। असलियत में यह युद्ध भी अन्याय, अनीति, अहंकार और दुष्टाचरण का प्रतीक था। इसके विरुद्ध अभियान कहें या युद्ध, उसे न्याय, नीति, धर्म और सदाचार के रूप में जाना जाता है। निष्कर्ष यह कि विजय वही पूजित है, सर्वमान्य है, आदरणीय है और मंगलकारी है जो सर्वहितकारी हो और न्याय, धर्म, सदाचार, सच्चरित्रता की प्रतीक हो और नीति सम्मत भी हो। यथार्थ में विजयादशमी के पर्व का तो यही पाथेय भी है। इस कटु सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। दरअसल विजय शब्द ही ऐसा है जिसकी कामना व्यक्ति के जीवन में सदैव बनी रहती है। जीवन के हर क्षेत्र में वह कभी अपना पराभव या पराजय नहीं देखना चाहता। यही वह अहम कारण है कि उसकी स्वयं को सदैव विजयी देखने की प्रबल अभिलाषा होती है। यही उत्कंठा उसमें सदैव बनी भी रहती है। यह भी कटु सत्य है कि विजय की भावना व्यक्ति को उल्लास और उमंग के वातावरण से सराबोर कर देती है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आश्विन शुक्ल दशमी के दिन अंतरिक्ष में चंद्र और नक्षत्र का ऐसा योग मिलता है जिसके कारण इस दिन को विजय मुहूर्त में सर्वश्र्रेष्ठ माना गया है। प्राचीन भारतीय समाज में भी इसी दिन सभी वर्ग के लोग अपने-अपने अभीष्ट शुभ कार्य प्रारम्भ किया करते थे। यानी शुभ कार्य का श्रीगणेश करने का दिन यही थी। यह परंपरा आज भी हमारे समाज में है। चाहे व्यापारी हो या साधारण जन, राजनेता हो या किसान, शुभ कार्यों का शुभारम्भ आज के ही दिन यानी विजयादशमी के ही दिन करना मंगलकारी मानते हैं। क्षत्रिय अपने अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-अर्चना करते हैं। वणिक अपने व्यापारिक यंत्रों, वाट-माप-तराजू, गज आदि की पूजा करते हैं।
प्राचीनकाल में राजा अपनी प्रजा और राज्य की रक्षा के लिए आज के ही दिन अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हो रणागंण में युद्ध हेतु प्रस्थान करते थे। भविष्येत्तर पुराण के अनुसार क्षत्रिय राजा किसी अत्याचारी, अन्यायी या आततायी के नाश के लिए विजय की आशा-आकांक्षा से शत्रु का एक पुतला बनाकर बाण से उसे बेध कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे। यह प्रथा एक तरह से जनता में विश्वास पैदा करने और आत्म विश्वास जगाने की दृष्टि से प्रचलित थी। कालांतर में अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम द्वारा लंकापति रावण के वध के उपरांत आश्विन शुक्ल दशमी को अन्याय पर न्याय और अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में विजय पर्व कहें या विजय उत्सव, दशहरा कहें या विजयादशमी के रूप में देश के अधिकांश हिस्सों में मनाया जाने लगा। वर्तमान में आज मानव का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक रूप से भोग की प्राप्ति है, यह संभव भी हो जाये लेकिन क्या रावण पर विजय संभव है, सत्य के मार्ग का अवलम्बन किये बिना तो कदापि नहीं। यह विचारणीय है।
यह पर्व वास्तव में सांसारिक जीवन का खुला चिट्ठा प्रस्तुत करता है। यथार्थ में यह समाज के स्वरूपों, प्रवृत्तियों और समाज की दिशा को समझने-बूझने की एक जबरदस्त कसौटी है। यह हमें राजनीति के अर्थ, राजनीति और कूटनीति के भेद-विभेदों, परस्पर सम्बंन्धों के निर्धारण के सिद्धांत, रण-कौशल, शासन-व्यवस्था के लिए आवश्यक चातुर्य आदि का विस्तृत ज्ञान देता है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं है कि इसके कुछ पात्र ऐसे हैं जो शुरू से ही समाज में अपनी पैठ बनाए हुए हैं। यदि उनके बारे में सही समझ पैदा करने में कामयाबी पाने में हम समर्थ हो सकें तथा उसको मर्यादित करने के तौर-तरीकों के बारे में जानकारी प्राप्त कर, उन पर अमल कर लिया जाये, तो राम राज्य की कल्पना को साकार कर पाना असंभव नहीं होगा।
... तभी सार्थक होगा पर्व
असलियत में यह पर्व हमें अपने अंदर के दशानन को पहचानने, उसका दमन करने का संदेश देता है लेकिन दुख इस बात का है कि फिर भी हम अपने अंदर बैठे दर्जनों रावण को समय के भरोसे छोड़ वैसा ही रहने देते हैं। सवाल अहम तो यही है कि क्या उनका दमन किए बगैर विजयादशमी सार्थक हो सकती है? विडम्बना है कि अधर्म रूपी पुतले का दहन करने के बाद भी सर्वत्र बुराई का बोलबाला है, दावे कुछ भी किए जायें असलियत यह है कि भ्रष्टाचार हम सबके दिलोदिमाग में बैठा सबसे बड़ा रावण है। इस मामले में तो हमारे देश ने दुनिया में कीर्तिमान बनाया है। इसे और जात-पात, छुआछूत, भेदभाव, असमानता, सांप्रदायिकता, संकीर्णता, आतंकवाद, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, वर्ण भेद, वर्ग भेद और ऊंच-नीच जैसे रावण का दमन करने, रोकने में क्या हम कामयाब हो सके हैं। सबसे बड़े दुख की बात यह है कि रावण रूपी इन बुराइयों के कारण देश विघटन के कगार पर है। देश की एकता, अखंडता खतरे में है। सीमाएं अशांत हैं। स्वार्थ सर्वोपरि हो गया है। प्रेम, सद्भाव, बंधुत्व और सहिष्णुता की भावना सपना हो गयी है। लोग क्षणिक लोभ की खातिर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं। जाति की अहमन्यता के कारण देश एक बार फिर गुलामी की ओर बढ़ रहा है, जबकि यह कटु सत्य है कि हमारी गुलामी का अहम कारण यह जाति व्यवस्था ही थी जिसने हमें बरसों गुलाम बनाए रखा। इसे देखकर बरबस यह ख्याल मन में कौंधता है कि क्या यही भरत का भारत है जिसकी सारी दुनिया में ख्याति थी। क्या हमने कभी सोचा है कि रावण दहन के विशालकाय और भव्य आयोजनों में खर्च होने वाले धन का स्रोत क्या है, क्या वह ईमानदारी से अर्जित धन है? यदि वह बेईमानी और धोखाधड़ी से अर्जित धन है, तो उससे बुराई के प्रतीक रावण के पुतले के दहन समारोह के आयोजन का क्या औचित्य है?
लोक संगीत की समृद्ध परंपरा।
कर्म विजेता भी राम
जहां तक शक्ति का सवाल है, हमारे मनीषियों की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि शक्तिलाभ के उद्देश्य से ही समस्त भारतीय शास्त्रों की रचना हुई है। नवरात्र में पूजा-जप-तप-व्रत और स्तोत्र पाठ भी इसी शक्ति पूजा के प्रतीक हैं। पूजा के इन नौ दिनों के उपरांत लोकमाता विजया के पूजन के रूप में मनाया जाने वाला पर्व ’विजयादशमी’ भी विजय उत्सव ही है। यथार्थ में श्रीराम मात्र रावण विजेता नहीं थे, वह कर्म विजेता थे। उन्होंने युद्ध से पूर्व शक्ति की पूजा की, आराधना की, साधना की और शक्ति प्राप्त कर विजय प्राप्त की, इसलिए बाह्य साधनों के साथ-साथ आंतरिक शुद्धता, शक्ति संपन्नता, धर्मानुसरण और सत्य के मार्ग का पथिक होना मनुष्य के लिए परमावश्यक है। यही विजयादशमी का संदेश है। असलियत में विजय पर्व का यथार्थ यही है कि हम इसे रावण पर राम की विजय कहें या अधर्म पर धर्म की विजय, उसे किस दृष्टि से देखें।
लंका काण्ड के अंत में वर्णित दोहे-
‘समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
विजय विवेक विभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।’
के अनुसार विजय विवेक और विभूति नामक इन तीन वस्तुओं का मानव जीवन में बड़ा महत्व है। यह उन्हीं को प्राप्त होती हैं जो सुजान होते हैं। सुजान का तात्पर्य है सद्कर्म और सद्आचरण का पालन करने वाला। मानव के सम्पूर्ण जीवन में इन तीन वस्तुओं की परीक्षा पल-पल पर होती है। यदि हम इस पर्व के परिप्रेक्ष्य में छिपे संदेशों पर चिंतन-मनन करें और उनका पालन व निर्वाह अपने जीवन में करें, तभी इस पर्व की सार्थकता संभव है अन्यथा नहीं। इस अवसर पर हमें पुनरीक्षण करना होगा और अपने मन से यह निकाल देना होगा कि अकेले रावण का पुतला जलाने से बुराई का खात्मा हो जायेगा। हमें अपने अंदर के रावण पर विजय प्राप्त करनी होगी, तभी विजय पर्व दशहरा यानी विजयादशमी की सार्थकता सिद्ध होगी।
विजयादशमी पर ‘शस्त्र पूजन’ क्यों करता है संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना 1925 में विजयादशमी यानी दशहरा के दिन हुई थी । संघ की स्थापना विजयादसमी (27 सितंबर 1925 ) के दिन परमपूज्य डॉ. केशव हेडगेवार जी द्वारा की गयी थी। हेडगेवार जी ने अपने घर पर ही कुछ लोगों के साथ गोष्ठी में संघ के गठन की योजना बनाई थी। दशमी पर शस्त्र पूजन का विधान है। इस दौरान संघ के सदस्य हवन में आहुति देकर विधि-विधान से शस्त्रों का पूजन करते हैं। संघ के स्थापना दिवस कार्यक्रम में हर साल ‘शस्त्र पूजन’ खास रहता है। संघ की तरफ ‘शस्त्र पूजन’ हर साल पूरे विधि विधान से किया जाता है। इस दौरान शस्त्र धारण करना क्यों जरूरी है की महत्ता से रूबरू कराते हैं। बताते हैं, कि अनादि काल से राक्षसी प्रवृति के लोगों के नाश के लिए शस्त्र धारण जरूरी रहा है। सनातन धर्म के देवी-देवताओं की तरफ से धारण किए गए शस्त्रों का जिक्र करते हुए एकता के साथ ही अस्त्र-शस्त्र धारण करने की हिदायत दी जाती है। ‘शस्त्र पूजन’ में भगवान के चित्रों से सामने ‘शस्त्र’ रखते हैं. दर्शन करने वाले बारी-बारी भगवान के आगे फूल चढ़ाने के साथ ‘शस्त्रों’ पर भी फूल चढ़ाते हैं.इस दौरान शस्त्रों पर जल छिड़क पवित्र किया जाता है. महाकाली स्तोत्र का पाठ कर शस्त्रों पर कुंकुम, हल्दी का तिलक लगाते हैं. फूल चढ़ाकर धूप-दीप और मीठे का भोग लगाया जाता है. विजयादशमी का पर्व जगजननी माता भवानी का की दो सखियों के नाम जया-विजया पर मनाया जाता है. यह त्यौहार देश, कानून या अन्य किसी काम में शस्त्रों का इस्तेमाल करने वालों के लिए खास है. शस्त्रों का पूजन इस विश्वास के साथ किया जाता है कि शस्त्र प्राणों की रक्षा करते है. विश्वास है कि शस्त्रों में विजया देवी का वास है। इसलिए विजयादशमी के दिन पूजन का महत्व बढ़ जाता।
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