मोदी युग का भारत , चीन से आंख में आंख डाल कर बात करता है - अरविन्द सिसोदिया
निश्चित रूप से चीन आज भी भारत के लिये बडा खतरा है तथा उसके षडयंत्र हमें अनेकों स्तरों पर बाधायें खडा कर रहे है। किन्तु देश ने घुट घुट कर मरने के बजाये , सिर उठा कर जीना सीख लिया है। चीन को नरेन्द्र मोदी युग में हर चाल का जबाव उसी की भाषा में दिया जा रहा है। भारतीय सेना को आधुनिकतम हथियारों का प्रबंध किया जा रहा है। उसे सक्षम बनाया गया है । सेना तक पहुंच के लिये पक्की सडकों एवं हवाई सुविधाओं भी विकसित किया गया है। भारत अब चीन से आंख में आांख डाल कर बात करता है।
- अरविन्द सिसोदिया
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भारत चीन युद्ध की वर्षगांठ
यह आलेख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह युग तक का है, जो मोदी युग के पूर्व की स्थिती का वर्णन करता है।
पराजय का इतिहास
स्रोत: Panchjanya - Weekly
तारीख: 2/1/2012
चीन हमले की 50वीं वर्षगांठ
क्या नेहरू की तरह मनमोहन सिंह भी दुहराएंगे
पराजय का इतिहास
नरेन्द्र सहगल
पचास वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन की दोस्ती खरीदने के लिए भारी कीमत के रूप में देश की सुरक्षा को ही दांव पर लगाने की जो भूल की थी, आज फिर वर्तमान प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह उसी विनाशकारी भूल को दुहराने की गलती कर रहे दिखाई देते हैं। चीन के संबंध में सेनाधिकारियों और रक्षा विशेषज्ञों की सुरक्षात्मक चेतावनियों की अनदेखी करके जिस विदेश नीति को भारत की वर्तमान सरकार आगे बढ़ा रही है उससे चीन की ही भारत विरोधी कुचालों को बल मिल रहा है।
प्रधानमंत्री की गलतफहमी
एक ओर चीन ने भारत की थल और समुद्री सीमाओं को चारों ओर से घेरने की खतरनाक रणनीति अख्तियार की है और दूसरी ओर भारत के कथित रूप से भोले भाले प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चीन की ओर से कोई खतरा नहीं है। संसद के पिछले सत्र में डा.मनमोहन सिंह ने यह कहकर सबको निÏश्चत करते हुए चौंकाने वाली जानकारी दी कि चीन भारत पर हमला नहीं करेगा। देश के दुर्भाग्य से यही गलतफहमी पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी थी।
पंडित जी ने तो अपनी इस भूल को अपने जीवन के अंतिम दिनों में स्वीकार कर लिया था, परंतु नेहरू-गांधी खानदान की बहू, चर्च प्रेरित सोनिया गांधी के निर्देशन में चल रही वर्तमान सरकार के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह भी क्या अपनी भूल को उसी समय स्वीकार करेंगे जब बहुत देर हो चुकी होगी? सभी जानते हैं कि 1962 में चीन ने भारत के साथ हुए सभी प्रकार के सीमा समझौतों, वार्ताओं और आश्वासनों को ठुकरा कर भारत पर आक्रमण करके लद्दाख की हजारों वर्गमील भारतीय जमीन पर कब्जा जमा लिया था। आज तक चीन ने हमारी एक इंच धरती भी वापस नहीं की। उलटा वह आगे बढ़ रहा है।
चीन की चालों में फंसे नेहरू
1962 में भारत पर आक्रमण करने के पहले चीन ने प्रचार करना शुरू किया था कि उसे भारत से खतरा है। हमले के तुरंत पश्चात चीन के प्रधानमंत्री ने सफाई दी थी कि यह सैनिक कार्रवाई सुरक्षा की दृष्टि से की गई है। अर्थात आक्रमणकारी भारत है, चीन नहीं। जबकि सच्चाई यह थी कि चीन-भारत भाई-भाई के नशे में मस्त भारत सरकार को तब होश आया था जब चीनी सैनिकों की तोपों के गोले छूटने प्रारंभ हो चुके थे। भारत की सेना तो युद्ध का उत्तर देने के लिए तैयार ही नहीं थी। 32 दिन के इस युद्ध में भारत की 35000 किलोमीटर जमीन भी गई और बिग्रेडियर होशियार सिंह समेत तीन हजार से ज्यादा सैनिक शहीद भी हो गए थे।
उल्लेखनीय है कि 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने चीन सरकार के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। विश्व में शांति स्थापना करने के उद्देश्य पर आधारित पंचशील के पांच सिद्धांतों में एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन न करने जैसा सैन्य समझौता भी शामिल था। इस समझौते को स्वीकार करते समय हमारी सरकार यह भूल गई कि शक्ति के बिना शांति अर्जित नहीं होती। हम चीन की चाल में फंस गए। 1960 में भी चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत सरकार को अपने शब्दजाल में उलझाकर इस भ्रमजाल में फंसा दिया कि दोनों देश भाई-भाई हैं और सभी सीमा विवाद वार्ता की मेज पर सुलझा लिए जाएंगे।
षड्यंत्रकारी चीनी युद्ध नीति
1962 में चीन द्वारा भारत पर किया गया सीधा आक्रमण उसकी चिर पुरातन षड्यंत्रकारी युद्ध नीति पर आधारित था। अर्थात पहले मित्र बनाओ और फिर पीठ में छुरा घोंपकर अपने राष्ट्रीय हित साधो। सामरिक मामलों के विशेषज्ञ एवं सुप्रसिद्ध भारतीय स्तंभकार ब्रह्म चेलानी के अनुसार "धोखे से अचानक हमला करने का सिद्धांत चीन में ढाई हजार वर्ष पहले की एक पुस्तक "युद्ध कला" में वर्णित है। चीनी लेखक सुनत्सू की इस पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि अपने विरोधी देश को काबू करने के लिए उसके पड़ोसियों को उसका दुश्मन बना दो।" चीन आज भी इसी मार्ग पर चल रहा है।
भारत के पड़ोस में स्थित सभी छोटे-बड़े देशों को आर्थिक एवं सैन्य सहायता देकर अपने पक्ष में एक प्रबल सैन्य शक्ति खड़ी करने में चीन ने सफलता प्राप्त की है। इसी रणनीति के अंतर्गत चीन पाकिस्तान को परमाणु ताकत बनने में मदद कर रहा है और उसकी मिसाइल क्षमता को मजबूत करने में जुटा है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन का सैनिक हस्तक्षेप और इस सारे क्षेत्र को चीन की सीमा तक जोड़ने के लिए सड़कों का जाल बिछाकर चीन की पहुंच सीधे इस्लामाबाद तक हो गई है। इसी साजिश के तहत चीन ने बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका इत्यादि छोटे देशों के बंदरगाहों पर अपने युद्धपोत खड़े किए हैं।
सीधे युद्ध की तैयारियां
चीन ने तो अब भारत के भीतरी इलाकों पर भी अपनी गिद्ध दृष्टि जमाकर हमारी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति को कमजोर करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए हैं। भारत-पाकिस्तान को अस्थायी रूप से बांटने वाली कथित नियंत्रण रेखा के पार वाले पाक अधिकृत कश्मीर में जहां पाकिस्तान की सेना का भारी जमावड़ा है, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 11 हजार सैनिक जमे हुए हैं। भारतीय जम्मू-कश्मीर के अभिन्न भाग गिलगित और बाल्टीस्तान में चीन की सैनिक टुकड़ियों की मौजूदगी 1962 की तरह के किसी हमले का स्पष्ट संकेत है।
भारत के एक प्रांत अरुणाचल प्रदेश को तो चीन ने अपना (दक्षिण तिब्बत) एक अभिन्न भाग घोषित किया हुआ है। वास्तव में तो 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय से ही साम्यवादी चीन की कुदृष्टि नेपाल, सिक्किम, भूटान, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर जमी हुई है। उस समय चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने कहा था कि तिब्बत तो चीन के दाएं हाथ की हथेली है और नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश इस हथेली की पांच उंगुलियां हैं। इस पूरे क्षेत्र को हड़पने के लिए चीन के सैन्य प्रयास चल रहे हैं जो कभी भी सीधे युद्ध में बदल सकते हैं।
चीन की विस्तारवादी रणनीति
अरुणाचल प्रदेश में आर्थिक निवेश के साथ चीन वहां पर भारतीय सेना का भी विरोध करता है। पिछले दिनों चीन ने अपने भारत विरोधी षड्यंत्रों के तहत एक आनलाइन मानचित्र सेवा प्रारंभ करके अरुणाचल प्रदेश को चीन का प्रांत बताने का सिलसिला भी शुरू कर दिया है। इसी नीति के तहत अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को चीन द्वारा नत्थी वीजा देने का मामला सामने आया है। चीन की यह नीति इस हद तक जा पहुंची है कि वह भारत के प्रधानमंत्री एवं भारत में शरण लिए हुए तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के अरुणाचल प्रदेश में दौरे पर आपत्ति जताने से भी बाज नहीं आता। अरुणाचल प्रदेश को (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की तरह) भारत से काटने की फिराक में है साम्यवादी चीन। इस कुटिल चाल को समझना जरूरी है।
उधर नेपाल को भारत से जोड़ने वाली हिन्दुत्वनिष्ठ शक्तियों को जड़मूल से समाप्त करने के लिए चीन वहां पर सक्रिय माओवादियों को प्रत्येक प्रकार की सहायता दे रहा है। धीरे-धीरे भारत का यह पड़ोसी देश साम्यवादी चीन के प्रभाव में आ रहा है। भारत समेत सभी हिमालयी क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए नेपाल को विस्तारवादी चीन से बचाकर रखना जरूरी है। भारत की चीन के संदर्भ में अपनी विदेश नीति को इसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहिए था। यही चूक भविष्य में खतरनाक साबित होगी।
पड़ोसी देशों में सैन्य हस्तक्षेप
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 1962 में चीन के हाथों बुरी तरह से पराजित होने के पश्चात भी हमारी सरकार ने इस पड़ोसी देश की विस्तारवादी रणनीति को नहीं समझा। चीन जब भी किसी पड़ोसी देश पर हमला करता है तो "चीन की सुरक्षा खतरे में" का वातावरण बनाता है। अपनी इस युद्ध नीति को आधार बनाकर चीन की सेना सीमाओं का अतिक्रमण करके अचानक युद्ध थोप देती हे। सो रहे लोगों पर बिना चेतावनी के हमला बोलना और उनके जागने तक अपना काम पूरा करके शांति का झंडा फहरा देना इसी रणनीति का साक्षात नमूना था 1962 का युद्ध।
इससे पूर्व चीन ने 1950 में कुटिलता से तिब्बत पर यह कहकर अपना सैन्य आधिपत्य जमा लिया कि चीन एवं तिब्बत दोनों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी था। इसी युद्ध नीति के तहत चीन ने कोरिया में सैन्य हस्तक्षेप करके मानवता का गला घोंट डाला। चीन ने लगभग इसी समय (1962 के बाद) अपने साम्यवादी आका रूस के साथ भी सीमांत टकराव की नीति अपनाई। इसी तरह 1974 में चीन ने वियतनाम के एक द्वीप पारासेल को कब्जाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया और 1979 में वियतनाम के विरुद्ध सीधी सैनिक कार्रवाई कर दी।
1962 से ज्यादा खतरनाक हालात
आज चीन अपनी इसी एक परंपरागत युद्ध नीति का विस्तार भारत के चारों ओर करने में सफल हो रहा है। भारत की सीमा के साथ लगते सभी पड़ोसी देशों को अपने साथ जोड़कर चीन ने अपनी भारत विरोधी युद्धक क्षमता को 1962 की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बढ़ा लिया है। वायु युद्ध अर्थात आसमान से दुश्मन देश पर तबाही के गोले बरसाने वाली एंटीसेटेलाइट मिसाइलें बनाकर चीन ने अद्भुत सफलता प्राप्त कर ली है। इन भयानक मिसाइलों के निशाने पर पाकिस्तान समेत भारत के पड़ोसी देश नहीं होंगे, क्योंकि यह देश चीन के सैन्य कब्जे में जा रहे हैं। चीनी मिसाइलों के निशाने पर भारत के सैनिक ठिकाने और शहर होंगे।
अत: 1962 से कहीं ज्यादा खतरनाक इतिहास दुहराने के निशान पर पहुंच चुके चीन के लिए प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह का यह कहना कि चीन हम पर हमला नहीं करेगा बहुत ही बचकाना बयान लगता है। यह कथन देश, जनता और सेना को उसी तरह से अंधेरे में रखने जैसा है जैसे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन को अपना भाई बताकर वस्तुस्थिति की अनदेखी कर दी थी। क्या वह अपमानजनक इतिहास फिर दोहराया जाएगा?
देश के समक्ष गंभीर चुनौती
चीन की युद्धक तैयारियों के मद्देनजर भारत की सरकार, सेना और समस्त जनता को खम्म ठोककर खड़े होना चाहिए। चीन के संबंध में किसी कल्पना लोक में अठखेलियां कर रही सोनिया निर्देशित डा.मनमोहन सिंह की सरकार को वास्तविकता के धरातल पर उतर कर जनता का मनोबल मजबूत करना चाहिए। चीन की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष युद्ध नीतियों का फिर से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। चीन की परंपरागत युद्धनीति में अंतरराष्ट्रीय नियमों, सद्भावनाओं, वार्ताओं और सहअस्तित्व जैसे मानवीय मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। वहां धोखा है, फरेब है और कुछ नहीं।
भारत के समक्ष एक गंभीर रक्षात्मक चुनौती है। यह चुनौती इसलिए भी भयानक है क्योंकि चीन और पाकिस्तान एकजुट हैं। दोनों के वैचारिक आधार हिंसक जिहाद और हिंसक साम्यवादी विस्तारवाद भारत के मानवतावादी तत्वज्ञान से मेल नहीं खाते। इसलिए समय रहते भारत को अपनी सामरिक क्षमता को एक विश्वव्यापी अजेय शक्ति के रूप में सम्पन्न करना होगा। यही एकमेव रास्ता है।
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मोदी युग में बदल गई नेहरू युग की धारणायें
चीनी सेना की हर हरकत पर नजर
भारत के इस कदम से बहुत डर गया था चीन!
फिर ऐसे हासिल की India ने 1962 के युद्ध में हारी ज़मीन
29 और 30 अगस्त को चीन ने एक बार फिर लद्दाख में घुसपैठ करने की कोशिशें कीं थी.
पीएलए के 500 जवानों ने चुशुल के करीब एक गांव में घुसपैठ कर पैंगोंग झील के दक्षिणी हिस्से पर कब्जा करने की कोशिशों में थे.
TV9 Hindi
Updated On - 11:14 am, Sat, 20 February 21
भारत और चीन के बीच आखिरकार 8 माह बाद लद्दाख में डिसइंगेजमेंट प्रक्रिया शुरू हुई है. चीन की सेना पैंगोंग लेक के उत्तरी किनारे से जा चुकी है और इसके दक्षिणी किनारे पर भी डिसइंगेजमेंट लगभग पूरा हो चुका है. पैंगोंग झील का दक्षिणी किनारा वह हिस्सा है जो रणनीतिक तौर पर भारत के लिए काफी अहमियत रखती है.
अगस्त 2020 के अंत में इस रेंज पर चीनी सेना ने घुसपैठ की कोशिशें की थीं और भारतीय सेना ने उसे मुंह के बल पटका था. इस बीच नॉर्दन आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल वाईके जोशी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि कैलाश रेंज में भारतीय सेना ने जो साहस दिखाया था उसके बाद स्थितियां युद्ध सी हो गई थीं.
चीनी सेना की हर हरकत पर थी नजर
लेफ्टिनेंट जनरल वाईके जोशी ने कहा है कि कैलाश रेंज पर कब्जे के बाद भारतीय सेना आसानी से चीनी सेना की हर हरकत को देखा जा सकता था. इंडियन आर्मी ऑफिसर्स और जवानों ने जितना संयम रखा जा सकता था, उसे कायम किया.
लेफ्टिनेंट जनरल जोशी ने मीडिया को बताया कि चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी ने अपने टैंक्स ऊंचाईयों पर तैनात कर दिए थे और भारतीय जवान भी टैंक्स की टॉप और रॉकेट लॉन्चर्स पर बैठे थे. ऐसे में दुश्मन को देखने के बाद ट्रिगर को पुल करना सबसे आसान था. लेकिन पूरा संयम बरता गया.
कैलाश रेंज की 6 बड़ी चोटियों पर पहुंची सेना
कैलाश रेंज में आने वाले हिस्से मगर हिल, गुरुंग हिल, रेकिन ला, रेजांग ला और मुखपारी, भारतीय सेना के कब्जे में आ चुके थे. यहां से सेना लगतार फिंगर 4 के करीब स्थित चीनी सेना की पोस्ट्स पर नजर बनाए हुए थी. कैलाश रेंज पर कब्जे को भारत की एक बड़ी रणनीतिक जीत करार दिया गया था.
अगस्त 2020 में इंडियन आर्मी ने रणनीतिक तौर पर अहम रेकिन ला जिसे रेकिन पास के तौर पर जानते हैं, उस पर कब्जा कर लिया था. यह जगह भारत-चीन बॉर्डर के पश्चिम में है और मोल्डो स्थित चीनी कैंप से इसे आसानी से देखा जा सकता है.
रेकिन ला आया भारत के पास
29 और 30 अगस्त को चीन ने एक बार फिर लद्दाख में घुसपैठ करने की कोशिशें कीं थी. पीएलए के 500 जवानों ने चुशुल के करीब एक गांव में घुसपैठ कर पैंगोंग झील के दक्षिणी हिस्से पर कब्जा करने की कोशिशों में थे.
पहले से चौकस भारतीय सुरक्षा बलों ने चीन के इस प्रयास को विफल कर दिया. भारत की सेना ने फिर से उस रेकिन पास को अपने कब्जे में कर लिया है जो सन् 1962 में हुई जंग में उसके हाथ से चला गया था.
स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) ने ब्लैक टॉप पर कब्जा किया हुआ था. भारतीय सेना, रेकिन के करीब 4 किलोमीटर अंदर तक दाखिल हो गई थी. रेकिन ला, रेजांग ला पास के करीब ही है और यह 17,493 फीट की ऊंचाई पर है. यहां से स्पानग्गुर झील और S301 नजर आता है.
ऊंचाइयों पर कब्जा नहीं कर सका चीन
सेना सूत्रों के मुताबिक चीन की योजना इन ऊंचाईयों पर कब्जा करने की थी. अगर वो इन चोटियों को अपने कब्जे में ले लेता तो फिर उसे बहुत फायदा मिल सकता था.
कई रक्षा और सुरक्षा संस्थानों की तरफ से बार-बार ये मांग की जा रही थी कि सेना को उन ऊचाईयों और रास्तों को फिर से हथियाना होगा जो उसके लिए अहमियत रखते हैं. इन जगहों को अपने नियंत्रण में लेकर भारत, चीन की आक्रामकता का पूरा जवाब दे सकता है.
चीन की तरफ से भी आधिकारिक बयान जारी कर इस बात की पुष्टि की गई थी. पीएलए के वेस्टर्न थियेटर कमांड की तरफ से कहा गया था कि भारत की सेना ने गैर-कानूनी तौर पर एलएसी पार की और रेकिन माउंटेन पास को अपने नियंत्रण में ले लिया.
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1962 भारत-चीन युद्ध: वो बातें जो शायद आप नहीं जानते
अभिनय आकाश May 30, 2020
22 अक्टूबर 1962 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र के नाम संदेश में छल की वह कहानी सुना रहे थे। जिसके वह खुद एक लेखक भी थे, किरदार भी और आखिरकार छल के शिकार भी। साथ ही छला गया था पूरा भारत। महावीर और बुद्ध की शांतिपूर्ण धरती युद्ध भूमि में बदल गई थी।
अपने इतिहास में हिंदुस्तान ने कई लड़ाइयां लड़ी और लगभग हर बार देश को जीत का गौरव मिला। लेकिन एक युद्ध ऐसा था जो दरअसल युद्ध नहीं छल की दास्तां थी। जब दोस्ती की पीठ पर दगाबाजी का खंजर चलाया जाता है तो उसे 1962 का भारत चीन युद्ध कहते हैं। तब दोस्ती का भरोसा हिंदुस्तान का था, विश्वासघात का खंजर चीन का। उस युद्ध में हार से ज्यादा अपमान का लहू निकला। 1962 के भारत चीन युद्ध को कौन भूल सकता है। 62 कि वह तबाही को कौन भूल सकता है जो चीन ने बरपाई लेकिन उसके साथ ही हिंदुस्तान ने याद रखा एक सबक कि दोबारा 62 जैसी नौबत ना आए।
22 अक्टूबर 1962 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र के नाम संदेश में छल की वह कहानी सुना रहे थे। जिसके वह खुद एक लेखक भी थे, किरदार भी और आखिरकार छल के शिकार भी। साथ ही छला गया था पूरा भारत। महावीर और बुद्ध की शांतिपूर्ण धरती युद्ध भूमि में बदल गई थी।
आज से तकरीबन 58 साल पहले जब आधा हिंदुस्तान सो रहा था उस वक्त विश्वासघात और छल की एक पटकथा लिखी जा रही थी। चीन ने भारत पर सुनियोजित हमला किया। अरुणाचल से लेकर चीन की सेना ने न सिर्फ सीमा रेखा लांघी बल्कि दोस्ती के नाम पर घात भी किया। आजादी के बाद भारत जिस देश को अपना सबसे करीबी मान रहा था उसने ही भारत को युद्ध भूमि में ललकारा था।
हिंदी चीनी भाई-भाई
1947 में भारत को आजादी मिली और उसके ठीक दो साल बाद यानी 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने 1 अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की। आजादी के बाद से ही दोनों देशों में मित्रता वाले संबंध थे। उस दौर में भारत सरकार शुरू से ही चीन से दोस्ती बढ़ाने की पक्षधर थी। जब चीन दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था, उस समय भी भारत चीन के साथ खड़ा था। जापान के साथ किसी वार्ता में भारत सिर्फ इस वजह से शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन आमंत्रित नहीं था। इतिहास के हवाले से कई दावें ऐसे भी हैं कि जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह ये स्थान चीन को दे दिया। उस दौर में आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। लेकिन सरदार पटले ने चीन की चाल को भांप लिया था। वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी कि भी सलाह को अहमियत नहीं दी। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का नारा दिया। मगर 1959 में दलाई लामा के भारत में शरण लेने के बाद दोनों देशों के संबंधों में तनाव आने लगा। यही भारत-चीन युद्ध की बड़ी वजह बना।
क्यों हुआ था 1962 का भारत-चीन युद्ध
1962 में भारत पर चीन ने हमला क्यों किया था और इस युद्ध के पीछे चीन की मंशा क्या थी। इसको लेकर जितने सवाल उतने ही जवाब सामने आते हैं। लेकिन चीन के एक शीर्ष रणनीतिकार वांग जिसी ने इस युद्ध के 50 साल पूरे होने पर साल 2012 में दावा किया था कि चीन के बड़े नेता माओत्से तुंग ने 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' आंदोलन की असफलता के बाद सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना फिर से नियंत्रण कायम करने के लिए भारत के साथ वर्ष 1962 का युद्ध छेड़ा था।
उस समय हिंदी चीनी भाई-भाई नारा छाया रहता था, लेकिन बॉर्डर पर चीन की इस करतूत से हर कोई हैरान था। भारत को कभी यह शक नहीं हुआ कि चीन हमला भी कर सकता है। वांग जिसी ने कहा, ‘स्वाभाविक रूप से उन्होंने (माओत्से) ने कई व्यावहारिक मुद्दों पर से नियंत्रण खो दिया। इसलिए वह यह साबित करना चाहते थे कि वह अभी भी सत्ता में हैं विशेष रूप से सेना का नियंत्रण उनके हाथों में है। इसलिए उन्होंने तिब्बत के कमांडर को बुलाया और झांग से पूछा कि क्या आप इस बात का भरोसा है कि आप भारत के साथ युद्ध जीत सकते हैं.’ झांग गुओहुआ तिब्बत रेजीमेंट के तत्कालीन पीएलए कमांडर थे। वांग जिसी के अनुसार, ‘कमांडर ने कहा, ‘हां माओत्से, हम युद्ध आसानी से जीत सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘आगे बढ़ो और इसे अंजाम दो.’ इसका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि सेना पर उनका व्यक्तिगत नियंत्रण है। युद्ध के शुरू होने तक भारत को पूरा भरोसा था कि युद्ध शुरू नहीं होगा, इस वजह से भारत की ओर से तैयारी नहीं की गई। यही सोचकर युद्ध क्षेत्र में भारत ने सैनिकों की सिर्फ दो टुकड़ियों को तैनात किया जबकि चीन की वहां तीन रेजिमेंट्स तैनात थीं। चीनी सैनिकों ने भारत के टेलिफोन लाइन को भी काट दिए थे। इससे भारतीय सैनिकों के लिए अपने मुख्यालय से संपर्क करना मुश्किल हो गया था। भारतीय सेना इस हमले के लिए तैयार नहीं थी नतीजा ये हुआ कि चीन के 80 हजार जवानों का मुकाबला करने के लिए भारत की ओर से मैदान में थे 10-20 हजार सैनिक। ये युद्ध पूरा एक महीना चला जब तक कि 21 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा नहीं कर दी।
एंडरसन-भगत की सीक्रेट रिपोर्ट
क्या तय थी 1962 में चीन के हाथों भारत की हार? क्या बिना तैयारी के भेजे गए थे भारतीय सैनिक? क्या मोर्चे पर चीन की तैयारियों के बारे में भारत के पास कोई सूचना नहीं थी? दरअसल इन्हीं सवालों का जवाब लेफ्टिनेंट जनरल नील एंडरसन और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने अपनी रिपोर्ट में ढूंढने की कोशिश की थी। इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित कर दिया गया था। इसकी दोनों कॉपियों को रक्षा मंत्रालय में सुरक्षित रख दिया गया था। लेकिन 1962 के दौर में 'टाइम' के संवाददाता के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे मैक्स नेविल ने इस रिपोर्ट के मौजूद होने का दावा किया था। उन्होंने इस रिपोर्ट को ऑनलाइन डाल दिया था। मैक्स नेविल का दावा था कि रिपोर्ट में हार के लिए नेहरू की नीतियां जिम्मेदार थीं। नेहरू की फारवर्ड पालियी पूरी तरह नाकाम साबित हुई। साथ ही दिल्ली और सेना के फील्ड कमांडरों के बीत तालमेल की बेहद कमी, सैनिकों की खराब तैयारियां और संसाधनों की कमी को भी जिम्मेदार माना गया।
आस्ट्रेलिया पत्रकार मैक्स नेविल ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी जिसमें इस सीक्रेट रिपोर्ट के हवाले से कई दावे किए गए।
नहीं दिया गया सेना की हथियारों की मांग पर ध्यान
1961 के मध्य तक चीन के सुरक्षा बल सिक्यिांग-तिब्बत सडक़ पर वर्ष 1957 की अपनी स्थिति से 70 मील आगे बढ़ चुके थे। भारत की 14 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा किया जा चुका था। देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। सरकार आलोचना के घेरे में आ गई। आलोचनाओं से तंग आकर नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख पीएन थापर को चीनी सैनिकों को भारतीय इलाके से खदेड़ने का आदेश दिया। थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली से अवगत करा रहे थे, बार बार वह हथियार और संसाधनों की मांग कर रहे थे। नेहरू ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। शायद प्रधानमंत्री को रक्षा मंत्री वी. कृष्णा मेनन की बातों पर ज्यादा भरोसा था, जिन्होंने सेना की क्षमता और तैयारी के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बता रखा था।
नेहरू का राजनैतिक बयान और चीन ने कर दिया आक्रमण
13 अक्टूबर 1962 श्रीलंका जाते हुए नेहरू ने चेन्नई में मीडिया को बयान दिया कि उन्होंने सेना को आदेश दिया है कि वह चीनियों को भारतीय सीमा से निकाल फेकें। नेहरू के इस बयान से सैनिक हेडक्वार्टर हक्का-बक्का रह गया। जब सेना प्रमुख थापर ने रक्षा मंत्री से इस बारे में पूछा, तब उनका जवाब था कि प्रधानमंत्री का बयान राजनीतिक स्टेटमेंट है। इसका अर्थ है कि कारवाई दस दिन में भी की जा सकती है और सौ दिन में या हजार दिन में भी। लेकिन नेहरू के इस स्टेटमेंट के आठ दिन बाद चीनियों ने आक्रमण कर दिया।
बहरहाल, जब आज यह कहा जाता है कि 62 का नहीं बल्कि 2020 का हिंदुस्तान है तो इस बात में दम है। पिछले कुछ दिनों से कभी चीन के हेलीकॉप्टर आते हैं तो कभी उसके सैनिक पैंगोंग त्सो झील में कारस्तानी कर जाते हैं। हिंदुस्तान ने चीन की हर हरकत का बखूबी जवाब दिया है। यही कारण है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी सेना को युद्ध की तैयारी तेज करने के लिए कहा था। लेकिन 24 घंटे बाद ही दूसरा बयान चीन के विदेश मंत्रालय का आ जाता है। जिसमें कहा जाता है कि भारत के साथ सीमा पर हालात स्थिर हैं और काबू में हैं, दोनों देशों के पास बातचीत करके मुद्दों को हल करने के माध्यम मौजूद हैं। तीसरा बयान भारत में चीन के राजदूत का आया. उन्होंने कहा कि दोनों देश कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं और इस वक्त रिश्तों को मजबूत करने की जरूरत है। इन बयानों से यही समझा जाना चाहिए कि चीन अब बातचीत की टेबल पर आना चाहता है। पहले वो लद्दाख में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाकर भारत को धमकाना चाहता था, और भारत को सड़क बनाने से रोकना चाहता था, लेकिन भारत के सख्त रवैये से चीन को लग गया है कि उसके हथकंडे भारत के सामने नहीं चल पाएंगे। कुल मिलाकर कहें तो चीन को ये अच्छी तरह अंदाजा लग गया है कि भारत सामरिक ही नहीं कूटनीतिक मामले में भी चीन पर भारी है यानी चीन से निपटने के लिए भारत हर मोर्चे पर तैयार है।
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