एनी बेसेंट Annie_Besant : हिंदू विचारों की बुलंद आवाज
डॉ एनी बेसान्ट
अग्रणी आध्यात्मिक, थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। सन १९१७ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं। एनी बेसेंट से प्रेरणा पाकर भारत के कई समाज सेवकों को बल मिला। वो आयरिश महिला, जिन्हें देश मां बसंत और गांधी बसंत देवी कहते थे , एनी बेसेंट (Annie Besant) का चेन्नई (Chennai) के पास 86 साल की उम्र में निधन हो गया। कहा जा सकता है कि जिस समय भारत गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था,तब उन्होंने इस देश को जगाने में खास भूमिका अदा की। उन्हें हिंदू धर्म (Hindu Religion) और इसकी परंपरांओं से प्यार था।
जन्म की तारीख और समय: 1 अक्तूबर 1847, क्लैफम टाउन, लंदन, यूनाइटेड किंगडम
मृत्यु की जगह और तारीख: 20 सितंबर 1933, अड्यार, चेन्नई
राष्ट्रीयता: ब्रिटिश
पति: फ्रैंक बेसेन्ट (विवा. 1867–1873)
माता-पिता: ऐमिली मोरिस, विलियम वुड
शिक्षा: बर्कबेक, हैरो स्कूल
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एनी बेसेंट के धार्मिक विचार
एनी बेसेंट हिंदू विचारों (कर्म, पुनर्जन्म, निर्वाण) का अध्ययन करने के लिए भारत चली गईं जो थियोसोफी के लिए मूलभूत थीं। शाकाहार की ओर से उनके थियोसोफिकल विचारों ने भी उन्हें काम में लाया। वह अक्सर थियोसॉफी के लिए या सामाजिक सुधार के लिए, ब्रिटिश मताधिकार आंदोलन में सक्रिय और महिलाओं के मताधिकार के लिए एक महत्वपूर्ण वक्ता के रूप में बोलने के लिए लौट आई। भारत में, जहां उनकी बेटी और बेटा उनके साथ रहने के लिए आए, उन्होंने भारतीय होम रूल के लिए काम किया और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस सक्रियता के लिए नजरबंद कर दिया गया। वह 1933 में मद्रास में अपनी मृत्यु तक भारत में रहीं।
इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, एनी बेसेंट ने अपने विचारों और भावुक प्रतिबद्धताओं के लिए बहुत जोखिम उठाया। मेनलाइन क्रिश्चियनिटी से पादरी की पत्नी के रूप में, कट्टरपंथी फ़्रीथिंकर, नास्तिक, और समाज सुधारक, थियोसोफ़िस्ट व्याख्याता और लेखक के लिए, एनी बेसेंट ने अपनी दया और अपनी तार्किक सोच को अपने दिन की समस्याओं और विशेष रूप से महिलाओं की समस्याओं पर लागू किया।
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एनी बेसेंट का जन्म 01 अक्टूबर 1847 के दिन लंदन में हुआ था. भारत की मिट्टी से उन्हें खासा लगाव था. ब्रिटिश राज में जिस तरह कई बार उन्होंने विरोध की आवाज बुलंद की, उसने उन्हें ‘आयरन लेडी’ की छवि भी दी. वह भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म से बहुत प्रभावित थीं. वह भारत को अपना घर कहती थीं. वह हमेशा कहती थीं कि वेद और उपनिषद का धर्म ही सच्चा मार्ग हैं.
चेन्नई के पास अंडयार में उनका जब 20 सितंबर 1933 में निधन हुआ तब तक भारत
में अंग्रेजों के खिलाफ जागृति की लहर मजबूती के साथ चलने लगी थी. आजादी की
लड़ाई ब्रिटिश राज के होश उड़ाने लगी थी. सुनने में अजीब सा लगता है कि एक
अंग्रेज महिला ने ब्रिटिश राज के खिलाफ इस देश को गुलामी की बेड़ियां
तोड़ने में शुरुआती योगदान दिया लेकिन ये सच है.
पति से विचार नहीं मिले तो अलगाव हो गया
उनका बचपन पिता के निधन के बाद गरीबी में बिता. लेकिन अद्भुत प्रतिभा की धनी थीं. कई भाषाओं की जानकार. 1867 को एनी बेसेंट का विवाह 22 वर्ष की उम्र में गिरजाघर के पादरी ‘रेवेरेंड फ्रैंक बेसेंट’ से हुआ. लेकिन स्वाभाव के स्वतंत्र विचारों की होने के कारण पति से उनका विरोध रहता था. इसी वजह से उन्होंने पति से संबंध तोड़कर मानवता से नाता जोड़ने का संकल्प लिया.
आयरिश परिवार से ताल्लुक रखने वाली एनी बेसेंट की शादी इसलिए टूट गई,क्योंकि वो धर्म को लेकर स्वतंत्र विचारों वाली थीं. उनके पति कट्टर पादरी. ादी टूटने के बाद वो ताजिंदगी भारत में रहीं. इसी देश को अपनी कर्मभूमि बनाया.
भाषण से पहले ऊं नम: शिवाय कहती थीं
ईश्वर, बाइबिल और ईसाई धर्म पर से उनकी आस्था डिग गई. विवाह बहुत कटुता के बीच खत्म हुआ. 1873 में तलाक हो गया.धर्म के खिलाफ लेख लिखने पर मुक़दमा चला. भारत में रहते हुए उन्होंने खुद को कभी विदेशी नहीं समझा. हिन्दू धर्म पर व्याख्यान से पूर्व वह ‘ॐ नम: शिवाय’ का उच्चारण करती थीं. मेम साहब कहलाना पसंद नहीं करती थी.
भारत से प्रेम किया
एनी बेसेंट को अम्मा’ नाम उन्हें पसंद था. भारत से उन्होंने प्रेम किया. भारत में वो जिस तरह रहती थीं और यहां से लोगों की सेवा में जुटी रहती थीं, उसी के चलते भारतवासियों ने उन्हें ‘माँ बसंत’ कहना शुरू कर दिया. चूंकि उन्होंने भारत की आजादी में भी काफी योगदान दिया था लिहाजा गांधीजी सम्मान से उन्हें वसंत देवी कहने लगे.
बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की
बेसेंट ने काशी को अपना केंद्र बनाया. बनारस में ‘सेंट्रल हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना उन्होंने ही की थी. सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा विवाह आदि को दूर करने के लिए ‘ब्रदर्स ऑफ सर्विस’ नामक संस्था बनाई.वो यहां से दो पत्रिकाएं निकालती थीं और अंग्रेजों के खिलाफ लिखती थीं. वह कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं.
अंग्रेज सरकार ने नजरबंद कर दिया
1917 में ब्रिटिश सरकार ने एनी बेसेंट को उनके दो सहयोगियों के साथ नज़रबंद कर दिया गया. पूरे देश में सभाएं हुईं. जुलूस निकले, महिलाओं ने खुलकर भाग लिया.
जो प्रण वो अपने संस्था के लिए लोगों से कराती थीं
एनी बेसेंट ने जो संस्था बनाई थी, उसके प्रण के बारे में जानकर आज भी हैरानी होती है कि उन्होंने तब कितना क्रांतिकारी काम किया था. किस तरह भारतीय समाज को बदलने में भूमिका अदा की थी. इस संस्था में शामिल होने के लिए लोगों को इन बातों को मानते हुए शपथ पत्र पर साइन करने होते थे
– मैं जात पात पर आधारित छुआछूत नहीं करुंगा
– मैं अपने बेटों का विवाह 18 वर्ष से पहले नहीं करुंगा
– मैं अपनी बेटियों का विवाह 16 वर्ष से पहले नहीं करुंगा
– मैं पत्नी, पुत्रियों और कुटुम्ब की अन्य स्त्रियों को शिक्षा दिलाऊंगा. कन्या शिक्षा का प्रचार करूंगा. स्त्रियों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करुंगा.
– मैं जन साधारण में शिक्षा का प्रचार करुंगा
– मैं सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में वर्ग पर आधारित भेद-भाव को मिटाने का प्रयास करुंगा
– मैं सक्रिय रूप से उन सामाजिक बन्धनों का विरोध करुंगा, जो विधवा स्त्री के सामने आते हैं जब वह पुनर्विवाह करती हैं
– मैं कार्यकर्ताओं में आध्यात्मिक शिक्षा एवं सामाजिक और राजनीतिक उन्नति के क्षेत्र में एकता लाने का प्रयत्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व व निर्देशन में करुंगा
भारतीय राजनीति में प्रवेश
भारतीय राजनीति में उन्होंने 1914 में 68 वर्ष की उम्र में प्रवेश किया. उन्होंने एक असरदार ‘क्रांतिकारी आंदोलन होम रूल’ शुरू किया. ये आंदोलन ही भारतीय और कांग्रेस की राजनीति का नया जन्म माना जाता है. इस आंदोलन ने भारत की राजनीति तथा ब्रिटिश सरकार की नीतियों में नीतिगत परिवर्तन ला दिया.
बाद में गांधीजी से मतभेद भी हुए
गांधीजी से वैचारिक मतभेदों होने के कारण उन्होंने धीरे-धीरे कांग्रेस में सक्रियता कम कर दी. 1924 में गांधी जी के नेतृत्व में बेलगांव (कर्नाटक) में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ. रेल की लंबी यात्रा कर डॉ. बेसेंट जब बेलगांव पहुंचीं तो अधिवेशन शुरू हो चुका था. लेकिन ये वो समय भी था जब गांधीजी राष्ट्रीय पटल पर मजबूती से उभर रहे थे. एनी बेसेंट के गांधीजी से इस बात पर मतभेद शुरू हुए कि दोनों अलग तौरतरीकों पर चलना चाहते थे. इसी वजह से उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया.
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डॉ॰ एनी बेसेन्ट के विचार : -
भारत हितैषी एनी बेसेन्ट
डॉ॰ बेसेन्ट के जीवन का मूलमंत्र था 'कर्म'। वह जिस सिद्धान्त पर विश्वास करतीं उसे अपने जीवन में उतार कर उपदेश देतीं। वे भारत को अपनी मातृभूमि समझती थीं। वे जन्म से आयरिश, विवाह से अंग्रेज तथा भारत को अपना लेने के कारण भारतीय थीं। तिलक, जिन्ना एवं महात्मा गाँधी आदि ने उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा की। वे भारत की स्वतंत्रता के नाम पर अपना बलिदान करने को सदैव तत्पर रहती थीं।
वे भारतीय वर्ण व्यवस्था की प्रशंसक थीं। परन्तु उनके सामने समस्या थी कि इसे व्यवहारिक कैसे बनाया जाय ताकि सामाजिक तनाव कम हो। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए। शिक्षा में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो। ऐसी शिक्षा देने के लिए उन्होंने १८९८ में वाराणसी में सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की स्थापना की। सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जाति व्यवस्था, विधवा विवाह, विदेश यात्रा आदि को दूर करने के लिए उन्होंने 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था का संगठन किया। इस संस्था की सदस्यता के लिये आवश्यक था कि उसे नीचे लिखे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ता था -
(१) मैं जाति पाँति पर आधारित छुआछूत नहीं करुँगा।
(२) मैं अपने पुत्रों का विवाह १८ वर्ष से पहले नहीं करुँगा।
(३) मैं अपनी पुत्रियों का विवाह १६ वर्ष से पहले नहीं करुंगा।
(४) मैं पत्नी, पुत्रियों और कुटुम्ब की अन्य स्त्रियों को शिक्षा दिलाऊँगा; कन्या शिक्षा का प्रचार करुँगा। स्त्रियों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करुँगा।
(५) मैं जन साधारण में शिक्षा का प्रचार करुँगा।
(६) मैं सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में वर्ग पर आधारित भेद-भाव को मिटाने का प्रयास करुँगा।
(७) मैं सक्रिय रूप से उन सामाजिक बन्धनों का विरोध करुँगा जो विधवा, स्त्री के सामने आते हैं तो पुनर्विवाह करती हैं।
(८) मैं कार्यकर्ताओं में आध्यात्मिक शिक्षा एवं सामाजिक और राजनीतिक उन्नति के क्षेत्र में एकता लाने का प्रयत्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व व निर्देशन में करुंगा।
डॉ॰ एनी बेसेन्ट की मान्यता थी कि बिना राजनैतिक स्वतंत्रता के इन सभी कठिनाइयों का समाधान सम्भव नहीं है।
डॉ॰ एनी बेसेन्ट स्वभावतः धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उनके राजनीतिक विचार की आधारशिला थी उनके आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्य। उनका विचार था कि अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना अध्यात्म के संभव नहीं। कल्याणकारी जीवन प्राप्त करने के लिये मनुष्य की इच्छाओं को दैवी इच्छा के अधीन होना चाहिये। राष्ट्र का निर्माण एवं विकास तभी सम्भव है जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। सच्चे धर्म का ज्ञान आध्यात्मिक चेतना द्वारा ही मिलता है। उनके इन विचारों को महात्मा गाँधी ने भी स्वीकार किया। प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप आध्यात्मिक था। यही आध्यात्मिकता उस समय के भारतीयों की निधि थी।
डॉ॰ बेसेन्ट का उद्देश्य था हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आयी हुई विकृतियों को दूर करना। उन्होंने भारतीय पुनर्जन्म में विश्वास करना शुरू किया। उनका निश्चित मत था कि वह पिछले जन्म में हिन्दू थीं। वह धर्म और विज्ञान में कोई भेद नहीं मानती थीं। उनका धार्मिक सहिष्णुता में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने भारतीय धर्म का गम्भीर अध्ययन किया। उनका भगवद्गीता का अनुवाद 'थाट्स आन दी स्टडी ऑफ दी भगवद्गीता' इस बात का प्रमाण है कि हिन्दू धर्म एवं दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी। वे कहा करती थीं कि हिन्दू धर्म में इतने सम्प्रदायों का होना इस बात का प्रमाण है कि इसमें स्वतंत्र बौद्धिक विकास को प्रोत्साहन दिया जाता है। वे यह मानती थीं कि विश्व को मार्ग दर्शन करने की क्षमता केवल भारत में निहित है। वे भारत के सदियों से अन्धविश्वासों से ग्रस्त मानव को मुक्त करना चाहती थीं।
डॉ॰ बेसेन्ट ने निर्धनों की सेवा का आदर्श समाजवाद में देखा। गरीबी दूर करने के लिये उनका विश्वास था कि औद्योगीकरण हो। उन्होंने देखा कि नारी को किसी प्रकार की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी। वे लोग भोग की वस्तु समझी जाती थीं। इस दु:खद स्थिति से डॉ॰ बेसेन्ट का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नारी सुरक्षा का प्रश्न उठाया और जोर देकर कहा कि समाज में सर्वांगीण विकास के लिये नारी अधिकारों को सुरक्षित करना आवश्यक है। डॉ॰ बेसेन्ट प्राचीन धर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की समर्थक थीं। वर्ण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य कार्य विभाजन था जिसके अनुसार समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों को करने की योग्यता द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का स्थान प्राप्त करता था। वे कहा करती थीं कि महाभारत के अनुसार ब्राह्मण में शूद्र के गुण हैं तो वह शूद्र है। शूद्र में अगर ब्राह्मण के गुण हैं तो वह ब्राह्मण समझा जायगा।
उस समय विदेश यात्रा को अधार्मिक समझा जाता था। उन्होंने बताया कि प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि श्याम, जावा, सुमात्रा, कम्बोज, लंका, तिब्बत तथा चीन आदि देशों में हिन्दू राज्य के चिह्न पाये गये हैं। अत: हिन्दूओं की विदेश यात्रा प्रमाणित हो जाती है। उन्होंने विदेश यात्रा को प्रोत्साहन दिये जाने का समर्थन किया। उनके अनुसार आध्यात्मिक बुद्धि एवं शारीरिक शक्ति के सम्मिश्रण से राष्ट्र का उत्थान करना प्राचीन भारत की विशेषता रही है।
वे विधवा विवाह को धर्म मानती थीं। उनकी धारणा थी कि प्रौढ़ विधवाओं को छोड़कर किशोर एवं युवावस्था की विधवाओं को सामाजिक बुराई रोकने के लिए विवाह करना आवश्यक है। वे अन्तर्जातीय विवाहों को भी धर्म सम्मत मानती थीं। बहु विवाह को वे नारी गौरव का अपमान एवं समाज का अभिशाप मानती थीं। किसी भी देश के निर्माण में प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह प्रबुद्ध वर्ग उस देश की शिक्षा का उपज होता है। अतः शिक्षा व्यवस्था को वे अत्यधिक महत्व देती थीं। उन्होंने शिक्षा पाठ्यक्रमों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जाने तथा उसे प्राचीन भारतीय आदर्शों पर आधारित होने के लिये जोर दिया। उनकी धारणा थी कि प्रत्येक भारतीय को संस्कृत तथा अंग्रेजी दोनों का ज्ञान होना चाहिये।
१९१३ से १९१९ तक वह भारतीय राजनीतिक जीवन की अग्रणी विभूतियों में थीं। सितम्बर १९१६ में उन्होंने होमरूल लीग (स्वाराज्य संघ) की स्थापना की और स्वराज्य के आदर्श को लोकप्रिय बनाने के लिये प्रचार किया किन्तु १९१९ के बाद वे अकेली पड़ गईं। इसका तात्कालिक कारण बाल गंगाधर तिलक से उनका विवाद होना था। जब गाँधी जी ने अपना सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया तो वह भारतीय राजनीति की मुख्य धारा से और भी पृथक् हो गई। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि एनी बेसेन्ट ने गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन की अत्यन्त असंयमित भाषा में भर्त्सना करते हुये उनके आन्दोलन को क्रान्तिकारी, अराजकतावादी तथा घृणा और हिंसा को उभाड़ने वाला आन्दोलन निरूपित किया था। गाँधी के दर्शन एवं नेतृत्व को उन्होंने स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बताया था। उन्होंने गाँधी जी को अस्पष्ट स्वराज देखने वाला और रहस्यवादी राजनीतिज्ञ बताया। उन्हें इस बात से सन्देह था कि गाँधी जी सच्चे हृदय से पश्चाताप, उपवास, तपस्या आदि में विश्वास करते हैं। उन्होंने देश की जनता को चेतावनी दी थी कि यदि गाँधीवादी प्रणाली को अपनाया गया तो देश पुनः अराजकता के खड्ड में जा गिरेगा।
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