महान स्वतन्त्रता सेनानी , क्रांतीकारी पत्रकार : गणेश शंकर विद्यार्थी

क्रांतीकारी पत्रकार
    मर्म को छू लेने वाली प्रभावी अभिव्यक्‍त‌ी और सहज ग्राह्य संप्रेषण क्षमता के धनी गणेश शंकर विद्यार्थी हिंदी पत्रकारिता के शिरोमणि संपादक हैं। समग्र भारतीय पत्रकारिता जगत् के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। सिद्धांत और आदर्श को आचरण में उतारने की खरी कसौटी के कारण वे प्रकाशपुंज के रूप में समादृत हैं। अध्ययनशीलता और अध्यवसाय ने उन्हें विश्‍व परिदृश्य का ज्ञान कराया तथा इतिहास, साहित्य और संस्कृति की समझ विकसित की।

   राष्‍ट्रीयता के प्रबल संस्कार दिए और स्वतंत्रता संग्राम में प्रवृत्त किया। किसान और मजदूर उनके चिंतन के केंद्र में रहे तथा इनके हित और हक के लिए संघर्ष को गणेशजी ने अपनी पत्रकारिता का कर्तव्य माना। महात्मा गांधी के मार्ग का अनुकरण करने के बावजूद क्रांति और क्रांतिकारियों के प्रति उनका मानस चैतन्य रहा और कभी उनकी सहायता से विरत नहीं हुए। हिंदी पत्रकारिता, हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा को उनका अवदान अन्यतम है।

    गणेशजी ने पत्रकारों और साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को संस्कारित कर राष्‍ट्र-सेवा में प्रवृत्त किया। ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ उनके जीवंत स्मारक हैं। वे सांप्रदायिकता को राष्‍ट्रीयता का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे और सर्वधर्म सद‍्भाव में उनकी अडिग आस्था थी। इसी जीवन-मूल्य की रक्षा करते हुए वे शहीद हो गए। भारतीय पत्रकारिता के महर्षि, स्वाधीनता आंदोलन के अनन्य सैनानी एवं क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के व्यक्‍त‌त्वि-कृतित्व को नमन करते हुये आत्मिक श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूं।

गणेश शंकर विद्यार्थी: वैचारिक असहमतियों का मान रखने वाला पत्रकार

*26 अक्तूबर जयंती एवं  25 मार्च पुण्यतिथि *

                पंडित  गणेश  शंकर  'विद्यार्थी' का जन्म आश्विन  शुक्ल 14, रविवार सन् 1947 (26 अक्तूबर,1890 ईस्वी) , को  अपनी  ननिहाल , इलाहाबाद  के अतरसुइया मोहल्ले में श्रीवास्तव (कायस्थ) परिवार में हुआ। इनके पिता मुंशी जयनारायण कायस्थ हथगाँव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। माता का नाम  गोमती  देवी  था । पिता  ग्वालियर  रियासत  में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल  के  हेडमास्टर थे। वहीं विद्यार्थी जी का बाल्यकाल बीता तथा शिक्षा-दीक्षा हुई। 

                विद्यारंभ उर्दू से हुआ और सन् 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट  परीक्षार्थी  के  रूप  में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास  करके  आगे  की  पढ़ाई  के  लिए  इलाहाबाद के कायस्थ पाठ-शाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेज़ी राज के  यशस्वी  लेखक  पंडित  सुन्दर  लाल  कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। 

                सन् 1911 ईस्वी, में विद्यार्थी जी सरस्वती में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी  के  सहायक के रूप  में  नियुक्त  हुए।  कुछ  समय  बाद  "सरस्वती"  छोड़ कर "अभ्युदय" में सहायक संपादक हुए। यहाँ सितंबर, सन् 1913 तक रहे। दो ही महीने बाद 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से  निकाला।  इसी  समय  से  'विद्यार्थी'  जी  का  राज नीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारम्भ हुआ। 

                पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु  राजनीति  में गांधी जी के अवतरण  के  बाद  आप  उनके  अनन्य  भक्त हो गए। श्रीमती एनीं बेसेंट के 'होमरूल' आंदोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से काम किया और कानपुर  के  मजदूर वर्ग  के  एक  छात्र  नेता  हो  गए। कांग्रेस  के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के  विरुद्ध  निर्भीक  हो कर "प्रताप" में लेख लिखने के सम्बन्ध  में  ये 5 बार जेल गए और "प्रताप" से कई बार जमानत माँगी गई। कुछ ही वर्षों में वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्तप्रात) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गए।

                1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधानमंत्री हुए तथा 1930 ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के  अध्यक्ष  हुए। इसी  नाते  सन् 1930 ई. के सत्याग्रह  आंदोलन  के  अपने  प्रदेश  के  सर्वप्रथम "डिक्टेटर" नियुक्त हुए।

                साप्ताहिक "प्रताप" के प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और "प्रभा" नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने  प्रेस  से  निकाली। "प्रताप" किसानों और मजदूरों का हिमायती  पत्र  रहा। उस में देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे।
 
                "चिट्ठी  पत्री"  स्तंभ  "प्रताप"  की  निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि  बनने  की  प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। ये "प्रताप" में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन  लिए  हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी , ये प्रताप तथा अन्य पत्रों में लेख लिखा करते थे।

                अपने जेल जीवन में  इन्होंने  विक्टर ह्यूगो के  दो  उपन्यासों, "ला मिजरेबिल्स"  तथा "नाइंटी थ्री" का अनुवाद किया। हिंदी  साहित्य  सम्मलेन  के  19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए। विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी , किन्तु  साथ  ही  धर्म परायण और ईश्वरभक्त थे। वक्ता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे। यह स्वभाव के अत्यन्त सरल, किंतु  क्रोधी  और हठी भी थे। 

                मजहब के नाम पर लड़ने वालों के खिलाफ ज़िन्दगी भर गणेश शंकर लड़ते रहे और वहीं मार-काट उनके आस- पास हो रही थी ऐसे मौके पर गणेश शंकर से न रहा गया और निकल  पड़े  रोकने  कई  जगह  तो कामयाब रहे पर कुछ ही देर में ही वो दंगाइयों की  एक टुकड़ी में फंस गए और कानपुर के सांप्रदायिक  दंगे  में मुस्लिमों द्वारा 25 मार्च 1931 ई. को इनकी हत्या कर दी गई|

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