प्रखर सत्यनिष्ठ समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया - अरविन्द सिसौदिया
प्रखर सत्यनिष्ठ समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया
- अरविन्द सिसौदिया
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समाजवादी एवं साम्यवादी तथा कांग्रेस के गांधीवादी विचारों के विश्लेशण से उनका जो समाजवाद था उसे लोहियावादी समाजवाद ही कहा जा सकता है। वे हमेशा सज्य के पक्ष में रहे, जहां उन्होने गांधी जी के नमक सत्याग्रह पर पीएचडी की तो उन्होने ने ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सुभाषचन्द्र बोस के निर्वाचन को वैध सही करार देते हुये गांधी जी का विरोध भी किया । वे स्वतंत्रता से पहले भी भारत के क्षितिज पर महान विचारक के रूप में चमकते रहे, उनके लेखों का कभी विरोध तो कभी समर्थन महात्मा गांधी स्वयं करते थे। भारत की लापरवाह चिकित्सा व्यवस्था की बली पर हमने लोहिया जी को खोया है। जबकि वे लोकसभा सांसद थे। उन्हे बहुत आसानी से बचाया जा सकता था । मगर नहीं बचाया जा सका।
डॉ० राममनोहर लोहिया
डॉ० राममनोहर लोहिया अपने समाजवादी विचारधारा के कारण राष्ट्रभक्तों में जाने जाते हैं । उनका भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । देश की स्वतन्त्रता के लिए उनके द्वारा किये गये कार्यों के कारण देशवासी उन्हें सदैव स्मरण रखेंगे । वे भारत में ही नहीं, समस्त विश्व में समानता और आर्थिक समानता के पक्षधर थे ।
राम मनोहर लोहिया
लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को यूपी के अकबरपुर में हुआ था. वो वैश्य परिवार से ताल्लुक रखते थे. लोहिया ने आजादी के आंदोलन में समाजवादी नेता के तौर पर अपना अहम योगदान दिया. वो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से रहे. उन्होंने अपनी अलग समाजवादी विचारधारा के चलते कांग्रेस से रास्ते अलग किए थे. उस वक्त वो सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे, जब किसान मजदूर पार्टी के साथ मिलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई गई. इससे नाराज लोहिया ने 1956 में सोशलिस्ट पार्टी (लोहिया) का गठन किया. 1962 के चुनाव में उन्हें नेहरू के हाथों हार मिली. 1963 के उपचुनाव में उन्होंने फरुखाबाद से किस्मत आजमाया और जीते. 1965 में उन्होंने अपनी सोशलिस्ट पार्टी का विलय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में कर दिया. 1967 के चुनाव में वो कन्नौज सीट से जीते थे.
अस्पताल की बदइंतजामी के चलते गई जान
1967 की बात है. राम मनोहर लोहिया को बढ़े हुए प्रोस्टेट ग्लैंड की बीमारी थी. उस वक्त राम मनोहर लोहिया सांसद थे. कुछ राज्यों में उनकी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की सरकार भी थी. लोकसभा में पार्टी के दो दर्जन से ज्यादा सदस्य थे. लोहिया को बढ़े हुए प्रोस्टेट ग्लैंड के विदेश के किसी अच्छे अस्पताल में ऑपरेशन के लिए 12 हजार रुपयों की जरूरत थी. इतनी रकम आसानी से इकट्ठा हो सकती थी, लेकिन लोहिया ने अपने पार्टी के सदस्यों को सख्त ताकीद दे रखी थी कि पैसों का इंतजाम उन्हीं राज्यों से हो, जहां उनकी पार्टी की सरकार नहीं है.
डॉ. लोहिया ने बंबई में अपनी सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े एक मजदूर नेता से पैसों का इंतजाम करने को कहा था. लोहिया ने कहा था कि वो मजदूरों से चंदा इकट्टा कर 12 हजार रुपए जमा करें, लेकिन मजदूर नेता वक्त पर इतनी रकम इकट्ठा नहीं कर पाए. राम मनोहर लोहिया अपने ऑपरेशन के लिए जर्मनी जाना चाहते थे. वहां के अस्पताल में उनका ऑपरेशन होना था. एक यूनिवर्सिटी ने उनका जर्मनी आने-जाने का इंतजाम कर दिया था. वहां उन्हें एक भाषण भी देना था.
ऑपरेशन के बाद इंफेक्शन फैलने की वजह से हुआ निधन
लेकिन इस बीच उनकी बीमारी बढ़ गई. लोहिया को दिल्ली के वेलिंगटन नर्सिंग होम में भर्ती करवाया गया. लोहिया के प्रोस्टेट ग्लैंड का ऑपरेशन हुआ. आज के वक्त में ये बिल्कुल मामूली सा ऑपरेशन है. लेकिन कहा जाता है कि अस्पताल की बदइंतजामी की वजह से ऑपरेशन के बाद लोहिया को इंफेक्शन हो गया. इसके बाद लोहिया की बिगड़ी हालत को संभाला नहीं जा सका और 12 अक्टूबर 1967 को उन्होंने आखिरी सांस ली. जिस वेलिंगटन नर्सिंग होम में उनका ऑपरेशन हुआ था, बाद में उसका नाम बदलकर राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया गया.
लोहिया के ऑपरेशन में हुई लापरवाही का विवाद लंबे वक्त तक चला. इतना तय था कि अगर लोहिया का इलाज विदेश के किसी अच्छे अस्पताल में हुई होती तो उनकी जान बच सकती थी. सिर्फ 57 साल की उम्र में उनका निधन हो गया और देश ने अपना महान नेता खो दिया. आज के वक्त में नेता अपनी छोटी से छोटी बीमारी का इलाज करवाने विदेश चले जाते हैं. उनके लिए पैसों का इंतजाम करना बाएं हाथ का खेल होता है. लेकिन लोहिया सिर्फ 12 हजार रुपयों के चलते चल बसे.
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राममनोहर लोहिया का जन्म
23 मार्च 1910 को फैजाबाद में हुआ था। उनके पिताजी हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनके पिताजी गांधीजी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे।
इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। बनारस से इंटरमीडिएट और कोलकता से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए लंदन के स्थान पर बर्लिन का चुनाव किया था।
वहीं जाकर उन्होंने मात्र तीन माह में जर्मन भाषा पर अपनी मजबूत पकड़ बनाकर अपने प्रोफेसर जोम्बार्ट को चकित कर दिया। उन्होंने अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि केवल दो वर्षों में ही प्राप्त कर ली। जर्मनी में चार साल व्यतीत करके, डॉ. लोहिया स्वदेश वापस लौटे और किसी सुविधापूर्ण जीवन के स्थान पर जंग-ए-आजादी के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर दी।
डॉ. लोहिया मानव की स्थापना के पक्षधर समाजवादी थे। वह समाजवादी भी इस अर्थ में थे कि, समाज ही उनका कार्यक्षेत्र था और वह अपने कार्यक्षेत्र को जनमंगल की अनुभूतियों से महकाना चाहते थे। वह चाहते थे कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच कोई भेद, कोई दुराव और कोई दीवार न रहे। सब जन समान हो, सब जन का मंगल हो।
उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वह मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। जनता को वह जनतंत्र का निर्णायक मानते थे। डॉ. लोहिया अक्सर यह कहा करते थे कि उन पर केवल ढाई आदमियों का प्रभाव रहा, एक मार्क्स का, दूसरे गांधी का और आधा जवाहरलाल नेहरू का।
स्वतंत्र भारत की राजनीति और चिंतन धारा पर जिन गिने-चुने लोगों के व्यक्तित्व का गहरा असर हुआ है, उनमें डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण प्रमुख रहे हैं। भारत के स्वतंत्रता युद्ध के आखिरी दौर में दोनों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है।
1933 में मद्रास पहुंचने पर लोहिया गांधीजी के साथ मिलकर देश को आजाद कराने की लड़ाई में शामिल हो गए। इसमें उन्होंने विधिवत रूप से समाजवादी आंदोलन की भावी रूपरेखा पेश की। सन् 1935 में उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पंडित नेहरू ने लोहिया को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया।
बाद में अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोडो़ आंदोलन का ऐलान किया जिसमें उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और संघर्ष के नए शिखरों को छूआ। जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया हजारीबाग जेल से फरार हुए और भूमिगत रहकर आंदोलन का शानदार नेतृत्व किया। लेकिन अंत में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 1946 में उनकी रिहाई हुई।
1946-47 के वर्ष लोहिया की जिंदगी के अत्यंत निर्णायक वर्ष रहे। आजादी के समय उनके और पंडित जवाहर लाल नेहरू में कई मतभेद पैदा हो गए थे, जिसकी वजह से दोनों के रास्ते अलग हो गए। बाद के दिनों में 12 अक्टूबर 1967 को लोहिया का 57 वर्ष की आयु में देहांत हो गया।
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