जम्मू और कश्मीर का विलय RSS संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य गुरूजी के प्रयास से संभव हुआ था

 


  जम्मू और कश्मीर का विलय संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य गुरूजी के कारण संभव हुआ

    जम्मू-कश्मीर का मुद्दा तब खड़ा हुआ, जब देश के विभाजन की घोषणा हुई और कश्मीर के महाराजा हरी सिंह कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र रखना चाहते थे। क्यों कि पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनके सम्बंध अच्छे नहीं थे तथा उन्होने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेहरूजी को गिरफतार कर भारत भेजा था, इसलिये एक बडा भय भी उनके मन में था। महाराजा शेख अब्दुल्ला के घोर विरोधी थे एवं उन्होने उसे कैद किया हुआ था। जबकि नेहरूजी शेख को सर्वोच्च सखा मानते थे। इसीलिये कश्मीर विलय का कार्य नेहरू जी ने अपने पास रखा हुआ था।

   पाकिस्तान कश्मीर सहित बडे भूभाग को हथियाना चाहता था , उसकी कूटनीति एवं कश्मीर महाराजा की दुविधा से  लौहपुरुष गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल भली भांती परिचित थे। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल  और उनके सेक्रेटरी वीपी मेनन के अथक प्रयासों से 550 से भी ज्यादा रजवाड़े भारत में विलय कर चुके थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू कश्मीर की समस्या को खुद सुलझाना चाहते थे, लेकिन सुलझाने की जगह उन्होंने इसे और भी जटिल बना दिया।

  जिन्ना जम्मू-कश्मीर के महाराजा पर पाकिस्तान में विलय का दबाव बना रहे थे। इधर, शेख अब्दुल्ला अलग से उन पर दबाव डाल रहे थे, जिन्हें जवाहरलाल नेहरू का समर्थन हासिल था। वास्तव में, कश्मीर में पाकिस्तान के समर्थन में आंदोलन जोर पकड़ रहा था और बड़े पैमाने पर हथियार तस्करी के जरिए राज्य में लाए जा रहे थे, ताकि सशस्त्र विद्रोह किया जा सके।

    यहां तक कि लॉर्ड माउंटेबटन भी कश्मीर गए और उन्होंने महाराजा हरि सिंह से पाकिस्तान में कश्मीर को मिलाने के लिए कहा। लेकिन कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री आरसी काक ने महाराजा हरि सिंह से राज्य की स्वतंत्रता कायम रखने को कहा। इस सबसे महाराजा हरि सिंह बहुत उलझन की स्थिति में पड़ गए। उनके सामने तीन विकल्प थे। पहला पाकिस्तान से मिल जाना, दूसरा भारत का हिस्सा बनना और तीसरा स्वतंत्र रहना।

   महाराजा हरि सिंह कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाना चाहते थे। वे राज्य को भारत का हिस्सा भी नहीं बनाना चाहते थे। उन्हें नेहरू और शेख अब्दुल्ला से चिढ़ थी और भरोसा भी नहीं था। लेकिन वे स्वतंत्र भी नहीं रह सकते थे, क्योंकि उन्हें पाकिस्तान के हमले का डर था। उनके पास राज्य की सुरक्षा के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे। मौजूद ब्रिटिश अधिकारी पाकिस्तान समर्थक हो रहे थे।

    जब महाराजा हरि सिंह जी को समझाने के नेताओं के सारे प्रयास विफल हो गए तो सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक परम पूज्य गुरुजी को एक जरूरी संदेश भेज कर बुलाया एवं उनसे महाराजा हरि सिंह को समझाने का आग्रह किया। यह संदेश मिलते ही गुरुजी ने दूसरे सारे काम छोड़ दिए और तत्काल कश्मीर के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने हरि सिंह से मुलाकात की और उन्हें कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के लिए राजी किया। इस मीटिंग के बाद महाराजा हरि सिंह ने तुरंत राज्य को भारत में मिलाने का प्रस्ताव दिल्ली भेजा।

    लेकिन गुरुजी को यह एहसास हो गया था कि कश्मीर को भारत का हिस्सा बना पाना बहुत आसान नहीं होगा। इसलिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर के सभी आरएसएस कार्यकर्ताओं से कहा कि वे कश्मीर की सुरक्षा के लिए तब तक लड़ने को तैयार रहें, जब तक उनके शरीर में खून की आखिरी बूंद बचे।

पाकिस्तानी सेना ने जब कबाईली वेष में आक्रमण किया तब भारतीय सेना की मदद संघ के स्वंयसेवकों ने ही की और कश्मीर को बचाया । यह एक लम्बी कहानी है। इसे फि कभी विस्तार से बतायेंगे।
26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरीसिंह जी ने विलय पत्र दिया और 27 अक्टूबर को उसे लार्ड माउन्टवेटन ने स्विकृति प्रदान की । भारतीय सेना 27 अक्तूबर, 1947 को विमान से श्रीनगर में उतरी

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( यह लेख पाञ्चजन्य के आर्काइव से लिया गया है )


सरदार पटेल के आग्रह पर गुरुजी ने ही कश्मीर-विलय के लिए महाराजा हरिसिंह को समझाया था

 Feb 19, 2021,

    भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के संबंध में रियासत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन से तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को महाराजा को इसे बारे में सलाह देने के लिए तैयार करने का आग्रह किया। श्री गुरुजी श्रीनगर गए, और महाराजा से विस्तृत बातचीत की। परिणामत: विलय संभव हुआ। 

    यह सारा अल्पज्ञात किन्तु ऐतिहासिक घटनाक्रम पाञ्चजन्य के 1 अप्रैल, 1990 के अंक में प्रकाशित हुआ था

       स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह इच्छा थी कि कश्मीर भारत का ही अभिन्न अंग बना रहे। किन्तु नेहरू की शेख अब्दुल्ला के प्रति नीति को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में वे काफी सतर्क थे। कश्मीर में पाकिस्तान की कुटिल कार्रवाइयों की उन्हें पूरी जानकारी थी और इसीलिए वे भारत में कश्मीर के विलय की अनिश्चितता से दिनोंदिन अधिक चिंतित हो रहे थे। सरदार पटेल की योजना इसी चिंता में सरदार पटेल को अकस्मात् एक योजना सूझी। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि पूज्य गुरुजी महाराजा हरि सिंह को भारत में कश्मीर के विलय के लिए राजी करवा सकेंगे। उनकी योजना थी कि महाराजा को इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि यदि वह विलय के लिए तैयार हो जाते हैं तो गृहमंत्री के नाते सरदार पटेल बाद की स्थिति को संभाल लेंगे। अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए सरदार पटेल ने गुरुजी को ही योग्यतम पात्र समझा जो महाराजा को समझा सकने में समर्थ होते। सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन से संपर्क स्थापित किया और उन्हें सूचित किया कि वे परमपूज्य गुरुजी को श्रीनगर आमंत्रित करें। उन दिनों दिल्ली-श्रीनगर के बीच सार्वजनिक विमान सेवा नहीं थी और जम्मू-श्रीनगर मार्ग भी सुरक्षित नहीं था। इस कारण दिल्ली से विशेष विमान की व्यवस्था की जाएगी किंतु महाराजा और गुरुजी की भेंट यथाशीघ्र आयोजित करनी है, यह संदेश भी सरदार पटेल ने मेहरचंद महाजन को भिजवाया। सरदार पटेल के निर्देशानुसार श्री मेहरचंद महाजन के निमंत्रण पर पूज्य गुरुजी एक विशेष विमान द्वारा 17 अक्तूबर, 1947 को श्रीनगर पहुंचे। महाराजा हरि सिंह के साथ हुई उनकी वार्ता में मेहरचंद महाजन के अलावा अन्य कोई उपस्थित नहीं था। पास में ही युवराज कर्ण सिंह किसी दुर्घटना में आहत होने से पैर में प्लास्टर बंधी स्थिति में एक पलंग पर लेटे हुए विश्राम कर रहे थे। औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् विलय का विषय निकला। श्री महाजन ने कहा, ‘‘कश्मीर में आने-जाने के सारे मार्ग रावलपिंडी की ओर से ही हैं। खाद्यान्न, नमक, मिट्टी का तेल आदि दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुएं भी इसी मार्ग से कश्मीर में आती हैं। जम्मू-श्रीनगर मार्ग न तो अच्छा है और न ही सुरक्षित। जम्मू का हवाई-अड्डा भी व्यवस्थित ढंग से कार्यक्षम नहीं है। ऐसी हालत में भारत के साथ विलय होते ही यहां आयात होने वाली आवश्यक वस्तुओं पर पाकिस्तान की ओर से तुरंत पाबंदी लगा दी जाएगी। इस कारण प्रजा की जो दुर्दशा होगी वह हमसे नहीं देखी जाएगी। अत: कुछ अवधि के लिए ही क्यों न हो, कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना क्या वह हित में नहीं होगा?’’ विलय ही मार्ग श्री महाजन के प्रश्न के जवाब में गुरुजी ने कहा, ‘‘अपनी प्रजा के प्रति आपके अन्त:करण में आत्मीयता होने के कारण उनके संबंध में आपकी भावना मैं समझ सकता हूं, किन्तु भारत के शीर्षस्थ स्थित कश्मीर को यदि आप स्वतंत्र भी रखना चाहें तो भी पाकिस्तान को वह कदापि मंजूर नहीं होगा। आपकी रियासती फौज में तथा प्रजाजनों में पाकिस्तान द्वारा विद्रोह की आग भड़काने के प्रयास हो रहे हैं। ...अगले 6-7 दिनों में ही पाकिस्तान कश्मीर की नाकेबंदी करने वाला है। ...उस समय आप पर और कश्मीर की प्रजा पर कितना भीषण संकट आएगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। रियासत को स्वतंत्र घोषित किए जाने के कारण आपकी सुरक्षा के लिए भारतीय सेना भी नहीं आ सकेगी। इसलिए मेरे विचार में भारत के साथ यथाशीघ्र विलय ही एकमेव तथा सभी दृष्टि से हित मार्ग अपने सामने बचा रहता है।’’ महाराजा ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘‘पं. नेहरू का आग्रह है कि भारत में कश्मीर के विलय करने के पूर्व शेख अब्दुल्ला को रिहा कर कश्मीर का शासन सूत्र उनके हाथों में सौंपा जाए। गुरुजी ने महाराजा को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘आपकी शंका उचित है, लेकिन शेख अब्दुल्ला की गतिविधियों के बारे में सरदार पटेल को पूर्ण जानकारी है। वे गृहमंत्री होने के कारण आपकी प्रजा की पूरी चिंता करेंगे।’’ विलय ही मार्ग महाराजा ने कहा, ‘‘संघ के स्वयंसेवकों ने हमेंं समय-समय पर अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। पहले तो उन खबरों पर हमें विश्वास नहीं हुआ किन्तु अब उन खबरों की सत्यता के बारे में हम पूर्णतया विश्वस्त हैं। पाकिस्तानी सेना की हलचलों की जानकारी देने में संघ के स्वयंसेवकों ने जो साहस का परिचय दिया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी। अब्दुल्ला की गतिविधियों के संबंध में पटेल यदि स्वयं सतर्कता बरतने वाले होंगे तो हम भारत में कश्मीर के विलय के लिए तैयार हैं।’’ गुरुजी, ‘‘आपकी स्वीकृति मिलते ही सरदार पटेल केन्द्रीय सरकार की ओर से सारी औपचारिकताएं तुरंत पूरी करेंगे।’’ महाराजा, ‘‘आपकी बात से मैं पूर्णतया सहमत हूं। आप कृपया सरदार पटेल को इसकी जानकारी दे दें।’’ गुरुजी 19 अक्तूबर, 1947 को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और महाराजा हरि सिंह के साथ हुई वार्ताओं से सरदार पटेल को अवगत कराया। विलीनीकरण की कार्रवाई हेतु केन्द्र सरकार की ओर से श्री मेनन श्रीनगर पहुंचे। महाराजा के साथ औपचारिक बातचीत के पश्चात् विलीनीकरण पर उनकी स्वीकृति के कागजात लेकर ही वे दिल्ली लौटे। विलीनीकरण पर स्वीकृति की मुहर लगी। भारतीय सेना 27 अक्तूबर, 1947 को विमान से श्रीनगर में उतरी।
( यह लेख पाञ्चजन्य के आर्काइव से लिया गया है )

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पाकिस्तान के 1949 में हुए हमले के समय संघ के स्वयंसेवक अपनी जान पर खेल कर जम्मू कश्मीर को बचाने में सफल रहे. सैंकड़ों स्वयंसेवक बलिदान हुए. पहले डोगरा फौजों के साथ और फिर भारतीय सेना के साथ रण में उनको सहयोग देते हुए. पुल बनाना, सडकें बनाना, हवाई पट्टी बनाना, हवाई जहाज से गिराई रसद इकठ्ठा करके सेना को देना. इन सब में यह स्वयंसेवक बलिदान हुए. जिसे और जानकारी चाहिए, वह ‘ज्योति जला निज प्राण की’ पुस्तक पढ़ सकता है.
1952 में धारा 370 के विरुद्ध सबसे पहले प्रस्ताव पास करने वाला संघ था. प्रजा परिषद् को पूर्ण सहयोग देकर सारे जम्मू कश्मीर और भारत को जगाने वाले संघ के स्वयमसेवक थे. इसी संघर्ष में जन संघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी बलिदान हो गए.

1960 के बाद सऊदी अरब के पैसों से जो कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम जडें जमाने लगा तो उसके विरुद्ध संघ ने एक बार नहीं, बार-बार आगाह किया. संघ के प्रस्तावों में सबसे अधिक प्रस्ताव कश्मीर पर जारी किये गए. 24 प्रस्ताव पारित हुए. केवल पारित ही नहीं हुए, बल्कि उन पर यथासंभव कार्यवाही भी की.  1949 से 90 में जब परिस्थिति बिगड़ने लगी तो कश्मीर के स्वयंसेवक जब तक संभव हुआ डट कर खड़े रहे. 1949 में न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू की न्यायालय के सामने निर्मम हत्या कर दी गयी और आतंकवादियों ने घोषणा की कि जो उनकी लाश को हाथ लगाएगा उसका अंजाम बुरा होगा. तब संघ के स्वयंसेवक उनकी लाश को चुनौती के साथ उठा कर लाये और उनका सामान के साथ अंतिम संस्कार किया. 1490-90 में जब कश्मीरी हिन्दू बड़ी संख्या में बंदूकों के साए में कश्मीर घाटी छोड़ कर निकले तो उनके लिए जम्मू में सहायता के लिए सबसे पहले संघ के स्वयंसेवक खड़े थे. उन्होंने जम्मू कश्मीर सहायता समिति का गठन किया और जो यथा संभव सहायता कर सकते थे, वह की.

संघ एकमात्र संगठन है जिसने 1952 से 2019 तक धारा  360 और 35A को समाप्त करने के लिए लगातार संघर्ष किया और कश्मीरी हिन्दुओं का विषय कभी सेक्युलर पंथियों द्वारा दबाने नहीं दिया. साथ ही 35A से पीड़ित लाखों वविस्थापितों, अल्पसंख्यक, दलित और महिलाओं के प्रश्न को ज्वलंत रखा, जिसके कारण आखिर मोदी जी की सरकार बनी और यह धाराएँ हटीं और उनको न्याय मिला. फिर संघ नहीं बोलेगा कश्मीर पर तो अब्दुल्ला परिवार बोलेगा? या पाकिस्तान परस्त राजनैतिक भेड़िये और आतंकवादी बोलेंगे?

अब जब कश्मीरी हिन्दुओं को पुनर्स्थापित करने का प्रश्न है, तो संघ नहीं तो कौन खड़ा रहेगा? जैसा दत्ता जी ने कहा, यह हिन्दू समाज का कर्त्तव्य है कि वह एकता के साथ इस समस्या को सुलझाने के लिए कार्य करे. सरकार ने कानून बदल दिए, वातावरण तैयार किया. अब समाज को आगे बढ़ना है.

जी हाँ, यदि किसी को कश्मीरी हिन्दुओं के बारे में बोलने का हक़ है, तो सबसे पहले संघ को है. बेगानी शादी में अब्दुल्ला आये थे, जिन्होंने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसलमान बनाया, उनको जड़ों से काटा. अब यहा के मूल निवासियों को, हिन्दुओं को, फिर ससम्मान स्थान देना होगा. उनके ही DNA के वंशज जो मुसलमान बने हैं, उन्हें भी अपने आप को उन्ही प्राचीन जड़ों से जोड़ना होगा, चाहे वो पूजा किसी की भी करें. तभी चिर शांति जम्मू कश्मीर में स्थापित होगी.





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