जीवन रहस्य-1
योग विवेचन - जीवन रहस्य-1
- मोहनलाल गालव
( ग्राम - कोयला , तहसील व जिला बारां , राजस्थान.)
योग का पहला सूत्र , जीवन ऊर्जा है.
(लाईफ़ इज एनर्जी)
जीवनी शक्ति है, जीवन का चिर लक्षण प्रजनन है.
सोम व अग्नि शक्ति पंचभूतों के रूप में परिवर्तित हो कर शरीर का संवर्धन करती है ,
गर्भ विज्ञान / एम्ब्र्योलोजी , शास्त्र में शरीर निर्माण प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन मिलता है.
जिसका आरंभ गर्भित भ्रूण से होता है.
इस प्रकार सृष्टि की प्रजनात्मक प्रक्रिया ही काल तत्व की शक्ति द्वारा नवीनतम रूपों में भासित हो रही है. बीज काल, काल गणनानुसार बीज का बीज तक पहुंचना है . जितनी अवधि में बीज आरोपण तक पहुंच पाता है . वह ही उसका बीज काल है .
प्रत्येक गर्भित कोष फर्टीलाईज्ड - सेल में जो स्पन्दन होता हे , वह बाहर से पंच तत्वों को केंद्र में खींच कर उसका संवर्धन करता हे . वैज्ञानिकों के अनुसार एसिमिलेशन और एलिमिनेशन प्रक्रिया द्वारा पोषण प्राप्त करने के बाद संवर्धन होता है ,जिसे वैज्ञानिक सेल - फिशन , सेल - डिविजन या ग्रोथ कि संज्ञा देते हें.
जीवन प्रजनन चिर लक्षण में जिस बीज से प्राण कि उत्पत्ति होती हे , प्रजनन द्वारा पुनः उसी बीज कि सृष्टि प्रक्रिया प्रकृति का लक्ष्य है .
जो प्रक्रिया मानवी देह में है, वह ही सूक्ष्म कीट - पतंगो व सुक्ष्मातीत सूक्ष्म त्रण . घास , काई आदि में पाई जाती है.
गर्भस्थ कोष , बुद-बुद या कलल , का संबंध माता के श्वास- प्रश्वास द्वारा बना रहता है . इस प्रकार भ्रूण अवस्था से ही जीवन का स्पन्दन प्रारंभ हो जाता है , तथा कोशीय आधार पर संबर्धन करते हुए शरीर बन जाता है . प्राणात्मक स्पन्दन केंद्र के बाहर से सोम रूप अन्न को खींच कर पचाता है .जिससे शरीर की वृद्धि होती है .
मानव शरीर में जठराग्नि ही अन्न को परिपाक करके शरीर के अंग - प्रत्यंग का निर्माण करते हुए पुष्ट करती है . क्यों कि आमाशय के भीतर जो अनेक रसात्मक क्षार या अम्ल हैं . वह ही अग्नि रूपेण रक्त , रस , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा , शुक्र इन सप्त धातुओं का निर्माण करते है .
जीवन उर्जा ही जीवनीय - शक्ति है . इस शक्ति की तीव्र गति के कारण ही पदार्थ का भास होता है .
पदार्थ असत्य व भ्रम ( इल्यूजन ) है जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नही है या जैसा है वैसा दिखाई नही पड़ता है .
जगत पदार्थ में भी अस्तित्व और अन-अस्तित्व दोनों पहलू ( आयाम ) हैं . अन - अस्तित्व में शक्ति द्वारा जगत शून्य हो जाता है और जब वह अस्तित्व में होती है तो सृष्टि का विकास ( विस्तार ) होता है ,
इस जगत में प्रत्येक वस्तु दोहरे आयाम की है , जैसे - जन्म-मृत्यु , दृष्टिगत -अदृष्टिगत , होना-नही होना, जगत है - जगत नहीं भी हो सकता है . द्वंद में ही शक्ति का विस्तार है , जैसे, अँधेरा और प्रकाश इनमें गुण का कोई अंतर नही है , परिणाम का अंतर है. योग सुख - दुःख का , अच्छे - बुरे का , अस्तित्व - अन अस्तित्व का , अतिक्रमण है , अर्थात इन दोनों से परे रहना है. इसलिए योग का अभिप्राय ही अधूरा नही समग्र है . intigrated और The Total है .
आस्तित्व के भी दो रूप चेतन व अचेतन हैं , परन्तु यह दो (वस्तु ) नही हैं , जैसे आत्मा का जो हिस्सा इन्द्रियों को पकड़ में आ जाता है , उसका नाम शरीर है और शरीर का जो हिस्सा इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता उसका नाम आत्मा है. अर्थात अस्तित्व में चेतन और अचेतन दोनों समबद्ध
( exit ) है. यह दोनों रूपांतरित ( convertable ) है. जैसे हम अन्न खाते हैं , उससे रक्त,मांस, मज्जा , लोहा ,एलुमुनियम, फासफोरस , तांबा, आदि बनते हैं, मगर जब मानव मरता है तो सब कुछ राख हो जाता हे.
अतः चेतन व अचेतन अस्तित्व के ही दो रूप है, परन्तु इस अस्तित्व में रूपांतरण हो सकता हैं आक्सीजन और हाइड्रोजन को अलग-अलग रखने पर पानी नहीं बनेगा , क्योंकि न हाइड्रोजन में पानी है और न ही ओक्सिजन में पानी है ,लेकिन दोनों का समिश्रण करने पर पानी बन जायेगा, अतः इनमें पानी के लक्षण थे लेकिन दोनों के संघट/ मिलन से ही पानी प्रकट हो सकता था . अतः जो वस्तु प्रकट होती है वह उसमें ही छिपी ( गुप्त )रहती है , इस प्रकार चेतन व अचेतन एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं, इसमें चेतन अचेतन हो सकता है और अचेतन चेतन होता रहता है.
मन और शरीर ये दो वस्तुएं नही हैं , वरन अस्तित्व के ही दो छोर हैं. इसी प्रकार चेतन व अचेतन भी दो वस्तुएं नहीं हैं यह भी अस्तित्व के ही दो छोर हैं . इसमें किसी भी छोर से दूसरे छोर को प्रभावित किया जा सकता है. इस अंतहीन ( अनंत ) विस्तार में सब संयुक्त हैं , ऊर्जा संयुक्त है, सागर की लहर दूसरी लहर से जुडी है, जो लहर आकर टकराती है, वह अंतहीन किनारों से जुडी है. पृथ्वी से करीवन दस करोड़ मील का सूर्य महासूर्यों से जुड़ा है. अर्थात करीबन दस करोड़ महासूर्यों से भी अधिक सूर्यों से जुड़ा है और वे भी सब संयुक्त है. संयुक्तता में भी संकल्प - असंकल्प तरंगता के ही परिणाम है .
इस विस्तार में हम भी ऊर्जा के एक पुंज हैं और समग्र जगत की नियति भी हम सबकी एकत्रित नियति है, अतः जो अणु में है वह विराट में है और जो अति सूक्ष्म है वह अति बृहत में है. जो बूंद में है वही सागर में है. हीनता और श्रेष्ठता होना विकार है अर्थात इन दोनों से जो मुक्त हो जाता है, वह ही समत्व प्राप्ति करता है.क्षुद्रतम में विराट छिपा हुआ है अर्थात विद्यमान है .
आत्मा में अदृश्य अणु परमाणु हैं, जिनमें विराट ऊर्जा छिपी हुई हे, जिसमें समयानुकूल परमात्मा का विस्फोट हो सकता है. अर्थात क्षुद्रतम में विराटतम विद्यमान है, इससे सिद्ध होता है कि कण कण में परमात्मा विद्यमान है . जो सागर में है वह सूक्ष्म बूंद में भी है , और इससे ही आत्मशक्ति के अनंत होने का ज्ञान होता है. परन्तु हीनता से मानव मन को जकड़ने पर, जीते जी जीवन को उदास और मृत कर लेता है. जब कि मानव के अन्तस्थ में विराट विद्यमान है. परमात्म तत्व है, यदि इसका उसे ज्ञान या स्मरण हो जावे तो उसका हीनता कुछ नहीं कर सकती . अतः हीनता रोग है तो श्रेष्ठता महारोग है. इसी की उधेड़ बुन में मानव सतत लगा रहता है
आत्मशक्ति तत्व अत्याधिक सूक्ष्म और अदृश्य एवं पंच भूतादि तत्व स्थूल तथा दृश्य रूपा है. अतः स्पष्ट है बिना आत्मतत्व के भूततत्व कि पृथक सत्ता संभव नही है. आत्मतत्व एक अखंडतत्व है , जो भूत रूपेण नाना भावों में परिवर्तित होता रहता है,इसी को वेदों में एको देवः सर्वभूतेशु गूढः एवं एकमेवा द्वितीयम की संज्ञा दी गई है. इस मूलशक्ति के भी दो रूप में प्रथम अमूर्त, उर्ध्व या परोक्ष है तथा दूसरा रूप मूर्त,अधः या अपरोक्ष है. समग्र सृष्टि पंचभूतों की रचना है. जो प्रकृति रूपा बन कर तीन गुणों यथा सत्व, रज, तम के तारतम्य से पंचभूतों के रूप में परिणत होती है . अभिव्यक्त सृष्टि के मूल में मनसतत्व, प्राणतत्व और पंचभूतादि तत्व निहित हैं और इनकी त्रिक ही क्रमशः सत्व,रज, तम है. जिसमें विश्व रचना का आधार निहित है. इस से सिद्ध है कि जो परमात्म तत्व है वह ही मिटटी के कण या अणु में भी है. अतः क्षुद्रतम या विराटतम में एक सी ही संपदा है.
अतः योग भी क्षुद्र में विराट और विराट को क्षुद्र में द्रष्टिगत कराता है.अर्थात बूंद में सागर का व सागर में बूंद का आभास करवाता है. वैसे भी अणु के विखंडन से जो परमाणु बने उसमें भी महासूर्यों का सोर जगत है. परमाणु में भी एक केंद्र होता है और उस केंद्र के आसपास इलेक्ट्रोन चक्कर लगाते हैं. अतः इसमें सिर्फ फर्क मात्रा Quantity का है . गुण Quality का कोई फर्क नही है . अर्थात परमाणु केंद्र में जो ऊर्जा छिपी है , वह वैसी ही है, जो कि सूर्य की ऊर्जा है. इससे सिद्ध है कि मेक्रोकाजम इज दी माइक्रोकाजम. अतः जो अंण्ड में है वह ही ब्रह्माण्ड में है .
या जो विराट जगत में है वह क्षुद्र अंण्ड / माइक्रोकाजम में भी विद्धमान है. दो और चार के बीच में जो फर्क है वह दो खरब व चार खरब के बीच भी वही फर्क है अर्थात इन दोनों का अनुपात एक है.इसमें संख्या विस्तृत हो गई है. अनुपात सम है. अतः बूंद में भी क्षुद्रतम / अति सूक्ष्म सागर है. और सागर में भी अति सूक्ष्मतम बूंद है. सिर्फ फैलाव ( विस्तार ) का फर्क है. प्रत्येक वस्तु परमाणु का योग / जोड़/ मिलन है. और परमाणु के केंद्र (बीच) में भी काफी स्पेस है. इस स्पेस को भी छोटा बड़ा किया जा सकता है. जैसे गुब्बारा हवा भरने पर फैल / विस्तृत हो जाता है. व हवा निकलने पर सिकुड़ जाता है .
, (क्रमशः ) शेष जीवन रहस्य - २ पर , , , . , , ,
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Thank s .......!
जवाब देंहटाएंArvind Sisodia Kota.