किसके पंजे में पाकिस्तान - पाञ्चजन्य
आवरण कथा -
किसके पंजे में पाकिस्तान
तारीख: 14 Jun 2014
- प्रशान्त वाजपेयी -
9 जून को कराची स्थित पाकिस्तान के सबसे बड़े, जिन्ना अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने रात एक बजे भीषण आतंकी हमला किया। आग की लपटें बुझने से पहले ही टीटीपी ने 10 जून को पास की एक सैनिक छावनी पर बड़ा आत्मघाती हमला किया। हमले की जिम्मेदारी लेते हुए टीटीपी ने इसे अपने नेता की मृत्यु का बदला बताया। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के पीछे कौन है? यदि कहा जाए आई.एस.आई.और पाक फौज? तो शायद आपको झटका लगेगा,परन्तु सच यही है। पाकिस्तान में आतंकी संगठनों की दो धाराएं चलती हैं। एक अफगान केंद्रित- जिसमें टीटीपी, मुल्ला उमर की क्वेट शूरा ऑफ तालिबान, हक्कानी नेटवर्क, गुलबुद्दीन हिकमतयार का हिज्ब-ए-इस्लामी,अलकायदा अफगानिस्तान वगैरह हैं। दूसरी धारा भारत केंद्रित है। इसमें लश्करे तैयवा,जमात-उद-दावा, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत-उल-मुजाहिद्दीन जैसी जिहादी तंजीमें हैं। फिर शियाओं-अहमदियों की हत्या करने वाले सिपह-ए-सहाबा उर्फ लश्कर-ए-झांगवी जैसे सुन्नी आतंकी संगठन हैं। इनके अपने उद्देश्य और इलाके हैं और अपने वाद और नस्ल आधारित उद्गम, कार्यपद्घति है। आपसी प्रतिद्वंद्विताए हैं। परन्तु एक चीज समान है। सारे के सारे आईएसआई के माध्यम से फौज द्वारा संचालित होते हैं।
फौज के लिए इन सबके अपने-अपने रणनीतिक उपयोग हैं।
कोई अफगानिस्तान में उपयोगी है, तो कोई कराची में। पख्तूनों का जिहादी संगठन कराची में एमक्यूएम के खिलाफ काम आता है, तो तहरीक-ए-तालिबान बलूचिस्तान में हजारा-शियाओं की हत्या के काम आता है। बलूच नेता कहते हैं कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान बिना वर्दी के पाक फौज ही है, जो बताए गए काम से ज्यादा आगे जाता है, वो दंडित किया जाता है। ये संगठन शतरंज की उस बिसात के मोहरे हैं, जिसमें काली और सफेद दोनों गोटियां पाक सेना ही चलाती हंै। स्वात घाटी में पाक फौज के आतंक विरोधी अभियान को भी अनुशासन लागू करने की कार्यवाही के रूप में देखना चाहिए। इसीलिए अमरीका का पाक-अफगान में चल रहे अपने आतंकरोधी अभियान के लिए पाक कमांडरों से ज्यादा अपने ड्रोन्स पर भरोसा करता है और जब पाक के एबटाबाद में छिपे बैठे ओसामा बिन लादेन का शिकार करने जाता है, तो रात के अंधेरे में जाता है, पाक फौज को भनक भी नहीं लगने देता। नस्ल और वाद में बंटा पाकिस्तान उसकी पंजाबी मुस्लिम फौज के खेल का मैदान है। पाकिस्तान की ये 'फॉल्ट लाइंस' पाकिस्तानी समाज की कमजोरी हैं, पर पाक सेना संस्थान की ताकत हैं।
हाल ही की एक अन्य घटना है । पाकिस्तान के प्रसिद्घ चैनल जिओ टीवी की मुश्कें कस दी गईं और उसके पत्रकार हामिद मीर पर घातक हमला हुआ,क्योंकि उन्हांेने आई़एस़आई की शान में गुस्ताखी की थी और सर्वाधिक प्रसिद्घ घटना, जब पाक के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भारत आने के लिए फौज की सहमति की प्रतीक्षा कर रहे थे। किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि पाक फौज पाकिस्तान की किस्मत के फैसले करती है।
जब-जब भारत में कोई आतंकी घटना होती है, पाकिस्तान का नाम चर्चा में आता है, मीडिया से लेकर राजनैतिक गलियारों तक हलचल होने लगती है। पाकिस्तान की सरकार से जवाब मागा जाता है, कड़ी कार्यवाही की मांग होती है। परंतु कभी होता कुछ नहीं है। हमारे कुछ चैनल पाकिस्तान के किसी पत्रकार या विश्लेषक या छोटी मोटी राजनैतिक हस्ती वाले किसी पाकिस्तानी नेता को अपने कार्यक्रम में बुलाकर उन पर भड़ास निकाल लेते हैं। इन बहसों में चैनल की नजर टी़आऱपी़ पर होती है और बहस में भाग लेने वालों की नजर अपने-अपने देश के दर्शकों पर होती है। पाकिस्तान सरकार आश्वासन-नकार-स्वीकार का खेल खेलती रहती है।
9/11 के आतंकी हमले के बाद से अमरीका पाकिस्तान के साथ (और स्थान विशेष पर पाकिस्तान के खिलाफ) काम कर रहा है। अमरीका को जब भी अफगानिस्तान या पाकिस्तान की अफगान सीमा संबंधी मामलों में बात करनी होती है,तो वो केवल पाकिस्तान सरकार से ही बात नहीं करते,वो पाकिस्तान की सेना से भी अलग से बात करते हैं। क्योंकि पाक सेना पाकिस्तान की असली आका है। पाकिस्तान में इसे दबी आवाज में 'इस्टैब्लिशमेंट' कहा जाता है।
असीमित शक्ति, निर्मम रखवाले
इस जटिल तंत्र ने पाकिस्तान को अपनी अजगर जैसी कुंडली में जकड़ रखा है। इसकी इच्छा के खिलाफ जाने वाले व्यक्ति गायब हो जाते हैं, या बरबाद हो जाते हैं। इसके रास्ते में आने वाली सरकारें उलट दी जाती हैं। पाकिस्तान में तीन बार लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारों को सेना ने उखाड़ फेंका है। 1958 से 1971, 1977 से 1988 और 1999 से 2008 तक पाकिस्तान सेना की सत्ता के नीचे रहा है। जनरल जिया-उल-हक ने तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री और पाकिस्तान में जिन्ना के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटकाकर पाकिस्तान समेत सारी दुनिया को दिखा दिया कि पाकिस्तान में सेना के सामने सरकार और प्रधानमंत्री की क्या हस्ती है।
पाकिस्तान में पर्दे के पीछे से काम करने वाले इस सूत्रधार का भय सर्वत्र देखा जा सकता है। सरकारी कार्यालयों से लेकर मीडिया कार्यालयों तक। 1992 से 2010 तक पाकिस्तान में 39 पत्रकारों की हत्याएं हुईं। मीडिया कर्मियों का खुफिया एजेंसियों द्वारा अपहरण, प्रताड़ना आम बात है। बलूचिस्तान में तो अखबारों के दफ्तरों को पुलिस तथा अर्धसैनिक बल घेरे रहते हैं। 2009 में उर्दू दैनिक 'असाप' ने घोषणा की थी, कि सुरक्षाबलों द्वारा की जा रही प्रताड़ना के कारण वह अखबार बंद कर रहा है। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग द्वारा पत्रकारों पर किए जा रहे हमलों का विवरण दिया गया है,जो अकल्पनीय लगता है।
उद्योगपति, सरकारी कर्मचारी यहां तक कि भारतीय राजनयिक भी इनके कहर से अछूते नहीं रहे हैं। 26 अगस्त 2011 को पंजाब प्रांत के राज्यपाल रहे सलमान तासीर (जिनकी पाकिस्तान के कुख्यात ईशनिंदा कानून 'रिसालत ए रसूल' पर सवाल उठाने के कारण हत्या कर दी गई) के पुत्र और उद्योगपति शाहबाज तासीर का अपहरण हो गया और कोई सुराग नहीं मिला। बाद में एक पुलिस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मीडिया को बताया कि शाहबाज का अपहरण गुप्तचर एजेंसियों ने किया है, क्योंकि उन्हंे शाहबाज की देश के प्रति वफादारी पर शक था। मार्च 2014 में तालिबान स्रोत ने दावा किया कि शाहबाज की हत्या की जा चुकी है। पाक के गैर सरकारी संगठन डिफेंस ऑफ ह्यूमन राइट्स की अध्यक्षा आमना जंजुआ के शिक्षाविद् पति मसूद जंजुआ मई 2005 से लापता हैं। आमना का दावा है कि उनका अपहरण सुरक्षा बलों ने किया है। मसूद कभी वापस नहीं लौटे। आमना आज भी सेना के उस ब्रिगेडियर के खिलाफ अदालतों का दरवाजा खटखटा रहींं हैं, जिसने उनके पति को अगवा करवाया था।
आंतरिक राजनीति और 'इस्टैब्लिशमेंट' दुनिया में देशों के पास सेनाएं हैं। पाकिस्तान में सेना के पास एक देश है। सेना दो प्रकार से पाकिस्तान पर शासन करती आई है। पहला, सीधे सत्ता को हाथ में लेकर, दूसरा 'लोकतांत्रिक' सरकार को सामने रखकर।
तानाशाही के ये बीज स्वयं जिन्ना ने ही डाले थे। उन्होंने पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने से मना कर दिया । उसके स्थान पर पाक का गवर्नर जनरल बनना पसंद किया और लियाकत अली खां को पिट्ठू प्रधानमंत्री बनाकर सत्ता के सारे सूत्रों का संचालन करते रहे। कैबिनेट की बैठकें भी खुद ही लेते थे। सिंध और सरहद की सरकारें बर्खास्त कीं। बलूचिस्तान और पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर पर कब्जा (घुसपैठ करवाकर) किया। पूर्वी पाकिस्तान में बंगालियों पर उर्दू थोपने का असफल प्रयास किया, जिसकी अंतिम परिणती पाक के विखंडन और बंगलादेश निर्माण के रूप में हुई। आज पाकिस्तान में जो भूमिका 'इस्टैब्लिशमेंट' निभा रहा है, जिन्ना के समय और उसके बाद भी ये भूमिका सरकारी बाबू निभा रहे थे।
1958 में सत्ता में आने के बाद तानाशाह अयूब खां ने विद्रोहों को दबाने और बाद में चुनावों को प्रभावित करने के लिए आई.एस. आई का भरपूर उपयोग किया। पाक सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में बंगालियों का दमन किया, जो पाक में लोकतांत्रिक सरकार के आने के बाद 1971 के बंगालियों के भीषण नरसंहार तक पहुंचा। 1971 में भारत के हाथों शर्मनाक हार के कारण पाकिस्तानी सेना गर्त में पहुंच गई। जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए पाक सेना को फिर से उबारा। भारत से हजार साल तक जंग लड़ने की कसमें खाईं और अखिल इस्लामावाद का नारा बुलंद किया। सेना के हाथों बलूचिस्तान में बर्बर दमन चक्र चलाया, पर शेर की सवारी भुट्टो को भारी पड़ी। जल्दी ही ये शेर भुट्टो को खा गया। पाकिस्तान में फिर मार्शल लॉ लगा। जिया उल हक सत्ता में आए। जिया ने सत्ता पर अपनी वैधता सिद्घ करने और लोकतंत्र की आवाज को दबाने के लिए इस्लाम की आड़ ली और पाकिस्तान का इस्लामीकरण शुरू किया। पाकिस्तान एक इस्लामिक गणराज्य बना। मध्ययुगीन अरब के कानून अस्तित्व में आए और मुल्ला तथा सेना का औपचारिक रूप से गठजोड़ बना। पड़ोसी अफगानिस्तान में शीत युद्घ का एक बर्बर प्रयोग जारी था। पाकिस्तान खुशी-खुशी अमरीका बिसात का मोहरा बनने को तैयार हो गया। पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद की धुरी बनने की दिशा में आगे बढ़ा। यही वो समय था, जब जिया ने भारत से सीधे युद्घ में उलझने के स्थान पर छद्म युद्घ द्वारा हजार घाव देकर मारने की नयी योजना पर काम शुरू किया, जो आज तक पाकिस्तानी फौज का एजेंडा बना हुआ है।
अफगानिस्तान में जिहादी लड़ाके तैयार करने के लिए आई.एस.आई के भीतर कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों को शामिल किया गया। पूरे पाकिस्तान में मदरसों और जिहादी तत्वों का जाल बिछाया गया। अमरीका से हथियार आए और सऊदी अरब से पैसा और कट्टरपंथी वहाबी विचार। तत्कालीन पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट ने पाकिस्तान को इस खेल में खपा दिया। इस प्रकार पाकिस्तान वैश्विक जिहादी आतंकवाद का कारखाना बन गया।
पाकिस्तानी सेना की ये नीति आज भी जारी है। तालिबान, लश्करे तैयबा, लश्करे झांगवी और दूसरे सारे आतंकी संगठन आज पाक सेना के महत्वपूर्ण रणनीतिक मोहरे हैं। भारत में भी जो पाक प्रायोजित आतंकवाद है, उसका संचालन पाक सेना ही करती है। पाक सरकार की भूमिका इसमें मात्र मूकदर्शक की है,जो सरकार पाक सेना का रास्ता काटने की कोशिश करती है, उलट दी जाती है। बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ दोनों ने अपनी सत्ता इसी कारण गवाई थी। आई.एस.आई पाकिस्तान का गुप्त परंतु सबसे शक्तिशाली राजनैतिक दल बनकर काम कर रहा है।
पाकिस्तान का 'पंजाबी इस्टैब्लिशमेंट'
पाकिस्तान की जनसंख्या पंजाबी मुसलमान, सिंधी मुसलमान, मोहाजिर, बलूच मुसलमान, पख्तून-पठान आदि से लेकर बनी है,परंतु प्रभुत्वशाली शासक वर्ग, प्रशासक और सर्वशक्तिमान इस्टैब्लिशमेंट पर पूरा-पूरा दबदबा पंजाबी सुन्नी मुसलमानों का है। सेना में, पुलिस मंे, प्रशासन में 90 प्रतिशत भर्तियां अकेले पंजाब से होती हैं। उस पर भी, 39 जिलों वाले पंजाब के तीन जिलों में से ही पाकिस्तानी सेना की 75 प्रतिशत भर्तियां होती हैं। ऐसे घोर नस्लवादी चरित्र की पाक सेना शेष पाकिस्तानियों के साथ क्या व्यवहार करती होगी, समझा जा सकता है। इसी पंजाबी सेना ने बंगलादेश मुक्ति के पहले पूर्वी पाकिस्तान में लाखों बंगालियों की हत्या तथा बलात्कार किए थे। यही पंजाबी सेना पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर और वजीरिस्तान में बेधड़क खूंरेंजी करती आ रही है और इसी पंजाबी सेना ने बलूचिस्तान को कत्लगाह बना रखा है। पाकिस्तान में पाक सेना पर एक चुटकुला चलता है, कि पाकिस्तानी फौज ने सबसे बड़ा काम ये किया है, कि उसने पाकिस्तान को जीत लिया है।
'इस्लाम का किला' बना पंजाब की छावनी
भारत का विभाजन कर पाकिस्तान निर्माण का आंदोलन, मुस्लिम लीग ने चलाया। मुस्लिम लीग का जन्म अविभाजित बंगाल में हुआ था। बाद में इसका नेतृत्व प्राय: उत्तरी भारत के मुसलमानों ने किया। अनेक कारणों से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों और मुस्लिम लीगियों ने पश्चिमी पाकिस्तान की ओर रुख किया। पंजाबी मुसलमानों ने इन मोहाजिरों को स्वीकार नहीं किया। ये सारे सिंध में आए। जहां सिंधी मुसलमानों और मोहाजिरों के बीच का वैमनस्य आज तक जारी है।
पाकिस्तान का सपना मुख्यत: दिल्ली और उत्तर प्रदेश के संभ्रांत मुसलमानों को दिग्भ्रमित करने का था। पाकिस्तान की मांग का नेतृत्व करने वाले सभी नेता जिन्ना, सुहरावर्दी, लियाकत अली खां और फजलुल हक सब के सब पाकिस्तान मंे मोहाजिर थे। लेकिन 3 प्रतिशत मोहाजिरों की सत्ता शेष 97 प्रतिशत पंजाबी, सिंधी, पठान आदि कैसे स्वीकार कर सकते थे? 21 प्रतिशत उच्च सरकारी पदों और उद्योग-धंधों पर मोहाजिर आसीन थे। अत: स्वाभाविक तौर पर स्थानीय जनों के रोष के चलते राजनैतिक उथल-पुथल मची रही। अगले चुनाव में अपनी कुर्सी जाती देख राष्ट्रपति सिकंदर मिर्जा ने 1958 में पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगा दिया और सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद अयूब खां को साथ लेकर उसे चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया। अयूब खां ने 20 दिन बाद सिकंदर मिर्जा की भी कुर्सी उलट दी और खुद राष्ट्रपति भी बन गए। अगले 13 सालों तक पाकिस्तान सेना के हवाले रहा।
1947 से 1958 तक पाकिस्तान में चली मोहाजिरों की सत्ता को समाप्त करने के लिए अयूब खां पाकिस्तान की राजधानी को कराची से हटाकर पंजाब के इस्लामाबाद में ले गए। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है, कि ब्रिटिश राज के अंतर्गत रही भारतीय सेना के विभाजन से ही पाकिस्तानी सेना बनी, जिसमें पंजाबी मुसलमानों का वर्चस्व था। जब अयूब खां पंजाबी एजेंडे के साथ पाकिस्तान के तानाशाह बन गए तब पाकिस्तान के शासन प्रशासन और संचालन सूत्रों के पंजाबीकरण में कोई बाधा नही रह गई। यहीं से पाकिस्तान का आज का 'इस्टैब्लिशमेंट' अस्तित्व में आया।
पाकिस्तान के समाज पर पकड़
संसार के किसी भी 'इस्टैब्लिशमेंट' को शक्ति के सूत्र अपने हाथों में बनाए रखने के लिए जनमत को अपनी मनचाही दिशाओं में मोड़ना पड़ता है। पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट इस काम को पाकिस्तान में विविध क्षेत्रों और आयामों में काम कर रहे अपने भेदियों या मोहरों की मदद से करता है। इस काम के लिए वो शैक्षिक पाठ्यक्रमों का भी उपयोग करता है, और मीडिया चर्चाओं का भी। मदरसों और मुल्लाओं का भी उपयोग करता है, और पाकिस्तान फिल्म उद्योग का भी। पूर्व आई़एस़आई़ प्रमुख हामिद गुल जैसे लोग भी हैं, जो 'दिफा ए पाकिस्तान' जैसा समूह बनाकर पाकिस्तान के सामाजिक जीवन में सक्रिय कट्टरतम् इस्लामिक संगठनों को साधने का काम कर रहे हैं।
पाकिस्तान के अधिकांश समाज पर मुस्लिम कट्टरपंथियों की मजबूत पकड़ है और मुस्लिम कट्टरपंथियों और उनके संगठनों पर आई़एस़आई की मजबूत पकड़ है,जिसका समय-समय पर उपयोग किया जाता है। इसके लिए समय-समय पर 'इस्लाम खतरे में है' से लेकर 'भारत-अमरीका और यहूदी साजिशों से पाकिस्तान की रक्षा' तक के नारे उपयोग किए जाते हैं। यहां तक कि जब भी पाकिस्तानी सेना को अमरीका से और पैसे ऐंठने होते हंै, पाकिस्तान के मुस्लिम संगठनों द्वारा पाकिस्तान की सड़कों पर अमरीका विरोधी प्रदर्शन शुरू कर दिए जाते हैं।
कोई दूध का धुला नहीं
पाकिस्तान के राजनैतिक दल हैसियत में फौज से बहुत छोटे हैं, पर समय-समय पर खाकी और चाँद-सितारे के इस गठजोड़ से तालमेल बिठाने की कोशिश करते आए हैं। सर्वप्रथम पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो ने फौज और इस्लामी उन्माद को अपनी महत्वाकांक्षाओं का औजार बनाने का प्रयास किया। आज भी सिंध में पाकिस्तानी हिंदुआंे समेत अन्य गैर मुसलमानों पर अत्याचार कर रहे कट्टरपंथी तत्वों को पापीपा (पी.पी.पी) के स्थानीय नेतृत्व का संरक्षण प्राप्त है। पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नवाज शरीफ सेना के आदमी कहे जाते रहे हैं। विगत आम चुनाव में पंजाब आधारित मुस्लिम अतिवादी संगठनों ने नवाज शरीफ का साथ दिया था। शरीफ भी प्रारंभ से ही ऐसे तत्वों के साथ सहज रहते आए हैं।
इमरान खान को लेकर भारतीय मीडिया में बहुत उत्साह देखा जाता है, परंतु पाकिस्तान में उन्हे सूट-बूट वाला तालिबान कहा जाता है। पाकिस्तान के छोटे राज्य खैबर-पख्तूनख्वा में सत्ता में आने के बाद इमरान की पार्टी ने शासन के तालिबानीकरण की राह पकड़ी है। इमरान खान तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को मान्यता देने की वकालत करते रहे हैं। 2013 के आम चुनाव में पाकिस्तान की सेना ने इमरान खान को सत्ता में लाने के लिए अपनी पूरी मुल्ला फौज को झोंक दिया था। पाकिस्तान के एकमात्र पंथनिरपेक्ष दल 'अवामी नेशनल पार्टी' का कोई खैरख्वाह नहीं है। इसके नेता आई़एस़आई की हिट लिस्ट में हंै। पिछले एक दशक में 700 से अधिक सक्रिय कार्यकर्ता आतंकियों के हाथों मारे जा चुके हैं।
पाकिस्तान बिखराव के कगार पर
सेना प्रतिष्ठान की करतूतों के कारण 1971 में पूर्वी पाकिस्तान टूट कर अलग हुआ। पाकिस्तान की 50 प्रतिशत धरती और 55 प्रतिशत आबादी अलग हो गए। अब वजीरिस्तान में धरती हिल रही है। बलूचिस्तान साथ रहने को तैयार नहीं। पाक फौज वहां खून की होली खेल रही है। हर महीने 15-20 बलूचों की लाशें मिल रही हैं। बलूच आबादी पर तोपखानों और हैलीकॉप्टरों से बमबारी की जा रही है। पाक अधिकृत कश्मीर में आई़एस़आई़ लक्षित हत्याएं (टारगेट किलिंग्स) करके बगावत को दबाने में लगी है। पेशावर से कराची तक आतंकी आत्मघाती हमले हो रहे हैं। पाक फौज समर्थित लश्कर-ए-झांगवी जैसे सुन्नी आतंकी गुट बड़े पैमाने पर शियाओं की हत्या कर रहे हैं। बदले में शिया भी यदा कदा आत्मघाती हमले कर रहे हैं। सत्ता के समीकरण साधने के लिए पाक सेना प्रतिष्ठान अपने ही लोगों के विरुद्घ छाया युद्घ में संलग्न है।
प्रथम शत्रु भारत
पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट का सिद्घांत है कि पाकिस्तान का और उनका स्वयं का अस्तित्व भारत से शत्रुता पर टिका है। वे अंतिम सांस तक इस पर डटे रहना चाहते हैं। अंतरराष्ट्रीय बिरादरियों से मिलने वाली सहायता उसकी जीवन रेखा है। अंदरूनी दबाव पाकिस्तान को बिखराव की ओर ले जा रहे हैं। भविष्य में पाकिस्तान के टुकड़े हो सकते हैं, परंतु इस बात की गंभीर आशंका है कि इस बिखराव के पहले पाक सेना एक बार फिर रक्त स्नान करेगी। पाकिस्तान के इस आका से निपटने के लिए भारत को बहुमुखी नीति पर काम करना पड़ेगा। जानकार इस बात पर सहमत हैं कि पाकिस्तान की सेना तीन चीजों पर अपना एकाधिकार कभी नहीं छोड़ेगी, पहला - नाभिकीय हथियार, दूसरा - पाकिस्तान की भारत नीति और तीसरा - पाकिस्तान की कमान। भारत को सब प्रकार से सक्षम बनने और भू-सामरिक तथा क्षेत्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर दूरदर्शी विदेश नीति एवं कूटनीति की आवश्यक्ता है। रास्ता छोटा तो कतई नहीं है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें