चित्तौड की महारानी पदमावती का जौहर


Jauhar-The True Story of Rani Padmini play on stage on March 9 at ...




Arun Kumar Sharma की फेसबुक बाल से 


साभार विक्रम वर्मा जी

इतिहास स्मृति.
चित्तौड की महारानी पदमावती का जौहर

चित्तौड दुर्ग विवाह पर्व - 25 अगस्त सन 1303 ई. चित्तौड दुर्ग, मेवाड, राजस्थान.

जब किले में रसद सामग्री समाप्त हो गई और चित्तौड़गढ़, मेवाड़ के रावल रतनसिंह सभी मनसबदारों, राजपुरोहितो और सेनापति सरदारों से मन्त्रणा कर के इस नतीजे पर पहूँचे कि -
"धोखा तो हमारे साथ हो ही चुका है, हमने वही भूल की जो हमारे पूर्वज करते रहे, परंतु धर्म यही कहता है कि "अतिथि देवो भव" परंतु शत्रु ने हमारी पीठ मे छूरा घोंपा है, हम ने धर्म की रक्षा की, धर्म हमारी रक्षा करेगा. सबसे बड़ी बात कि हमारी सारी योजनाए निष्फल होती जा रही है, क्योंकि कोई भी सेना बिना भोजन के युद्ध लड़ना तो दूर ज़िन्दा भी नही रह सकती और हमने बहुत प्रयास कर लिए की युद्ध ना हो, परंतु विधि का कुछ और ही विधान है जो हमारा मूल धर्म ह़ैे, अब शायद माँ भवानी रक्त पान करना चाहती है."

रतन सिंह के मुख को निहार रही समस्त सेना को कुछ अद्भूत सुनने की अभिलाषा हो रही थी, रावल ने कहा-
"हम परम सौभाग्यशाली है, जो दुर्ग के विवाह का अवसर महादेव ने हमें दिया है, इसे रक्त के लाल रंग ओर जौहर की गुलाल से सुसज्जित करने की तैयारी हो, महाकाल के स्वागत मे नरमुंड की माला अर्पित करने का अवसर ना चुके कोई भी सेनानी. हमें अब अपनी रजपूती शान को लज्जित नहीं करना है. प्रात: काल किले के द्वार खोल दिये जाये, अपने आराध्य का स्वागत केशरिया बाना पहन कर करे. जौहर कुंड को सजाया जाये महाकाल के प्रसाधन में राजपुतानीयो की देह की दिव्य भस्म गुलाल तेैयार की जाये."

इतना सुनते ही राजपुत सरदारो के आभा मंड़ल पर दिव्य तेज बिखर गया, जनाना सरदार अपने दिव्य जौहर की कल्पना में आत्मविभोर हो उठी, बात रनिवास तक पहुँची तो पूरे दुर्ग मे एक दिव्य वातावारण बन गया हर एक वीर, वीरांगना हर्ष, उल्लास से भरपूर हर हर महादेव के नारे लगाने लगे, मानो सदियों से इसी दिन का इंतजार कर रहे हो.

हर कोई महादेव का वरण करने को वंदन करने को आतुर था. उसी समय बादल बोल उठा, मैंने तो पहले ही कहा था, ये तुर्क विश्वास के लायक नहीं परंतु मेरी किसी ने नहीं मानी राजपूतो के साथ-साथ राज पुरोहित वीरों की भुजायें भी फड़कने लगी ओर नेत्रों मे शत्रु के चित्र उतर आये.

लगता था मानो विवाह की तैयारियों में डूब गया किला, किले को सजाने में लग गए समस्त किलेवासी कहीं आने वाले के दीदार में कोई कमी ना रह जाये, आज मेरे महाकाल आने वाले है. इतना व्यस्त तो दुर्ग राजतिलक के समय भी नही रहा होगा, इतनी ख़ुशी तो राजकुमार के जन्म पर भी नहीं थी. वाह, कितना सुन्दर दिख रहा है दुर्ग, इसका विवाह जो है आज, मुहूर्त भी निकल आया, ब्रह्म मुहूर्त.

राजपूत अपनी तलवारों बरछो, भालों को चमकाने में और केशरिया बाना बांधने में, तो क्षत्राणियां अपने अपने संदुको से विवाह के लाल, हरे जोड़े निकाल कर एक दूसरे को दिखाती हुई पूछ रही थी मुझ पर ये कैसा रहेगा, ननदें अपनी भाभीयों को सजाने में तो भाभीयाँ अपनी ननदों को संवारने में व्यस्त हो गई, रखडी़, गोरबंद, झूमका, बिन्दी, नथनी, टीका, पायजेब, चुडी़ ,कंगन, बिछुडी़, बाजूबंद, हार, मंगलसूत्र सजने लगे. हर स्त्री को इतना सजने की ललक तो फेरों के समय भी नहीं थी, उस दिन भी किसी के लिये सजना था ओर आज भी लेकिन उस दिन पीहर से बिछड़ने का गम था लेकिन आज तो बस मिलन ही मिलन है.
पूरे किले मे एक अभूतपूर्व महोत्सव की तैयारियां हो रही थी मानो ये अवसर बड़ी मुश्किल से मिला हो ओर चेहरो की रौनक ऐसी कि कल बारात में जाने की उत्सुकता हो.

राजपुरोहितो द्वारा कुंड पर चन्दन की लकड़ियाँ नारियल, देशी घी और पूजन की सामग्री इकट्ठी की गई गंगा जल के कलश, तुलसी पत्र की व्यवस्था सुनिश्चित की गई, राजपुरोहितो ने रनिवास में ख़बर भेजी की जौहर सूर्य की पहली किरण के दर्शन करने उपरांत शुरू हो जायेगा तथा अग्रिम और अंतिम पंक्ति महारानी सुनिश्चित करे.
जैसे युद्ध में हरावल में रहने की होड़ रहती है जौहर में भी प्रथम पंक्ति में रहने की और महारानी के साथ रहने की होड़ मच गई. ढ़ोल, नंगाड़े, शाहनाइयाँ और मृदंग बजने लगे, हाथी, घोडे़ और सवार सजने लगे, परंतु सबसे ज्यादा उत्साह तो औरतों में था.

सुबह होने वाली थी, ब्रह्ममुहूर्त ना चुक जाये सभी सती स्त्रियों ने अंतिम बार अपने सुहाग के दर्शन किए महारानी पदमावती ने रावल के चरणों का वन्दन किया और फिर मुड़ कर नही देखा, रतन सिंह कुछ कहना चाहते थे, परंतु भवानी के मुख का तेज देख उनका मुँह ना खुल पाया, आज पद्मिनी उनको अपनी पत्नी नही महाकाली सी प्रतीत हो रही थी, हो भी क्यों ना, महाकाल की भस्म बनने जो जा रही हैे, उनमें विलीन होने जा रही है.
जौहर स्थल पर स्वस्थीवाचन शुरू हुआ राजपुरोहितों ने वैदिक मंत्रो से पूजन शुरू करवाया, मुख मे़ तुलसी पत्र, गंगा जल, हाथ में नारियल पकड़कर सूर्य की ओर मुख करके प्रथम पंक्ति "महारानी पदमावती" के साथ तैयार थी, मोक्ष के मार्ग पर बढ़ने को तैयार थी.

सनातन धर्म की हिन्दू धर्म की अस्मिता और रघुकुल की आन बान शान की रक्षा करने को, सनातन धर्म के लिये स्वयं की अाहुती देने को अग्नि मंत्रोचार के साथ प्रज्वलित कर दी गई, उसमें नारियल, घी डाल दिया गया. अग्नि की लपटे भगवा रंग की मानो सूर्य का अरूणोदय स्वरूप अस्ताचल में जाने को आतुर हो और अंधकार मेवाड़ को अपनी आगोश में लेने का अन्देशा देता हो, वैदिक मंत्र सुन प्रथम पंक्ति की क्षत्राणियाँ कूद पडी अग्नि में क्षण भर मे स्वाहा हो गई अग्नि सी पावन अग्नि में ही मिल गई.
अग्नि और घृत का मिलन देह को क्षण भर में ही भस्म बना रहा था, देखते ही देखते एक कुंड में सौलह हजार क्षत्राणियाँ भस्म बन गई और पूरे दुर्ग पर एक दिव्य सुगन्ध फैल गई जो पूर्व में कभी किसी ने महसूस नहीं की थी. उनके मुख पर इतना तेज था की अग्नि भी मंद पड़ जाये, राजपुरोहितो के स्वाहा के साथ ही सभी देवियों ने अपने तन की अाहुतियाँ दे दी.

इस क्षण से कुछ समय पुर्व अपनी अस्सी साल की माँ ओर 19 साल की पत्नी के जौहर की तैयारी कर रहे "बादल" के नेत्रों में मानो पानी सुख गया, उसने अपनी माँ से पुछा - "आप कब पधारेंगे माँ" जो अपने बुड्ढे हाथों से अपनी चोटी बना रही थी, अपने पुत्र को देखकर बोली तु, एक बार अपनी पत्नी से बात तो कर ले.
अभी कोई चार साल ही हुए थे बादल के विवाह को और बादल के नाक पर हर दम गुस्सा रहता था, कभी हिम्मत नही हुई पंवारनी जी की बादल से बात करने की और ना कभी बादल को फुर्सत मिली, जबकी दो बच्चों के बाप बन गए थे, बादल, पंवार जी के पास पहुँच बादल कुछ बोलना चाहता था उससे पहले पंवारनी जी बोल उठी, "आप को मैंने बहुत दु:ख दिया है."

इतना सुनते ही बादल, ने मुट्ठी दीवार पर दे मारी और बोल पडा़ "पहली बार मैंने आप को एक औरत समझा, कभी आप को बोलने नहीं दिया, ओर तीन बर्ष से आपको पीहर भी नहीं जाने दिया, मैंने सीधे मुँह कभी आपसे बात नहीं की.

बादल का हाथ पकड़कर, पंवारनी जी बोली "आप मन भारी ना करे मैं मोक्ष के मार्ग पर जा रही हूँ, मुझे कमजोर ना करे, आप ऊपर से सख्त बनकर रहे, परंतु मुझे पता है आप अंदर से कितने नर्म है. एक स्त्री अपने पति को सबसे बेहतर समझ ले यही उसके जीवन का सार है, आप मिनाल ओर किरानं को संभाले मैं उनको देख कमजोर ना पड जाऊ."

जब तक बादल की माँ तैयार हो जौहर कुंड पर आ गई, बादल के सामने पथरायी आंखो से देखकर सोचने लगी, "कभी सुख नहीं मिला मेरे बेटे को तीन साल की उम्र मे पिता चल बसे अब तीन चार साल के अपने ही बच्चों को अपने हाथों कैसे मारेगा." इतने में माँ और पत्नी अग्नि में प्रवेश कर गई, उसके सामने ही उनका स्वाहा हो गया.
पत्नी से अपने बच्चों को छुड़ा कर बादल ने सोचा "मैं सोचता था आदमी शक्तिशाली होता है, लेकिन आज पता चला कि औरत को शक्ति क्यों कहते है, असल में शक्ति का अवतार होती है क्षत्राणिया."
आदमी अंदर से बहुत कमजोर होता है, मैं अपने बच्चों को धार स्नान नहीं करवा सकता, ये सोच अपने दोनों बच्चों को अग्नि-कुंड के पास ले गया और मिनाल को अंदर फेंकने लगा, उसने अपने बाबोसा के कुर्ते को पकड़ लिया और कहने लगी, पिताजी मैं अब लड़ाई नहीं करूँगी, आप कहोगे वहीं करूँगी मैं किरानं को कभी नही मारूँगी, बाबोसा मुझे मत मारो, और बादल ने एक झटके से अपना हाथ छुडा़ लिया और एक चीख के साथ स्वाह हो गयी.

मासूम तीन साल का किरानं जो सब समझ चुका था, मासूम निगाहों से अपने बाप को देख कर बोला, बाबोसा मे बडा़ हो कर आप के साथ इन तुर्को को मारूँगा, मैं तो आदमी हूँ, बादल ने उसे भी धक्का दे दिया.

"अब तक सारा जौहर सम्पूर्ण हो चुका था और रजपूतों के पास खोने को कुछ भी नहीं बचा था."
राजपूती वीरों ने तलवारों से अपने हाथों को ओर घोड़े से पीठ को बांध लिया था, "हर हर महादेव" के जयकारों के साथ केशरिया बाना पहन कर और कसुमापान कर वीर कूद पडे़ समरांगण मे, एक एक ने सौ सौ को मारा, परंतु संख्या मे तुर्क ज्यादा थे.

फिर चढ़ाने लगे नरमुंडो के हार और लाल रक्त से महाकाल के स्वागत मे पूरे द्वार को रंग दिया, तीस हजार नर मुंडो से स्वागत किया अपने आराध्य का और दुर्ग का विवाह सम्पन्न हुआ.
महाकाल के स्वागत में यही तो होता है, भस्म रक्त, नरमुंड और ढोल बाजों में कुत्तों का सियारों का विलाप, मृत लाशों को काल भैरव के कुत्ते खूब आनन्द से खा रहे थे.

दुर्ग अब कुँवारा नहीं रहा आज उसका विवाह हो गया ऐसे ही होता है, दुर्ग का विवाह, अब ये कौन कह रहा है कि द्वार खिलजी के स्वागत मे खोले गए.

हा!हा! हा! हा! हा! उसे कौन समझाये, मुर्ख जो ठहरा, खिलजी को यह महसूस हो गया की चित्तौड़ ने उसके लिये नहीं किसी और के स्वागत में द्वार खोला है, वो ठगा सा दुर्ग के दृश्य को निहारने लगा.
खिलजी ने चित्तौड़ में प्रवेश किया, उसके स्वागत मे नर नारी तो दूर, कुत्ते भी नहीं आए, फिर "दुर्ग के विवाह" में मेहमान बनकर आया खिलजी, ऐसा अद्भूत नजारा देख दुर्ग में एक रात भी नहीं गुजार पाया.

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