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congress - chaina MoU

प्रश्न - क्या दो अलग अलग देशों के दो अलग अलग राजनैतिक दलों में सन्धि होना किसी देश की आंतरिक संप्रभुता के लिए लीकेज व खतरा हो सकता है। बहुत अच्छा और गंभीर प्रश्न है। दो अलग-अलग देशों के राजनीतिक दलों के बीच कोई समझौता (MoU या सन्धि) सैद्धांतिक रूप से खतरनाक हो सकता है, विशेष रूप से जब वह: 1. गोपनीय हो, 2. शासन में आने की स्थिति में नीति प्रभावित करे, या 3. विरोधी देश से जुड़ा हो, जो भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए एक सुरक्षा चुनौती माना जाता है। नीचे इसका विस्तृत विश्लेषण है: 🔍 1. क्या ऐसा MoU सामान्य है? कूटनीतिक रूप से: विश्व के कुछ देशों में पार्टियाँ विदेशी दलों से विचार-विनिमय करती हैं (जैसे यूरोप में वामपंथी या दक्षिणपंथी पार्टियाँ)। लेकिन यह "अनौपचारिक" या "वैचारिक आदान-प्रदान" तक सीमित होता है, कोई गोपनीय समझौता नहीं। --- ⚠️ 2. खतरे और समस्याएँ क्या हो सकती हैं? a. राष्ट्रीय नीति पर अप्रत्यक्ष प्रभाव यदि कोई राजनीतिक दल सत्ता में आता है, और उसका किसी विदेशी पार्टी से रिश्ता या समझौता है, तो: वह नीति निर्माण में पक्षपात कर सकता है। राष्ट्रहित की बजाय दल...

मेरा शासन भाग 001 my Gov 001

मेरा शासन -  001 विचार - किसी भी देश को "अक्षय" अर्थात् दीर्घकालिक, समृद्ध, सुरक्षित और सशक्त बनाए रखने के लिए सर्वोच्च चीज उस देश के नागरिकों की राष्ट्रीय चेतना, एकता और सांस्कृतिक मूल्यों की स्थिरता का समुच्य होता है। इसके साथ ही, एक सक्षम शासन, सशक्त आर्थिक ढांचा, वैज्ञानिक प्रगति और आत्मनिर्भरता भी सहायक कारक होते हैं। भारत के संदर्भ में इसका विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है: 🔶 1. राष्ट्र के प्रति नागरिकों की निष्ठा और राष्ट्रीय चेतना (Supreme Value: National Spirit) भारत जैसे विविधताओं वाले देश के लिए सबसे आवश्यक है कि सभी नागरिक यह समझें कि वे पहले भारतीय हैं, फिर किसी जाति, पंथ, प्रान्त , भाषा या वर्ग के हों... सर्वोच्च उनमें उस राष्ट्र के प्रति अगाध प्रेम और उसके प्रति मर मिटने की भावना होनी चाहिए। भारत के लिए क्या आवश्यक है ? भारत विविधता की बाहुल्यता वाला देश है, इसमें हजारों तरह की बोलियां,सेंकड़ो प्रमुख भाषा यें , कई तरह की मान्यताओं के पंथ हैँ , हजारों जातियां हैँ , खानपान और रहन-सहन की अत्यधिक विविधता है। येशा बड़े और प्राचीन देशों में होता ...

भारतीय शिक्षा में राष्ट्रीय स्वाभिमान होना ही चाहिए - अरविन्द सिसोदिया NCERT

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भारतीय शिक्षा में राष्ट्रीय स्वाभिमान होना ही चाहिए - अरविन्द सिसोदिया  प्रश्न - भारत के स्वाभिमान और राष्ट्रवाद के उत्थान को प्रेरित करने वाला इतिहास क्या हो सकता है? पृष्ठभूमि - भारत के स्वभिमान को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकारों नें सबसे पहले गुरुकुल समाप्त किये, जिससे भारतवासी अपनी मूल शिक्षा, इतिहास और परंपराओं से दूर हो गया। या यूँ कहें कि उसे भारत से काट दिया गया। इसके साथ ही अंग्रेजों नें भारत के समृद्ध इतिहास और अथाह ज्ञान जो संस्कृत भाषा में था को मिथक या क्लपित कह कर उसे अस्वीकार कर दिया। इसके पीछे भी वही हेतु था कि भारतीयों को अनपढ़ गंवार हैँ बताया जाये। उन्हें जड़ विहीन किया जाये। यह निरंतर किया गया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से अंग्रेजों ने मुस्लिमों को अपने पक्ष में क्या कि तुम और हम भारत पर विदेशी हमलावर हैँ हमें एक होकर, हिन्दुओं को डरा कर, दवा कर रखना चाहिए। और इसीक्रम में निरंतर विदेशियों को श्रेष्ठ और वीर बताया गया और भारतियों को गंवार और पराजित होनें वाला बताया गया। यही विकृति अब सुधारी जा रही है। जो विदेशीयत में लिप्त दलों को चुभ रही...

हमें वीर केशव मिले आप जब से

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संघ गीत  हमें वीर केशव मिले आप जब से हमें वीर केशव मिले आप जब से नई साधना की डगर मिल गई है॥ हमें वीर केशव मिले आप जब से नई साधना की डगर मिल गई है॥ भटकते रहे ध्येय-पथ के बिना हम न सोचा कभी देश क्या धर्म क्या है न जाना कभी पा मनुज-तन जगत में हमारे लिये श्रेष्ठतम कर्म क्या है दिया ज्ञान जबसे मगर आपने है निरंतर प्रगति की डगर मिल गई है ॥ हमें वीर केशव मिले आप जब से नई साधना की डगर मिल गई है॥ समाया हुआ घोर तम सर्वदिक् था सुपथ है किधर कुछ नहीं सूझता था सभी सुप्त थे घोर तम में अकेला ह्रदय आपका हे तपी जूझता था जलाकर स्वयं को किया मार्ग जगमग हमें प्रेरणा की डगर मिल गई ॥ हमें वीर केशव मिले आप जब से नई साधना की डगर मिल गई है॥ बहुत थे दुःखी हिन्दु निज देश में ही युगों से सदा घोर अपमान पाया द्रवित हो गये आप यह दृश्य देखा नहीं एक पल को कभी चैन पाया ह्रदय की व्यथा संघ बनकर फुट निकली हमें संगठन की डगर मिल गई है॥ हमें वीर केशव मिले आप जब से नई साधना की डगर मिल गई है॥ करेंगे पुनः हम सुखी मातृ भू को यही आपने शब्द मुख से कहे थे पुनः हिन्दु का हो सुयश गान जग में संजोये यही स्वप्न पथ पर बढ़े ...

पैसा जहां से आता है... लूटतंत्र वहीं जाता है

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विचार - " पैसा जहां से आता है " उसके इर्द गिर्द घूम रही है पूरी व्यवस्था... न लोकतंत्र है, न न्याय है और नहीं मानवता है... है तो महा भ्रष्टाचार है.....। " यह कथन — "पैसा जहां से आता है उसके इर्द-गिर्द घूम रही है पूरी व्यवस्था... न लोकतंत्र है, न न्याय है और नहीं मानवता है... है तो महा भ्रष्टाचार है..." — भारतीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर एक कठोर लेकिन यथार्थपरक टिप्पणी है। इस आधार पर भारतीय व्यवस्था का विश्लेषण निम्न बिंदुओं में किया जा सकता है: --- 1. लोकतंत्र की वास्तविकता बनाम दिखावा संविधान में भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य कहा गया है। लेकिन व्यवहार में लोकतंत्र अक्सर केवल चुनावों तक सिमट कर रह गया है। ज्यादातर जनप्रतिनिधि चुनाव जीतते ही... कार्यकर्ताओं से और जनता से मुंह मोड़ लेते हैँ.... फिर उनकी फस्ट चवाइस ठेकेदार, सप्लार, कमीशन देनें वाले अधिकारी हो जाते हैँ। क्योंकि चुनाव खर्च निकलना है और अगले चुनावों का प्रबंध करना है। चुनावी राजनीति में धनबल और बाहुबल का वर्चस्व है। "पैसा जहां से आता है...

भारत के मात्र 10-15 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधियों नें बनाया था संविधान...?

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विचार - भारत के संविधान निर्माण में कितनी जन भगदारी थी...? भारत के संविधान निर्माण को समझें.... --- 1. भारत की प्रथम कार्यवाहक सरकार (Interim Government): गठन: - भारत की पहली अंतरिम सरकार 2 सितम्बर 1946 को गठित हुई थी। किसने किया गठन:-  यह सरकार ब्रिटिश भारत में वायसराय लॉर्ड वेवेल द्वारा गठित की गई थी, लेकिन इसमें भारतीय नेताओं को प्रमुख स्थान दिया गया। नेतृत्व: - पंडित जवाहरलाल नेहरू इस कार्यवाहक सरकार के उपाध्यक्ष (Vice President of the Executive Council) थे और वास्तविक रूप से सरकार का संचालन वही कर रहे थे। उद्देश्य: यह सरकार ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता की ओर ले जाने के लिए एक अस्थायी व्यवस्था थी, जब तक कि पूर्ण स्वतंत्रता न मिल जाए और संविधान न बन जाए। --- 2. संविधान सभा का गठन: गठन:-  संविधान सभा की स्थापना की योजना 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत बनी। किसने किया गठन: - इसका गठन ब्रिटिश सरकार ने ही किया था, परंतु इसके सदस्य भारतीय राज्यों और ब्रिटिश भारत से चुने गए थे। पहली बैठक:-  संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई थी। महत्व: इस सभा ने भारत...

भारत विभाजन का समर्थन कांग्रेस कार्यालय से हुआ था bharat vibhajan

क्या यह सही है कि भारत के बिभाजन की ब्रिटिश घोषणा का समर्थन कांग्रेस के दिल्ली कार्यालय नें प्रस्ताव पारित कर किया था हाँ, यह सही है कि भारत के बंटवारे (विभाजन) की ब्रिटिश घोषणा का समर्थन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित करके किया था। ऐतिहासिक संदर्भ: 3 जून 1947 को ब्रिटिश सरकार (लॉर्ड माउंटबेटन) ने भारत के बंटवारे की योजना की घोषणा की थी, जिसे "माउंटबेटन योजना" (Mountbatten Plan) कहा जाता है। इसके तहत भारत और पाकिस्तान — दो स्वतंत्र देश बनाए जाने की बात रखी गई थी। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अकाली दल जैसे प्रमुख दलों ने इस योजना को स्वीकार कर लिया था। कांग्रेस का समर्थन: 14 जून 1947 को कांग्रेस कार्य समिति (Congress Working Committee) ने एक बैठक में इस योजना को स्वीकार करने का निर्णय लिया। इसके बाद AICC (All India Congress Committee) की बैठक दिल्ली में हुई, जिसमें 15 जून 1947 को एक औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कांग्रेस ने विभाजन योजना को मंजूरी दी। यह एक कठिन निर्णय था, क्योंकि कांग्रेस विभाजन के सिद्धांत के विरुद्ध रही थी, लेकिन उस समय की परिस्थितियों ...

सनातन हिंदू संस्कृति : चेतन सत्ता की खोज की और विश्व को दिया परम सत्य का ज्ञान

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विचार :- सनातन हिंदू संस्कृति: चेतन सत्ता की खोजा और विश्व को दिया  सत्य - अरविन्द सिसोदिया 9414180151 इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है—चल और अचल, दृश्य और अदृश्य, स्थूल और सूक्ष्म—उसके पीछे एक ऐसी चेतन सत्ता कार्यरत है, जो निर्माण करती है, संचालन करती है और नित्य नए रूपों में सृष्टि को गतिशील बनाए रखती है। यही चेतना, यही परम सत्ता सनातन हिंदू संस्कृति में ईश्वर के नाम से जानी जाती है। यह कोई मूर्त कल्पना नहीं, बल्कि शुद्ध और पूर्ण सत्य है, जिसका बोध ऋषियों, मुनियों और योगियों ने अपने गहन ध्यान, तप और आत्मानुभूति से किया है। चेतन सत्ता का स्वरूप ईश्वर कोई सीमित सत्ता नहीं है। वह सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, और सर्वज्ञ भी। वही सत्ता समस्त ब्रह्मांड को रचती है, उसी के नियमों से प्रकृति का हर तंतु चलता है। विज्ञान जहां नियमों का विश्लेषण करता है, वहीं सनातन संस्कृति उस नियमकर्ता की खोज करती है। ईश्वर केवल सृष्टा नहीं, वह सृष्टि में प्रत्यक्ष भी है और अप्रत्यक्ष भी। "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" — इस उपनिषद वाक्य के माध्यम से यह स्पष्ट किय...

ईश्वर की इच्छा : प्रेम, स्नेह और शांति से परिपूर्ण जीवन जियो - अरविन्द सिसोदिया

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विचार : - " ईश्वर की इच्छा :  प्रेम, स्नेह और शांति से परिपूर्ण जीवन ही  सनातन हिंदू जीवन पद्धति है। " ईश्वर की यह सनातन भावना रही है कि सृष्टि के सभी प्राणी प्रेम, स्नेह, करुणा और शांति से परिपूर्ण जीवन जीएँ। हिंदू सनातन धर्म इसी मूल भावना को अपनी जीवन-पद्धति का आधार बनाता है। यह धर्म न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाता है, बल्कि एक सामाजिक व नैतिक जीवन का आदर्श रूप भी प्रस्तुत करता है। सनातन जीवन-दृष्टि में प्रत्येक जीव को ब्रह्म का अंश माना गया है। अतः सभी के प्रति करुणा और स्नेह रखना ही धर्म है। ईश्वर की सृष्टि में प्रत्येक जीव समान रूप से महत्वपूर्ण है। मानव जीवन को प्राप्त करना एक दुर्लभ सौभाग्य माना गया है, और उसका उद्देश्य केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति नहीं, बल्कि आत्मिक उन्नति, शांति और प्रेम में जीवन व्यतीत करना है। ईश्वर चाहते हैं कि सभी प्राणी एक-दूसरे के प्रति करुणा, दया, प्रेम और अहिंसा का व्यवहार करें। यह भावना, हिंदू सनातन धर्म की मूल आत्मा है, जो व्यक्ति को एक आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है। प्रेम और स्नेह: सनातन का मूल आधार हिंदू ध...