हिंदुत्व : चकित कर देतें हैं उपनिषद विश्व को


हिंदुत्व : चकित कर देतें हैं उपनिषद विश्व को
- अरविन्द सीसोदिया

उपनिषद ज्ञान का  संझिप्त परिचय
उपनिषदों का परम लक्ष्य मोक्ष है. जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति को हम काल की अधीनता से मुक्ति भी कह सकते हैं. यह कर्म की अधीनता से मुक्ति भी है. मुक्त आत्मा के कर्म चाहे वे अच्छे हों या बुरे, उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं.छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार जल कमल की पत्ती पर नहीं ठहरता उसी प्रकार कर्म उससे चिपकते नहीं हैं. जिस प्रकार सरकंडे की डंडी आग में भस्म हो जाती है, उसी प्रकार उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं. चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रहण के बाद पूरा-पूरा बाहर आ जाता है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा अपने को मृत्यु के बन्धन से स्वतन्त्र कर लेता है. मुक्ति बन्धन का नाश है और बन्धन अज्ञान की उपज है. अज्ञान ज्ञान से नष्ट होता है कर्मों से नहीं. ज्ञान हमें उस स्थिति पर ले जाता है जहाँ कामना शान्त हो जाती है, जहाँ सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, जहाँ आत्मा ही अकेली कामना होती है. मुक्त आत्मा की वही स्थिति होती है जो कि एक अन्धे की दृष्टि प्राप्त कर लेने पर होती है. जब हम शाश्वत सत्य, ब्रह्म या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो कर्मों का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. आचार में स्थित होते हुए भी वह धर्म और अधर्म से परे होता है, अन्यत्र धर्मात् अन्यत्राधर्मात् (कठोपनिषद् 1-2-14). जब हम जगत् से अधिक विराट, अधिक गहरी और अधिक मौलिक किसी सत्ता से भिज्ञ हो जाते हैं,तो हम क्षेत्रीयता से ऊपर उठ जाते हैं और पूरे दृश्य को देखने लगते हैं. हमारी आत्मा समस्त जगत् को व्याप्त कर लेती है. अनन्त को जान लेने से हम ईश्वर, जगत् और जीव के सच्चे स्वरूप को समझ लेते हैं वस्तुत: आध्यात्मिक ज्ञान जगत् को नहीं मिटाता है बल्कि उसके सम्बन्ध में हमारे अज्ञान को मिटा देता है.
 ( उपरोक्त संझिप्त परिचय  श्री सुशील कुमार रचित गौरवशाली भारत  पुस्‍तक से उद्धृत  है.....  )



गैर हिन्दू और विदेसी विचारकों  के विचार .......

सन १७५७ में बंगाल  के नबाब शुजाउद्दोला  के दरबार में मिस्टर जटियल नामक एक फ्रांसीसी, राजदूत बन कर आया था | उसने किसी से फारसी भाषा में उपनिषदों को सुना , वे उसे इतने प्रभावित कर गये क़ी उसने फारसी भाषा में अनुवादित  खरीदे और फ़्रांस ले गया | वहां उन्हें बर्नियर नामक विद्वान  ने पढ़े , उन पर जादू सा असर गूढ़ विद्या का हुआ| उसने इन उपनिषदों का कुछ भाग पैरिस के बड़े पादरी  डूपारना   को सुनाया , वह सुन कर इतना अभिभूत हुआ क़ी उसने निश्चय किया क़ी मूल संस्कृत  भाषा में लिखे उपनिषदों को पढूंगा |
वह भारत आया, १४ वर्ष तक संस्कृत  सीखी , इसके पश्चात उपनिषदों को पढ़ा | १८०१ में फ्रेंच  भाषा में अनुवाद किया | बहुत से लोगों ने इसे फ़्रांस में पढ़ा |  
   १८१२ में जब जर्मनी के महान  दार्शनिक शोपनाहर ने इन्हें पढ़े ,  तो वे चकित होकर लिखते हैं " यधपि संस्कृत को समझाना कठिन है और हमारे पास वे साधन नहीं जिनसे ठीक रूप में हम संस्कृत के रहस्यों को समझ सकें | तो भी जहाँ तक हमने खोज की है उपनिषदों के प्रत्येक भाग में गंभीर विचार और उच्च भावनाएं विधमान हैं |
   उपनिषदों का प्रत्येक उपदेश बहुत महत्वपूर्ण विचारों और बहुत उंची तथा सच्ची भावनाओं  से भरपूर है, इस समय भारत का वायुमंडल हमारे आसपास घूम रहा है | "
  " कितने महा पुरुषों के पवित्र और ऊँचे विचार हमारे अन्दर प्रविष्ट हो रहे हैं , संसार में किसी भी पुस्तक का स्वाध्याय इतना लाभ देने  वाला और आत्मा को ऊपर उठानेवाला नहीं है , जितना उपनिषदों का है | मेरी आत्मा को उपनिषदों से ही शांति मिली है और मरने  के पश्चात् भी इन्ही से शांती मिलेगी | "
 शोपन हावर ने कई जगह यह भी कहा क़ी ' भारत में हमारे धर्म कई जड़ें कभी नही जमेंगी ,मानव जाती क़ी "पुरानी प्रज्ञा" गैलीलियो की घटनाओं से कभी निराकृत  नहीं होगी |   वरन भारतीय प्रज्ञा की धारा यूरोप में प्रवाहित होगी एवं हमारे ज्ञान और विचारों में आमूल परिवर्तन ला देगी | ' 
  मैक्समूलर जर्मनी से फ़्रांस के पेरिस  मैं उपनिषद पढने जा पहुचा, फ्रांसीसी भाषा में उपनिषदों को पढ़ा , फारसी भाषा में भी पढ़ा , तब उसने वे झिझक कहा " ये उपनिषद उन लोगों की बुद्धी का फल है जो महानबुद्धी   वाले थे , हमारा ईसाई मत उनके आगे कभी जड़ नही पकड़ सकता | भारत की यह विद्या यूरोप भर में बह निकलेगी और हमारे ज्ञान तथा विचारों में परिवर्तन लायेगी |    " 
  मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक " India what can it teach us " यदि वास्तविकता को जानने का उदेश्य यह है क़ी मनुष्य मृत्यु  के भय से बच जाय और मृत्यु के लिए तैयार हो जाये तो मेरी सम्मति में  उपनिषदों के वेदांत का अध्यन करने के अतिरिक्त दूसरा कोई भी श्रेष्ठमार्ग नही है | में उपनिषदों का बहुत कर्जदार  हूँ क़ी उसने मुझे अपने जीवन सुधार में बहुत  सहायता मिली | ये उपनिषद-ग्रन्थ सारे संसार के धार्मिक साहित्य में आत्मिक उन्नति  के लिए, सदा एक बहुत  उच्च  और समादरणीय   स्थान घेरे रहें और सदा घेरे रहेगें  | "
   स्वीडन के विद्वान पाल ड्युसन ने उपनिषदों के बारे  में लिखा  है "  उपनिषद मनुष्यों की मेधा बुद्धी  का अनमोल फल है , जीवन और मृत्यु के समय , केवल दुःख और कष्ट के  समय हि नहीं अपितु हर समय, प्रतिक्षण उनसे ऐसी शांति मिलती है | जैसी और कहीं भी नहीं मिलती | भारत के लोगों के पास आत्मज्ञान और आत्म शान्ति का ऐसा रास्ता / कोष है जो संसार में और किसी के पास भी नही है | "
  मिस्टर ह्युम लिखते हैं , " dogmas or budhism " में "  मैंने अरस्तु , सुकरात, अफलातून और कितने ही अन्य विद्वानों के ग्रन्थ बहुत ध्यान से पढ़े हैं , परन्तु जैसी विद्या इन उपनिषदों में मेने देखी और जितनी शांती उनसे पाई, वैसी तो और किसी भी स्थान पर मुझे नहीं मिली|" 
  जी  आर्क  एम् ए ने एक पुस्तक " is god knowoble" में लिखा है  "  उपनिषदों के ज्ञान ने सिद्ध कर दिया है की मनुष्य  आत्मिक और सामाजिक आवश्यकताएं  किस प्रकार पूर्ण  हो सकती हैं | वेदांत अर्थार्त उपनिषदों की शिक्षा अत्यंत ऊँची सुन्दर और ऐसे सत्य से भरपूर  है , जो मनुष्य के ह्रदय पर चित्रित हो जाता है , क्यों क़ी जब मनुष्य संसार के दुःखों और चिंताओं  से घिर जाता है , तब इनके अतिरिक्त उसके मन   और आत्मा को शांती देने के लिए दूसरा कोई साधन उसे नहीं मिलता, जो उसे सहारा दे सके |"
- १६४० ई . में दारा शिकोह कश्मीर में था , तब उसका ध्यान उपनिषदों के बारे में आकृष्ट  किया गया , तब उसने काशी से पंडितों को बुलवाया और करीब ५० उपनिषदों का अनुवाद फारषी  भाषा में करवाया , यह कार्य १६५७ ई . में पूरा हुआ , किन्तु १६५९ में दारा शिकोह को ओरंगजेब ने मार डाला, मगर उन अनुवादित प्रतियों की कई नकलें हुई , वे हि कालान्तर में फ़्रांस पहुची और वहां से सम्पूर्ण पाश्चात्य जगत में फैल गई .         
 दारा शिकोह— 'मैने क़ुरान, तौरेत, इञ्जील, जुबर आदि ग्रन्थ पढ़े। उनमें ईश्वर सम्बन्धी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिन्दुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ीं। इनमें से उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है, जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। हज़रत नबी ने भी एक आयत में इन्हीं प्राचीन रहस्यमय पुस्तकों के सम्बन्ध में संकेत किया है।

       

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