राम नवमी : मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम : भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम हिन्दू धर्म में विष्णु के 10 अवतारों में से एक हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम, महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित, संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है। उनके उपर तुलसीदास ने भक्ति काव्य श्री रामचरितमानस रचा था। ख़ास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूज्यनीय माने जाते हैं। रामचन्द्र हिन्दुत्ववादियों के भी आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती है) और इनके तीन भाई थे, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया।
मर्यादा पुरुषोत्तम
अनेक विद्वानों ने उन्हें 'मर्यादापुरुषोत्तम' की संज्ञा दी है। वाल्मीकि रामायण तथा पुराणादि ग्रंथों के अनुसार वे आज से कई लाख वर्ष पहले त्रेता युग में हुए थे। पाश्चात्य विद्वान उनका समय ईसा से कुछ ही हज़ार वर्ष पूर्व मानते हैं। अपने शील और पराक्रम के कारण भारतीय समाज में उन्हें जैसी लोकपूजा मिली वैसी संसार के अन्य किसी धार्मिक या सामाजिक जननेता को शायद ही मिली हो। भारतीय समाज में उन्होंने जीवन का जो आदर्श रखा, स्नेह और सेवा के जिस पथ का अनुगमन किया, उसका महत्व आज भी समूचे भारत में अक्षुण्ण बना हुआ है। वे भारतीय जीवन दर्शन और भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतीक थे। भारत के कोटि कोटि नर नारी आज भी उनके उच्चादर्शों से अनुप्राणित होकर संकट और असमंजस की स्थितियों में धैर्य एवं विश्वास के साथ आगे बढ़ते हुए कर्त्तव्यपालन का प्रयत्न करते हैं। उनके त्यागमय, सत्यनिष्ठ जीवन से भारत ही नहीं, विदेशों के भी मैक्समूलर, जोन्स, कीथ, ग्रिफिथ, बरान्निकोव आदि विद्वान आकर्षित हुए हैं। उनके चरित्र से मानवता मात्र गौरवान्वित हुई है
जन्म
हिन्दू धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुडे हुए है। माना जाता है कि राम का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय का अनुमान सही से नहीं लगाया जा सका है। आज के युग में राम का जन्म, रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। राम चार भाईयो में से सबसे बड़े थे, इनके भाइयो के नाम लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे। राम बचपन से ही शान्त स्वभाव के वीर पुरुष थे। उन्होने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्यायप्रिय और ख़ुशहाल माना जाता था, इसलिए भारत में जब भी सुराज की बात होती है, रामराज या रामराज्य का उद्धरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनो भाइयों के साथ गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की।
राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है। राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीः कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। राम कौशल्या के पु्त्र थे, सुमित्रा के दो पु्त्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पु्त्र भरत थे। कैकेयी चाहती थी उनके पु्त्र भरत राजा बनें, इसलिए उन्होंने राम को, दशरथ द्वारा 14 वर्ष का वनवास दिलाया। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता, और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे।
रूप और सौंदर्य
अपनी छवि और कांति से अगणित कामदेवों को लज्जित करने वाले राम के सौंदर्य का वर्णन भी रामायणादि ग्रंथों में यथेष्ट मात्रा में पाया जाता है। तुलसी के रामचरितमानस में तो स्थल स्थल पर इस तरह के विवरण भरे पड़े हैं। राजा जनक जब विश्वामित्र मुनि से मिलने गए तो वहाँ राम की सुंदर छवि देखकर वह अपनी सुध वुध ही भूल गए, वे सचमुच ही विदेह हो गए। उके अलौकिक सौंदर्य का यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि 'बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।' जनक की पुष्पवाटिका में सीता की एक सखी ने राम को जब देखा तो वह भौंचक रह गई। सीता के निकट आकर वह केवल इतना ही कह सकी 'स्याम गौर किमि कहौं वखानी, गिरा अनयन नयन बिनु बानी।' उनके अंग प्रत्यंग का जो वर्णन किया गया है, वह अद्वितीय है। मखभूमि में तथा विवाहमंडप में भी राम के नखशिख का ऐसा ही सुंदर वर्णन मानस में दिया गया है। सामान्य लोगों की तो बात ही क्या, परशुराम जैसे दुर्धर्ष वीर को भी राम के अलौकिक सौंदर्य ने हक्का बक्का बना दिया। वे निर्निमेष नेत्रों से उन्हें देखते रह गए। ऐसा ही एक प्रसंग उस समय आया जब खर दूषण की सेना के वीर राम का रूप देखकर हथियार चलाना ही भूल गए। उनके नेता को स्वीकार करना पड़ा कि अपने जीवन में आज तक हमने ऐसा सौंदर्य कहीं देखा नहीं, इसलिए 'यद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा, वध लायक़ नहिं पुरुष अनूपा।
आदर्श चरित्र
राम के चरित्र में भारत की संस्कृति के अनुरूप पारिवारिक और सामाजिक जीवन के उच्चतम आदर्श पाए जाते हैं। उनमें व्यक्तित्वविकास,लोकहित तथा सुव्यवस्थित राज्यसंचालन के सभी गुण विद्यमान थे। उन्होंने दीनों, असहायों, संतों और धर्मशीलों की रक्षा के लिए जो कार्य किए, आचारव्यवहार की जो परंपरा क़ायम की, सेवा और त्याग का जो उदाहरण प्रस्तुत किया तथा न्याय एवं सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वे जिस तरह अनवरत प्रयत्नवान् रहे, जिससे उन्हें भारत के जन-जन के मानस मंदिर में अत्यंत पवित्र और उच्च आसन पर आसीन कर दिया है।
आदर्श पुत्र
राम के पराक्रम सौंदर्य से भी अधिक व्याक प्रभाव उनके शील और आचार व्यवहार का पड़ा जिसके कारण उन्हें अपने जीवनकाल में ही नहीं, वरन् अनुवर्ती युग में भी ऐसी लोकप्रियता प्राप्त हुई जैसी विरले ही किसी व्यक्ति को प्राप्त हुई हो। वे आदर्श पुत्र, आदर्श पति, स्नेहशील भ्राता और लोकसेवानुरक्त, कर्तव्यपरायण राजा थे। माता पिता का वे पूर्ण समादर करते थे।
प्रात: काल उठकर पहले उन्हें प्रणाम करते, फिर नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर उनकी आज्ञा ग्रहण कर अपने काम काज में जुट जाते थे। विवाह हो जाने के बाद राजा ने उन्हें युवराज बनाना चाहा, किंतु मंथरा दासी के बहकाने से विमाता कैकेयी ने जब उन्हें 14 वर्ष का वनवास देने का वर राजा से माँगा तो विरोध में एक शब्द भी न कहकर वे तुरंतवन जाने को तैयार हो गए। उन्होंने कैकेयी से कहा 'सुन जननी सोइ सुत बड़ भागी, जो पितृ मातु वचन अनुरागी।' वाल्मीकि के अनुसार राम ने यहाँ तक कह दिया कि दिया कि 'राजा यदि अग्नि में कूदने को कहें तो कूदूँगा, विष खाने को कहें तो खाऊँगा।' निदान समस्त राजवैभव, उत्तुंग प्रासाद और बहुमूल्य वस्त्राभूषणों का परित्याग कर लक्ष्मण तथा सीता के साथ वे सहर्ष वन के लिए चल पड़े। जाने के पहले उन्होंने गुरु से कहलाकर ब्राह्मणों तथा विद्वानों के वर्षाशन की व्यवस्था करा दी और भरत के लिए संदेश दिया कि 'नीति न तजहिं राजपद पाये'। पिता और माताओं की सुख सुविधा का ध्यान रखने की प्रार्थना पुरजनों हितेच्छुओं से करते हुए उन्होंने कहा
'सोइ सब भाँति मोर हितकारी, जाते रहैं भुआल सुखारी' तथा 'मातु सकल मोरे विरह जेहि न होयँ दुखदीन, सो उपाय तुम करह सब पुरजन प्रजा प्रवीना'
आदर्श पति
राम जानते थे कि सीता अत्यंत सुकुमार हैं अत: उन्होंने उन्हें अयोध्या में ही रहने को बहुत समझया पर जब वे नहीं मानीं तब उन्होंने उन्हें अपने साथ ले लिया और गर्मी, वर्षा, थकान आदि का बराबर ध्यान रखते हुए सहृदय, स्नेही पति के रूप में उन्हें भरसक कोई कष्ट नहीं होने दिया।
आदर्श भाई
राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को भी पिता, माता ओर बड़े भाई का अनुराग देकर इस तरह आप्यायित करते रहे कि उन्हें अयोध्या तथा परिजनों के वियोगका दु:ख तनिक भी खलने नहीं पाया। मेघनाद के शक्तिबाण से लक्ष्मण के आहत होने पर राम को मर्मांताक पीड़ा हुई और वे फूट फूटकर रो पड़े। नारी के पीछे भाई का प्राण जाने की आशंका से उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। धैर्यवान् होते हुए भी वे इस समय परम व्याकुल हो उठे। किंतु तभी संजीवनी बूटी लेकर हनुमान के लौट आने से किसी तरह लक्ष्मण की प्राणरक्षा हो सकी। भरत पर भी राम का ऐसा ही स्नेह उनकी साधुता एवं निश्छलता पर राम का पूरा विश्वास था। इसी से भरत भी उनका पूर्ण समादर करते थे और सर्वदा उनकी आज्ञा का पालन करते थे। भरत जब इन्हें लौट लाने के लिए चित्रकूट पहुँचे तब राम ने उन्हें सत्य और कर्तव्यनिष्ठा का उपदेश देते हुए बड़े प्रेम से समझाया और सहारे के लिए अपनी खड़ाउँ देकर सहृदयतापूर्वक विदा किया। वनवास की अवधि बीतने में केवल एक दिन शेष रहने पर भरत की दशा का स्मरण कर राम अत्यंत व्याकुल हो उठे और उन्होंने विभीषण से पुष्प विमान की याचना की, जिससे वे यथासमय अयोध्या पहुँच सकें।
राम के इन्हीं गुणों के कारण समस्त अयोध्यावासी और पशुपक्षी तक उनमें अनुरक्त थे। वनवास के लिए प्रस्थान करने पर भारी संख्या में लोग तमसा नदी तक उनके साथ साथ दौड़ गए। राम को आधी रात के समय उन्हें सोते छोड़कर लुक छिपकर वहाँ से कूच कर देना पड़ा। जागने पर लोगों को बड़ा पछतावा हुआ। अत्यंत दु:खित होकर वे अयोध्या लौट आए वनवास की अवधि भर राम की मंगलकामना के उद्देश्य से नेमव्रत, देवोपासना आदि करते रहे। उधर नाव में बैठकर राम के गंगा पार चले जाने पर सुमंत्र मूर्छित हो गया और उसके रथ के घोड़े भी रामवियोग में व्याकुल हो उठे। उस समय यदि कोई व्यक्ति राम लक्ष्मण का नामोल्लेख कर देता था तो वे पशु विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखने लगते थे-'जे कहि रामलखन वैदेही, हिकरि हिकरि पशु चितवहिं तेही।' पिता दशरथ ने तो पहले ही कह दिया था कि राम के बिना मेरा जीना संभव नहीं, और यही हुआ भी। माता कौशल्या को इस बात का उतना दु:ख न था कि राम वन गमन की बात सुनकर भी मेरी वज्र की छाती विदीर्ण नहीं हुई, जितनी उन्हें इस बात की ग्लानि थी कि राम जैसे आज्ञाकारी, सुशील पुत्र की मुझ जैसी माता हुई। मतिभ्रम से पूर्व कैकेयी का भी राम से पूर्ण विश्वास था। इसी से उनके राज्याभिषेक की बात सुनकर उसने प्रसन्नता करते हुए कहा था :
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये।
तस्मात्तृष्टास्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति।
आदर्श राजा
राम प्रजा को हर तरह से सुखी रखना राजा का परम कर्तव्य मानते थे। उनकी धारणा थी कि जिस राजा के शासन में प्रजा दु:खी रहती है, वह नृप अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है। जनकल्याण की भावना से ही उन्होंने राज्य का संचालन किया, जिससे प्रजा धनधान्य से पूर्ण, सुखी, धर्मशील एवं निरामय हो गई-'प्रहृष्ट मुदितो लोकस्तुष्ट: पुष्ट: सुधार्मिक:। निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जित:।'
तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में रामराज्य की विशद चर्चा की है। लोकानुरंजन के लिए वे अपने सर्वस्व का त्याग करने को तत्पर रहते थे। इसी से भवभूति ने उनके के मुँह से कहलाया है |
स्नेहं दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुंचतोनास्ति मे व्यथा'।
अर्थात् 'यदि आवश्यकता हुई तो जानकी तक का परित्याग मैं कर सकता हूँ।' प्रजानुरंजन के लिए इतना बड़ा त्याग करने पर उन्हें कितनी मर्मांतक व्यथा हुई, सीता-विरह-कातर होकर किस तरह वे मुमूर्षुवत् हो गए, इसका अत्यंत करुणोत्पादक चित्रण महाकवि भवभूति की कुशल लेखनी ने 'उत्तररामचरित' में किया है।
महापराक्रमी योद्धा
राम अद्वितीय महापुरुष थे। वे अतुल्य बलशाली, सौंदर्यनिधान तथा उच्च शील के व्यक्ति थे। किशोरावस्था में ही उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों में रत विश्वामित्र मुनि के परित्राणार्थ ताड़का और सुबाहु राक्षस का वध किया। राजा जनक की स्वयंवर सभा में उन्होंने शिव का वह विशाल धनुष अनायास ही तोड़ डाला जिसके सामने बड़े बड़े वीरपुंगवों को भी नतमस्तक होना पड़ा था। दंडक वन में शूर्पणखा के भड़काने से जब खर, दूषण, त्रिशिरादि ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया तो अकेले ही युद्ध करते हुए उन्होंने थोड़े समय में ही उनका विनाश कर डाला। किष्किंधा में एक ही बाण से राम ने सात तालवृक्षों का छेदन कर दिया और बाद में बड़े भाई के त्रास से उत्पीड़ित सुग्रीव की रक्षा के लिए बालि जैसे महापराक्रमी योद्धा को भी धराशायी कर दिया। लंका में रावण, कुंभकर्ण आदि से हुआ उनका युद्ध तो पराक्रम की पराकाष्ठा का ऐसा उदाहरण है जिसकी मिसाल अन्यत्र कठिनाई से ही मिलेगी।
परमधाम
जब प्रभु श्रीराम, भरत और शत्रुघ्न ने सरयू नदी के 'गोप्रतार घाट' पर विष्णु स्वरूप में प्रवेश किया तो उनके साथ गया समस्त समूह, अर्थात राक्षस, मनुज, रीछ, पक्षी, वानर और यशस्वी व महान मनुष्य आदि सभी को प्रभु का परमधाम मिला। ब्रह्माजी ये सब देखकर बहुत आह्लादित हुए और अपने धाम को चले गए।
श्रीराम की पवित्र चौपाइयों से दूर करें संकट
कलियुग मे सिर्फ राम नाम के जय घोष से ही हमें मुक्ति मिल जाती है. बाल्मिकी जैसा अपराधी उल्टा नाम जपकर पूज्यनीय हो गया. सभी वेद ग्रंथ में बताया गया है कि यदि मरते समय अपने आराध्य देव का नाम जुबान पर आ गया तो उसे स्वर्ग के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. सत्संग हमे अच्छा बुरा का ज्ञान के साथ-साथ सद्गति दिलाता है. महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस की चौपाइयां मात्र राम का गुणगान ही नहीं करती बल्कि इतनी चमत्कारिक महिमा भी है कि जीवन के हर संकट को समाप्त करने की दिव्य शक्ति उनमें विद्यमान है. प्रभु श्री राम के पावन आशीर्वाद हर चौपाई में निहित हैं. पढ़ें श्री रामचरितमानस की शुभ चौपाई और उनके जप से दूर होने वाले संकट.
अपने विचारों की शुद्धि के लिए- 'ताके जुग पद कमल मनाउं। जासु कृपां निरमल मति पावउं।।'
शांतिपूर्वक मृत्यु पाने के लिए- रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग । सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
आकर्षण शक्ति बढ़ाने के लिए- 'जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥'
पवित्र नदी में स्नान से पुण्य-लाभ के लिए- 'सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।'
आलोचना से बचने के लिए- 'राम कृपां अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
विद्या प्राप्ति के लिए- गुरु गृह गए पढ़न रघुराई। अल्प काल विद्या सब आई॥
घर में मंगल उत्सव के लिए- 'सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुं सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।'
यज्ञोपवीत धारण कर उसे सुरक्षित रखने के लिए- 'जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।'
आपस में प्रेम बढ़ाने के लिए- सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
भय से बचने के लिए- 'मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।'
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श्री राम से सीखें ये पांच बातें...
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वैसे तो श्री राम का पूरा व्यक्तित्व ही अनगिनत सीखें देता है लेकिन हम यहां आपको बता रहे ऐसी पांच सीखें जिन्होंने का रखा रामायण का आधार।
आज्ञाकारीः पिता के एक वचन को निभाने के लिए बिताए 14 साल वनवास में।
2
समभावः चाहे केवट को या शबरी, राम जी ने सबको बराबर भाव से सम्मान दिया। यहां तक कि लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर खाने की जगह पीछे फेंकते जा रहे थे लेकिन राम जी उतने ही प्रेम से उन जूठे बेरों का स्वाद चख रहे थे।
3
निश्छल भक्तिः हनुमान जी की भक्ति ही थी जिसकी वजह से वह एक तरफ समंदर पार करके सीता जी को राम जी की निशानी देकर आए और दूसरी तरफ एक संजीवनी बूटी के लिए पूरा पर्वत ले आए। राम जी ने इस भक्ति को हमेशा उचित सम्मान भी दिया।
4
अहंकार रहितः राम जी को न तो अपने ज्ञान का घमंड था और न ही अपनी शक्ति पर अभिमान। यहां तक कि उन्होंने रावण को भी हमेशा स्वयं से ज्ञानी और श्रेष्ठ माना।
5
दोस्तीः राम जी की सुग्रीव और विभीषण से दोस्ती तो सब स्वीकारते ही हैं लेकिन राम जी ने अपने परम भक्त हनुमान जी को भी अपने मित्र का ही दर्जा दिया।
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