विक्रम संवत् 2072 होगा 13 माह का : राजा होगा शनि




जानिए विक्रम संवत् 2072 केसा रहेगा और क्या हैं विक्रम संवत् ..???
Posted on जनवरी 13, 2015 by vastushastri08   
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जानिए विक्रम संवत् 2072 केसा रहेगा और क्या हैं विक्रम संवत् ..???

हिन्दू नव वर्ष 2072 का प्रारम्भ शनिवार को होने से वर्ष का राजा शनि होगा जो की देश दुनिया में न्याय दिलाएंगे व कानून का पालन सख्ती से होगा नया साल 2015 जैसी करनी वैसी भरनी वाला होगा। इस वर्ष का राजा न्याय प्रिय ग्रह शनि है।यह सबको समान दृष्टि से देखता है। वर्ष वैसे तो व्यापारियों के लिए अच्छा होगा।
पूरे संवत्सर के राजा शनिदेव ही होंगे। 15 अगस्त को मनाने वाला राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस भी इस वर्ष शनिवार के दिन ही है। इस पूरे वर्ष में माह मई, अगस्त और अक्टूबर ऐसे होंगे, जिनमें पांच शनिवार होंगे।

नए साल में प्रशासनिक क्षेत्रों में राजा शनि कार्यों में स्थायित्व प्रदान करेंगे, जबकि मंत्री मंगल अनुशासन को बढ़ावा देंगे। जिन लोगों पर शनि की साढ़े साती ढैया चल रही है, उन्हें हनुमान जी की पूजा करने से लाभ होगा। ज्योतिषियों की मानें तो नए वर्ष में अधिकांश बड़े पर्व शनिवार को होने से इस वार के स्वामी शनिदेव का वर्चस्व रहेगा। शनि पूरे वर्ष में कभी वक्री तो कभी मार्गी होगा। वर्तमान में शनि मंगल के आधिपत्य वाली राशि वृश्चिक में हैं। लेकिन उत्पादन करने वालों को मिलावट या उपभोक्ता से ठगी से पहले सौ बार सोचना होगा। वर्ष का राजा शनि कर्म के अनुसार परिणाम देने वाला है। ऎसे में व्यापार के हर कार्य का परिणाम कर्म के अनुरूप होगा। ज्योतिष के जानकारों की माने तो नए साल में राजनीति में स्थिरता रहेगी, वहीं मंगल का प्रभाव भी दिखाई होगा।

विक्रम संवत 2072 का राजा शनि होगा। ज्योतिषीय गणना के अनुसार विक्रम संवत्सर जिस वार को शुरू होता है, पूरे वर्ष उसी वार का स्वामी राजा होता है। मंत्री मंगल, दुर्गेश चंद्रमा होंगे। इससे देश में सुख-शांति अधिक खाद्यान्न उत्पादन की आशा की जा सकती है .. मंगल के प्रभाव से रक्त जनित बीमारियों की आशंका बढ़ सकती है। ऎसे में खासकर खान-पान ध्यान रखना होगा। नया साल व्यापारियों और किसानों के लिए समृद्धि लाने वाला होगा।दो आषाढ़ का साल 13 माह का होगा हिन्दू नव वर्ष सामान्यत: अंग्रेजी और हिन्दी महिनों में 12 माह होते है लेकिन विक्रम संवत 2072 अधिकमास है।

सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश को संक्रांति होना कहते हैं। सौर मास 12 और राशियां भी 12 होती हैं। जब दो पक्षों में संक्रांति नहीं होती, तब अधिकमास होता है। आमतौर पर यह स्थिति 32 माह और 16 दिन में एक बार यानी हर तीसरे वर्ष में बनती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। नए वर्ष में आषाढ़ 3 जून को शुरू होकर 30 जुलाई तक रहेगा। इस अवधि में 17 जून से 16 जुलाई तक की अवधि को अधिकमास माना जाएगा। इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। मौजूदा वर्ष की तुलना में पर्वों की तारीख हर तीन साल में घट-बढ़ गईं हैं। अब साल 2015 में आने वाले त्योहार 20 दिन बाद तक 10 दिन पहले आएंगे। ये पर्व वर्ष 2015 में अधिकमास के कारण बदल रहे हैं। त्योहारों की तिथियों का गणित, आषाढ़ के दो महीने पहले से आने के कारण हुआ है। सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। नए वर्ष में आषाढ़ 3 जून को शुरू होकर 30 जुलाई तक रहेगा। इस अवधि में 17 जून से 16 जुलाई तक की अवधि को अधिकमास माना जाएगा। इसे पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है।

जानकारों के अनुसार हर तीन साल में एक अधिकमास आता है। इस पुरूषोतम मास भी कहा जाता है। इसमें दान पुण्य, धार्मिक पूजा पाठ आदि तो किए जा सकते है लेकिन शुभ कार्य वर्जित होते है।पांचांग के मुताबिक पहला आषाढ़ कृष्ण 3 जून से 16 जून तक और द्वितीय आषाढ़ शुक्ल 17 जुलाई से 31 जुलाई तक रहेगा। अधिकमास का प्रथम आषाढ़ शुक्ल 17 जून बुधवार से शुरु होगा, जो द्वितीय आषाढ़ कृष्ण अमावस्या 16 जुलाई तक रहेगा। इससे पहले अधिमास संवत 2069 (सन 2012) में था। अब इसके बाद संवत 2075 (सन 2018) में होगा। इस दौरान 17 जुलाई से गुप्त नवरात्र भी होंगे जिसमें मां भगवती की पूजा अनुष्ठान करने से 100 फीसदी लाभ मिलता है।

चैत्र नवरात्र का शुभारंभ 21 मार्च शनिवार को और नवमी पर समापन भी 28 मार्च शनिवार को। आने वाले साल 2015 में प्रमुख त्योहारों की तिथियां काफी बदला हुआ रहेगा। 2015 के जनवरी से जून तक आने वाले त्योहार इस साल 2014 के मुकाबले कुछ दिन पहले की तारीखों में पड़ेंगे। यह स्थिति अधिकमास के कारण बनेगी। यानि गत 18 अगस्त से 13 सितंबर 2012 में अधिकमास होने के कारण दो भादों थे और 2015 में दो आषाढ़ होंगे, जबकि 2018 में 16 मई से 13 जून तक दो जेठ होंगे। यानी नए वर्ष के शुरू के छह माह में त्योहार गत वर्ष की अपेक्षा दस दिन पहले और बाद के छह माह में देरी से होंगे। ज्योतिषी इसकी वजह नए साल में दो आषाढ़ होना मान रहे हैं। वहीं जानकार भी नए साल में दो आषाढ़ मास होने की बात कह रहे हैं। यानी जून में अधिक मास की स्थिति बनेगी, इसलिए इसके खत्म होने के बाद जो त्योहार आएंगे, वे दस से 20 दिन की देरी से होंगे। जब दो पक्षों में संक्रांति नहीं होती, तब अधिकमास होता है। आमतौर पर यह स्थिति 32 माह और 16 दिन में एक बार यानी हर तीसरे वर्ष में बनती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। नए वर्ष में आषाढ़ 3 जून को शुरू होकर 30 जुलाई तक रहेगा। इस अवधि में 17 जून से 16 जुलाई तक की अवधि को अधिकमास माना जाएगा। इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। मौजूदा वर्ष की तुलना में पर्वों की तारीख हर तीन साल में घट-बढ़ गईं हैं। अब साल 2015 में आने वाले त्योहार 20 दिन बाद तक 10 दिन पहले आएंगे। ये पर्व वर्ष 2015 में अधिकमास के कारण बदल रहे हैं। त्योहारों की तिथियों का गणित, आषाढ़ के दो महीने पहले से आने के कारण हुआ है। सूर्य और पृथ्वी की गति में होने वाले परिवर्तन से तिथियों का समय घटने-बढऩे के कारण होता है। नए वर्ष में आषाढ़ 3 जून को शुरू होकर 30 जुलाई तक रहेगा। इस अवधि में 17 जून से 16 जुलाई तक की अवधि को अधिकमास माना जाएगा। इसे पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है।

ये है अधिकमास——

एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति तक का समय अर्थात सूर्य का एक राशि भोग सौर मास कहलाता है तथा एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक का समय चंद्रमास होता है। सामान्य रूप से चंद्रमास की अपेक्षा सौरमास बड़ा होता है। एक सौरमास 30 सावन, दिन 26 घटी 15 पल का होता है, जबकि चंद्रमास 29 दिन, 34 घटी और 20 पल का होता है। दोनों मास में 51 घटी 55 पल का अंतर होता है। यह अंतर प्रतिमास बढ़ते हुए लगभग 33 मास में एक चंद्रमास के बराबर हो जाता है यह अधिकमास कहलाता है। यह चंद्रमास सूर्य संक्रांति विहीन होता है अर्थात इस चंद्रमास में सूर्य संक्रांति नहीं होती है। इसे मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है।

ये है पौराणिक मान्यता—-

प्राचीनकाल में सर्वप्रथम अधिमास की उत्पत्ति हुई। उस मास में सूर्य संक्रमण होने के कारण वह मंगल कार्यों के लिए ग्राह्य नहीं माना गया। लोग उसकी निंदा करने लगे। बारह महिनों, कला, क्षण, उत्तर-दक्षिण अयन, संवत्सर आदि ने आक्षिप्त करके इसका अपमान किया। इस प्रकार लोक भर्त्सना से परेशान अधिकमास बैकुंठ में भगवान विष्णु के पास पहुंचे, तो भगवान ने उसे आर्शीर्वाद दिया कि मेरा नाम जो वेद, लोक और शास्त्र में विख्यात है, आज से उसी पुरुषोत्तम नाम से यह मलमास विख्यात होगा। जिस परमधाम में पहुंचने के लिए मुनि- महर्षि कठोर तप करते हैं, वही दुर्लभ पद पुरुषोत्तम मास में स्नान पूजा अनुष्ठान करने वाले भक्तजनों को सुगमता से प्राप्त हो जाएगा।

वर्ष 2015 के मुख्य पर्व-त्यिहार —
विक्रम संवत 2072 के कुछ मुख्य पर्व —

चैत्र नवरात्र 21 मार्च
चैत्र नवरात्र का शुभारंभ 21 मार्च शनिवार को और नवमी पर समापन भी 28 मार्च शनिवार को।
राम नवमी 28 मार्च
हनुमान जयंती 04 अप्रैल
खग्रास चंद्र ग्रहण-4 अप्रैल (शनिवार)
बैसाख अमावस्या 18 अप्रैल
रक्षा बंधन 29 अगस्त
जन्माष्टमी 05 सितंबर
श्राद्ध अमावस्या 12 सितंबर
छठ 19 सितंबर
इदुल फितर 18 जुलाई
मोहर्रम 24 अक्टूबर
15 अगस्त-स्वतंत्रता दिवस (शनिवार)
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विक्रम संवत् 2072 में विभिन्न सम्वतों का प्रारम्भ दिन–

विक्रम संवत् (कीलक) 2072 का शुभारम्भ–शनिवार, 21 मार्च, 2015
श्रीकृष्ण जन्म संवत् 5251 प्रारम्भ–शनिवार, 05 सितम्बर, 2015
सप्तर्षि संवत् 5091 प्रारम्भ–शनिवार, 21 मार्च, 2015
महात्मा बुद्ध संवत् 2639 प्रारम्भ–सोमवार, 04 मई, 2015
महावीर निर्वाण संवत् 2541 प्रारम्भ–बुधवार, 11 नवम्बर, 2015
ईस्वी (क्रिश्चियन) सन् 2016 प्रारम्भ–शुक्रवार, 01 जनवरी, 2016
शक् संवत् 1937 प्रारम्भ–रविवार, 22 मार्च, 2015
शक् संवत् 1938 प्रारम्भ–सोमवार, 21 मार्च, 2016
हिजरी (मुस्लिम) सन् 1437 प्रारम्भ–गुरूवार, 15 अक्टूबर, 2015
बंगाली सन् 1422 प्रारम्भ–मंगलवार, 14 अप्रैल, 2015
नानकशाही संवत् 547 प्रारम्भ– शनिवार, 14 मार्च, 2015
नानकशाही संवत् 548 प्रारम्भ– सोमवार, 14 मार्च, 2016
खालसा संवत् 317 प्रारम्भ–मंगलवार, 14 अप्रैल, 2015
जय हिन्द संवत् 69वॉं प्रारम्भ–शनिवार, 15 अगस्त, 2015
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जानिए की क्या हैं विक्रम संवत…??/

भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत हैं। इसकी शुरूआत मध्य प्रदेश की उज्जैन नगरी से हुई थी। यह कैलेन्डर राजा विक्रमादित्य के शासन काल में जारी हुआ था इसलिए इसे विक्रम संवत के नाम से जाना जाता हैं।

भारतीय इतिहास में जनप्रिय और न्यायप्रिय शासकों की जब भी बात चलेगी तो वह उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नाम के बगैर पूरी नहीं हो सकेगी। उनकी न्याय प्रियता के किस्से भारतीय परिवेश का हिस्सा बन चुके हैं। विक्रमादित्य का राज्य उत्तर में तक्षशिला जिसे वर्तमान में पेशावर (पाकिस्तान) के नाम से जाना जाता हैं, से लेकर नर्मदा नदी के तट तक था। उन्होंने यह राज्य शक्तिशाली शक आक्रांता खरोश जो मध्य एशिया से आया था, को परास्त कर हासिल किया था। राजा विक्रमादित्य ने यह सफलता मालवा के निवासियों के साथ मिलकर गठित जनसमूह और सेना के बल पर हासिल की थी।

विक्रमादित्य की इस विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के तमाम ऋणों को माफ करने का ऐलान किया तथा नए भारतीय कैलेंडर को जारी किया, जिसे विक्रम संवत नाम दिया गया। ईसा पूर्व 57 में जारी किया गया विक्रम संवत आज तक भारतीय पंचाग और काल निर्धारण का आधार बना हुआ हैं।
विक्रम संवत –

महत्वपूर्ण बिन्दुः—-
• भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं।
• साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं।
• नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये।
• विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं।
• भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ।
• भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है।
• इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं।
• यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।

शास्त्रों व शिलालेखों में—-

विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई0 पू0 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई0 पू0 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई0 पू0 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं ।

विद्वानों ने सामान्यतः ‘कृत संवत’ को ‘विक्रम संवत’ का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु ‘कृत’ शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे- नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। ‘कृत’ एवं ‘मालव’ संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह ‘मालव-गणाम्नात’ या ‘मालव-गण-स्थिति’ के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि ‘कृत’ का वही अर्थ है जो ‘सिद्ध’ का है जैसे – ‘कृतान्त’ का अर्थ है ‘सिद्धान्त’ और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है।

संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। ‘चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ’ के ‘वेडरावे शिलालेख’ से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर ‘चालुक्य विक्रम संवत’ चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था – 1076-77 ई0।

ऐतिहासिक महत्व:—-
सृष्टि रचना का पहला दिन : आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना इसी दिन की थी।

प्रभु राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद राज्याभिषेक के लिये चुना।

नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।

गुरु अंगददेव जी का प्रकटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्मदिवस।

आर्य समाज स्थापना दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।

संत झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए।

डा. हेडगेबार जन्म दिवस : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध के संस्थापक डा. केशव राव बलीराम हैडगेबार का जन्मदिवस।

शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ।

प्राकृतिक महत्वः—-
पतझड़ की समाप्ति के बाद वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। शरद ऋतु के प्रस्थान व ग्रीष्म के आगमन से पूर्व वसंत अपने चरम पर होता है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।

आघ्यात्मिक महत्व—-
हमारे ऋषि-मुनियों ने इस दिन के आध्यात्मिक महत्व के कारण ही वर्ष प्रतिपदा से ही नौ दिन तक शुद्ध-सात्विक जीवन जीकर शक्ति की आराधना तथा निर्धन व दीन दुखियों की सेवा हेतु हमें प्रेरित किया। प्रात: काल यज्ञ, दिन में विविध प्रकार के भंडारे कर भूखों को भोजन तथा सायं-रात्रि शक्ति की उपासना का विधान है। असंख्य भक्तजन तो पूरे नौ दिन तक बिना कोई अन्न ग्रहण कर वर्षभर के लिए एक असीम शक्ति का संचय करते हैं। अष्टमी या नवमीं के दिन मां दुर्गा के रूप नौ कन्याओं व एक लांगुरा (किशोर) का पूजन कर आदर पूर्वक भोजन करा दक्षिणा दी जाती है।

वैज्ञानिक महत्व—–
विश्व में सौर मंडल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसमें खगोलीय पिण्डों की गति को आधार बनाया गया है। हमारे मनीषियों ने पूरे भचक्र अर्थात 360 डिग्री को 12 बराबर भागों में बांटा जिसे राशि कहा गया। प्रत्येक राशि तीस डिग्री की होती है जिनमें पहली का नाम मेष है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। पूरे भचक्र को 27 नक्षत्रों में बांटा गया। एक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 4 चरणों में बांटा गया है जिसका एक चरण 3 डिग्री 20 मिनिट का होता है। जन्म के समय जो राशि पूर्व दिशा में होती है उसे लग्न कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर विश्व की प्राचीनतम कालगणना की स्थापना हुई।
एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रो के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये आखिर क्या आधार है इस काल गणना का? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।

ग्रेगेरियन कैलेंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है, जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष यहूदी 5767 वर्ष, मिश्र की 28670 वर्ष, पारसी 189974 वर्ष तथा चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वर्ष है। हमारे प्रचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है।

चैत्र मास का वैदिक नाम है—-
मधु मास। मधु मास अर्थात आनंद बांटती वसंत का मास। यह वसंत आ तो जाता है फाल्गुन में ही, पर पूरी तरह से व्यक्त होता है चैत में। सारी वनस्पति और सृष्टि प्रस्फुटित हो रही है। पके मीठे अन्न के दानों में, आम की मन को लुभाती खुशबू में, गणगौर पूजती कन्याओं और सुहागिन नारियों के हाथ की हरी-हरी दूब में तथा वसंतदूत कोयल की गूंजती स्वर लहरी में। चारों ओर पकी फसल का दर्शन आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है। खेतों में हलचल, फसलों की कटाई, हांसिए का मंगलमय खर-खर करता स्वर और खेतों में डांट डपट-मजाक करती आवाजें। जरा दृष्टि फैलाइए, भारत के आभा मंडल के चारों ओर। चैत्र क्या आया मानो खेतों में हंसी-खुशी की रौनक छा गई। नई फसल के घर में आने का समय भी यही है। इस समय प्रकृति में उष्णता बढ्ने लगती है। जिससे पेड़-पौधों, जीव-जन्तु में नव जीवन आ जाता है। लोग इतने मदमस्त हो जाते हैं कि चाईता गीत गुनगुनाने लगते है।गौर और गणेश कि पूजा भी इसी दिन से तीन दिन तक राजस्थान में कि जाती है। चैत शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय जो वार होता है वह ही वर्ष में संवत्सर का राजा कहा जाता है, मेषार्क प्रवेश के दिन जो वार होता है वही संवत्सर का मंत्री होता है इस दिन सूर्य मेष राशि में होता है।

भारतीय नववर्ष के बारे में ग्रंथों में लिखा है कि जिस दिन सृष्टि का चक्र प्रथम बार विधाता ने प्रवर्तित किया, उस दिन चैत्र शुदी 1 रविवार था। शुदी ‘शुक्ल दिवस’ का संक्षिप्त रूप है। इसका मतलब शुक्ल पक्ष का दिन है। अतः चैत्र के महीने के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि (प्रतिपद या प्रतिपदा) को सृष्टि का आरंभ हुआ था।हमारा नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है। इस दिन ग्रहों और नक्षत्रों में परिवर्तन होते हैं। हिन्दी महीनों की शुरूआत इसी दिन से प्रारंभ होती है। पेड़-पौधों में फूल ,मंजर ,कली इसी समय से आनी शुरू होती है। वातावरण में एक नया उल्लास होता है जो मन को आह्लादित कर देता है। जीवों मे कामेच्छा बढ़ जाती है। इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का सर्जन किया था। भगवान विष्णु जी का प्रथम अवतार इसी दिन हुआ था। नवरात्र पर्व की शुरुआत इसी दिन होती है, जिसमें हमलोग उपवास एवं पवित्र रह कर नववर्ष की शुरूआत करते हैं। परम पुरूष अपनी प्रकृति से मिलने जब आता है तो सदा चैत्र में ही आता है। इसीलिए सारी सृष्टि सबसे ज्यादा चैत्र में ही महक रही होती है। वैष्णव दर्शन में चैत्र मास भगवान नारायण का ही रूप है। चैत्र का आध्यात्मिक स्वरूप इतना उन्नत है कि इसने वैकुंठ में बसने वाले ईश्वर को भी धरती पर उतार दिया। न शीत ऋतु न ग्रीष्म ऋतु, बस पूरा पावन काल। ऎसे समय में सूर्य की चमकती किरणों की साक्षी में चरित्र और धर्म धरती पर स्वयं श्रीराम रूप धारण कर उतर आए।

श्रीराम का अवतार चैत्र की शुक्ल नवमी को होता है। आर्यसमाज की स्थापना भी इसी दिन हुई थी।
यह दिन कल्प, सृष्टि, युगादि का प्रारंभिक दिन है। संसारव्यापी निर्मलता और कोमलता के बीच प्रकट होता है हमारा अपना नया साल-विक्रम संवत्सर। विक्रम संवत का संबंध हमारे कालचक्र से ही नहीं, बल्कि हमारे सुदीर्घ साहित्य और जीवन जीने की विविधता से भी है। कहीं धूल धक्कड़ नहीं, कुत्सित कीच नहीं, बाहर-भीतर, जमीन-आसमान सर्वत्र स्नानोपरांत मन जैसी शुद्धता। पता नहीं किस महामना ऋषि ने चैत्र के इस दिव्य भाव को समझा होगा और किसान को सबसे ज्यादा सुहाती इस चैत मेे ही काल की शुरूआत मानी होगी।

जो भारतीय इस लेख से संतुष्ट है, इसे अधिक से अधिक लोगों के बीच शेयर करें और अपनी संस्कृति और पहचान को बचाए। चैत शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष मनाने का संकल्प लें, 1जनवरी को नहीं।

21 मार्च 2015 से प्रारंभ होगा हिन्दू नव वर्ष विक्रम संवत् 2072 

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