पूजनीय डाक्टर हेडगेवार : कोटि चरण बढ़ रहे निरंतर मातृ भूमि की सेवा में

                                   कोटि चरण बढ़ रहे निरंतर मातृ भूमि की सेवा में                                                                                       :  रंगाहरि


सन् 1889 में वर्ष प्रतिपदा के शुभ दिन संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था। 36 वर्ष की आयु में संघ की स्थापना करने के बाद दूसरी पीढ़ी का नेतृत्व उभरने के साथ ही 1940 में वे असमय  कालकवलित हुए। आज उनके जाने के 75 साल के बाद वह रा. स्वयंसेवक संघ भारत में  आसेतुहिमाचल सक्रिय, बहुआयामी निरन्तर बढ़ते हुए विशद् आन्दोलन का रूप ले चुका है। उसका प्रतिस्पंदन देश की सीमा पार भी अनुभूत है। इस परिप्रेक्ष्य में, अर्थात उस आंदोलन के स्रोत-पुरुष के नाते, डॉ. हेडगेवार के जीवन, उनके
मूल्यों पर हम सबको गंभीरता से चिंतन करके उसका नवनीत अपने में आत्मसात करना चाहिए। 

अर्वाचीन इतिहास की दृष्टि से कहा जा सकता है कि 19वीं सदी का उत्तरार्ध और 20वीं सदी का पूर्वार्ध भारत का संगठनात्मक क्रिया युग रहा है। इस जाग्रत कालखंड में अपने देश में अनेक सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक,जातीय, भाषायी, पंचीय, आध्यात्मिक, सुधारक आदि संगठन एवं प्रयास प्रारंभ किये गये। प्रत्येक प्रयास के पीछे निष्ठावान, निस्वार्थी, प्रेरणादायी महापुरुष थे।

निसर्ग के नियमानुसार कालान्तर में उन सबकोकाल कवलित होना ही था और उनका स्थान दूसरी पीढ़ी को ग्रहण करना पड़ा। यह कालचक्र घूमता रहा और आज उन विभूतियों की पांचवीं-छठी पीढ़ी सामने है। पीछे
मुड़कर देखते हैं तो एक दुखद सत्य ध्यान में आता है। विशेषत: दूसरी पीढ़ी के तिरोधाम के बाद उपर्युक्त प्रत्येक प्रयास की चेतनता क्षीण होती आती है।  ऊर्जा मन्द पड़ती है मानो मशाल का तेल खत्म हो रहा हो। आम आदमी की भाषा में उन पुराने महान प्रयासों में वैसा तेज नहीं दिखता। मलयालम कहावत के अनुसार, वे उन लंबे ऊंचे नारियल के पेड़ों जैसे हैं जो न गिरते हैं, न उखड़ते हैं, न ही नारियल (फल) देते हैं। 

इस पृष्ठभूमि में पूजनीय डाक्टर हेडगेवार को देखें। बेशक, वे एक ऐसे अपवाद हैं, जिनकी चेतनता आज भी, उनकी मृत्यु के 75 वर्ष बाद भी ओजस्वी है। उनके द्वारा आरंभ किया गया संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन दिनों बेहद लघु रूप में था। मात्र तीन-चार प्रान्तों में, वह भी मुख्यत: नगरों में सीमित था। किन्तु वर्तमान में पांचवीं-छठी पीढ़ी में भी वह वर्धमान है और उसको समर्थक तथा विरोधी 'संघ परिवार' कहने लगे हैं। अर्थात् आज संस्थापक के तिरोधान के साढ़े सात दशक के बाद भी उनके द्वारा बोये बीज की ओजस्विता और तेजस्विता में किंचित भी कमी नहीं आयी है। संघ आज भारत में संगठन के परे एक विशद आन्दोलन बन चुका है।

देशव्यापी राष्ट्रीय आन्दोलन।

यहां एक तारतम्य प्रबोधक होगा। भारतीय साम्यवादी पार्टी का प्रारंभ भारत की माटी में 1925 में हुआ। संघ का
भी प्रारंभ उसी वर्ष हुआ। साम्यवादी पार्टी के पीछे पूरा रूसी राज्य जुटा था, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी का आर्थिक, साहित्यिक समर्थन था, नवीन सिद्धांत के नाते वैश्विक आकर्षण था, जाने-माने नेताओं की मालिका थी। किन्तु यहां रा. स्व. संघ के पीछे-आगे उसके संस्थापक के अलावा कोई नहीं था। वे तो स्वयं जाने-माने राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं थे, हां प्रांतीय नेता अवश्य थे। प्रारंभ से ही उसे दकियानूसी, सांप्रदायिक आदि कहा जाता रहा।  कहीं से किसी प्रकार का राजनीतिक समर्थन नहीं था। किन्तु आज क्या स्थिति है? भारतीय साम्यवादी पार्टी कहां रह गई, रा.स्व. संघ कहां पहुंच गया?

देशवासी अच्छे से जानते हैं। इसका हेतु क्या है? सही उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें पूजनीय डाक्टर हेडगेवार के सतत् सक्रिय जीवन पर दृष्टि डालनी होगी। सब लोग जानते हैं और मानते भी हैं कि डॉ. हेडगेवार जन्मजात राष्ट्रभक्त थे। वे तत्कालीन सभी स्वातंत्र्य अभियानों में सक्रिय रहे थे। फिर भी उनके मन में कई तरह के प्रश्न उभरते रहते थेे। कई प्रश्न अनुत्तरित थे, कई भ्रान्तिजनक। उनके मन में 'फ्रीडम' और 'इन्डिपेन्डेंस' पर्यायवाची शब्द नहीं थे। प्रथम शब्द पूर्णत: सकारात्मक है, उसका अर्थ है स्वतंत्रता। दूसरा शब्द नकारात्मक है, उसका अर्थ है 'डिपेन्डेन्स' का अभाव अर्थात अनाश्रय अथवा अनावलंबन। अनाश्रय अपने आप में स्वतंत्रता है, यह कहना
गलत होगा। पिंजरे में बंद तोता 'डिपेन्डेन्ट' है। जब उसे मुक्त किया जाता है तो वह 'इन्डिपेन्डेन्ट' हो जाता है, अनाश्रित हो जाता है। परन्तु दीर्घकाल तक बंदी जीवन उसके मन को भी बंदी बनाता है और रिहा करने पर भी वह सामने के अनन्त गगन में उड़ जाने की हिम्मत नहीं कर पाता। बाहर आते ही अपरिचित आवाज सुनने पर वह झट से पिंजरे के अन्दर जा दुबकता है। शारीरिक दृष्टि से वह 'इन्डिपेन्डेन्ट' तो है, पर जीवन में 'डिपेन्डेन्ट' है। 
'इन्डिपेन्डेन्ट' होने पर भी वह स्वतंत्र नहीं, क्योंकि उसने उस अनुकूल अवस्था में भी अपना तंत्र नहीं अपनाया। अत: डाक्टर हेडगेवार ने 'फ्रीडम' और 'इन्डिपेन्डेन्स' को एक नहीं माना।

वे चाहते थे भारत की 'फ्रीडम' अथवा स्वतंत्रता। उस शब्द का भी सांगोपांग विश्लेषण डाक्टर जी ने किया। स्वतंत्रता का अर्थ है स्व की तंत्रता। इसमें स्व को पहचाने बिना तंत्रता निरर्थक है। भारतीय स्वतंत्रता के विवेचन में मूलभूत प्रश्न है भारत का स्वत्व क्या है। स्वत्व को पहचाने बिना तंत्र को कौन, कहां, कैसे लागू करेगा? उसी प्रकार स्वीकृत तंत्र में यदि देश का स्वत्व स्पंदित न हो तो वह कैसी स्वतंत्रता? दूसरे के तंत्र से अगर कोई चलता है तो वह उसके लिए परतंत्रता है या स्वतंत्रता? देश की ऐसी स्वतंत्रता की खोज के लिए निकले डॉ. हेडगेवार देश के स्वत्व की खोज तक आ पहुंचे। इस समस्या का असली समाधान उन दिनों स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द, भगिनी निवेदिता, स्वामी अभेदानन्द जैसी विभूतियों ने दिया था। स्वामी विवेकानंद ने बार-बार स्पष्ट शब्दों में कहा था कि प्रत्येक राष्ट्र की एक विशेष आत्मा होती है, वह उस राष्ट्र का स्वत्व निर्धारित करती है, उसके अनुसार विश्व के अन्य राष्ट्रों को देने के लिए उस राष्ट्र का एक विशेष संदेश रहता है, वह उस राष्ट्र का विशेष मिशन बन जाता है,  परिणामत: वह उस राष्ट्र की नियति बन जाती है। आगे चलकर, कारावास से मुक्त हुए तप:पूत श्री अरविन्द ने उत्तरपाड़ा के अपने विख्यात भाषण में कहा था कि भारतवर्ष की राष्ट्रीयता का दूसरा नाम है सनातन धर्म। इन्हीं विचारों को शास्त्रीय परिभाषा का रूप देकर भगिनी निवेदिता ने कहा था-देश, जन, धर्म, ये तीनों के मेल से बनता है भारत राष्ट्र।

डाक्टर हेडगेवार ने पाया कि उनकी अपनी खोज से प्राप्त हुए उनके अपने विचार उपर्युक्त विचारों से मेल खाते हैं। इससे वे आश्वस्त और संतुष्ट हुए। उस समय विद्यमान वातावरण में व्यावहारिक तौर पर सोच-विचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि ऊपर उल्लेख किए उस राष्ट्रीय स्वत्व का नाम है हिन्दुत्व और यह राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र है। हिन्दू राष्ट्र का स्वत्व आधारित तंत्र ही इस देश का स्वातंत्र्य है।

परंतु सर्वसाधारण के बीच कार्य करने वाले कार्यकर्ता के नाते डाक्टर हेडगेवार ने अनुभव किया कि स्वतंत्रता की मांग को लेकर तरह-तरह के आन्दोलन करने वाले पढ़े-लिखे नेता भी स्वतंत्रता की इस अवधारणा से अज्ञान थे। उन लोगों की संकल्पना में हमारा यह देश अंग्रेजों के आगमन के पूर्व कभी राष्ट्र नहीं था, उन्होंने ही हमारी जनता को राष्ट्र बन जाने की प्रक्रिया में भागीदार बनाया, इसे के परिणामस्वरूप भारत निकट भविष्य में नवजात राष्ट्र बन जायेगा। दूसरे शब्दों में उन राष्ट्रीय नेताओं ने विदेशी अंग्रेजों को भारत के राष्ट्र निर्माता का दर्जा अथवा श्रेय दे दिया। इस हालत में अपने इस विशाल देश के आम व्यक्ति में राष्ट्र के स्व के बोध को कैसे जगाया जाए, यह बात डाक्टर हेडगेवार के मन को मथने लगी थी। बाहर कहीं पर उसका उत्तर नजर में न आने के कारण उनको  अन्तर्मुख होकर समाधान खोजना पड़ा।

डाक्टर जी की दूसरी मान्यता थी कि राष्ट्र का मूल घटक उस देश का निवासी मानव है। व्यक्ति निर्माण द्वारा राष्ट्रनिर्माण, यह था उनका कार्यसूत्र। इस दृष्टि से जब उन्होंने अपने देश बांधवों को देखा तो जो उनको अनुभव हुआ वह पीड़ाजनक था। वैयक्तिक दृष्टि से आम आदमी आस्तिक, धार्मिक, ईमानदार था। किन्तु सामूहिक दृष्टि से वह शून्य सा था। पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित वह हीन भाव, आत्म निन्दा, स्वार्थ, सद्गुण विकृति, आत्म विस्मृति, पदावलंबिता आदि आत्मघातक दुर्गुणों का अत्युत्तम नमूना बन चुका था। कोटि कोटि भुजैधृत कर वाली मां को  नि:सहाय कहकर 'रक्ष भारता सहाय हीना' गीत गाने वाला बन चुका था। 'दुर्बल के प्राण पुकार रहे जगदीश हरें' भजन दोहराने वाला बन चुका था। इस तरह की राष्ट्र संतान का राष्ट्र स्वत्वानुकूल पुन: प्रतिष्ठापन, यह था  डाक्टरजी के सम्मुख उभरा भगीरथ कर्तव्य। उसके लिए कौन सा मार्ग हो, यह कहीं दिखाई नहीं पड़ता था। पूरी शिक्षा प्रणाली परदेशी हो चुकी थी। सत्संस्कार देने के गुरुकुल निष्क्रिय बन चुके थे। ऐसा में क्या उपाय हो? यह थी उनकी दूसरी समस्या।

तीसरी समस्या उभरी व्यवस्था की। मनुष्य गुणवान हो, किन्तु अलग-अलग रहकर अकेले काम करने से राष्ट्रीय कार्य सफल होगा क्या? अनुभव तो इसका उलट बताता है। विश्वभर में संगठित अल्पसंख्यक असंगठित  बहुसंख्यकों पर हावी हो जाते हैं। अत: राष्ट्र स्वत्वानुकूल संस्कारित व्यक्तियों को संगठन के वज्रसूत्र में गूंथना 
अनिवार्य है, यह महान संगठक डाक्टर जी का दृढ़विश्वास बन गया। अंग्रेजी प्रशासकों के चाल-चलन से भी उन्होंने इस सबक को सीख लिया था।

फिर एक बार, वही समस्या सामने आई कि संगठन का नमूना कौन सा हो? जहां संगठन का भाव विद्यमान है  वहां संगठन को खड़ा करने का तरीका और जहां संगठन का बोध तक नहीं वहां संगठन को गढ़ने का तरीका एक नहीं हो सकता। पहले का काम रूप देने का है, किन्तु दूसरे का काम चेतना जगाने का है। डाक्टर जी ने उसको ठीक से समझा और उसके बारे में मौलिकता से सोचा।

संक्षेप में, जन्म से ही देशभक्त डॉ. हेडगेवार के स्वतंत्रता की पूर्व तैयारी के नाते विचार थे- हमारा भारत प्राचीन है, वह नया बन रहा राष्ट्र नहीं। राष्ट्र का जो विशेष स्वत्व होता है, वह होता है उसकी पहचान। उसको देश का हर व्यक्ति समझे, पहचाने, माने, तभी उसको देशहित में कार्यरत होने की शाश्वत प्रेरणा मिलती रहेगी। वह राष्ट्रीय व्यक्ति राष्ट्रानुकूल गुणों का धनी हो और राष्ट्र हेतु समर्पण भाव से कार्यरत होने के लिए सक्षम-समर्थ बने। वह समर्थ सज्जन अकेला न रहकर समभावी संगठित शक्ति का अभिन्न अंग बने, इन विचारों को घनीभूत आकार देने हेतु उनके मन में कई दिन तक मंथन चलता रहा और 1925 की विजयादशमी के शुभ पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में रूपांतरित हुआ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ डाक्टर हेडगेवार की तीनों समस्याओं का समाधान सामने रखता है। संघ की शाखा  आधुनिक वैकल्पिक गुरुकुल है। उसमें उपस्थित स्वयंसेवक को देश के स्वत्व का ज्ञान प्राप्त होता है और उसका व्यक्तित्व राष्ट्रीय बन जाता है। शाखा के अन्यान्य बौद्धिक, शारीरिक कार्यक्रमों द्वारा वह राष्ट्रीय व्यक्ति, जिसको स्वयंसेवक कहते हैं, राष्ट्रानुकूल संस्कारों से संपन्न हो जाता है, अहितकारी कुसंस्कारों से मुक्त हो जाता है। उसमें 
संघबोध जैसे संगठनात्मक गुण विकसित होते हैं। इसके अलावा सबसे महत्व की बात, ध्येयनिष्ठ आन्दोलन की सृजनशीलता नदी की धारा के समान बनी रहती है।

अतएव आज रा. स्व. संघ विशद आन्दोलन के नाते नित्य बढ़ रहा है। संघ के इस अन्यत्र अदृश्य संगठनात्मक ढांचे की अप्रतिम कल्पना डाक्टर हेडगेवार की मौलिकता की परिचायक है। इन विचारों को ध्यान में रखकर जब डाक्टर हेडगेवार के व्यक्तित्व पर दृष्टि डालते हैं तब स्पष्ट होता है कि उस महात्मा का राष्ट्र समर्पित जीवन  स्वतंत्रता प्राप्त करने की लड़ाई तक सीमित नहीं था। 

स्वतंत्रता प्राप्ति प्रथम सोपान मात्र था। उसके ऊपर के स्वातंत्र्यकालीन सोपान पर भी पदार्पण कर अन्तिम गन्तव्य इस महान देश का धर्माधिष्ठित परम् वैभव था।  अर्थात डाक्टर हेडगेवार की अन्त:प्रेरणा परिस्थिति निरपेक्ष चिरकालीन थी। अतएव उनके द्वारा प्रारंभ किए गए रा. स्व. संघ के स्वयंसेवकों की भी प्रेरणा चिरकालीन है, परिस्थिति निरपेक्ष है यद्यपि उपक्रम परिस्थिति सापेक्ष है। यही एक कारण है कि संघ संस्थापक के निधन के 75 वर्ष पश्चात भी उनके द्वारा दी गई प्रेरणा की ऊर्जा प्रखर एवं अक्षय है। इस परिप्रेक्ष्य में ही हम कहते हैं, डॉ. हेडगेवार आज भी प्रासंगिक हैं।

(लेखक रा. स्व. संघ के अ.भा.बौद्धिक प्रमुख रहे हंै)

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