विक्रम संवत्सर : श्रीकृष्ण जुगनू जी का तथ्यात्मक आलेख
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Hindu New Year Vikram Samvat Calculations
विक्रम संवत्सर की बधाईयों के पीछे के अनथक प्रयास...
(अतिथि ब्लॉगर की श्रृंखला में पेश है विक्रम संवत पर श्रीकृष्ण जुगनू जी का तथ्यात्मक आलेख)
विक्रमीय संवत्सर की बधाइयां देते-लेते पूरा दिन हो गया...। भारत कालगणनाओं की दृष्टि से बहुत आगे रहा है। यहां गणित को बहुत रुचि के साथ पढ़ा और पढ़ाया जाता था। यहां खास बात पर्व और उत्सवों के आयोजन की थी और उसके लिए अवसरों को तय करना बड़ा ही कठिन था। कई संस्कृतियां अपने-अपने ढंग को लेकर आई कई संस्कृतियां यहां रची-बसी, मगर सबको यहां की रवायतों के साथ तालमेल करना ही था। कुछ तो प्रयास और कुछ सहजता से यह कार्य हुआ।
गणितज्ञों ने बहुत परिश्रम किया... इस परिश्रम काे साश्चर्य स्वीकारा था अलबीरुनी ने जो भारत में 30 अप्रैल 1030 से लेकर 30 सितंबर 1030 तक रहा, रेनाद ने उसके कार्य का फ्रांसिसी अनुवाद 'फ्रेगमां अरेबीज ए परसां' के नाम से किया। इसे प्रथमतया यूं अनूदित किया गया -
सामान्यताया लोग श्रीहर्ष के, विक्रमादित्य के, शक के, वल्लभ के तथा गुप्तों के संवत का प्रयोग करते हैं। वल्लभ, जिसका नाम एक संवत के साथ भी संबद्ध है, अनहिलवाड के दक्षिण में लगभग 30 योजनों की दूरी पर स्थित वलभी नामक स्थान का शासक था, यह संवत शक संवत से 241 साल बाद का है, शक संवत की तिथि में से छह का घन अर्थात् 216 तथा पांच का वर्ग 25 घटाने पर वल्लभी संवत की प्राप्ति होती है.. गुप्तों का संवत उनकी सत्ता जाने के बाद आरंभ हुआ... जो कि शक के 241 वें साल से आरंभ होता है। ब्रह्मगुप्त की खंडखाद्यक (कन्दरवातक) की सारणियां इसी संवत में रखी जाती है, इस कृति को हम अरकंद के नाम से जानते हैं। इस प्रकार मज्दर्जिद के संवत के 400 वें साल में रखने पर हम स्वयं को श्री हर्ष संवत के 1488वें वर्ष में, विक्रमादित्य संवत के 1088वें वर्ष में, शक संवत के 953 वें वर्ष में, वल्लभी संवत तथा गुप्तों के संवत के 712वें वर्ष में पाते हैं...। मित्रों को यह जानकर हैरानी होगी कि नवंबर, 1887 ईस्वी में जॉन फैथफुल फ्लीट को यह अनुवाद नहीं रुचा और उसने प्रो. सचाऊ आदि के अनुवाद व मूलपाठ को जमा किया :
'' व लि धालिक अरडू अन् हा व इला तवारीख श्रीह्रिश व बिगरमादित व शक व बिलब व कूबित व अम्मा तारीख बल्ब...।''
यह विषय बहुत जटिल था, है और रहेगा, इस पर फ्लीट ने अपने जमाने में करीब दो सौ पन्ने लिखे हैं जिनका प्रकाशन 'कोर्पस इंस्क्रीप्शनम इंडिकेरम' के तीसरे भाग में हुआ हैं। उसकी गणित और गणनाओं को निर्धारित करने के लिए भारतीयों ने अपना पराक्रम दिखाया। उस जमाने के मशहूर भारतीय गणितज्ञ और पंचांगकारों ने कमरतोड़, कल्पनातीत प्रयास किया। इनमें भगवानलाल इंद्रजी, शंकर बालकृष्ण दीक्षित जैसे अपूर्व प्रतिभा के धनी विद्वान भी शामिल थे। भारत के सभी गौरवशाली ग्रंथों और अन्यान्य प्रमाणों, संदर्भों को भी सामने रखा गया था। जे. फरर्गुसन जैसों के निर्णयों को भी कसौटी पर कसा गया... बहुत अच्छा हुआ कि मंदसौर नगर से यशोधर्मन का लेख मिल गया जिसके लिए 533-34 ईस्वी की तिथि मिली।
समस्या यहीं पर खत्म नहीं हुई... लंबी गणनाएं हुईं। अनेकानेक शिलालेखों के आधार पर गणनाओं के लिए कई कागज रंगे गए, तब केलुलेटर कहां थे और यह स्वीकारा गया कि ईस्वी सन् 58 से प्रारंभ होने वाला विक्रम संवत है किंतु सामान्यतया 57 ईस्वी से प्रारंभ हुआ माना जाता है। यह पश्चिमी भारत की उत्पत्ति का संवत कहा गया जिसे उज्जैन के शासक विक्रम या विक्रमादित्य के शासनकाल के प्रारंभ से माना जाता है। फरगुसन का विचार था कि यह छठीं सदी में आविष्कृत हुआ लेकिन इसका ऐतिहासिक प्रारंभ बिंदु ईस्वी सन 544 था, तथा इसको पीछे की तिथि से संबद्ध किया गया किंतु मन्दसौर लेख से प्रमाणित होता है कि यह इस समय के पूर्व मालव नाम के अंतर्गत अस्तित्वमान था। मध्यभारत में यह 9वीं सदी ईस्वी तक ज्ञात था और 11वीं शताब्दी ईस्वी में विक्रम के नाम के साथ संबद्ध रूप में इस संवत का एक प्राचीन दृष्टांत खोजा गया।
है न जंजाली जटिलताओं के बीच एक रोचक खोज के निर्धारण का प्रयास जो डेढ़ सदी पहले हुआ... मगर आज हमारे पास कई नए प्रमाण मौजूद हैं, उज्जैन स्थित विक्रमादित्य शोधपीठ के खोजे गए प्रमाण भी कम नहीं। कई प्रकाशन हुए हैं, उसके निदेशक डॉ. भगवतीलालजी राजपुरोहित तो 'विक्रमार्क' शोधपत्रिका संपादन कर रहे हैं। और तो और, अश्विनी रिसर्च सेंटर, माहीदपुर के चेयरमेन डॉ. आर. सी. ठाकुर ने विक्रमादित्य के सिक्के और छापें भी खोज निकाली हैं। ये प्रमाण गणना मूलक एक संवत के प्रवर्तक के लिए तो है ही, संवत के अस्तित्व में आने के कारणों को भी पुष्ट करेंगे। काम एक दिमाग के सोच से ज्यादा है, कई लोग लगे हैं... मगर, हमारे लिए तो यह उचित होगा कि हम कालीमिर्च, नीम की कोपल, मिश्री का सेवन करें और परस्पर बधाइयों का आदान प्रदान करें।
जय-जय।
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