'भारत माता की जय' - प्रशान्त बाजपेई

कौन नहीं बोलना चाहता जय ?
तारीख: 28 Mar 2016



'दु:स्वप्ने आतंके, रक्षा करिले अंके, स्नेहमयी तुमि माता' भारत को स्नेहमयी मां कहने वाली ये पंक्तियां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना 'जन -गण-मन' की हैं जिसके प्रथम छंद को भारत के राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया है। अर्थात् 'जन-गण-मन' की पृष्ठभूमि में भी राष्ट्र का मातृरूप समाहित है। जिस मातृरूप को सामने रखकर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी गई, और वंदेमातरम् भारत का राष्ट्र मंत्र बन गया। पर भारत में तथाकथित 'सेकुलर', लिबरल और वामपंथी बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है जिन्हंे 'भारत की बरबादी' के नारे तो  विचलित नहीं करते लेकिन 'भारत माता की जय' या 'वंदेमातरम्' का उद्घोष बेचैन कर देता है। उन्हीं की ताल पर असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग मजहबी उन्माद का आलाप देते हैं। इन लोगों का तर्क  है कि मुसलमान देश के नागरिक मात्र बनकर रहें  लेकिन जन्मभूमि का बेटा होने का गौरव न करें।
बुद्धिजीवी कहलाने वाले इसे 'मर्जी' का मामला' बताते हैं तो कट्टरपंथी इसे मजहब का मामला कहते हैं और इससे सवाल उठता है कि  क्या मां को मां कहने से ईश्वर नाराज हो सकता है? क्या मां को नकारकर अपनी पहचान बचाई जा सकती है? जिन प्रश्नों  का उत्तर कोई बच्चा भी दे सकता है, कई बार वे प्रश्न राजनीति के खिलाडि़यों को बड़े कठिन लगते हैं। नागरिकता तो कानूनी मान्यता है लेकिन अपनी धरती का बेटा होना भावनात्मक संबंध है। इस भावनात्मक संबंध के बिना राष्ट्र खड़े नहीं होते। भावों के जागरण के लिए मां-बेटे से ज्यादा शक्तिशाली कौन-सा प्रतीक हो सकता है? नकार  की इस शृंखला में नया पैंतरा यह है कि बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंदमठ' (प्रकाशन 1882) से पहले भारत माता की परिकल्पना थी ही नहीं। तर्क  के ऐसे धनी लोगों को हजारों वर्ष पहले रचित वाल्मीकि रामायण पढ़नी चाहिए जिसमें श्रीराम जन्मभूमि की तुलना जन्म देने वाली माता से करते हुए कहते हैं, 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी', प्राचीन काल से ही भारत माता को ज्ञानदायिनी, जीवनदायिनी और रक्षा करने वाली के रूप में देखा गया। वेदों ने ही इस देश को भारत कहा है। अब 'सेकुलर' टोली भारत नाम को भी सांप्रदायिक घोषित कर सकती है।

जब बंकिमचन्द्र 'वंदेमातरम् ' गाते हैं और 'जन -गण-मन' की (अगली) पंक्तियों में जब रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि—
'तव करुणारुण-रागे, निद्रित भारत जागे, तव चरणे नत माथा' तो क्या वे उसी भाव को नहीं जगाते जो कहता है कि 'मां के कदमों के तले जन्नत है।' फिर भारत माता संबोधन का विरोध क्यों?
मुस्लिम बहुल बांग्लादेश के राष्ट्रगीत में बार-बार 'मां' संबोधन आता है। देखिये इन पंक्तियों को- 'मां, तोर मुखेर बानी, आमार काने लागे सुधामृतो।' अर्थ है कि मां तुम्हारी वाणी मेरे कानों को अमृत समान लगती है। आगे की पंक्तियां कहती हैं- 'मां तोर बदन खानी मलिन होले, आमी नयन ओ मां आमी नयन जोले भाषी। सोनार बंगला, आमी तोमाय भालो बाशी।' अर्थ हुआ- 'मां यदि तुम्हारा मुख दु:ख से मलिन होता है, तो हमारी आंखों में अश्रु भर जाते हैं। ओ स्वर्णमय बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूं।' 87 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इंडोनेशिया के राष्ट्र गीत की पंक्तियां कहती हैं- 'मेरे देश इंडोनेशिया, वह धरती जिसके लिए मैं अपना खून बहाता हूं, मैं यहां हूं अपनी मातृभूमि का सेवक बनने के लिए।' मुस्लिम बहुल तुर्क मेनिस्तान के मुस्लिम  अपने राष्ट्रगीत में गाते हैं- 'पर्वत, नदियां और मैदानों की शोभा, प्रेम और भाग्य, प्रकटन है मेरा। ओ मेरे पुरखों और मेरी संतानों की मातृभूमि।' 98 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले अजरबैजान के आड़े इस्लाम नहीं आता जब वे गाते हैं- 'गौरवशाली मातृभूमि! गौरवशाली मातृभूमि! अजरबैजान! अजरबैजान!' मिस्रवासी मिस्र को सभी देशों की माता निरूपित करते हैं। मिस्र का राष्ट्रगान कहता है- 'मिस्र! ओ मिस्र, हे सभी देशों की माता, तुम मेरी आशा और मेरी महत्वाकांक्षा हो।  तुम्हारी नील (नदी) में असीम गौरव है।' मिस्र में मुस्लिम आबादी कुल जनसंख्या का 90 प्रतिशत है। तजाकिस्तानवासी अपने देश के लिए गाते हैं- 'तुम हम सबकी माता हो, तुम्हारा भविष्य हमारा भविष्य है। हमारी देह और आत्मा का अर्थ तुमसे है।' तजाकिस्तान में मुस्लिम कुल आबादी का 99 फीसदी हैं। एक अन्य मुस्लिम देश उज्बेकिस्तान (मुस्लिम जनसंख्या 96.5 प्रतिशत) का राष्ट्रगान कहता है- 'स्वातंत्र्य की  प्रकाश स्तम्भ, शान्ति की संरक्षक, सत्यप्रेमी मातृभूमि! सदा फलो फूलो।' अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब बांग्लादेश, इंडोनेशिया, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अजरबैजान, मिस्र, तजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों को अपनी भूमि को मातृभूमि कहने में गौरव का भान होता है तो फिर भारत में 'भारत माता की जय' बोलने में इस्लाम पर खतरा कैसे आ सकता है? इस धोखेबाजी के बारे में सभी देशवासी और विशेष रूप से मुसलमानों को बताना जरूरी है। वास्तव में ऐसे लोगों का उद्देश्य भारत के मुसलमानों को भारत की जड़ों से जुड़ने से रोकना और उनका अरबीकरण करना है। इसी सोच के चलते कट्टरपंथियों द्वारा मुसलमानों से शेष देशवासियों से अलग दिखने, अलग वेशभूषा धारण करने का आग्रह किया जाता है।  इसी राग में एक नया कुतर्क जोड़ा गया है कि 'मैं भारत माता की जय नहीं कहूंगा क्योंकि ऐसा संविधान में नहीं लिखा है।'  इसी कुतर्क और मुसलमानों के अरबीकरण के छिपे एजेंडे पर चोट करते हुए गीतकार और लेखक जावेद अख्तर ने राज्यसभा में कहा कि ''शेरवानी और टोपी क्यों पहनते हो? ऐसा करने के लिए भी तो संविधान में नहीं लिखा है।''
आजकल जब कभी ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती है तो सेक्युलर वीरों को अटल जी की याद सताने लगती है। जब जेएनयू में लगे राष्ट्रविरोधी नारों के संबंध में गृह मंत्रालय ने हस्तक्षेप किया तो ऐसे लोगों द्वारा कहा जाने लगा कि सरकार गलत लड़ाई का चुनाव कर रही है और अटल जी होते तो कहते कि 'छोकरे हैं, जाने दो।' ऐसे लोगों को 29 मार्च, 1973 को (बांग्लादेश निर्माण के सवा साल बाद) लोकसभा में दिए गए उनके भाषण को पढ़ना चाहिए।  अटल जी ने कहा था ''हम आशा करते थे कि पाकिस्तान का विभाजन हो गया, मजहब के आधार पर पाकिस्तान एक नहीं रह सका। स्वाधीन बांग्लादेश का आविर्भाव हुआ। अब भारत का भी वातावरण बदलेगा और मजहब के आधार पर संघर्ष या विशेषाधिकारों की मांग नहीं होगी। लेकिन ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की मुक्ति से हमने कोई पाठ नहीं सीखा।  आज मुसलमानों में एक वर्ग ऐसा क्यों निकल रहा है जो मुंबई में खड़े हो कर कहता है कि हम 'वंदेमातरम्' कहने के लिए तैयार नहीं हैं। 'वंदेमातरम्' इस्लाम विरोधी नहीं है। क्या इस्लाम को मानने वाले जब नमाज पढ़ते हैं तो इस देश की धरती पर, इस देश की पाक जमीन पर सिर नहीं टेकते हैं? ऐसे मुद्दे पर किसी को भी असहमत होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कल यह कहेंगे कि  'तिरंगा झंडा है, मगर हम तिरंगे के आगे झुकेंगे नहीं, क्योंकि हम अल्लाह के आगे झुकते हैं। हिंदुस्थान में रहने वाले हर आदमी को तिरंगे के सामने झुकना पड़ेगा।'' यहां पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मुहम्मद खान को उद्धृत करना समीचीन होगा कि ''भारत सरकार ने एक परिपत्र के जरिये जब से राज्य सरकारों से राष्ट्रीय गीत गाने  के लिए कहा है, तब से एक अनावश्यक विवाद शुरू हो गया है। सबसे पहले परिपत्र का विरोध मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने किया।  उनके प्रवक्ता ने मुस्लिम अभिभावकों को हिदायत जारी की कि वे अपने बच्चों को 7 सितंबर को स्कूल न भेजें। 'फरमान' जारी करने से पहले पर्सनल लॉ बोर्ड के पास न तो गीत का प्रामाणिक अनुवाद था, और न ही उस भाषा की जानकारी जिसमें यह गीत लिखा है।  आज तक उन्होंने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि क्या वे सिर्फ  स्कूलों में राष्ट्रीय गीत गाए जाने के विरोधी हैं या फिर संसद जहां हर सत्र का समापन वंदेमातरम् से होता है और राजनैतिक दल, जिनके हर अधिवेशन में वंदेमातरम् गाया जाता है, उसके मुसलमान सदस्यों पर भी वह यही हुक्म जारी करेंगे? .... कोई व्यक्ति अगर गाना नहीं चाहता, तो हम कानून बना लें, तो भी उसे मजबूर नहीं कर पाएंगे, लेकिन क्या हम यह अधिकार किसी व्यक्ति या पर्सनल लॉ बोर्ड को दे सकते हैं कि वह राष्ट्रीय गीत का विरोध करे, गाने से परहेज करे? दूसरों को विरोध के लिए भड़काना और उकसाना केवल राष्ट्रीय प्रतीक का अपमान और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है।''
आरिफ मुहम्मद खान, नजमा हेपतुल्ला जैसे मुसलमानों की बात सुनी जानी चाहिए। देश में ऐसी हरकतों के खिलाफ विरोध मुखर हो रहा है। और 'सेक्युलर' महारथी भी देश के मिजाज को भांप रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने में आया महाराष्ट्र विधानसभा में, जब कांग्रेस और एनसीपी के विधायक भी अपने केंद्रीय नेतृत्व द्वारा रखी गई मिसालों के उलट 'भारत माता की जय' न बोलने वाले एआईएमआईएम के विधायक को निलंबित करने के लिए भाजपा-शिवसेना विधायकों के साथ आ खड़े हुए। माहौल भांपते हुए ओवैसी भी लीपापोती करने आए और बोले 'भारत माता की जय' नहीं 'जय हिंद' बोलूंगा। अभिनेत्री शबाना आजमी ने ओवैसी पर कटाक्ष किया कि चलो 'भारत अम्मी की जय' ही बोल दो। सोशल मीडिया उबला भी और ओवैसी का मखौल भी उड़ाया कि 'नहीं बोलूंगा-नहीं बोलूंगा' कहकर एआईएमआईएम प्रमुख ने बार-बार 'भारत माता की जय' तो बोली ही।  

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