भारत का प्रथम जलियांवाला : मानगढ़ हत्याकाण्ड





जनजातीय पावन क्रांति के प्रतिक - गोविन्द गुरू

- अरविन्द सिसोदिया , कोटा , राजस्थान 
शाहिदों की चिताओं पर हर बरस लगेंगें मेले,
वतन पर मिटने वालों का बाकि बस यही निशां होगा।

राजस्थान के ठीक दक्षिण में स्थित बांसवाडा जिले के सुदूर दक्षिण पश्चिम में आनंदपुरी  (भूखिया) पंचायत समिति मुख्यालय से 1४ किलोमीटर पर अरावली की पर्वतमालाओ के बीच गुजरात व राजस्थान की सीमा पर मानगढ पठार स्थित है। यह मानगढ धाम के नाम से प्रसिद्ध है एवं इतिहास में यह राजस्थान के जालियांवाला कांड के नाम से भी जाना जाता है।
मानगढ धाम स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिये दिये गए बलिदान का अनुभूत तीर्थ है। गोविन्द गुरू इसके प्रमुख नायक थे, जो कि डूंगरपुर जिले के धम्बोला-सागवाडा रोड पर बासियां गांव में २० दिसम्बर 1858 को गोवारिया जाति के भील बंजारा परिवार में जन्मे थे। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के एवं उदारचरित्र के गोविन्द की शिक्षा गांव के पुजारी के घर हुई। धार्मिक भावना, देशभक्ति व संस्कारों के कारण गोविन्द को साधु-संत की सेवा एवं सत्संग में आनन्द आने लगा। अपने जीवन के युवा काल में वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आकर उनके विचारों व सिद्धांतों से ज्यादा प्रभावित हुए व समाजसेवा में जुड गयें।
गोविन्द गुरू ने २२ वर्ष की उम्र में सुराता पाल में भील जाति का एक सम्मेलन कर ‘सम्प सभा’ नामक संगठन खडा किया, जिसका उद्देश्य सुसंस्कारित, शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वतन्त्रता प्रेमी समाज का निर्माण करना था। १८९९ के दुर्भिक्ष के समय गोविन्द ने लोगों की सहायता कीं । सहकार का सन्देश दिया और शासन से लगान माफ करने के लिये जोरदार आवाज उठायी। एक तरफ सामंती शासन की बेगारी प्रथा से और अग्रेंजी शासन की गुलामी से उत्पीडित समाज में निर्भिकता व आत्मगौरव जगाने की दृष्टि से उन्होनें १९०२ में सम्प सभा का दूसरा सम्मेलन बांसियां गांव में बुलाया और वहां प्रमुख भक्तों को शिक्षा-दीक्षा देकर सम्मानित किया। इसी सभा में ११ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। इन सिद्धांतों को प्रत्येक नागरिक को अपनाने पर जोर दिया गया एवं इसी सिद्धांतों से जनजातिय जीवन में नई क्रांति का सुत्रपात हुआ।
सम्प सभा के सिद्धांतों एवं लोक गीतों में स्वतन्त्रता, स्वदेशी और स्वावलम्बन के विचार थें तो भाक्ति व जीवन की पवित्रता तथा सामाजिक सद्भाव आर्य समाज के सन्देश थे। जब-जब भी समाज सुधार व सामाजिक संगठन की भनक सामंती शासकों को होती थी, तब दमन चक्र प्रारंभ हो जाता था। डूंगरपुर के तत्कालिन राजा ने अपने शासन पर मंडराते खतरें को देखकर आनन-फानन में गोविन्द गुरू को गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन रियासत में इसका असर शुरू हो गया,
जनजातिय असंतोष व आक्रोश चरम पर पहुंच गया व विद्रोह की तैयारी होने लगी। गुप्तचरों से शासन को पता चला तो कुरिया भगत को डूंगरपुर बुलाया गया तथा बातचित कर गोविन्द गुरू को रिहा किया गया। इसके बाद भी सम्प सभा का क्रांति धर्म नही रूका और यह ओर अधिक विस्तृत हो गया। गुजरात के पंचमहाल, संतरामपुर, मालवा में झाबुआ व वागड में मानगढ सम्प सभा के प्रमुख कार्यक्षेत्र बने और धुणियां स्थापित हुई। अब सम्प सभा के बढते प्रभाव को देखकर अंग्रेज सरकार जो कि ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में काम करती थी। वह भी सजग हो गई और वह भी इनके विरूद्ध सक्रीय हो गयी।
१९०३ में सम्प सभा नें एक निर्णय में तय किया गया कि अत्यधिक दूर्गम मानगढ पर सम्प सभा की प्रमुख धुणी प्रतिवर्ष माघ माह की पूणिमा के दिन लगायी जाएं ,जहां सत्तासिनों की पहुंच भी न हो सके। इसके उपरान्त इस मानगढ पठार पर सम्प सभा की धूणी स्थापित कर गोविन्द गुरू अपने शिष्यों व भक्तों के साथ हवन पूजन किया करते थे। जिसमें गुजरात, मालवा व वागड के भील बंधु सम्प सभा में आते थे यह एक मेले का स्वरूप ही होती थी।
प्रतिवर्ष की भांति 17 नवम्बर 1913 में माघ मास को पूर्णिमा पर सम्प सभा का विशाल मेला लगा था, दूर - दूर से गाते बजाते भीलों का हुजुम शामिल होने लगा। लगभग हजारों भीलों का सम्मेलन प्रारम्भ हुआ। संतरामपुर के शासक ने अवसर का लाभ उठाने की सोची व अफवाह फैला दी कि गोविन्द गुरू भील सेना के साथ आक्रमण की तैयारी कर रहा है। अंग्रेजी सरकार के राजनीतिक अधिकारियों के आदेश पर खेरवाडा छावनी की फौज के साथ डूंगरपुर, बांसवाडा,मालवा व पंचमहाल के सिपाहियों ने मानगढ को चारो तरफ से घेर लिया और भक्तों पर हमला बोल दिया ।
***मानगढ आदिवासी नरसंहार:अंग्रेजों की नृशंसता का घृणित उदाहरण
ब्रिटिश भारत सरकार ने 15 नवम्बर को ही लिख भेजा कि In circumstances explained Viceroy agrees to clearing of Mangarh Hill by Force. अर्थात् परिस्थितियों की विवेचना के अनुसार वायसराय  मानगढ़ पहाड़ी को बलपूर्वक खाली कराने को सहमत हैं।’’आदेश प्राप्त होते ही ब्रिटिश आसुरी बल मानगढ़ धाम के महायज्ञ को ध्वस्त करने के लिये बढ़ चला और वह ऐतिहासिक दिन आ गया जिस दिन मानवता कलंकित हुई तथा यज्ञ मण्डप में हवन करते वनवासियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया।’’ सैन्य कम्पनी एवं स्थानीय फौजों ने मानगढ़ पहाड़ी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया।
17 नवम्बर 1913 को सैन्य कम्पनी प्रातः 8.30 बजे पहाड़ी को चारों तरफ से घेरे हुए अंग्रेजों द्वारा फायर खोल दिया गया और पूँजा धीरा के वनवासि वीरों ने प्रतिकार करने की कोशिश की लेकिन अपार असुर सैन्य बल के समक्ष उनकी मार अधिक प्रतिकार नहीं कर सकी। लगभग 2 घण्टे तक अंग्रेजों, वनवासियों का आखेट करते रहे, निरुपाय भगतगणों के पीछे घोड़े दौड़ा दौड़ा कर गोलियों की बरसात करते रहे तथा औरतों और बच्चों पर भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहे। यज्ञविध्वंस हो गया तथा यज्ञ के अधिष्ठाता गोविन्द गुरु तथा उनके प्रखर सहयोगी पूँजा धीरा पारगी सहित अधिकृत रूप से 900 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। पॉलीटिकल एजेण्ट ने भारत सरकार को मानगढ़ पहाड़ी से ही टेलीग्राम कर यह सन्देश उसी दिन भिजवा दिया कि मानगढ़ पहाड़ी पर भीलों द्वारा प्रतिरोध के बावजूद प्रातः 11 बजे के लगभग कब्जा कर लिया गया है तथा हमारी तरफ से केवल एक व्यक्ति घायल हुआ है। हजारों लोगों के निर्मम एवं निर्दयतापूर्वक नरसंहार की सत्यता को छुपा लिया गया तथा 18 नवम्बर को पुनः टेलीग्राम द्वारा यह अवगत कराया गया कि अधिकांश भील मानगढ़ पहाड़ी से भाग गये तथा मात्र एक दर्जन भील अनुयायी मारे गये,900 हथियारबंद भीलों को गिरफ्तार किया गया।
यज्ञ, हवन, पूजन, कीर्तन में लीन हजारों भक्तों को कुछ भी पता नहीं चला और चारों ओर से गोलियां की बौछार होन लगी, लाशो के ढेर लगने लगे और लहु की सरिता बहने लगीं। हजारों भक्त मारे गये व गोविन्द गुरू तथा उनकी पत्नी को पकड लिया गया और उनको यातना देते हुए अहमदाबाद के सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया। गोविन्द गुरू को राजद्रोह के आरोप में फांसी की सजा सुनायी गयी। बाद में प्रीवी कौंसिल में अपिल करने पर उनकी फांसी की सजा माफ कर दस वर्ष की कारावास सजा दे दी गयी। घटनाक्रम परिवर्तित होत गये प्रथम महायुद्ध में विजयी की खुशी में अंग्रेज सरकार ने अनेक कैदियों को सजा माफ कर जेल से मुक्त कर दिया। उनमें गोविन्द गुरू भी थे।
गोविन्द गुरू की सिर्फ सजा ही माफ हुयी थी मगर राजपुताने में जाने की पाबंदी लगा दी थी। यह क्रांतिपुत्र अपने जीवन के उतरार्द्ध में गुजरात के कम्बोइ मे गुजर - बसर करने लगे थे एवं वहीं पर २० अक्टुम्बर १९३१ को इनका महाप्रयाण हो गया। कम्बोई में उनकी समाधि बनी हुई है जहाँ प्रतिवर्ष आखातीज व भादवी ग्यारस को मेला लगता है। गोविन्द गुरु के दो पुत्र थे - हरू (हरिगिर) व अमरू (अमरगिर)। उनके चार पौत्र आज भी हैं हरिगिर के मानसिंह व गणपत व अमरगिर के रामगिरजी व मोतीगिरजी।
मानगढ धाम पर सन् 1952 से गोविन्द गुरु के शिष्य जोरजी भगत ने यज्ञ कर पुनः धूंणी प्रज्वलित की। वर्तमान में इस स्थल पर हनुमान, वाल्मिक भगवान निष्कलंक, राधाकृष्ण, बाबा रामदेव, राम, लक्ष्मण, सीता एवं गोविन्द गुरु की मूर्तियां स्थापित है। गोविन्द गुरु द्वारा स्थापित धूंणी है जहां प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को हजारों देश भक्त श्रृद्धा से नतमस्तक होते हैं । घी, नारियल आदि सामग्री श्रृद्धर से हवन में डालते हैं। महंत नाथूरामजी इस स्थान की देख-रेख करते हैं। गुजरात तथा राजस्थान सरकार द्वारा दो सामुदायिक भवन बनाये गये हैं। राजस्थान सरकार द्वारा आनन्दपुरी से यहां तक पहुंचने के लिए 14 किलोमीटर तक डामर सड़क बनायी गयी है। आज मानगढ़ इस राष्ट्र की एतिहासिक धरोहर है तथा गोविन्द गुरु पूज्यनीय महापुरूष है, केवल इस क्षेत्र के भील समुदाय के ही नहीं इस राष्ट्र के जन-जन के लिए पूजनीय हैं।


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