क्रन्तिकारी तात्याटोपे को फांसी नहीं लगी थी
*** 1857 की क्रांति के महानायक तात्या टोपे ***
उस समय ब्रितानी भारत में व्यापार करने के लिये आए थे। लेकिन भारत के राजा आपसी फ़ूट के कारण आपस में ही झगड़ा किया करते थे इसलिये फ़िरंगी आसानी से यहां अपने पैर जमा पाए और तानाशाही कर पाए। ब्रितानियों ने बाजी राव पेशवा की सम्पत्ति हड़प ली व उनकी राजधानी को अपने अधिकार में ले लिया व उसके बदले में उन्हें 8 लाख रुपये दे दिये। बाजी राव ने उनकी तानाशाही मान ली और वहां से कानपुर चले गये। कई मराठा भी उनके साथ चले गये। उनके साथ पांडुराव व उनका परिवार भी चला गया लेकिन सभी में क्रांति की लहर दौड़ गयी। कुछ समय बाद बाजीराव पेशवा की मृत्यु हो गई। उनकी जगह नाना साहब को पेशवा बनाया गया, ये बहुत बहादुर थे। नाना साहब तांत्या टोपे के मित्र व सलाहकार थे।
कानपुर में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, नाना साहब ने क्रांति की लहर फ़ैलाई। इन सबने युद्ध किया। तांत्या टोपे को भी युद्ध विद्या का प्रशिक्षण दिया गया। इस समय लार्ड डलहौजी गवर्नर जनरल था। उसने मराठों से उनकी जमीन छीन ली व उन पर अपना धर्म अपनाने के लिये दबाव ड़ाला, लेकिन नाना साहब, कुंवर सिंह, लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे जैसे धर्मनिष्ठ व स्वतंत्रता प्रिय लोगों ने उनका विरोध किया व उनसे युद्ध करने को आमादा हो गए। लेकिन ब्रिटिश सरकार की सेना सशक्त्त थी व उनके पास घातक हथियार व गोला बारुद था जो भारतीयों के पास नहीं था, लेकिन मराठों ने हार नहीं मानी व साहस से उनका सामना किया। फ़लस्वरू प प्रबल सैन्य शक्ति के कारण मराठा उनका सामना अधिक समय तक नहीं कर पाये लेकिन उन्होंने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया व कई लोग आजादी के लिये वीर गति को प्राप्त हो गये। तात्या टोपे न पकड़े गये न फाँसी लगी |
रचनाकार : टी.आर.शर्मा
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007,
अंक : 1, पेज न. 82
1857 के स्वातंत्र्य समर के सूत्रधारो में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान है। वे क्रांति के योजक नाना साहब पेशवा के निकट सहयोगी और प्रमुख सलाहकार थे। वे एक ऐसे सेना-नायक थे जो ब्रिटिश सत्ता की लाख कोशिशों के पश्चात भी उनके कब्जे में नहीं आए। इनको पकड़ने के लिए अंग्रेज सेना के 14-15 वरिष्ठ सेनाधिकारी तथा उनकी 8 सेनाएं 10 माह तक भरसक प्रयत्न करती रहीं, परन्तु असफल रहीं। इस दौरान कई स्थानों पर उनकी तात्या से मुठभेड़ें हुई परन्तु तात्या उनसे संघर्ष करते हुए उनकी आँखों में धूल झोंककर सुरक्षित निकल जाते।
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज
उनको हुई कथित फाँसी के सम्बन्ध में तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने दस्तावेज तथा समकालीन कुछ अंग्रेज लेखक तथा बाद में वीर सावरकर, वरिष्ठ इतिहासकार आर. सी. मजूमदार व सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपने ग्रंथों में तात्या टोपे को 7 अप्रैल, 1859 में पाड़ौन (नवरवर) राज्य के जंगल से, उस राज्य के राजा मानसिंह द्वारा विश्वासघात कर पकड़वाना बताया है। 18 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में उनको फाँसी देने की बात भी लिखी गई है। कुछ समय पूर्व तक यही इतिहास का सत्य माना जाता रहा है। परन्तु गत 40-50 वर्षो में कुछ लेखकों व इतिहासकारों ने परिश्रम पूर्वक अन्वेषण कर अपने परिपुष्ट तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर इस पूर्व ऐतिहासिक अवधारणा को बदल दिया है।
"तात्या टोपे के कथित फाँसी - दस्तावेज क्या कहते हैं" नाम छोटी परन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक के रचियता गजेन्द्र सिंह सोलंकी तथा च् तात्या टोपे छ नामक ग्रंथ के लेखक श्री निवास बाला जी हर्डीकर ऐसे लेखको में अग्रणी हैं। दोनों ही लेखक इस पर सहमत हैं कि 18 अप्रैल को शिवपुरी में जिस व्यक्ति को फांसी लगी थी वह तात्या नहीं थे बल्कि वह तात्या के साथी नारायण राव भागवत थे। इनका कहना है कि राजा मानसिंह तात्या के मित्र थे। उन्होंने योजनापूर्वक नारायण राव भागवत को अंग्रेजों के हवाले किया और तात्या को वहाँ से निकालने में मदद की। जिन दो पंडितों का उल्लेख अंग्रेज लेखकों तथा भारतीय इतिहासकारों ने घोड़ो पर बैठकर भाग जाने का किया है, वे और कोई नहीं, तात्या टोपे और पं. गोविन्द राव थे जो अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर निकल गए।
वे मेरे बाबा थे |
राजा मानसिहं स्वयं अंग्रेजों के शत्रु थे और उनसे बचने के लिए, छिपकर पाडौन के जंगलों में रह-रहे थे। अंग्रेजों ने चालाकी से उनके घर की महिलाओ को बंदी बना दिया और उनको छोड़ने की शर्त जो अंग्रेजों ने रखी थी वह थी मानसिंह द्वारा समर्पण करना तथा तात्या को पकड़ने में मदद करना। यह बात तात्या को पकड़ने वाले प्रभारी अंग्रेज मेजर मीड ने स्वयं अपने पत्र में लिखी है। इस शर्त के बाद तात्या टोपे तथा राजा मानसिंह ने गम्भीर विचार विमर्श कर योजना बनाई, जिसके तहत मानसिंह का समर्पण उनके परिवार की महिलाओं का छुटकारा तथा कथित तात्या की गिरफ्तारी की घटनाएं अस्तित्व में आई।
इसमें ध्यान देने की बात यह है कि जिसको स्वयं मेजर मीड ने भी लिखा है कि तात्या को पकड़ने के लिए राजा मानसिंह ने अपने ऊपर जिम्मेदारी ली थी। यह तात्या को पकड़ने की एक शर्त थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने (मेजर मीड के द्वारा) स्वीकार किया था। वास्तव में यह राजा मानसिंह व तात्या की एक चाल थी।
नारायण राव भागवत को लगी फाँसी के सम्बन्ध में जो एक महत्वपूर्ण तथ्य दोनों लेखकों के सामने आया, उसका उल्लेख उन दोनों ने इस प्रकार किया है- 'बचपन में नारायण राव (तात्या के भतीजे) ग्वालियर में जनकंगज के स्कूल में पढ़ते थे, उस समय स्कूल के प्राधानाचार्य रघुनाथराव भागवत नाम के एक सज्जन थे। एक दिन रघुनाथ राव ने बालक नारायणराव को भावना पूर्ण स्वर में बताया कि "तुम्हारे चाचा फाँसी पर नहीं चढ़ाए गए थे। उनकी जगह फाँसी पर लटकाये जाने वाले व्यक्ति मेरे बाबा थे।" दोनों लेखकों के अनुसार उन्होंने स्वयं भी रघुनाथराव भागवत के बाबा को हुई फाँसी की बात का अनुमोदन उनके पौत्र रघुनाथराव के प्राप्त किया।'
चिट्ठियों के साख्य
"तात्या टोपे की कथित फाँसी दस्तावेज क्या कहते हैं?" पुस्तक के लेखक गजेन्द्र सिंह सोलंकी स्वयं राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह से उनके निवास पर मिले थे। जब राजा मानसिंह के कथित विश्वासघात की बात हुई तो उन्होंने इस बात को झूठा बताया। आग्रह करने पर उन्होंने लेखक को उनके पास पड़ा पुराना बस्ता खोलकर उसमें पड़े कई पत्र और दस्तावेज खोलकर दिखाए। जिसमें दो और पत्र थे जो तात्या जी की कथित फाँसी के बाद तात्या को लिखे गए थे।
संवत् 1917 (सन् 1960) में लिखी चिट्ठी का नमूना लेखक ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ 54 पर इस प्रकार दिया है-
"सिद्धे श्री राजे मान्य राजे श्री महाराज तांतिया साहिब पांडुरंग जी एतैसिद्ध श्री महाराजधिराज श्री राजा नूपसिंह जू देव बहादुर की राम-राम बांचने। आगे आपकी कृपा से भले हैं। आगे हम मुआने आइके राठ में पो होचे आपु के पास पौचत है इस वास्ते इतल करौ है आप के मोरचा लगै है जिसमे हमको कोई रास्ता मैं रोके नहीं जादा, शुभ मिती फागुन सुदी 6 सं. 1917"
इस पत्र की मूल प्रति अभिलेखागार भोपाल में तात्या टोपे की पत्रावली में सुरक्षित है। यह चिट्ठी राजा नृपसिंह द्वारा तात्या को लिखी गई है। तात्या को कथित फाँसी संवत् 1919 (सन् 1859) में लगी थी।
इस प्रकार संवत् 1918 में लिखी दूसरी चिट्ठी महारानी लडई रानी जू के नाम है, जो राव माहोरकर ने लिखी है जिसमें तात्या के जिंदा रहने का सबूत है। इस पत्र की फोटो प्रति लेखक ने अपनी पुस्तक में दी है।
इसके अतिरिक्त 2 अन्य पत्रों के अंश भी उस्क पुस्तक में दिये गये हैं, जिसमें तात्या को सरदार नाम से सम्बोधित किया गया है। जिसमें पहला पत्र राजाराम प्रताप सिंह जू देव का लिखा हुआ है, जो तातिया को कथित फांसी के एक वर्ष दो माह बाद का लिखा हुआ है। यह पत्र राजा मानसिंह को सम्बोधित किया गया है।
दूसरा पत्र भी राजा मानसिंह को सम्बोधित है और वह पं. गोविन्दराव द्वारा कथित फाँसी के चार वर्ष बाद का लिखा हुआ है।
प्रथम पत्र के अंश- "आगे आपके उहां सिरदार हमराह पं. गोविन्दराव जी सकुशल विराजते हैं और उनके आगे तीरथ जाइवे के विचार है आप कोई बात की चिन्ता मन में नल्यावें...."
दूसरे पत्र का अंश- "अपरंच आपको खबर होवे के अब चिंता को कारण नहीं रहियो खत लाने वारा आपला विश्वासू आदमी है कुल खुलासे समाचार देहीगा सरदार की पशुपति यात्रा को खरच ही हीमदाद (इमदाद) खत लाइवे वारे के हाथ भिजवादवे की कृपा कराएवं में आवे मौका मिले में खुसी के समाचार देहोगे।"
पाठकों को ज्ञात हो कि कालपी का युद्ध सरदार (तात्या) के नेतृत्व में लड़ा गया था। उसे सरदार घोषित किया गया था। जो बस्ता टीकमगढ़ से प्राप्त हुआ है उसमें भी तात्या को सरदार सम्बोधित किया गया है। इन दोनों चिट्टियों को राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह ने पहली बार सन् 1969 में घ् धर्म युग ' में प्रकाशित कराया था। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. मथुरालाल शर्मा ने इन पत्रों की अनुकृतियों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की तथा इसे सही घोषित करते हुए शोध के लिए उपयोगी बताया था।
तात्या के परिवार के सदस्य तात्या को फाँसी हुई नहीं मानते-
तात्या टोपे के परिवार के सदस्यों का भी यही कहना है कि उनको अंग्रेजों द्वारा फाँसी नहीं दी गई तथा उनकी मृत्यु बाद में हुई। इस सम्बन्ध में उपरोक्त दोनों लेखकों ने तात्या के परिवार के सदस्यों से हुई वार्ता का उपनी पुस्तकों में इस प्रकार उल्लेख किया है :-
1.बम्बई में 1857 के शताब्दी समारोह में तात्या टोपे के भतीजे प्रो. टोप तथा तात्या की भतीजी का सम्मान किया गया। अपने सम्मान का उत्तर देते हुए दोनों ने बताया कि तात्या को फाँसी नहीं हुई। उनका कहना था कि उनकी मृत्यु सन् 1909 ई. में हुई। तभी उनके विधिवत् संस्कार आदि किये गए थे।
2.तात्या के वंशज आज भी ब्रह्मावर्त (बिठूर) तथा ग्वालियर में रहते है। इन परिवारों का विश्वास है कि तात्या की मृत्यु फाँसी के तख्ते पर नहीं हुई। ब्रह्मावर्त में रहने वाले तात्या के भतीजे श्री नारायण लक्ष्मण टोपे तथा तात्या की भतीजी गंगूबाई (सन् 1966 में इनकी मृत्यु हो चुकी है) का कथन है कि वे बालपन से अपने कुटुम्बियों से सुनते आये हैं कि तात्या की कथित फाँसी के बाद भी तात्या अक्सर विभिन्न वेशों में, अपने कुटुम्बियों से आकर मिलते रहते थे। तात्या के पिता पांडुरंग तात्या 27 अगस्त 1859 को ग्वालियर के किले से, जहाँ वह अपने परिवार के साथ नजरबंद थे, मुक्त किये गए। मुक्त होने पर टोपे कुटुम्ब पुनः ब्रह्मावर्त वापिस आया। उस समय पांडुरंग (तात्या के पिता) के पास न पैसा था और न कोई मित्र था। इस संकट काल में तात्या वेश बदलकर अपने पिता से आकर मिले थे तथा घन देकर सहायता की थी।
3.सन् 1861 इं. में तात्या की सौतेली बहन (दूसरी माँ से) दुर्गा का विवाह काशी के खुर्देकर परिवार में हुआ था। श्रीनारायण राव टोपे का कथन है कि इस अवसर पर भी तात्या गुप्तवेश में उपस्थित हुए थे तथा उन्होंने विवाह के लिए आर्थिक सहायता की थी।
4.तात्या के पिता तथा उसकी सौतेली माता का कुछ ही महीने के अन्तर पर सन् 1862 में काशी में देहावसान हुआ। टोपे परिवार के लोगों का कहना है कि इस समय भी तात्या सन्यासी के वेश में अपने माता-पिता की मृत्यु-शय्या के पास उपस्थित थे।
5.ग्वालियर में रहने वाले श्री शंकर लक्ष्मण टोपे का कथन है कि जब वे 13 वर्ष के थे तो एक बार उनके पिता (तात्या के सौतेले भाई) बीमार हुए। उन्हें देखने के लिए एक संन्यासी आये। मेरे पिता ने मुझे बुलवाया और कहा कि ये तात्या हैं इन्हें प्रमाण करो। इस समय शंकर की आयु कोई 75 वर्ष की है। इनके अनुसार यह घटना सन् 1895 ई. के आस-पास की है अर्थात् तात्या की कथित फाँसी के 36 वर्ष बाद की।
ऐतिहासिक साक्ष्य
नजरबंदी से मुक्त होने के बाद तात्या के भाइयों को आर्थिक संकट के कारण जीविका की खोज में इधर-उधर भटकना पड़ा। उनके एक भाई रामकृष्ण 1862 ई. में बडौदा के महाराजा गायकवाड़ के पास पहुँचा। उनको उसने परिचय दिया मैं तात्या का भाई हूँ तथा नौकरी की खोज में यहाँ आया हूँ। महाराजा ने उसे गिरफ्तार कर उसे वहाँ के अंग्रेज रेजीडैंट को सौंप दिया। उसने राम कृष्ण से अनेक प्रश्न किये। उनमें एक प्रश्न यह भी था कि, "आजकल तात्या टोपे कहां पर हैं?" तात्या की कथित फाँसी के 3 वर्ष बाद एक जिम्मेदार अंग्रेज अफसर द्वारा ऐसा प्रश्न करना आश्चर्यजनक और संदेहास्पद था। रामकृष्ण ने इसके उत्तर में तात्या के बारे में मालूम न होने की बात कही।
इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख " सोर्समेटेरियल फॉर द हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवनमेन्ट इन इंडिया। (बोम्बे गवर्नमेन्ट रिकॉर्ड्स) वाल्युम 1 पी. पी. 231-237 पर अंकित है।"
यह प्रश्न राव साहब पेशवा पर चले मुकदमे (1862 में) के दौरान भी उनसे पूछा गया था, जो राव साहब की केस की मूल पत्रावली (फाईल) में अंकित है। तात्या के सम्बन्ध में उक्त प्रश्न उनकी फाँसी पर अंग्रेजों में व्याप्त संदेह को प्रकट करते हैं।
इतिहास की इस नई जानकारी के पक्ष में और भी कई तथ्य उक्त पुस्तकों में दिये गए हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं- पद्म स्व. डॉ. वाकणकर का कहना था कि अम्बाजी का प्रसिद्ध मंदिर तात्या टोपे द्वारा बनवाया गया। उस मंदिर के एक कोने में जो साधु वेश में चित्र लगा है, वह तात्या टोपे का ही है। गुजरात में नवसारी क्षेत्र में साधुवेश में उनकी प्रतिष्ठा चर्चित है।
बीकानेर के पुरालेखागार में 1857 के फरारशुदा लोगों की सूची में तात्या का भी नाम है। झांसी से प्रसारित एक भेंट वार्ता में तात्या के बच निकलने व उनकी मृत्यु के अनेक प्रसंग छपे हैं।
तात्या के मुकदमे में जो अत्यधिक शीघ्रता की गई उससे यह संदेह होने लगता है कि इस जल्दी की आड़ में सरकार कोई न काई बात छिपाने की कोशिश कर रही थी।
तात्या के हस्ताक्षर नहीं
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार तात्या टोपे के स्थान पर पकड़ गए व्यक्ति को जल्दी से जल्दी फाँसी पर लटकाकर छुट्टी पाना चाहती थी। पाठकों को मालूम हो कि कथित तात्या को 7 अप्रैल, 1859 को पड़ौन के जंगलों से पकड़ा गया। 15 अप्रैल 1859 को सैनिक अदालत में मुकदमा चलाया गया। उसी दिन फैसला सुनाकर 18 अप्रैल 1859 को सायंकाल फाँसी दे दी गई। शिवपुरी जहाँ उन्हें फाँसी दी गई वहाँ के विनायक ने अपनी गवाही में कहां कि में तात्या को नहीं पहचानता।
जो भी गवाह पेश किये गए वे सरलता पूर्वक अंग्रेज अफसरों द्वारा प्रभावित किये जा सकते थे। इनमे एक भी स्वतंत्र गवाह नहीं था। ब्रह्मवर्त (बिठूर) या कानपुर का एक भी गवाह नहीं था, जो तात्या को अच्छी तरह पहचानता हो।
फाँसी पर चढ़े तात्या टोपे ने अपने मुकदमे के बयान पर जो हस्ताक्षर किये वे मराठी भाषा की मोड़ी लिपि में इस प्रकार थे-"तात्या टोपे कामदार नाना साहब बहादुर" ये हस्ताक्षर फांसी पर चढ़े व्यक्ति ने अंग्रेजों को विश्वास दिलाने के लिए किये थे, क्योंकि अंग्रेज तात्या को इस नाम से पहचानते थे। महाराष्ट्र में हस्ताक्षर करने की जो पद्धति है उसमें सबसे पहले स्वयं का नाम, बाद में पिता का नाम तत्पश्चात् कुटुम्ब का नाम होता है। उसके अनुसार तात्या के हस्ताक्षर इस प्रकार होते- रामचन्द्र (तात्या का असलीनाम) पांडुरंग टोपे या रामचन्द्र राव या पंत टोपे। राव साहब पेशवा ने अपने मुकदमे के कागजों पर पांडुरंग राव ही हस्ताक्षर किये थे। उपरोक्त हस्ताक्षरों से स्पष्ट होता है कि वे तात्या के नहीं थे।
1857 की क्रांति के इस महानायक तांत्या टोपे का जन्म, 1814 में हुआ था। बचपन से ही ये अत्यंत सुंदर थे। तांत्या टोपे ने देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते प्राणो का त्याग कर दिया। इनका जन्म स्थल नासीक था। इनके बचपन का नाम रघुनाथ पंत था। ये जन्म से ही बुद्धिमान थे। इनके पिता का नाम पांडुरंग पंत था। जब रघुनाथ छोटे थे उस समय मराठों पर पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासन था। रघु के पिता बाजी राव के दरबार में कार्यरत थे। कई बार बालक रघु अपने पिता के साथ दरबार में जाते थे। एक बार बाजी राव बालक की बुद्धिमानी देखकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बालक को एक टोपी उपहार में दी और उन्होंने उनको तांत्या टोपे नाम दिया। उसी दिन से लोग इन्हें इसी नाम से पुकारने लगे।
उस समय ब्रितानी भारत में व्यापार करने के लिये आए थे। लेकिन भारत के राजा आपसी फ़ूट के कारण आपस में ही झगड़ा किया करते थे इसलिये फ़िरंगी आसानी से यहां अपने पैर जमा पाए और तानाशाही कर पाए। ब्रितानियों ने बाजी राव पेशवा की सम्पत्ति हड़प ली व उनकी राजधानी को अपने अधिकार में ले लिया व उसके बदले में उन्हें 8 लाख रुपये दे दिये। बाजी राव ने उनकी तानाशाही मान ली और वहां से कानपुर चले गये। कई मराठा भी उनके साथ चले गये। उनके साथ पांडुराव व उनका परिवार भी चला गया लेकिन सभी में क्रांति की लहर दौड़ गयी। कुछ समय बाद बाजीराव पेशवा की मृत्यु हो गई। उनकी जगह नाना साहब को पेशवा बनाया गया, ये बहुत बहादुर थे। नाना साहब तांत्या टोपे के मित्र व सलाहकार थे।
कानपुर में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, नाना साहब ने क्रांति की लहर फ़ैलाई। इन सबने युद्ध किया। तांत्या टोपे को भी युद्ध विद्या का प्रशिक्षण दिया गया। इस समय लार्ड डलहौजी गवर्नर जनरल था। उसने मराठों से उनकी जमीन छीन ली व उन पर अपना धर्म अपनाने के लिये दबाव ड़ाला, लेकिन नाना साहब, कुंवर सिंह, लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे जैसे धर्मनिष्ठ व स्वतंत्रता प्रिय लोगों ने उनका विरोध किया व उनसे युद्ध करने को आमादा हो गए। लेकिन ब्रिटिश सरकार की सेना सशक्त्त थी व उनके पास घातक हथियार व गोला बारुद था जो भारतीयों के पास नहीं था, लेकिन मराठों ने हार नहीं मानी व साहस से उनका सामना किया। फ़लस्वरू प प्रबल सैन्य शक्ति के कारण मराठा उनका सामना अधिक समय तक नहीं कर पाये लेकिन उन्होंने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया व कई लोग आजादी के लिये वीर गति को प्राप्त हो गये। तात्या टोपे न पकड़े गये न फाँसी लगी |
रचनाकार : टी.आर.शर्मा
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007,
अंक : 1, पेज न. 82
1857 के स्वातंत्र्य समर के सूत्रधारो में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान है। वे क्रांति के योजक नाना साहब पेशवा के निकट सहयोगी और प्रमुख सलाहकार थे। वे एक ऐसे सेना-नायक थे जो ब्रिटिश सत्ता की लाख कोशिशों के पश्चात भी उनके कब्जे में नहीं आए। इनको पकड़ने के लिए अंग्रेज सेना के 14-15 वरिष्ठ सेनाधिकारी तथा उनकी 8 सेनाएं 10 माह तक भरसक प्रयत्न करती रहीं, परन्तु असफल रहीं। इस दौरान कई स्थानों पर उनकी तात्या से मुठभेड़ें हुई परन्तु तात्या उनसे संघर्ष करते हुए उनकी आँखों में धूल झोंककर सुरक्षित निकल जाते।
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज
उनको हुई कथित फाँसी के सम्बन्ध में तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने दस्तावेज तथा समकालीन कुछ अंग्रेज लेखक तथा बाद में वीर सावरकर, वरिष्ठ इतिहासकार आर. सी. मजूमदार व सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपने ग्रंथों में तात्या टोपे को 7 अप्रैल, 1859 में पाड़ौन (नवरवर) राज्य के जंगल से, उस राज्य के राजा मानसिंह द्वारा विश्वासघात कर पकड़वाना बताया है। 18 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में उनको फाँसी देने की बात भी लिखी गई है। कुछ समय पूर्व तक यही इतिहास का सत्य माना जाता रहा है। परन्तु गत 40-50 वर्षो में कुछ लेखकों व इतिहासकारों ने परिश्रम पूर्वक अन्वेषण कर अपने परिपुष्ट तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर इस पूर्व ऐतिहासिक अवधारणा को बदल दिया है।
"तात्या टोपे के कथित फाँसी - दस्तावेज क्या कहते हैं" नाम छोटी परन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक के रचियता गजेन्द्र सिंह सोलंकी तथा च् तात्या टोपे छ नामक ग्रंथ के लेखक श्री निवास बाला जी हर्डीकर ऐसे लेखको में अग्रणी हैं। दोनों ही लेखक इस पर सहमत हैं कि 18 अप्रैल को शिवपुरी में जिस व्यक्ति को फांसी लगी थी वह तात्या नहीं थे बल्कि वह तात्या के साथी नारायण राव भागवत थे। इनका कहना है कि राजा मानसिंह तात्या के मित्र थे। उन्होंने योजनापूर्वक नारायण राव भागवत को अंग्रेजों के हवाले किया और तात्या को वहाँ से निकालने में मदद की। जिन दो पंडितों का उल्लेख अंग्रेज लेखकों तथा भारतीय इतिहासकारों ने घोड़ो पर बैठकर भाग जाने का किया है, वे और कोई नहीं, तात्या टोपे और पं. गोविन्द राव थे जो अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर निकल गए।
वे मेरे बाबा थे |
राजा मानसिहं स्वयं अंग्रेजों के शत्रु थे और उनसे बचने के लिए, छिपकर पाडौन के जंगलों में रह-रहे थे। अंग्रेजों ने चालाकी से उनके घर की महिलाओ को बंदी बना दिया और उनको छोड़ने की शर्त जो अंग्रेजों ने रखी थी वह थी मानसिंह द्वारा समर्पण करना तथा तात्या को पकड़ने में मदद करना। यह बात तात्या को पकड़ने वाले प्रभारी अंग्रेज मेजर मीड ने स्वयं अपने पत्र में लिखी है। इस शर्त के बाद तात्या टोपे तथा राजा मानसिंह ने गम्भीर विचार विमर्श कर योजना बनाई, जिसके तहत मानसिंह का समर्पण उनके परिवार की महिलाओं का छुटकारा तथा कथित तात्या की गिरफ्तारी की घटनाएं अस्तित्व में आई।
इसमें ध्यान देने की बात यह है कि जिसको स्वयं मेजर मीड ने भी लिखा है कि तात्या को पकड़ने के लिए राजा मानसिंह ने अपने ऊपर जिम्मेदारी ली थी। यह तात्या को पकड़ने की एक शर्त थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने (मेजर मीड के द्वारा) स्वीकार किया था। वास्तव में यह राजा मानसिंह व तात्या की एक चाल थी।
नारायण राव भागवत को लगी फाँसी के सम्बन्ध में जो एक महत्वपूर्ण तथ्य दोनों लेखकों के सामने आया, उसका उल्लेख उन दोनों ने इस प्रकार किया है- 'बचपन में नारायण राव (तात्या के भतीजे) ग्वालियर में जनकंगज के स्कूल में पढ़ते थे, उस समय स्कूल के प्राधानाचार्य रघुनाथराव भागवत नाम के एक सज्जन थे। एक दिन रघुनाथ राव ने बालक नारायणराव को भावना पूर्ण स्वर में बताया कि "तुम्हारे चाचा फाँसी पर नहीं चढ़ाए गए थे। उनकी जगह फाँसी पर लटकाये जाने वाले व्यक्ति मेरे बाबा थे।" दोनों लेखकों के अनुसार उन्होंने स्वयं भी रघुनाथराव भागवत के बाबा को हुई फाँसी की बात का अनुमोदन उनके पौत्र रघुनाथराव के प्राप्त किया।'
चिट्ठियों के साख्य
"तात्या टोपे की कथित फाँसी दस्तावेज क्या कहते हैं?" पुस्तक के लेखक गजेन्द्र सिंह सोलंकी स्वयं राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह से उनके निवास पर मिले थे। जब राजा मानसिंह के कथित विश्वासघात की बात हुई तो उन्होंने इस बात को झूठा बताया। आग्रह करने पर उन्होंने लेखक को उनके पास पड़ा पुराना बस्ता खोलकर उसमें पड़े कई पत्र और दस्तावेज खोलकर दिखाए। जिसमें दो और पत्र थे जो तात्या जी की कथित फाँसी के बाद तात्या को लिखे गए थे।
संवत् 1917 (सन् 1960) में लिखी चिट्ठी का नमूना लेखक ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ 54 पर इस प्रकार दिया है-
"सिद्धे श्री राजे मान्य राजे श्री महाराज तांतिया साहिब पांडुरंग जी एतैसिद्ध श्री महाराजधिराज श्री राजा नूपसिंह जू देव बहादुर की राम-राम बांचने। आगे आपकी कृपा से भले हैं। आगे हम मुआने आइके राठ में पो होचे आपु के पास पौचत है इस वास्ते इतल करौ है आप के मोरचा लगै है जिसमे हमको कोई रास्ता मैं रोके नहीं जादा, शुभ मिती फागुन सुदी 6 सं. 1917"
इस पत्र की मूल प्रति अभिलेखागार भोपाल में तात्या टोपे की पत्रावली में सुरक्षित है। यह चिट्ठी राजा नृपसिंह द्वारा तात्या को लिखी गई है। तात्या को कथित फाँसी संवत् 1919 (सन् 1859) में लगी थी।
इस प्रकार संवत् 1918 में लिखी दूसरी चिट्ठी महारानी लडई रानी जू के नाम है, जो राव माहोरकर ने लिखी है जिसमें तात्या के जिंदा रहने का सबूत है। इस पत्र की फोटो प्रति लेखक ने अपनी पुस्तक में दी है।
इसके अतिरिक्त 2 अन्य पत्रों के अंश भी उस्क पुस्तक में दिये गये हैं, जिसमें तात्या को सरदार नाम से सम्बोधित किया गया है। जिसमें पहला पत्र राजाराम प्रताप सिंह जू देव का लिखा हुआ है, जो तातिया को कथित फांसी के एक वर्ष दो माह बाद का लिखा हुआ है। यह पत्र राजा मानसिंह को सम्बोधित किया गया है।
दूसरा पत्र भी राजा मानसिंह को सम्बोधित है और वह पं. गोविन्दराव द्वारा कथित फाँसी के चार वर्ष बाद का लिखा हुआ है।
प्रथम पत्र के अंश- "आगे आपके उहां सिरदार हमराह पं. गोविन्दराव जी सकुशल विराजते हैं और उनके आगे तीरथ जाइवे के विचार है आप कोई बात की चिन्ता मन में नल्यावें...."
दूसरे पत्र का अंश- "अपरंच आपको खबर होवे के अब चिंता को कारण नहीं रहियो खत लाने वारा आपला विश्वासू आदमी है कुल खुलासे समाचार देहीगा सरदार की पशुपति यात्रा को खरच ही हीमदाद (इमदाद) खत लाइवे वारे के हाथ भिजवादवे की कृपा कराएवं में आवे मौका मिले में खुसी के समाचार देहोगे।"
पाठकों को ज्ञात हो कि कालपी का युद्ध सरदार (तात्या) के नेतृत्व में लड़ा गया था। उसे सरदार घोषित किया गया था। जो बस्ता टीकमगढ़ से प्राप्त हुआ है उसमें भी तात्या को सरदार सम्बोधित किया गया है। इन दोनों चिट्टियों को राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह ने पहली बार सन् 1969 में घ् धर्म युग ' में प्रकाशित कराया था। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. मथुरालाल शर्मा ने इन पत्रों की अनुकृतियों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की तथा इसे सही घोषित करते हुए शोध के लिए उपयोगी बताया था।
तात्या के परिवार के सदस्य तात्या को फाँसी हुई नहीं मानते-
तात्या टोपे के परिवार के सदस्यों का भी यही कहना है कि उनको अंग्रेजों द्वारा फाँसी नहीं दी गई तथा उनकी मृत्यु बाद में हुई। इस सम्बन्ध में उपरोक्त दोनों लेखकों ने तात्या के परिवार के सदस्यों से हुई वार्ता का उपनी पुस्तकों में इस प्रकार उल्लेख किया है :-
1.बम्बई में 1857 के शताब्दी समारोह में तात्या टोपे के भतीजे प्रो. टोप तथा तात्या की भतीजी का सम्मान किया गया। अपने सम्मान का उत्तर देते हुए दोनों ने बताया कि तात्या को फाँसी नहीं हुई। उनका कहना था कि उनकी मृत्यु सन् 1909 ई. में हुई। तभी उनके विधिवत् संस्कार आदि किये गए थे।
2.तात्या के वंशज आज भी ब्रह्मावर्त (बिठूर) तथा ग्वालियर में रहते है। इन परिवारों का विश्वास है कि तात्या की मृत्यु फाँसी के तख्ते पर नहीं हुई। ब्रह्मावर्त में रहने वाले तात्या के भतीजे श्री नारायण लक्ष्मण टोपे तथा तात्या की भतीजी गंगूबाई (सन् 1966 में इनकी मृत्यु हो चुकी है) का कथन है कि वे बालपन से अपने कुटुम्बियों से सुनते आये हैं कि तात्या की कथित फाँसी के बाद भी तात्या अक्सर विभिन्न वेशों में, अपने कुटुम्बियों से आकर मिलते रहते थे। तात्या के पिता पांडुरंग तात्या 27 अगस्त 1859 को ग्वालियर के किले से, जहाँ वह अपने परिवार के साथ नजरबंद थे, मुक्त किये गए। मुक्त होने पर टोपे कुटुम्ब पुनः ब्रह्मावर्त वापिस आया। उस समय पांडुरंग (तात्या के पिता) के पास न पैसा था और न कोई मित्र था। इस संकट काल में तात्या वेश बदलकर अपने पिता से आकर मिले थे तथा घन देकर सहायता की थी।
3.सन् 1861 इं. में तात्या की सौतेली बहन (दूसरी माँ से) दुर्गा का विवाह काशी के खुर्देकर परिवार में हुआ था। श्रीनारायण राव टोपे का कथन है कि इस अवसर पर भी तात्या गुप्तवेश में उपस्थित हुए थे तथा उन्होंने विवाह के लिए आर्थिक सहायता की थी।
4.तात्या के पिता तथा उसकी सौतेली माता का कुछ ही महीने के अन्तर पर सन् 1862 में काशी में देहावसान हुआ। टोपे परिवार के लोगों का कहना है कि इस समय भी तात्या सन्यासी के वेश में अपने माता-पिता की मृत्यु-शय्या के पास उपस्थित थे।
5.ग्वालियर में रहने वाले श्री शंकर लक्ष्मण टोपे का कथन है कि जब वे 13 वर्ष के थे तो एक बार उनके पिता (तात्या के सौतेले भाई) बीमार हुए। उन्हें देखने के लिए एक संन्यासी आये। मेरे पिता ने मुझे बुलवाया और कहा कि ये तात्या हैं इन्हें प्रमाण करो। इस समय शंकर की आयु कोई 75 वर्ष की है। इनके अनुसार यह घटना सन् 1895 ई. के आस-पास की है अर्थात् तात्या की कथित फाँसी के 36 वर्ष बाद की।
ऐतिहासिक साक्ष्य
नजरबंदी से मुक्त होने के बाद तात्या के भाइयों को आर्थिक संकट के कारण जीविका की खोज में इधर-उधर भटकना पड़ा। उनके एक भाई रामकृष्ण 1862 ई. में बडौदा के महाराजा गायकवाड़ के पास पहुँचा। उनको उसने परिचय दिया मैं तात्या का भाई हूँ तथा नौकरी की खोज में यहाँ आया हूँ। महाराजा ने उसे गिरफ्तार कर उसे वहाँ के अंग्रेज रेजीडैंट को सौंप दिया। उसने राम कृष्ण से अनेक प्रश्न किये। उनमें एक प्रश्न यह भी था कि, "आजकल तात्या टोपे कहां पर हैं?" तात्या की कथित फाँसी के 3 वर्ष बाद एक जिम्मेदार अंग्रेज अफसर द्वारा ऐसा प्रश्न करना आश्चर्यजनक और संदेहास्पद था। रामकृष्ण ने इसके उत्तर में तात्या के बारे में मालूम न होने की बात कही।
इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख " सोर्समेटेरियल फॉर द हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवनमेन्ट इन इंडिया। (बोम्बे गवर्नमेन्ट रिकॉर्ड्स) वाल्युम 1 पी. पी. 231-237 पर अंकित है।"
यह प्रश्न राव साहब पेशवा पर चले मुकदमे (1862 में) के दौरान भी उनसे पूछा गया था, जो राव साहब की केस की मूल पत्रावली (फाईल) में अंकित है। तात्या के सम्बन्ध में उक्त प्रश्न उनकी फाँसी पर अंग्रेजों में व्याप्त संदेह को प्रकट करते हैं।
इतिहास की इस नई जानकारी के पक्ष में और भी कई तथ्य उक्त पुस्तकों में दिये गए हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं- पद्म स्व. डॉ. वाकणकर का कहना था कि अम्बाजी का प्रसिद्ध मंदिर तात्या टोपे द्वारा बनवाया गया। उस मंदिर के एक कोने में जो साधु वेश में चित्र लगा है, वह तात्या टोपे का ही है। गुजरात में नवसारी क्षेत्र में साधुवेश में उनकी प्रतिष्ठा चर्चित है।
बीकानेर के पुरालेखागार में 1857 के फरारशुदा लोगों की सूची में तात्या का भी नाम है। झांसी से प्रसारित एक भेंट वार्ता में तात्या के बच निकलने व उनकी मृत्यु के अनेक प्रसंग छपे हैं।
तात्या के मुकदमे में जो अत्यधिक शीघ्रता की गई उससे यह संदेह होने लगता है कि इस जल्दी की आड़ में सरकार कोई न काई बात छिपाने की कोशिश कर रही थी।
तात्या के हस्ताक्षर नहीं
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार तात्या टोपे के स्थान पर पकड़ गए व्यक्ति को जल्दी से जल्दी फाँसी पर लटकाकर छुट्टी पाना चाहती थी। पाठकों को मालूम हो कि कथित तात्या को 7 अप्रैल, 1859 को पड़ौन के जंगलों से पकड़ा गया। 15 अप्रैल 1859 को सैनिक अदालत में मुकदमा चलाया गया। उसी दिन फैसला सुनाकर 18 अप्रैल 1859 को सायंकाल फाँसी दे दी गई। शिवपुरी जहाँ उन्हें फाँसी दी गई वहाँ के विनायक ने अपनी गवाही में कहां कि में तात्या को नहीं पहचानता।
जो भी गवाह पेश किये गए वे सरलता पूर्वक अंग्रेज अफसरों द्वारा प्रभावित किये जा सकते थे। इनमे एक भी स्वतंत्र गवाह नहीं था। ब्रह्मवर्त (बिठूर) या कानपुर का एक भी गवाह नहीं था, जो तात्या को अच्छी तरह पहचानता हो।
फाँसी पर चढ़े तात्या टोपे ने अपने मुकदमे के बयान पर जो हस्ताक्षर किये वे मराठी भाषा की मोड़ी लिपि में इस प्रकार थे-"तात्या टोपे कामदार नाना साहब बहादुर" ये हस्ताक्षर फांसी पर चढ़े व्यक्ति ने अंग्रेजों को विश्वास दिलाने के लिए किये थे, क्योंकि अंग्रेज तात्या को इस नाम से पहचानते थे। महाराष्ट्र में हस्ताक्षर करने की जो पद्धति है उसमें सबसे पहले स्वयं का नाम, बाद में पिता का नाम तत्पश्चात् कुटुम्ब का नाम होता है। उसके अनुसार तात्या के हस्ताक्षर इस प्रकार होते- रामचन्द्र (तात्या का असलीनाम) पांडुरंग टोपे या रामचन्द्र राव या पंत टोपे। राव साहब पेशवा ने अपने मुकदमे के कागजों पर पांडुरंग राव ही हस्ताक्षर किये थे। उपरोक्त हस्ताक्षरों से स्पष्ट होता है कि वे तात्या के नहीं थे।
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'फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को'
नई दिल्ली, रविवार, 18 अप्रैल 2010
भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे एक जनवरी 1859 को लड़ते हुए शहीद हुए थे।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि इस किताब को लिखने का विचार उन्हें आमिर खान की फिल्म ‘मंगल पांडे’ देखने के बाद आया। उन्होंने बताया कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे को लिखे गए 125 पत्र ‘खत ए शिकस्त’ में संग्रह किए गए हैं।
नई दिल्ली, रविवार, 18 अप्रैल 2010
भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे एक जनवरी 1859 को लड़ते हुए शहीद हुए थे।
तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे ने बताया मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।
उन्होंने बताया इस बारे में अंग्रेज मेजर पैजेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब 'कैम्प एंड कंटोनमेंट ए जनरल ऑफ लाइफ इन इंडिया इन 1857-1859' के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।
उन्होंने दावा किया तात्या टोपे के शहीद होने के बाद देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई थे तात्या टोपे।
हालाँकि प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र ने अपनी किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखा है, ‘‘तात्या टोपे ने अपनी इकाई के साथ अप्रैल 1859 तक गुरिल्ला लड़ाई जारी रखी, लेकिन एक जमींदार ने उनके साथ धोखा किया और अंग्रेजों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।’’
जामिया मिलिया विवि में इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने बताया इतिहास बताता है कि तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और मिलिट्री कोर्ट में सुनवाई के बाद 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी में फाँसी दे दी गई थी।
पराग ने दावा किया कि मैंने इस किताब में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रतीक चिन्ह ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ के रहस्य को भी सुलझाने की कोशिश की है।
उन्होंने बताया अंग्रेजी सेना की एक कंपनी में चार पलटन होती थीं। एक पलटन में 25 से 30 भारतीय सिपाही होते थे और पलटन का अधिकारी सूबेदार होता था, जो किसी भारतीय को अंग्रेजी सेना में मिलने वाला सबसे बड़ा पद होता था।
उन्होंने बताया विद्रोह से छह महीने पहले दिसंबर 1856 में सभी पलटन को ‘लाल कमल’ भेजा जाता था और मैदान में पलटन को पंक्तिबद्ध करके सूबेदार कमल की एक पंखुड़ी निकालता था और उसे सैनिक पीछे वालों को देते थे और सभी पंखुड़ियाँ निकालकर पीछे वाले को दे देते थे।
अंत में केवल डंडी बच जाती थी, जिसे वापस लौटा दिया जाता था। उन्होंने बताया डंडी से पता चलता था कि अंग्रेजी सेना की कुल कितनी पलटन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों के साथ है और लड़ने वालों की संख्या कितनी है।
पराग ने दूसरे प्रतीक चिन्ह ‘रोटी’ के बारे में बताया कि चार से छह चपातियाँ गाँव के मुखिया या चौकीदार को पहुँचाई जाती थीं। इसके टुकड़ों को पूरे गाँव में बाँटा जाता था, जिसके जरिये संदेश दिया जाता था कि सैनिकों के लिए अन्न की व्यवस्था करना है।
उन्होंने कहा कि यह पहली लड़ाई थी, जिसमें चिर विरोधी मुगल और मराठा एक साथ लड़े इसलिए यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। इस संग्राम के लिए तात्या टोपे ने कालपी के कारखाने में अस्त्र शस्त्र तैयार कराए थे और इसमें नाना साहब एवं बाइजाबाई शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि इस किताब को लिखने का विचार उन्हें आमिर खान की फिल्म ‘मंगल पांडे’ देखने के बाद आया। उन्होंने बताया कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे को लिखे गए 125 पत्र ‘खत ए शिकस्त’ में संग्रह किए गए हैं।
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