'सब्जी मंडी' बनी सियासत :अश्विनी कुमार
आज पंजाब केसरी का संपादकीय ,
देश के राजनैतिक वातावरण में आई
नैतिक पतन के ऊपर बड़ा सच है ।
हम संपादक जी अश्विनी कुमार को धन्यवाद देते हुए
साभार सहित संपादकीय को यथावत यहाँ प्रस्तुत करते हें :-
सम्पादकीय पंजाब केसरी अश्विनी कुमार
http://www.punjabkesari.com/Article_Minnaji/Main_Article.htm
विशेष लेख
'सब्जी मंडी' बनी सियासत
अश्विनी कुमार
क्या कमाल किया है एक गैर राजनीतिज्ञ कहे जाने वाले प्रधानमन्त्री ने कि पूरे मुल्क की सियासत को 'सब्जी मंडी' में बदल दिया है। क्या आंखें बन्द करके यह मुल्क बाजारवाद के साथ चला कि अब सभी को लग रहा है कि हम महान भारत के नागरिक हैं या दुनिया के सबसे बड़े बाजार के? क्या हिसाब से खुले बाजार की नीतियों के साथ भारत में अराजकता को बढ़ावा दिया जा रहा है? सरकार को कार्पोरेट घराने चला रहे हैं और सरकार उनकी एजैंट बनी हुई है। हम भूल रहे हैं कि यह मुल्क उस पं. नेहरू का है जिसने इस देश की भूखी और गरीब जनता से यह कहा था कि घबराने की जरूरत नहीं है, हम गरीब मुल्क नहीं हैं, हमारे अन्दर वह ताकत है जिसके बूते पर पूरी दुनिया में हम आगे बढ़ सकते हैं। हम भूल गये कि यह देश उस इन्दिरा गांधी का है जिसने डंके की चोट पर ऐलान किया था कि भारत को पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के लोगों की मदद करने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। हम यह भी भूल गये कि हमने अपने बूते पर इन्दिरा जी के शासनकाल में ही पैट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की पूरी योजना तैयार कर ली थी। हम यह भी भूल गये कि जमशेदपुर में स्टील कारखाना लगाने के लिए किस प्रकार टाटा समूह के संस्थापक जमशेद टाटा ने स्वयं लन्दन जाकर ब्रिटेन की महारानी से वहां की जमीन के पट्टे अपने नाम लिखाये थे। हमने 1991 में आम खाने के लालच में बबूल का पौधा अपनी जमीन में इस प्रकार रोपा कि आज पूरे देश में कांटे-कांटे ही बिखरे पड़े हैं। यह अर्थशास्त्र का सिद्धान्त है कि वह सीधे राजनीति को प्रभावित करता है। हमने एक अर्थशास्त्री को गद्दी पर बैठा कर सोचा कि वह राजनीति में कोरा होने की वजह से इस देश की राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित नहीं कर पायेगा मगर उसने ऐसी नीतियों का जाल बनाया कि पूरी राजनीति उसी के जंजाल में फंस कर रह गई और आज आलम यह है कि इस देश की 70 प्रतिशत जनता से कहा जा रहा है कि रोजाना सिर्फ 29 रुपए कमा
कर तुम गरीब नहीं हो सकते इसलिए आराम से जियो और मौज करो। दूसरी तरफ कुछ लोग सड़कों पर निकल कर शोर मचा रहे हैं कि मुल्क की सम्पत्ति को लूटा जा रहा है। निजी कम्पनियों ने लूट का बाजार गर्म कर रखा है मगर कोई इनसे यह तो पूछे कि ऐसा सब हो किस वजह से रहा है? इसका जवाब देने के लिए इनके पास अल्फाज नहीं हैं क्योंकि ये खुद भी किसी न किसी कम्पनी के हाथ के खिलौने बने हुए हैं। ये लोग स्वयं मौजूदा प्रणाली के पक्के और पुख्ता तौर पर समर्थक हैं तभी तो चुन-चुन कर केवल यही उजागर कर रहे हैं कि रिलायंस या टाटा समूह राजनीतिज्ञों से मिल कर नाजायज फायदा उठा रहे हैं।
सवाल यह है कि जब देश की आर्थिक नीतियां बना ही ऐसी दी गई हैं कि सरकार की जिम्मेदारी निजी कम्पनियां संभालेंगी तो राजनीति में कारोबारी को घुसने से कौन रोक सकता है। क्या पिछले वाजपेयी शासन के दौरान ऐसा नहीं हो रहा था जब देश की सार्वजनिक कम्पनियों को कौडिय़ों के दाम बेचा जा रहा था? असली सवाल तो नीतियों का है और इन नीतियों को लागू करने वाले डा. मनमोहन सिंह को केजरीवाल एंड पार्टी क्लीन चिट देकर कह रही है कि उन्हें कांग्रेसियों ने फंसा कर रखा हुआ है। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह को फंसने के लिए कहा किसने है? जाहिर है कि खेल बहुत बड़ा है और सब कुछ इस देश की संसदीय लोकतन्त्र प्रणाली को धार पर रख कर खेला जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो क्यों जुलाई 2008 में मनमोहन सरकार अमरीकी परमाणु करार के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त करती?
जरा ध्यान से सोचिये कि क्यों अरविन्द केजरीवाल एंड पार्टी खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर मनमोहन सिंह का विरोध न करके केवल भ्रष्टाचार के सतही मामलों की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट रखना चाहती है? क्यों यह मनमोहन सिंह की खुले बाजार की अन्तर्निहित भ्रष्ट व्यवस्था से लोगों का ध्यान हटा कर निजी व्यक्तियों के कारनामों पर ध्यान केन्द्रित करने के काम में लगी हुई है? हकीकत तो यह है कि मनमोहन सिंह की खुले बाजार की नीतियों ने राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को 'प्रोपर्टी डीलर' बना कर रख दिया है तो फिर चाहे किसी भी पार्टी का मुख्यमन्त्री हो वह बहती गंगा में हाथ धोये बिना कैसे रहेगा? जहां तक भाजपा और कांग्रेस का सवाल है तो मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां कांग्रेस की हैं ही नहीं। ये तो 1951 में लिखे गये जनसंघ के घोषणापत्र की नीतियां हैं जिनमें बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की पैरवी की गई है। यही तो कमाल करती है खुली बाजार अर्थव्यवस्था कि यह सभी राजनैतिक दलों का भेद भी मिटा देती है। जरा सोचिये कि किसानों की जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर संसद में पेश होने वाले विधेयक के बारे में भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाले लोग चुप क्यों हैं?
देश के राजनैतिक वातावरण में आई
नैतिक पतन के ऊपर बड़ा सच है ।
हम संपादक जी अश्विनी कुमार को धन्यवाद देते हुए
साभार सहित संपादकीय को यथावत यहाँ प्रस्तुत करते हें :-
सम्पादकीय पंजाब केसरी अश्विनी कुमार
http://www.punjabkesari.com/Article_Minnaji/Main_Article.htm
विशेष लेख
'सब्जी मंडी' बनी सियासत
अश्विनी कुमार
क्या कमाल किया है एक गैर राजनीतिज्ञ कहे जाने वाले प्रधानमन्त्री ने कि पूरे मुल्क की सियासत को 'सब्जी मंडी' में बदल दिया है। क्या आंखें बन्द करके यह मुल्क बाजारवाद के साथ चला कि अब सभी को लग रहा है कि हम महान भारत के नागरिक हैं या दुनिया के सबसे बड़े बाजार के? क्या हिसाब से खुले बाजार की नीतियों के साथ भारत में अराजकता को बढ़ावा दिया जा रहा है? सरकार को कार्पोरेट घराने चला रहे हैं और सरकार उनकी एजैंट बनी हुई है। हम भूल रहे हैं कि यह मुल्क उस पं. नेहरू का है जिसने इस देश की भूखी और गरीब जनता से यह कहा था कि घबराने की जरूरत नहीं है, हम गरीब मुल्क नहीं हैं, हमारे अन्दर वह ताकत है जिसके बूते पर पूरी दुनिया में हम आगे बढ़ सकते हैं। हम भूल गये कि यह देश उस इन्दिरा गांधी का है जिसने डंके की चोट पर ऐलान किया था कि भारत को पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के लोगों की मदद करने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। हम यह भी भूल गये कि हमने अपने बूते पर इन्दिरा जी के शासनकाल में ही पैट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की पूरी योजना तैयार कर ली थी। हम यह भी भूल गये कि जमशेदपुर में स्टील कारखाना लगाने के लिए किस प्रकार टाटा समूह के संस्थापक जमशेद टाटा ने स्वयं लन्दन जाकर ब्रिटेन की महारानी से वहां की जमीन के पट्टे अपने नाम लिखाये थे। हमने 1991 में आम खाने के लालच में बबूल का पौधा अपनी जमीन में इस प्रकार रोपा कि आज पूरे देश में कांटे-कांटे ही बिखरे पड़े हैं। यह अर्थशास्त्र का सिद्धान्त है कि वह सीधे राजनीति को प्रभावित करता है। हमने एक अर्थशास्त्री को गद्दी पर बैठा कर सोचा कि वह राजनीति में कोरा होने की वजह से इस देश की राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित नहीं कर पायेगा मगर उसने ऐसी नीतियों का जाल बनाया कि पूरी राजनीति उसी के जंजाल में फंस कर रह गई और आज आलम यह है कि इस देश की 70 प्रतिशत जनता से कहा जा रहा है कि रोजाना सिर्फ 29 रुपए कमा
कर तुम गरीब नहीं हो सकते इसलिए आराम से जियो और मौज करो। दूसरी तरफ कुछ लोग सड़कों पर निकल कर शोर मचा रहे हैं कि मुल्क की सम्पत्ति को लूटा जा रहा है। निजी कम्पनियों ने लूट का बाजार गर्म कर रखा है मगर कोई इनसे यह तो पूछे कि ऐसा सब हो किस वजह से रहा है? इसका जवाब देने के लिए इनके पास अल्फाज नहीं हैं क्योंकि ये खुद भी किसी न किसी कम्पनी के हाथ के खिलौने बने हुए हैं। ये लोग स्वयं मौजूदा प्रणाली के पक्के और पुख्ता तौर पर समर्थक हैं तभी तो चुन-चुन कर केवल यही उजागर कर रहे हैं कि रिलायंस या टाटा समूह राजनीतिज्ञों से मिल कर नाजायज फायदा उठा रहे हैं।
सवाल यह है कि जब देश की आर्थिक नीतियां बना ही ऐसी दी गई हैं कि सरकार की जिम्मेदारी निजी कम्पनियां संभालेंगी तो राजनीति में कारोबारी को घुसने से कौन रोक सकता है। क्या पिछले वाजपेयी शासन के दौरान ऐसा नहीं हो रहा था जब देश की सार्वजनिक कम्पनियों को कौडिय़ों के दाम बेचा जा रहा था? असली सवाल तो नीतियों का है और इन नीतियों को लागू करने वाले डा. मनमोहन सिंह को केजरीवाल एंड पार्टी क्लीन चिट देकर कह रही है कि उन्हें कांग्रेसियों ने फंसा कर रखा हुआ है। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह को फंसने के लिए कहा किसने है? जाहिर है कि खेल बहुत बड़ा है और सब कुछ इस देश की संसदीय लोकतन्त्र प्रणाली को धार पर रख कर खेला जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो क्यों जुलाई 2008 में मनमोहन सरकार अमरीकी परमाणु करार के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त करती?
जरा ध्यान से सोचिये कि क्यों अरविन्द केजरीवाल एंड पार्टी खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर मनमोहन सिंह का विरोध न करके केवल भ्रष्टाचार के सतही मामलों की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट रखना चाहती है? क्यों यह मनमोहन सिंह की खुले बाजार की अन्तर्निहित भ्रष्ट व्यवस्था से लोगों का ध्यान हटा कर निजी व्यक्तियों के कारनामों पर ध्यान केन्द्रित करने के काम में लगी हुई है? हकीकत तो यह है कि मनमोहन सिंह की खुले बाजार की नीतियों ने राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को 'प्रोपर्टी डीलर' बना कर रख दिया है तो फिर चाहे किसी भी पार्टी का मुख्यमन्त्री हो वह बहती गंगा में हाथ धोये बिना कैसे रहेगा? जहां तक भाजपा और कांग्रेस का सवाल है तो मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां कांग्रेस की हैं ही नहीं। ये तो 1951 में लिखे गये जनसंघ के घोषणापत्र की नीतियां हैं जिनमें बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की पैरवी की गई है। यही तो कमाल करती है खुली बाजार अर्थव्यवस्था कि यह सभी राजनैतिक दलों का भेद भी मिटा देती है। जरा सोचिये कि किसानों की जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर संसद में पेश होने वाले विधेयक के बारे में भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने वाले लोग चुप क्यों हैं?
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