राजनीति से अपराधियों का सफाया



आलेख दैनिक भास्कर में १ ३ जुलाई २ ० १ ३ के अंक में प्रकाशित हुआ है ...............
अभी तो हाल यह है कि सांसद व विधायक जेल में रहते हुए वोट देने जाते हैं और उम्मीदवारी का पर्चा भरकर चुनाव भी जीत जाते हैं 
राजनीति से अपराधियों का सफाया
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
http://epaper.bhaskar.com/jaipur/14/13072013/0/1/
राजनीति से अपराधियों की सफाई करने में सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला काफी मददगार सिद्ध होगा। अब तक कानून इतना अधिक ढीला-ढाला था कि अदालतों में अपराध सिद्ध हो जाने और सजा की घोषणा हो जाने के बावजूद हमारे सांसदों और विधायकों का बाल भी बांका नहीं होता था। न तो वे जेल जाते थे और न ही उनकी सदस्यता छिनती थी, क्योंकि वे जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार तीन माह के अंदर उस फैसले के विरुद्ध ऊंची अदालत में अपील कर देते थे। अपील तो अपील होती है। द्रौपदी के चीर से भी लंबी! उस पर फैसला आए, उसके पहले ही अगला चुनाव आ जाता है। यानी आप रिंद के रिंद रहे और हाथ से जन्नत भी न गई।

सर्वोच्च न्यायालय ने अब जो फैसला दिया है, उसके अनुसार ज्यों ही किसी सांसद या विधायक के विरुद्ध दो साल से अधिक की सजा का फैसला आया नहीं कि उसकी सदस्यता तत्काल समाप्त हो जाएगी। वह चुनाव लडऩे लायक भी नहीं रहेगा और जब तक सजा भुगतेगा, वोट देने लायक भी नहीं रहेगा। अभी तो हाल यह है कि सांसद और विधायक महोदय जेल में रहते हुए ही वोट देने भी जाते हैं और अपनी उम्मीदवारी का पर्चा भी भरते हैं। अनेक स्वनामधन्य नेताओं ने जेल में रहते हुए ही चुनाव भी जीते हैं।

चुनाव आयोग ने कोशिश की थी कि वह अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को जरा चिह्नित करे। उसने यह प्रावधान कर दिया था कि हर उम्मीदवार पर्चा भरते समय स्पष्ट करे कि उस पर कौन-कौन से मुकदमे चल रहे हैं और उसे किन-किन मामलों में सजा हुई है। इस तरह की जानकारी सार्वजनिक करना कुछ लाभदायक जरूर सिद्ध हुआ, लेकिन हमारी राजनीति में अपराधियों का बोलबाला बना रहा। कुल 4807 सांसदों और विधायकों में से 1460 ने अपने शपथ-पत्रों में कहा है कि उन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। उनमें से भी 688 पर गंभीर अपराधों के आरोप हैं, जिनकी सजा कम से कम पांच साल से लेकर फांसी तक है। 543 सांसदों में से 162 और 4302 विधायकों में से 1258 पर मुकदमे चल रहे हैं। इन सांसदों और विधायकों में सभी पार्टियों के नेता हैं। अनेक मंत्री भी हैं, मुख्यमंत्री भी हैं। झारखंड, बिहार और उत्तरप्रदेश आगे-आगे हैं और देश के लगभग सभी प्रदेश उनके पीछे-पीछे हैं। सिर्फ मणिपुर ही ऐसा है, जिसके किसी भी विधायक पर कोई मुकदमा नहीं चल रहा है।

यह अनुसंधान का विषय है कि मणिपुर को यह बीमारी क्यों नहीं लगी? बाकी सब राज्यों में यह बीमारी क्यों फैलती जा रही है, यह सबको पता है। सभी राजनीतिक दल जान-बूझकर मक्खियां निगलते हैं। वे अपने अपराधी नेताओं की नस-नस से वाकिफ होते हैं लेकिन उन्हें फिर भी टिकट दे देते हैं। क्यों? सिर्फ इसलिए कि उनमें चुनाव जीतने की क्षमता है। आज के उम्मीदवारों की एकमात्र योग्यता यही है। शेष सारी योग्यताएं गौण हैं। सिद्धांत, विचारधारा, चरित्र, जनसेवा ये सब भूतकाल के गुण रह गए हैं। पार्टियों की अपनी छवि जनता में पतली पड़ गई है। पार्टियों का केंद्रीय नेतृत्व भी मतदाताओं को पहले की तरह अपने साथ बहाकर नहीं ले जा पाता है, इसलिए स्थानीय उम्मीदवारों के भरोसे पार्टियां चुनाव लड़ती हैं। पार्टियों को मजबूरी में अपराधियों को उम्मीदवार बनाना पड़ता है। ये बाहुबली लोग अन्य उम्मीदवारों के लिए पैसा और कार्यकर्ता भी जुटाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अब देश की समस्त पार्टियों की मदद करेगा। इस निर्णय की वजह से अपराधी सांसदों और विधायकों की काफी हद तक तुरंत छंटाई हो जाएगी। पार्टी नेताओं को किसी बदमगजी का शिकार नहीं होना पड़ेगा। पार्टियां ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाने में भी सावधानी बरतेंगी जिन्हें जीतने के बाद किसी भी समय इस्तीफा देना पड़े।

लेकिन यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि किसी सांसद को अपराधी सिद्ध होने पर सीट खाली करनी पड़े और उसके बाद वहां उपचुनाव में कोई अन्य व्यक्ति चुना जाए। और फिर यदि अपील में वही सांसद निर्दोष घोषित हो जाए तो क्या वह सीट उसे वापस मिल जाएगी या वहां तीसरी बार चुनाव करवाया जाएगा? या कोई ऐसा ्रावधान किया जाए कि जब तक उसकी अपील पर फैसला न हो जाए, वह सीट खाली ही रहे? लेकिन हमारी अदालतों की हालत देखते हुए यह फैसला भी कैसे ठीक कहा जा सकता है? अपील पर फैसला आने में चार-पांच साल भी लग सकते हैं। तो क्या वह सीट खाली ही पड़ी रहेगी? इसके अलावा आजकल केंद्र और प्रांतों की सरकारें बहुत ही अल्प बहुमत पर टिकी होती हैं। दो-चार सदस्य इधर से उधर हुए नहीं कि सरकार गई। ऐसी हालत में यह फैसला कहीं हमारे वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे को ही ढीला न कर दे? डर यह भी है कि अपने विरोधियों को धराशायी करने के लिए नेतागण जनता की बजाय जजों को अपना आधार न बना लें? जनाधार की बजाय कहीं जजाधार की राजनीति न चल पड़े? सत्तारूढ़ दल जजों को दबाने की पुरजोर कोशिश करें। इस फैसले के खिलाफ यह तर्क भी दिया जा रहा है कि आम नागरिक के मुकाबले नेताओं के मूलभूत अधिकार में कटौती की जा रही है। यानी उसकी अपील के पहले ही उसे अपराधी मान लिया जाएगा। इसका जवाब यही हो सकता है कि जिसकी उपलब्धि बड़ी होती है, उसका त्याग भी बड़ा होना चाहिए। नेता का आचरण अनुकरणीय होना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को उन वर्तमान सांसदों और विधायकों पर लागू नहीं किया है, जिन्होंने अभी अपीलें लगा रखी हैं। कुछ चमत्कारी परिणाम जरूर सामने आएंगे, लेकिन हम यह न भूलें कि सिर्फ अदालतों और कानून के दम पर हम राजनीति से अपराध और भ्रष्टाचार को खत्म नहीं कर सकते। हमारी अदालतों में तीन करोड़ मुकदमे पहले ही लटके हुए हैं और वे स्वयं भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हैं। अदालतों और संपूर्ण शासन व्यवस्था को स्वच्छ बनाए रखने के लिए जिस राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है, उसका आह्वान करने वाली शक्ति का उदय होना अभी शेष है।
राजनीतिक दल अपने अपराधी नेताओं की नस-नस से वाकिफ होते हैं, लेकिन उन्हें फिर भी टिकट दे देते हैं। सिर्फ इसलिए कि उनमें चुनाव जीतने की क्षमता है। आज के उम्मीदवार की एकमात्र योग्यता यही है।

drvaidik@gmail.com
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
------------------
संपादकीय
न्यायिक निर्णय और सुधार
जेल या हिरासत में रहते चुनाव नहीं लड़ा जा सकेगा, पटना हाईकोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है। उधर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य में जाति आधारित राजनीतिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है और ऐसी रैलियों केआयोजन के आरोपी प्रमुख दलों को नोटिस जारी किया है। यह निर्विवाद है कि इन दोनों फैसलों के पीछे मंशा राजनीति को स्वच्छ बनाना है। इस लिहाज से इन्हें सुधारवादी न्यायिक हस्तक्षेप कहा जा सकता है। इसके बावजूद इन निर्णयों ने राजनीतिक समुदाय के साथ-साथ लोकतांत्रिक जनमानस में कुछ आशंकाओं को जन्म दिया है तो उसके कारणों को अवश्य समझा जाना चाहिए। सिर्फ हिरासत में रहना अगर चुनाव लडऩे में अयोग्यता बन जाता है, तो इस प्रावधान केदुरुपयोग के सचमुच गहरे अंदेशे बने रहेंगे। विचारणीय है कि इससे राजनीति अपराधियों से मुक्त होगी या इससे नामांकन के दौरान अपने विरोधियों को जेल भिजवा देने के लिए राजनीतिक षड्यंत्रों को बढ़ावा मिलेगा? इसी तरह किसी जाति या समुदाय को अपनी बैठक या सभा करने के अधिकार से कैसे वंचित किया जा सकता है, अगर इस बात के प्रमाण न हों कि उससे सामाजिक वैमनस्य या हिंसा फैलाई जा रही है? जाति-मुक्त समाज बनाना भारतीय संविधान का लक्ष्य है। इस उद्देश्य से कोई असहमति नहीं हो सकती, लेकिन क्या ऐसा न्यायिक आदेशों से संभव है? सामाजिक या राजनीतिक सुधारों में कानून और अदालतों- दोनों की भूमिका है, लेकिन उसका सीमित संदर्भ है। जिन प्रथाओं या बुराइयों की जड़ें सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं या मानसिकता में हैं, उनमें समाधान का कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता। बल्कि कई मौकों पर तुरंत नतीजा पाने की बेसब्री या सुधार का अति-उत्साह विपरीत परिणाम देने वाले होते हैं। भारत में आधुनिक लोकतंत्र का प्रयोग छह दशक पहले गणतांत्रिक संविधान के लागू होने के साथ शुरू हुआ। इसमें अभी बहुत-सी खामियां हैं, लेकिन इसकी अपनी उपलब्धियां हैं। खामियों को दूर करने की इच्छा प्रासंगिक है। मगर इसमें यह ध्यान में रखना जरूरी है कि सुधार की प्रक्रिया जमीनी स्तर और जनता के बीच से ही शुरू हो सकती है, इसीलिए उपरोक्त दोनों फैसले स्वागतयोग्य होने के बावजूद कई आशंकाओं के जनक भी बने हैं।
---------------------

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

विश्व व्यापी है हिन्दुओँ का वैदिक कालीन होली पर्व Holi festival of Vedic period is world wide

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

कांग्रेस ने देश को भ्रष्टाचार, तुष्टीकरण और आतंकवाद दियाः भजन लाल शर्मा bjp rajasthan

भाजपा की सुपरफ़ास्ट भजनलाल शर्मा सरकार नें ऐतिहासिक उपलब्धियां का इतिहास रचा

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

कांग्रेस की हिन्दू विरोधी मानसिकता का प्रमाण

हमें वीर केशव मिले आप जबसे : संघ गीत

सिसोदिया से जब इस्तीफा लिया तो अब स्वयं केजरीवाल इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे - अरविन्द सिसोदिया

खींची राजवंश : गागरोण दुर्ग