हिन्दी बनें महारानी
- अरविन्द सीसोदिया
- देश के आम किसान , मजदूर और माध्यम वर्ग ने हिन्दी का साथ दिया इसी से हिन्दी आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा के स्थान पर पहुची है !
संस्कृत भाषा विश्व की आदि भाषा है और उससे ही तमाम भाषाओँ की उत्पत्ती हुई है , इस तरह के अनेकों शोध हुए हैं , मगर वे सभी तभी प्रकाश में आयेंगे जब भारतीय राजनीती अंग्रेजी करण से मुक्त होगी ...! मगर वर्तमान सच इतना है कि भारत में तमाम प्रांतीय भाषाएँ संस्कृत की पुत्रीयां हैं..! दुर्भाग्यवश देश की आजादी के समय वे नेता ज्यादा प्रभावी थे जो इग्लैंड में पढ़े थे और उसी से अपनी पहचान भारतीय राजनीति में रखते थे!
आज जब हम राष्ट्रहित , स्वाभिमान , स्वातंत्र्य मूल्यों और स्वदेशीकरण पर दृष्टिपात करते हैं , तो शर्मिंदगी से भर उठते हैं , हमें दूर दूर तक गुलामी की वे छायाएं साथ चलती महसूस होती हैं जिन्हें हम स्वतंत्रता आन्दोलन में छोड़ने की घोषणा करते थे! हमारे नेताओं ने निर्लज्जता कि तमाम सीमाओं को तोड़ते हुए , देश पर अघोषित ग़ुलामी पुनः लाद दी और उसी को विकास कि कड़ी बता दिया..! उनकी नालायकी , निकम्मेपन और कायरता के चलते , राष्ट्रघात की लिखी गईं इन इबारतों को मिटने के लिए एक नये असली स्वतंत्रता आन्दोलन अवश्य ही आने बाले के में सामने दिख रहा है!
जिस देश के नागरिकों को उनकी भाषा में न्याय उपलब्ध नही हो वहां अन्य बातों का क्या महत्व..! हमारा शस्त्र कहता है राजा वह होता है जो न्याय का शासन प्रजा को दे..! प्रजा हिन्दुस्तानी , राजा इंगलिश्तानी हो गया क्या करें ..? देश में जो चीजें प्रांतीय भाषा में दी जा सकती हैं उन्हें भी अंग्रेजी में चलाये जाने की अनुमत क्या देश के साथ बेईमानी नहीं है..? आप रेल का टिकिट , बिजली का बिल ,बैंक की पास बुक , पानी का बिल ,दूरभाष का बिल , दवाईयों के लेवल , सुझवों का पर्चा , भिन्न भिन्न प्रकार के सूचक बोर्ड : संकेतक, इस तरह की बहुतसी बातें हैं जो हिन्दी और अन्य प्रांतीय भाषाओं में की जा सकती हैं .. मगर आप विशिष्ट स्वार्थ से यह नहीं करना चाहते..! अनचाहे भी अप की मानसिक ग़ुलामी का यह लेवल है, बिल्ला है!
चीन ने अपनी भाषा को प्रथम स्थान दिया , आज वह विश्व की प्रथम भाषा है, सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति में से एक है, जापान भी अपनी ही भाषा में सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति में से एक है, हिदी भी तमाम अवरोध झेलते हुए भी आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है..! हुआ न आश्चर्य ..! जिसे विश्व भाषा का दर्जा देते हम नहीं थकते वह अंग्रेजी हमारे से नीचे है..! यह अतिश्योक्ति नहीं है , यह संयुक्त्त राष्ट्रसंघ की स्वीकारोक्ति है..! यह सब इस लिए हुआ कि हिन्दी में जान है , गहरी है , अभिव्यक्ति है..! प्रखरता है , माधुरी है और गंभीरता है!
मगर हमारी राजनीति ने वह किया जो अंग्रेज भी अपने शासन में नही कर सके, वह काम इंग्लैंड में पढ़े इन होनहार नेताओं ने कर दिया..! हिन्दी के साथ जितनी गद्दारी कांग्रेस के राजनेताओं के की उतनी ही वफादारी आम जानता ने की है , कुलीन वर्ग कहलाने वाले लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोडी क्यों कि उनके हित जुड़े हैं ..! देश के आम किसान , मजदूर और माध्यम वर्ग ने हिन्दी का साथ दिया इसी से हिन्दी आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा के स्थान पर पहुची है !
हिन्दी की क्षमता का इससे अधिक और क्या प्रमाण होगा कि देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था संसद कि तमाम कार्यवाहियां हिन्दी में रिकार्ड होती हैं और उन्हें पूरा देश उपयोग करता है , वह त्रुटीहीन होकर सबके उपयोग में आरही है! ज्यादातर मंत्रियों को हिन्दी में पत्र भेजें तो उसका जबाब हिन्दी में आता है.., अर्थात जब संसद की कार्यवाहियां हिन्दी में हो सकती है , उसमें भाषण हिन्दी में होते हैं , जब आप वोट मांगने जाते हैं तो हिन्दी में बोलते हैं फिर संविधान में अंग्रेजी शब्द ही क्यों..? न्यायालय में अंग्रेजी की बदिश क्यों ..? अब उन सभी विसंगतियों को ठीक किया जाना चाहिए जो हमारी भाषा को बाधा पंहुचा रही है..!
महात्मा गाँधी ने देश की स्वतंत्रता के बाद , हरिजन अखवार में लिख था, २१ सितम्बर १९४७ को , " मेरा कहना यह है की जिस तरह हमारी आजादी को छीनने वाले अंग्रेजों की सियासी हुकूमत को हमनें सफलतापूर्वक इस देश से निकाल दिया , उसी तरह हमारी संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को भी हमें यहाँ से निकाल देना चाहिए | हाँ व्यापार और राजनीति की अंतरराष्ट्रीय भाषा ने नाते अंग्रेजी का अपना स्वाभाविक स्थान हमेशा कायम रहेगा| "
जरुरत मातृभाषा का स्वाभाविक सवाभिमान जगाने की है , संविधान की धारा ३५० देश के प्रत्येक नागरिक को अधिकार देती है, कि वह संघ की भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी या राज्यों की भाषाओं में से किसी में भी , जिसे वह समझता है , अपनी व्यथा के निवारण का अनुरोध संघ या राज्यों के किसी भी अधिकारी या प्राधिकारी से कर सकता है | संविधान की धारा ३५१ हिन्दी भाषा के विकास के निर्देश संघ के कर्तव्य निर्धारित है , मगर संघ ने इस कर्तव्य की लीपा पोती मात्र की है |
जय हो कांग्रेस की बगावत की
काग्रेस के नेता विशेष कर जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभा भाई पटेल और मौलाना अब्दुल कलम आदि मुस्लिम और दक्षिण दवाव से परेशान थे , सविधान सभा के ३८५ सदस्य थे जो विभाजन के उपरांत २९८ रह गए थे , इनमें कांग्रेस के २०८ थे, नेता लोग इंग्लिश या हिन्दुस्तानी पर विचार कर रहे थे , मगर कांग्रेस में कुछ जाबांज राष्ट्र भक्त संविधान सभा के सदस्य एकत्र हुए और हिन्दी के पक्ष में जोरदार तरीके से खड़े हुए | तब संविधान सभा से पहले मसौदों पर कांग्रेस पार्टी में चर्चा होती थी , कांग्रेस के संसदीय दल में पहले जो तय होता था वही संविधान सभा में पारित होता था, कांग्रेस में भाषा संम्बन्धी मुद्दे पर जोरदार बहस के बाद संसदीय दल में वोटिग हुई , हिन्दी के पक्ष में ६३ मत , हिन्दुस्तानी के पक्ष में ३२ मत और इन दोनों के विरोध में १८ मत पड़े.., यह पहला वाक्या था जब जवाहरलाल नेहरु गुट पूरी तरह से हार गया था, यही हिन्दी की जीत बाद में संविधान सभा में १४ सितम्बर १९४९ को पारित हुई थी | १२ सितम्बर को पेश हुए इस मसोदे पर तीन दिन गरमा र्गार्म बहस चली , हिन्दी के पक्ष धर मानते थे कि कुल मिला कर अंग्रेजी को बनाये रखा गया, हिन्दी को ठगा गया | मगर बाद में जो राजनीति देश में आई वह डरपोक थी , उसने क्यों कर हिन्दी से धोका किया इस कि बहुत लम्बी कहानी है | मगर इतना तय है कि हम जितना हिन्दी को आगे बढाएंगे वह उतनी ही बढ़ेगी .., जन बल का मूल्य होता है यह अभी भी यह इसी के आधार पा अग्रसर है...!
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