बाबू राजेन्द्र प्रशाद : सोमनाथ मंदिर और वन्देमातरम के सम्मान के लिए हमेशा याद रहेंगे

- अरविन्द सीसोदिया
        सोमनाथ मंदिर  और वन्देमातरम के सम्मान के लिए हमेशा  याद रहेंगे , बाबू राजेन्द्र प्रशाद जी.., ये वे कार्य थे जिन्हें उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरु की इच्छा के विरुद्ध करते हुए नैसगिर्क न्याय की रक्षा की थी !
सोमनाथ मंदिर शिव ज्योतिर्लिग स्थापना
 सोमनाथ मंदिर शिव ज्योतिर्लिग है , महमूद गजनी से ओरंगजेब तक कितनी ही बार ध्वस्त किया गया ..! जब जूनागढ़ स्टेट का विलय भारत में हुआ , तब ९ नवंम्बर १९४७ को जूनागढ़ की जन सभा में केन्द्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जनसभा में घोषणा की कि " सोमनाथ  शिव ज्योतिर्लिग मंदिर " का जहाँ पूर्व में था वहीं पुनः  निर्माण  होगा ! इस जनसभा में उनके साथ लोक निर्माण एवं पुनर्वास मंत्री वी एन गाडगिल भी थे , नेहरूजी की तमाम अडंगे बाजी के वाबजूद गांधी जी की अनुमति से सोमनाथ का पुनः  निर्माण  केन्द्रीय खाध्य  एवं कृषी मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कि अध्यक्षता में गठित कमिटी द्वारा किया गया ..! किन्तु सरदार पटेल का इस दौरान निधन हो चुका था , मंदिर के पूर्ण निर्माण के पश्चात् उसकी ज्योतिर्लिग प्राण प्रतिष्ठा के लिए जब मुंशी ने उनसे आग्रह किया तो उन्होंने अनुमती देदी और तमाम नेहरु विरोध को नजर अंदाज कर वे प्राण प्रतिष्ठा  समारोह में गये .., उनके भाषण के अंश इस प्रकार से हैं "...सृष्टि अथवा ब्रह्माण्ड की रचना करने वाले ब्रम्हा भी भगवान विष्णु की नाभी में रहते हैं , इसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी सृजन - शक्ती और धार्मिक आस्था का वास होता है | जो संसार के बड़े-बड़े अस्त्र-शास्त्रों , बड़ी- बड़ी सेनाओं और सम्राटों की शक्ति से भी बढ़ कर है |   " 
"..अपने ध्वंसावशेषों  से ही पुनः - पुनः खड़ा होने वाला सोमनाथ का यह मंदिर पुकार - पुकार कर दुनिया से कह रहा है कि जिसके प्रति लोगों के ह्रदय में अगाध श्रद्धा है , उसे दुनिया की कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती ...., "
"...आज जो कुछ हम कर रहे हैं ;वह इतिहास के परिमार्जन के लिए नहीं है | हमारा एक मात्र उद्देश्य अपने परंपरागत मूल्यों, आदर्शों और श्रद्धा के प्रति अपने लगाव को एक बार फिर दोहराना है , जिन पर आदिकाल से ही हमारे धर्म और धार्मिक विश्वास की इमारत खडी हुई है | "
वन्दे मातरम को सामान दर्जा
 नेहरू जी में आश्चर्य जन बदलाव देखने को मिल रहा था .., स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो बातें उन्होंने कि वे अब प्रधान मंत्री बनने के बाद उनके ही विरुद्ध खड़े थे .., इसी तरह के मामलों में एक वन्दे मातरम को राष्ट्रगान  का दर्जा देने का विषय था , पूरा देश वन्दे मातरम को राष्ट्रगान  के रूप में देखना चाहता था , मगर नेहरूजी जन गण मन को राष्ट्रगान   बनने को आतुर थे और अंत तक निर्णय नहीं हो सका ..! भारतीय संविधान सभा के अंतिम दिन ..२४ जनवरी १९५० को बाबू राजेन्द्र प्रशाद जी ने संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते  अपने अध्यक्षीय संबोधन के द्वारा घोषणा की "..जिस गान के शब्द तथा स्वर 'जन गण मन ' के नाम से विख्यात हैं वह भारत का राष्ट्र गान है किन्तु उसके शब्दों में सरकार की आज्ञा से यथोचित अवसर पर हेर फेर किया जा सकता है | 'वन्दे मातरम' के गान का जिस का भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में ऐतिहासिक महत्त्व रहा है , 'जन गण मन' के सामान ही सम्मान किया जाएगा और उसका पद उसके सामान ही होगा |  " उन्होंने अपनी घोषणा के बाद कहा मुझे आशा है कि इस से सदस्यों को संतोष हो जायेगा | 
*** जीवन परिचय
    राजेन्द्र बाबू का जन्म बिहार प्रांत के सीवान जिले में जीरादेई नामक गाँव में ३ दिसंबर १८८४ को हुआ था। उनके पिता श्री महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता श्रीमति कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थी। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। सिर्फ बारह वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी के घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार मे किया करते थे।
स्वतंत्रता आंदोलन
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने "सर्चलाईट" और "देश" जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकंप पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन-राशि से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकंप के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।

1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में संभाला था।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार संभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहे। हिंदू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रूख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टांत छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करती रही।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राषट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। बाद के दिनों में उन्हें भारत सरकार द्वारा दिया जानेवाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
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डॉ . राजेन्द्र प्रसाद 

-भारत के प्रथम राष्ट्रपति का जन्म , बिहार के जिला सीवान में ३ जनवरी १८८४ को हुआ था। इनके पिता नाम महादेव सहाय तथा माता का नाम कमलेश्वरी देवी था।
-ये भारत के एक मात्र ऐसे प्रेसिडेंट थे जो अपनी तनख्वाह का चौथाई हिस्सा , संस्कृत के विद्यार्थियों को दे देते थे।
-विद्या के धनी डॉ राजेन्द्र प्रसाद गोल्ड मेडलिस्ट थे । परीक्षा में कहा जाता था-' अटेम्प्ट ऐनी फाइव '....राजेंद्र प्रसाद
सभी प्रश्न हल करके लिख देते थे - " चेक ऐनी फाइव '
- भारत का पहला संविधान १९४८-१९५० , डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बनाया था।
-इन्हें भारत के सर्वोच्च पुरस्कार 'भारत-रत्न ' से पुरस्कृत किया गया।
आजादी के बाद , गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को प्रधान मंत्री बनाना चाह तो इन्होने अस्वीकार कर दिया और नेहरु को बनाने के लिए कहा। फिर गांधी जी ने इन्हें राष्ट्रपति बनाना चाह तो इन्होने अस्वीकार करते हुए कहा की- " मैं कर्ज में डूबा हुआ हूँ और मैं नहीं चाहता की आजाद भारत का पहला प्रेसिडेंट कर्जदार हो। तब गाँधी जी ने जमुना लाल बजाज को बुलाकर इनको कर्ज-मुक्त कराया और तब ये राष्ट्रपति बने।
नेहरु जी द्वारा प्रस्तुत - ' हिन्दू कोड बिल ' को जब डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने लाया गया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया, काट-छाँटके बाद दुबारा लाया गया तो पुनः आपति जाहिर की, तीसरी बार में जाकर वह बिल पास` हुआ । तब तक उसका दो-तिहाई हिस्सा हटाया जा चूका था। यदि वो बिल उस समय पूरा पास हो जाता तो भारत का नैतिक मूल्य जो आज आजादी के साठ साल बाद गिरा है, वो तभी गिर चुका होता। उस बिल पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सख्त आपत्ति थी। उन्होंने लिखा है -- [" Had there been any clause of referendum in the constitution of India, the electorate would have decided the question. "]यानि, यदि यह संवैधानिक अधिकार जनता के पास होता तो यह बिल कभी पास नहीं होता।
२- डॉ राजेन्द्र प्रसाद -
-भारत के प्रथम राष्ट्रपति का जन्म , बिहार के जिला सीवान में ३ जनवरी १८८४ को हुआ था। इनके पिता नाम महादेव सहाय तथा माता का नाम कमलेश्वरी देवी था।
-ये भारत के एक मात्र ऐसे प्रेसिडेंट थे जो अपनी तनख्वाह का चौथाई हिस्सा , संस्कृत के विद्यार्थियों को दे देते थे।
-विद्या के धनी डॉ राजेन्द्र प्रसाद गोल्ड मेडलिस्ट थे । परीक्षा में कहा जाता था-' अटेम्प्ट ऐनी फाइव '....राजेंद्र प्रसाद सभी प्रश्न हल करके लिख देते थे - " चेक ऐनी फाइव '
- भारत का पहला संविधान १९४८-१९५० , डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बनाया था।
-इन्हें भारत के सर्वोच्च पुरस्कार 'भारत-रत्न ' से पुरस्कृत किया गया।
आजादी के बाद , गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को प्रधान मंत्री बनाना चाह तो इन्होने अस्वीकार कर दिया और नेहरु को बनाने के लिए कहा। फिर गांधी जी ने इन्हें राष्ट्रपति बनाना चाह तो इन्होने अस्वीकार करते हुए कहा की- " मैं कर्ज में डूबा हुआ हूँ और मैं नहीं चाहता की आजाद भारत का पहला प्रेसिडेंट कर्जदार हो। तब गाँधी जी ने जमुना लाल बजाज को बुलाकर इनको कर्ज-मुक्त कराया और तब ये राष्ट्रपति बने।

नेहरु जी द्वारा प्रस्तुत - ' हिन्दू कोड बिल ' को जब डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने लाया गया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया, काट-छाँटके बाद दुबारा लाया गया तो पुनः आपति जाहिर की, तीसरी बार में जाकर वह बिल पास` हुआ । तब तक उसका दो-तिहाई हिस्सा हटाया जा चूका था। यदि वो बिल उस समय पूरा पास हो जाता तो भारत का नैतिक मूल्य जो आज आजादी के साठ साल बाद गिरा है, वो तभी गिर चुका होता।

उस बिल पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सख्त आपत्ति थी। उन्होंने लिखा है -- [" Had there been any clause of referendum in the constitution of India, the electorate would have decided the question. "]

यानि, यदि यह संवैधानिक अधिकार जनता के पास होता तो यह बिल कभी पास नहीं होता।

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