अफजल गुरु : वोट बैंक बड़ा है कांग्रेस के लिए, देश की संसद की अपेक्षा ..!!

- अरविन्द सिसोदिया
 एक आदमी रात को एक गली के सामने ख़डा था। ""कौन हो ? "" वहां से गुजरते हुए चौकीदार ने क़डकककर पूछा। ""शेर सिंह।"" "" बाप का नाम ? "" "" शमशेर सिंह।"" "" कहां रहते हो ? "" ""शेरों वाली गली में।"" ""यहां क्यों ख़डे हो ? "" ""कैसे जाऊं कुत्ता भौंक रहा है।""
---यह वाक्य फेसबुक पर किसी के हैं ... , मुझे लगा यह भारत सरकार है..शायद अफजल गुरु को सजा नहीं दे पानें के कारण एसा बोल रही है ...!!!!  

महात्मा गांधी की हत्या ३० जनवरी १९४८ को हुई , उनके हत्या के दोषियों को १५ नवम्बर १९४९ को अम्बाला जेल में फांसी  दे दी गई..!! श्री माती इंदिरा गांधी की हत्या ३१ अक्टूबर १९८४ को हुई , उनकी हत्या के दोषियों ६ जनवरी १९८९ को फांसी  दे दी गई..!! राजीव गांधी की हत्या २१ मई १९९१ को हुई थी , मूल हत्यारा तो राजीव जी के साथ ही मर गया था ..! कुछ ने बाद में आत्म हत्या करली थी ..!! मगर देश की संसद पर हमला करने और देश प्रधानमंत्री सहित  अनेकों मंत्रियों और सांसदों को मार डालनें की कोशिस करनें वाले अफजल गुरु को सुनाई गई सजा देनें से , कांग्रेस सरकार क्यों बचा रही है  ...? क्या पाकिस्तान  से डरते हो ...! या आतंकवादियों से डरते हो ..!! या फिर संसद में हमला करवानें में शामिल थे  या सहमती थी ..??? कोई तो वजह बताओ की हम अफजल गुरु को इस लिए बचा रहे हैं ...!!
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नई दिल्ली. संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की दया याचिका अभी तक राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील को भेजी ही नहीं गई है। यह जानकारी केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने बुधवार को राज्यसभा में दी। चिदंबरम के इस बयान पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक हुई कि अफजल की याचिका पर अध्ययन जारी है। अभी उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा गया है। अफजल को संसद पर हमले का दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई गई है।
अल्पसंख्यक है इसलिए!
अफजल गुरु के मामले में चिदंबरम के बयान के जवाब में शिवसेना के मनोहर जोशी ने कहा, दोषी चूंकि अल्पसंख्यक समुदाय से है इसलिए सरकार इस पर फैसले में देरी कर रही है। उनके इस कथन पर सदन में हंगामा शुरू हो गया। उनके वक्तव्य को असंसदीय करार देते हुए चिदंबरम ने कहा कि ऐसे मामलों में फैसले काकिसी धर्म, जाति व नस्ल से कोई संबंध नहीं है। शोर-शराबे के बीच कई कांग्रेसी सांसदों ने जोशी की टिप्पणी को रिकॉर्ड से निकालने की भी मांग की।
भाजपा नेता एसएस अहलूवालिया के सवाल के जवाब में गृह मंत्री ने कहा कि उनके मंत्रालय ने अपने पास पहुंची 25 में से 23 दया याचिकाएं राष्ट्रपति को भेज दी हैं लेकिन अफजल गुरु की याचिका उनमें शामिल नहीं है। उसका अध्ययन किया जा रहा है। अहलूवालिया ने इसका कड़ा विरोध करते हुए पूछा कि 3 अक्तूबर 2006 को दायर याचिका पर अब तक फैसला क्यों नहीं हुआ जबकि कई मामलों में सालभर से भी पहले फैसले ले लिए गए।
दया याचिका भेजने की नई प्रक्रिया:
इस पर गृहमंत्री ने कहा कि याचिकाओं को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए एक नई प्रक्रिया अपनाई गई है। इसके तहत सजा की तारीख व गृह मंत्रालय में याचिका पहुंचने के दिन के आधार पर इन्हें राष्ट्रपति को भेजा जाता है। चिदंबरम ने बताया कि अप्रैल 1998 से अब तक राष्ट्रपति को 28 याचिकाएं भेजी गई हैं। इनमें से केवल दो पर फैसला हुआ है।
उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति के यहां होने वाली देरी पर टिप्पणी नहीं कर सकते। राष्ट्रपति को सजा माफी के अधिकार के सवाल पर उन्होंने कहा कि कानून इस मामले में स्पष्ट है और इसे बदलने का कोई आधार नहीं है।

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क्या देश से भी बड़ा है वोट बैंक




रणविजय सिंह
समूह संपादक, राष्ट्रीय सहारा
बीते गुरुवार को 26/11 को मुबंई में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा के. मोहनन ने संसद भवन के नजदीक विजय चौक के पास आत्मदाह कर लिया.
दिल दहला देने वाली इस घटना ने हर देशभक्त नागरिक को झकझोर कर रख दिया. उनके पास मिली डायरी में उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार किया है. मलयाली भाषा में उन्होंने लिखा है कि 'जिन आतंकवादियों ने उनके भतीजे को गोलियों से भून डाला, उसको फांसी देने में सरकार ढिलाई बरत रही है. इस मुद्दे पर राजनीति की जा रही है, इससे उनका परिवार दुखी है. यह घटना सरकार की आंखें खोलने के लिए काफी है. क्योंकि अन्य कई आतंकी घटनाओं में फांसी की सजा काट रहे आतंकियों के खिलाफ फैसला लेने में सरकार की अनिर्णय की स्थिति और मामला जानबूझ कर लटकाये जाने से शहीदों के परिजन बेहद आहत हैं. इतना ही नहीं शहीद परिवारों के लिए की गई घोषणाओं तक को पूरा नहीं किया जा सका है. इस हीलाहवाली के खिलाफ पीड़ित परिवारों ने समय-समय पर गुस्से का इजहार भी किया है पर वह नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है. इसी उपेक्षा और हताशा की परिणति है मोहनन के आत्मदाह की घटना.
चाहे करगिल का युद्ध रहा हो अथवा देश के विभिन्न हिस्सों में हुए आतंकी घटनाएं, हमारे जवानों ने जान की बाजी लगाकर उनके मंसूबों को तोड़ा है. क्या विडम्बना है कि हमारे नेता शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए आतंकियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की घोषणा करते हैं अौर उनके परिवारों को सहयोग का आश्वासन देते हैं लेकिन अमल करने के नाम पर सरकारें सुस्त होती हैं. समय-समय पर पीड़ित परिवार इस ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराते हैं, जो अखबारों की सुर्खियां बनती हैं किन्तु सरकारी स्तर पर उनकी समस्याएं दूर करने की दिशा में प्रयास नहीं होते. आतंकी घटनाओं में फांसी की सजा पाये आतंकियों को फांसी देने का सवाल मोहनन की तरह अनेक शहीदों के परिजन उठाते रहे हैं. संसद तक में इसकी गूंज उठ चुकी है. वैसे जिन आतंकियों को फांसी की सजा मिल चुकी है, उन पर कार्रवाई का मामला गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति भवन के बीच शटल-कॉक बना हुआ है. ऐसे में शहीद परिवारों का आक्रोश स्वाभाविक है. मोहनन के इस कृत्य को मैं व्यक्तिगत रूप से कायरतापूर्ण कदम मानता हूं. उन्हें अपना क्षोभ जताने के लिए आत्मदाह की जगह पूरी दुनिया में सबसे लोकप्रिय गांधीवादी तरीका अपनाना चाहिए था. लेकिन जो मूल सवाल है, उस पर पक्ष-विपक्ष किसी की भी प्रतिक्रिया नहीं आ रही है, जो दु:खद है.
इसी 21 फरवरी से संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है. देखते हैं, यह सवाल उठता है या हंगामे और सरकारी काम-काज के मुद््दों के बीच दबकर रह जाता है. शहीदों के परिजन तल्ख लहजे में कहते हैं कि 24 दिसम्बर, 1999 में आई.सी. 814 विमान का आतंकियों ने अपहरण कर लिया था. उसमें सवार यात्रियों को बचाने के लिए तत्कालीन सरकार ने जेल में बंद तीन खूंखार आतंकवादियों-मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को कंधार ले जाकर छोड़ा था, जिसमें हमारे पड़ोसी देश की अहम भूमिका थी. सवाल है कि विभिन्न आतंकी हमलों के लिए जिम्मेदार फांसी सजायाफ्ता आतंकियों को फांसी देने में सरकार हीलाहवाली क्यों कर रही है? इससे आतंकियों का मनोबल टूटने की जगह बढ़ रहा है. खुफिया एजेंसियां समय-समय पर देश के विभिन्न शहरों में आतंकी खतरे से सचेत कर रही हैं और सरकार आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध भी दिखती है पर जेल में बंद इन आतंकियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई न कर पाने के कारण वह देश और दुनिया के उन देशों के बीच कड़ा  संदेश नहीं दे पा रही है, जो आतंकवाद के सफाये की जंग में शामिल हैं. उल्टे इस पर राजनीति हो रही है. इसके विपरीत पीड़ित परिवारों को सुविधाएं मुहैया कराने में सरकार की उदासीनता किसी से छुपी नहीं है. मैं पाठकों को याद दिलाना चाहूंगा कि संसद पर हमले में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए हर साल शोकसभा होती है, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर बड़े नेता शामिल होते हैं किन्तु सरकार की गैर जिम्मेदाराना नीति के चलते 13 दिसम्बर, 2008 को अपने गुस्से का इजहार करने के लिए इसमें पीड़ित परिवार के लोग शामिल ही नहीं हुए थे. उस समय खूब शोर मचा था किन्तु सरकार ने उससे भी कोई सबक नहीं लिया. इतना ही नहीं, करगिल में शहीद जवानों के परिवारों को सरकार ने पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी देने की घोषणा की थी. किन्तु 37 परिवारों को ये सुविधाएं अब तक नहीं मिल सकी हैं. ये केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच खींचतान के चलते इन सुविधाओं से वंचित हैं. इतना ही नहीं, मुंबई हमले के एक साल बाद संसद में शहीदों को श्रद्धांजलि देते समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया था कि अब तक केवल एक चौथाई पीड़ितों को ही मदद दी गई है. तब सरकार के पास कोई जवाब नहीं था. राज्यसभा में जब आरोप लगाया गया कि मदद के लिए दी गयी धनराशि के सरकारी चेक बाउंस हो रहे हैं तो संसद में सन्नाटा छा गया था. उस दौरान गृहमंत्री ने नौकरशाही की विफलता का रोना रोया था. दु:खद यह है कि मुंबई हमले में मारे गये इकहत्तर लोगों के परिवारों के बैंक डिटेल राज्य सरकार केन्द्र को नहीं भेज सकी थी, जिनके लिए सरकारी मदद की घोषणा की गयी थी.
देश की सीमाओं की रक्षा हो अथवा आतंकी हमला व कोई त्रासदी, हमारे जवान अपने कत्र्तव्य का पालन करते हुए हंसते-हंसते जान की बाजी लगा देते हैं. उन्हें अपने फर्ज के आगे परिवार तक की चिंता नहीं होती. किन्तु शहादत के बाद सरकार का उपेक्षापूर्ण रवैया शेष जवानों का मनोबल कमजोर करता है. यही कारण है कि सेना में भर्ती के प्रति लोगों का आकर्षण घट रहा है. एक रिकार्ड के अनुसार सेना में अफसरों के 11153 पद रिक्त हैं तो लगभग 1500 अफसरों ने वीआरएस मांगा है. एयरफोर्स के 250 पाइलट नौकरी छोड़ने का आवेदन कर चुके हैं, जिसको लेकर हंगामा मच चुका है. इसलिए सरकार को सेना और सुरक्षाबलों की सेवाओं को और आकर्षक बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए. साथ ही कत्र्तव्य निर्वहन के दौरान शहीद होने वाले परिवारों को दी जाने वाली सुविधाएं यथाशीघ्र मुहैया करानी चाहिए. केन्द्र को ऐसा कानूनी प्रावधान करना चाहिए ताकि राज्य सरकारें उसके अनुपालन के लिए बाध्य हों. तभी पीड़ित परिवारों के टूटते विश्वास पर विराम लग सकेगा.
      सरकार को इस दिशा में सोचने की जरूरत है. आतंकी वारदातों से लहूलुहान भारत पर इसीलिए नरम राष्ट्र होने के आरोप लग रहे हैं. आतंकियों के हाथों बार-बार चोट खाने के बावजूद उनके सफाये के प्रति हम गंभीर नहीं दिखते. सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि आतंक के खिलाफ लड़ाई में उसे वोट बैंक दिख रहा है. इसीलिए जेलों में बंद आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में वह हीलाहवाली कर रही है, जिसका खमियाजा अन्तत: निर्दोष जनता और देश को भुगतना पड़ रहा है. आश्चर्य यह है कि अदालत से फांसी की सजा सुनाये जाने के बावजूद सरकार किसी न किसी बहाने मामलों को लटकाये हुए है और भारत आतंकवादियों का चरागाह बनता जा रहा है. वोट बैंक की राजनीति करने वालों के लिए सत्ता सुख देश से बढ़कर हो गया है. ऐसी स्थिति में सरकार को के. मोहनन की घटना को सहजता से नहीं लेना चाहिए. इसे शहीदों के परिवारों की  अकुलाहट का प्रतीक मानना चाहिए. इसलिए सरकार को जेल में बंद आतंकियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने में देर नहीं करनी चाहिए.

टिप्पणियाँ

  1. ha desh se bada wot baink ---bina wot ke satta me kaise baithege ,abhi aap bacche hai ho sakta apki umra adhik ho par ap kangres ko nahi jante --sekret hai sekret .

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