प्रसिद्ध हिंगलाज माता मंदिर के महंत के अपहरण पर पाक में प्रदर्शन
प्रसिद्ध हिंगलाज माता मंदिर के महंत के अपहरण पर पाक में प्रदर्शन
9 Apr 2012,पीटीआईइस्लामाबाद : पाकिस्तान के बलूचिस्तान में प्रसिद्ध हिंगलाज माता मंदिर के महंत गंगा राम मोतियानी का पुलिस वर्दी में आए दो लोगों ने अपहरण कर लिया है। मंदिर में सालाना तीर्थयात्रा शुरू होने से दो दिन पहले यह घटना हुई। भारत से भी बहुत से लोग यहां आते हैं। हिंदू संगठन इसे तीर्थयात्रा नाकाम करने की साजिश बताते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच , सिंध प्रांत में हिंदु लड़कियों को अगवा करके धर्म परिवर्तन कराने की घटनाएं बढ़ने का विरोध तेज हो गया है। कई राजनीतिक दलों ने संसद की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं। आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही है।
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थारौ पंथ खड्गों धार ए। हींगोल बेड़ौ पार ए।।
-तरुण विजय
बलूचिस्तान में हिंगलाज शक्तिपीठका गुफा में स्थित मंदिर
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अघोर के पास हिंगोल (या हिंगुला) नदी।
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विन्दर से अघोर और ग्वादर की दूरी दर्शाता एक मील का पत्थर
कराची से हिंगलाज तक यात्रा में विभाजन से पहले 45 दिन लगते थे। ऊंटों के सहारे बलूचिस्तान का रेगिस्तान पार करते-करते और वनस्पतिहीन पहाड़ों से गुजरते हुए यात्री का दम अब निकला, तब निकला जैसा हाल हो जाता था। दिल्ली में प्रभात जी ने देवदत्त शास्त्री जी द्वारा लिखित "आग्नेय तीर्थ हिंगलाज" पुस्तक दी। इसमें उन्होंने 1940 में की गई हिंगलाज यात्रा का बहुत रोमहर्षक वर्णन किया है। इस पुस्तक की प्रस्तावना का एक अंश मैं यहां उद्धृत कर रहा हूं ताकि पाठकों को इस यात्रा की पृष्ठभूमि का तनिक अंदाजा हो सके-
ब्राह्मरन्ध्रं हिंङ्गुलायां भैरवोभीमलोचन:।
कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी।।
(तन्त्रचूड़ामणि, पीठमाला 7)
ब्रिटिश शासनकाल में बलूचिस्तान तीन हिस्सों में बंटा हुआ था। एक भाग ब्रिटिश बलूचिस्तान कहलाता था, जहां अंग्रेजी शासन था, दूसरा भाग स्वाधीन या करद राज्य था जो लासबेला और कलासकी रियासतों के अधीन था। तीसरा भाग ईरान के अन्तर्गत था। अब ईरानी बलूचिस्तान को छोड़कर शेष दोनों भाग पाकिस्तान के अन्तर्गत हैं।
जब पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ था और भारत की पश्चिमी सीमा अफगानिस्तान और ईरान थी, उस समय हिंगलाज तीर्थ हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ तो था ही, बलूचिस्तान के मुसलमान भी हिंगला देवी की पूजा करते थे, उन्हें "नानी" कहकर मुसलमान भी लाल कपड़ा, अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र-फलुल और सिरनी चढ़ाते थे। हिंगलाज शक्तिपीठ हिन्दुओं और मुसलमानों का संयुक्त महातीर्थ था।
कदाचित् आपको मरुस्थल की यात्रा करने का अवसर न मिला हो तो आप सहज भाव से ऊंट वाले से पूछ सकते हैं कि हिंगलाज महातीर्थ कितने मील दूर होगा। इस प्रश्न का उत्तर मैं आपको बता दूं कि उनकी दृष्टि में रेगिस्तान के मील के पत्थर रेगिस्तान के जहाज ऊंट होते हैं। रेगिस्तान में जहां पर जितने दिनों में ऊंट आपको पहुंचा दें, उस स्थान की दूरी उतने दिन की समझ लीजिए। मील और कोस का गणित वहां काम नहीं करता है। कराची से ऊंट चन्द्रकूप होकर 25 दिन में हिंगलाज पहुंचता है और लौटते समय चंद्रकूप न जाने से 5 दिन की बचत हो जाती है सो 20 दिन में कराची लौटकर पहुंचते हैं। इस तरह ऊंट की गति के पैमाने से कराची से हिंगलाज तक जाने-आने में 45 दिन लगते हैं, कोई-कोई एक महीना में भी आते-जाते रहे हैं।
हिंगलाज की यात्रा महायात्रा के समान है, जीवन-जीविका का मोह छोड़कर महाप्रस्थान करने के तुल्य है। मैंने अनुभव किया कि केवल दो तरह के यात्री हिंगलाज जाते हैं। एक तो घुमक्कड़, फक्कड़, अवधूत या यायावर अथवा योगी, विरागी। दूसरे प्रकार के वे यात्री होते हैं जो पाप कर्म से छुटकारा पाने के लिए अथवा नि:सन्तान दम्पत्ति सन्तान का मुंह देखने की कामना लेकर जाते हैं। ऐसे लोग पाप-शाप-ताप से मुक्त होते हैं या नहीं, यह तो अन्तर्यामी ही जानें, किन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि प्राणों को हथेली पर रखकर जब भावुक भक्त प्रस्थान करता है तब उसे शुद्ध सतोगुणी बने रहने की शपथ लेनी पड़ती है। प्रथम दिन संन्यास ग्रहण करने की शपथ तब तक के लिए लेनी पड़ती है जब तक लौटकर उस स्थान पर न आ जायें। एक और निर्दयी शपथ यह लेनी पड़ती है कि कोई यात्री यात्राकाल में अपने किसी सहयात्री को अपनी सुराही का पानी न दे; चाहे वह पुत्र हो या पिता, मां हो या बेटा, पत्नी हो या पति। भले ही वह प्यास से तड़प-तड़प कर वीराने में मर जाये।
उस समय हिंगलाज यात्रा के लिए भारत के किसी कोने से भी आने वाले यात्री को कराची पहुंचना पड़ता था। वहां पर नाथ सम्प्रदाय के साधुओं के अखाड़े में एक-एक कर यात्री जमा होते थे, 20-25 यात्री इकट्ठा होने तक की प्रतीक्षा की जाती थी और सामान ढोने वाले ऊंटों के लिए भी रुकना पड़ता था। छड़ीदार (पुजारी या अगुवा) ऊंट वालों को, जो हिंगलाज के समीप रहने वाले थे, सन्देश भेजकर बुलाते थे। इस प्रतीक्षा में कभी-कभी महीना, डेढ़ महीना तक रुकना पड़ता था यात्री दल के चले जाने के बाद यदि और यात्री आते हैं, किन्तु संख्या में कम होते हैं तो उन्हें लौट जाना पड़ता था, अगले वर्ष तक के लिए वे फिर प्रतीक्षा करें।
छड़ीदार हिंगलाज यात्रा और देवी दर्शन कराने वाला तीर्थ-पुरोहित या पण्डा होता है। यह एकाधिकार नागनाथ के अखाड़ा के आस-पास बसे हुए कुछ परिवारों को वंश-परम्परा से प्राप्त है। प्रतिवर्ष जिस परिवार की पारी होती है, उस परिवार का व्यक्ति छड़ी लेकर यात्रियों के साथ जाता है। वही यात्री दल की अगुवाई करता है और उनके योग-क्षेम का उत्तरदायी बनता है।
छड़ी का भी विशेष महत्व और स्वरूप होता है। हिंगलाज पर्वत के किसी झाड़ की लकड़ी से वह छड़ी त्रिशूल के ढंग की बनाई जाती है। उस पर पताका लगाई जाती है और लाल, पीले, गेरुए रंग के कपड़ों से उसे ढंक दिया जाता है। जितने अधिक यात्री होते हैं, उतनी ही प्रसन्नता यात्रियों और छड़ीदार तथा ऊंट वालों को होती है। अधिक संख्या में यात्रियों के होने से डाकुओं का भय कम रहता है और छड़ीदार तथा ऊंट वालों को आमदनी अधिक होती है।
कराची से छह-सात मील चलकर "हाव" नदी पड़ती है। यहीं से हिंगलाज की यात्रा शुरू होती है। यहीं शपथ ग्रहण की क्रिया सम्पन्न होती है, यहीं पर लौटने तक की अवधि तक के लिए संन्यास ग्रहण किया जाता है। यहीं पर छड़ी का पूजन होता है और यहीं पर रात में विश्राम करके प्रात:काल हिंगलाज माता की जय बोलकर मरुतीर्थ की यात्रा प्रारंभ की जाती है।
(पुस्तक का नाम-आग्नेय तीर्थ हिंगलाज, लेखक-देवदत्त शास्त्री, प्रकाशक-लोकालोक प्रकाशन)
ता हिंगलाज की महिमा पुराणों और लोक साहित्य में अपरंपार है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में यूनानी लेखक टेसियस ने अपने यात्रा वृत्तांत में हिंगलाज का उल्लेख किया है। आनंद बाजार पत्रिका समूह के अध्यक्ष अवीक सरकार ने बताया कि बंगला में एक तांत्रिक की पुस्तक छपी थी-मरुभूमेर तीर्थ, जिस पर एक बंगला फिल्म भी बनी, जिसमें उत्तम कुमार ने अभिनय किया था। हिंगलाज माता के संबंध में 2500 वर्ष पुराने वृत्तांत और दस्तावेज तो मिलते ही हैं। इतने वर्षों से हजारों यात्री अपार कष्ट सहते हुए देवी दर्शन के लिए आते रहे हैं। और जैसा ऊपर देवदत्त शास्त्री जी की पुस्तक के अंश से ही पता चलता है, इस यात्रा का अर्थ था-दर्शन या देह त्याग। इसीलिए राजस्थान के लोक काव्य में हिंगलाज माता की वीरोचित स्तुति गाई गई है और तीर्थयात्री यह प्रार्थना करते हुए चलते थे-थारौ पंथ खड्गों धार ए, हींगोल बेड़ौ पार ए। यानी हे मां हिंगोल, तुम्हारे दर्शन का मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा विकट है। हे मां, मेरी नैया को पार लगाना और दर्शन देना। वास्तव में यहां के दर्शन का जो परंपरागत मार्ग है उसमें अनेक छोटे-छोटे पड़ाव आते हैं जो तीर्थ की भावना से जा रहे यात्री के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमारे साथ पहले दिन यात्रा सहायक के रूप में कराची के एक गाइड थे शिवजी ढंडास। मूलत: सूरत के रहने वाले परंतु पीढ़ियों से कराची में ही रहते हैं। उन्होंने बताया कि हिंगलाज जाने से पहले लासबेला में माता की मूर्त्ति के दर्शन करने होते हैं। वहां से शिव कुंड जाते हैं, वह लावे की तरह उबलता रहता है। इसे ही चन्द्र कूप भी कहते हैं। वहां नारियल डाले जाते हैं, जिसकी पाप से मुक्ति हो गई उसका नारियल स्वीकार कर लिया जाता है वरना नारियल वापस लौट आता है। पास में ही गणेश कुंड है जिसमें बड़ा मीठा जल है। उसके नीचे अघोर नदी है। अघोर नदी में इस समय काफी मगरमच्छ बताए जाते हैं। इस नदी के बारे में जगदीश खत्री जी ने कथा सुनाई। लंका विजय के बाद जब प्रभु श्रीराम ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उससे पूर्व प्रथा अनुसार कबूतरों को दाने फेंके तो उन्होंने वे दाने नहीं चुगे। ऋषियों ने रामचन्द्र जी को बताया कि ब्राह्म हत्या के पाप से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक आपके हाथ से कबूतर दाने नहीं लेंगे और इसके लिए आपको हिंगलाज में यज्ञ करना होगा। भगवान राम फिर हिंगलाज आए जहां उन्होंने यज्ञ किया और गुफा के गर्भगृह से निकले। इसके बाद ज्वार के दाने हिंगोल नदी में अर्पित किए। वे दाने ठूमरा बनकर उभरे और उसके बाद रामचन्द्र जी को ब्राह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली। ये दाने आज भी यात्री इकट्ठा करके लाते हैं और मानते हैं कि इन्हें पहनना या घर में रखना शुभ होता है। आज भी ये दाने हिंगोल नदी से ही एकत्र किए जाते हैं। नदी के पानी में ढूंढ कर उसी में माला बनानी होती है क्योंकि बाहर निकालते ही वे पत्थर जैसे सख्त हो जाते हैं। हमें बताया गया कि पास ही में एक तिल कुंड भी है जहां काले तिल डालें तो सफेद हो जाते हैं। वहीं रामचन्द्र जी के पद चिन्ह भी देखने को मिलते हैं। हिंगलाज माता के गुफा मंदिर के पास ही ऊपर पहाड़ी में एक दूसरी गुफा है जहां रामचन्द्र जी द्वारा उकेरे गए चन्द्र और सूर्य के चित्र हैं। वहां भी पूजा होती है।
हम हिंगोल नदी के पास से तो गुजरे परंतु वहां उतर नहीं सके, स्नान-आचमन की तो बात ही दूर है, शेष वर्णित स्थानों पर भी जाना संभव नहीं हुआ। कराची से रवाना होने से पहले जसवंत सिंह जी उस होटल में आए, जहां सब यात्री रुके थे। सबसे ठेठ मारवाड़ी में ही बात की और उत्साह बढ़ाया। वे स्वयं बलूचिस्तान में एक कठिन समय में पाकिस्तान सरकार द्वारा इस यात्रा को अनुमति दिए जाने से आनंदित भी थे और आश्चर्यचकित भी, बोले, "मेरे गांव वालों को यहां आने की इजाजत ही कैसे मिली, यह विश्वास नहीं होता।" कल रात ही होटल में महमूद शाम भाई ने हिंगलाज यात्रा में काम आने वाले आरामदेह खिलाड़ी जूते भिजवा दिए थे। वे पाकिस्तान के बहुत प्रसिद्ध शायर भी हैं और वहां के सबसे बड़े उर्दू दैनिक जंग समूह के समूह सम्पादक भी। इस तीर्थ यात्रा दल के आने का समाचार पाकर उनके मन में भी हिंगलाज के प्रति कौतुहल जागा था और वे पिछले हफ्ते वहां हो आए थे। उन्होंने बताया था कि हमारी सुविधा के लिए काफी इंतजाम किए गए हैं।
कराची से सुबह रवाना हुए तो हमारा गाइड बदल गया था। अब आए अब्दुल रज्जाक। वे मेमन मुसलमान और सूरत के ही रहने वाले। कहने लगे सूरतियों और मेमन मुसलमानों की यहां काफी धाक है। कई बैंक और उद्योगों के मालिक हैं। कराची में सूरती मुसलमानों का अपना अलग कब्रिस्तान है, जिसके बाहर बड़ा बोर्ड लगा है सूरती कब्रिस्तान। कराची की आबादी 1.14 करोड़ बताई जाती है, जिनमें प्राय: 15-16 लाख हिन्दू हैं। शहर से बाहर निकलते ही हर ओर जबरदस्त निर्माण कार्य देखने को मिलता है। "दो साल बाद आप कराची पहचान नहीं पाएंगे", रज्जाक ने कहा। फ्लाई ओवर, नई सड़कें, पुरानी सड़कों का चौड़ा किया जाना और नई भव्य इमारतों का निर्माण दिख रहा था। शहर के बाहर औद्योगिक क्षेत्र में हर फैक्ट्री में मस्जिद बनी हुई है। रज्जाक ने बताया कि फैक्ट्री में चौबीस घंटे काम होता है। नमाज पढ़ने के लिए कामगारों को छुट्टी देनी पड़ती है। अगर वे बाहर किसी मस्जिद में जाएंगे तो ज्यादा वक्त लगाएंगे। इसलिए फैक्ट्री में ही मस्जिद बनाना फायदे की बात है। लगभग बारह बजे हम बलूचिस्तान प्रांत की सीमा हुब पहुंचे। यहां बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री जाम यूसुफ अपने बेटे जाम कमाल के साथ आए हुए थे। यहां मुख्यमंत्री ने जसवंत सिंह जी से अपनी गाड़ी में बैठने का आग्रह किया और कारवां रवाना हुआ। चीन के साथ पाकिस्तान की गहरी सामरिक दोस्ती है और ग्वादर बंदरगाह तक साढ़े पांच सौ कि.मी. का तटीय राजमार्ग (पोस्टल हाईवे) चीन ने बनाकर दिया है। चीन को ग्वादर बन्दरगाह का उपयोग करने की सुविधा मिली है। यहां सब ओर चीन की छाप दिखती है। यहां के आटो रिक्शा चींग ची, चीन से आयातित हैं। यहां तक कि रास्ते में जो किटकैट चॉकलेट खरीदा उस पर भी लिखा था- चीन में निर्मित। हम मकरान के मनोरम संगमरमर क्षेत्र से गुजर रहे थे। आगे एक बोर्ड दिखा- वेलकम टू मार्बल सिटी-लाइडा। लगभग एक घंटे बाद हम विंदर कस्बे में रुके। गाड़ियों में डीजल भरवाया गया। यात्रियों ने चाय पी, पान खाए। यहां बेर 20 रुपए किलो है। मूंगफली के दाने 10 रुपए पाव, पिस्ता 20 रुपए का सौ ग्राम और चने तथा सूखे मेवों का मिक्सचर 80 रुपए का आधा किलो मिल रहा था। यहां आटा 16 रुपए किलो है, डीजल 37.26 रुपए प्रति लीटर और पेट्रोल 56 रुपए प्रति लीटर। यहां से अघोर 120 कि.मी. था। यह स्थान प्राचीन काल से अघोर तांत्रिकों का मुख्य केन्द्र रहा है। अघोरी वह स्थान है जहां राजा पोरस से युद्ध के बाद सिकंदर की सेनाएं लौटी थीं। यहां तक पूरा रास्ता बीयांबान, रेगिस्तान और दूर काष्ठ कृत्तियों सी सुंदर रेतीली पहाड़ियों का है। इस क्षेत्र में रेगिस्तान का अथाह सागर नीले पानी के खारे अरब सागर से सटा हुआ चलता है और रेतों के बड़े-बड़े टीले, छुटपुट झाड़ियां सागर की लहरों के समीप रहते हुए भी सदियों से प्यासी ही रही हैं। जल की अनंत राशि भी रेत के सागर को एक बूंद नहीं दे पाई, इससे बढ़कर विडम्बना क्या होगी? संध्या समय रेत के झिलमिल विस्तार से टकराती अनंत नीला भी जलराशि में सूर्यास्त की लालिमा एक जादुई चमत्कार का अहसास कराती है। अघोर पहुंच कर सब लोग कुछ समय रुके। वहां से हिंगलाज माता के मंदिर की ओर दाईं ओर रास्ता जाता है, जो हिंगोल नदी के किनारे-किनारे बना है। पाकिस्तान सरकार का वहां नानी मंदर के नाम से बोर्ड लगा है। श्रद्धा और सम्मान से हिंगलाज माता को बलोच मुस्लिम नानी पीर कहते हैं और शादी के बाद आशीर्वाद लेने आते हैं। यहां मोड़ पर भारत और पाकिस्तान के झंडे भी लगाए हुए थे तथा रास्ते के नवीनीकरण का शिलान्यास पट भी था। राष्ट्र ध्वजों पर नजर पड़ते ही हमने देखा तिरंगा उल्टा लगा हुआ था। सुरक्षा सैनिकों को बताया तो उन्होंने उसे तुरंत ठीक कर दिया। शिलान्यास के पत्थर पर लिखा था- "महकमा मुआसलात व तामिरात हुकूमते बलूचिस्तान। नाम अस्किम पुख्ता सड़क कोस्टल हाइवे से हंगलाज माता-किलोमीटर-18 संगबनियाल (नींव का पत्थर) बदस्त मुबारक जनाब मो0असलम भूतानी साहब (डिप्टी स्पीकर, बलूचिस्तान) ने रखा। तारीख आगाज-28-6-2004, तख्मीना लागत (बनाने का खर्च) 2 करोड़ 28 लाख 58 हजार। मुद्दत तकमील 12 महीने।" पास ही एक दूसरा बोर्ड था, जिस पर उर्दू में लिखा था-"हंगोल नेशनल पार्क। यह पुल जंगली जानवरों की गुजरगाह है। यहां पर प्रेशर हार्न न बजाएं। महकमा जंगलात व जंगली हयात, बलूचिस्तान।" बस अब हम आधे घंटे बाद ही मंदिर के द्वार पहुंच जाएंगे। यहां चप्पे-चप्पे पर सैनिक तैनात थे। दूर पहाड़ियों की चोटियों, रास्तों, नदी के दोनों ओर तथा हर मोड़ पर सेमी आटोमेटिक राइफलें लिए सुरक्षा सैनिकों की उपस्थिति ने एक अलग ही अनुभूति करायी।
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Tuesday, March 3, 2009
श्री हिंगलाज माता
इस पुरातन स्थान को फिर से खोजने का श्रेय जाता है कनफ़ड़ योगियों को. जिस हिंगलाज मंदिर में आज भी जाना मुश्किल है वहीं कई सौ साल पहले कान में कुंडल पहनने वाले ये योगी जाया करते थे. इस कठिन यात्रा के दौरान कई योगियों की मौत हो जाती थी जिनका पता तक किसी को नहीं चल पाता था. कहा जाता है कि इन्हीं कनफ़ड़ योगियों के भक्ति के तरीके और इस्लामी मान्यताओं के मिलने से सूफ़ी परंपरा शुरू हुई. सिंधी साहित्य का इतिहास लिखने वाले प्रोफ़ेसर एल एच अजवाणी कहते हैं, “ईरान से आ रहे इस्लाम और भारत से भक्ति-वेदांत के संगम से पैदा हुई सूफ़ी परंपरा जो सिंधी साहित्य का एक अहम हिस्सा है.”कुछ धार्मिक जानकारों का मानना है कि रामायण में बताया गया है कि भगवान श्रीराम हिंगलाज के मंदिर में गए थे.
मान्यता है कि उनके अलावा गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव और कई सूफ़ी संत भी इस मंदिर में पूजा अर्चना कर चुके हैं.
हिंगलाज का नाम मेरे लिए इतिहास, साहित्य और आस्था की आवाज़ थी मगर जब मैं हिंगलाज की यात्रा पर निकली तो यह क्षेत्र मेरे लिए प्रकृति और भूगोल की पुकार बन गया. कराची से वंदर, ओथल और अगोर तक की दो सौ पैंतालीस किलोमीटर की लंबी यात्रा के दौरान जंगल भी बदलते मंजरों की तरह मेरे साथ-साथ चल रहा था. हिंगलाज के पहाड़ी सिलसिले तक पहुँचते-पहुँचते हमने प्रकृति के चार विशालकाय दृश्यों को एक जगह होते देखा. यहाँ जंगल, पहाड़, नदी और समुद्र साथ-साथ मौजूद हैं. प्रकृति के इतने रंग कहीं और कम ही देखने को मिलते हैं.
हिंगलाज मुसलमानों के लिए ‘नानी पीर’ का आस्ताना और हिंदुओं के लिए हिंगलाज देवी का स्थान है.
लसबेला के हिंदुओं की सभा के लीला राम बताते हैं कि हिंदू गंगाजल में स्नान करें या मद्रास के मंदिरों में जाप करें, वह अयोध्या जाएँ या उत्तरी भारत के मंदिरों में जाकर पूजा-आर्चना करें, अगर उन्होंने हिंगलाज की यात्रा नहीं की तो उनकी हर यात्रा अधूरी है.
हिंगलाज में हर साल मार्च में हजारों हिंदू आते हैं और तीन दिनों तक जाप करते हैं. इन स्थानों के दर्शन करने वाली महिलाएँ हाजियानी कहलाती हैं और इनको हर उस स्थान पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है जहाँ हिंदू धर्मावलंबी मौजूद हैं. हिंगलाज में एक बड़े प्रवेश द्वार से गुज़र कर दाख़िल हुआ जाता है. यहाँ ऊपर बाईं ओर पक्के मुसाफ़िरख़ाने बने हुए हैं. दाईं ओर दो कमरों की अतिथिशाला है. आगे पुख़्ता छतों और पक्के फ़र्श का विश्रामालय दिखाई देता है. मगर आपके ख़याल में यहाँ की आबादी कितनी होगी? अगर आप को आश्चर्य न हो तो यहाँ की कुल संख्या सैकड़े के आंकड़े से ज़्यादा नहीं है.
निवासी:दस दिन पहले यहाँ केवल कफमन और जानू रहा करते थे. लच्छन दास और जान मोहम्मद अंसारी लेग़ारी को लसबेला की हिंदूसभा दो-दो हज़ार रुपए प्रति माह देती है. लच्छन का संबंध थरपारकर से है जबकि जानू हिंगलाज से आधे घंटे पैदल के फ़ासले पर हिंगोल नदी के किनारे की एक बस्ती में रहता है.
कमू अभी दस रोज़ पहले ही इस स्थान का निवासी बना है. कमू सिंध के शहर उमरकोट का रहने वाला है. इसके माँ-बाप बचपन में ही गुज़र गए थे. भाई ने किसी बात पर पिटाई कर दी तो वह घर छोड़ कर कराची में एक हिंदू सेठ के यहाँ नौकरी करने लगा. यहाँ पर इसकी उम्र बीस वर्ष हो गई. दस रोज़ पहले उसने सेठ से पैसे मांगे तो उसे सिर्फ पंद्रह रुपए मिले और उसने कराची से हिंगलाज तक तीन सौ मील का सफ़र पैदल चलते और अनेक लोगों से लिफ्ट लेकर तय किया. कमू ने कहा कि मेरी ज़िंदगी सफल हो गई है. “मैं बहुत शांति से हूँ, मैं माता के चरणों में आ गया हूँ. अब मैं अपना जीवन यहीं बिताउंगा.” हिंदूसभा ने यात्रियों के खाने के लिए जो दान यहाँ रख छोड़ा है इसमें से लच्छन, जानू और कमू भी अपना पेट भरते हैं.
काली माँकहा जाता है कि हिंगलाज माता के मंदिर में गुरु नानक और शाह अब्दुल बिठाई हाज़िरी दे चुके हैं. लच्छन दास का कहना है कि हिंगलाज माता ने यहाँ पर गुरू नानक और शाह लतीफ का दिया दूध पिया था. कमू से हमारी मुलाकात हिंगलाज माता के स्थान पर हुई. हिंगलाज माता के स्थान पर पहुंचने के लिए पक्की सीढियाँ बनाई गई हैं. यहाँ हिंगलाज शिव मंडली का बक्सा रखा गया है जहाँ लोग रक़म डालते हैं, यहाँ अबीर भी है जिसे पुजारी माथे पर लगाते हैं. कमू ने भी माथे पर तिलक लगा रखा है. मैं कमू से भजन सुनाने का आग्रह करती हूँ वह दो-तीन भजन सुनाता है. मैं माता के पटों के नीचे रखे प्रसाद को देखती हूँ जिसे सिर्फ महिलाएँ ही देख सकती हैं. और फिर पटों से उन्हें ढक देती हूँ. शाम के ढलते साए के साथ मैं वापसी की शुरूआत करती हूँ. अभी मैं बीस क़दम भी नहीं चली कि पीछे कमू की आवाज़ गूंजी.
जय जगदीस हरे, स्वामी जय जगदीस हरेसंत जनों के संकट, दास जनों के संकट…
मैं हिंगलाज के पुख़्ता विश्राम घरों और पुजारियों के आवासों की तरफ़ बढ़ रही हूँ, पीछे कमू की आवाज़ आ रही हैः
तुम ही माता, तुम ही पिता, तुम ही तुम हो माँ..ओ माँ… ओ माँ…ओ माँ…
Posted by lLaxman Singh Bithu
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