ख़म ठोक ठेलता हे जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड
श्री कृष्ण का दूत कार्य
(समय निकाल कर अवश्य पड़े )
हे कौन विघ्न ऐसा जग में,टिक सके आदमी के मग में |
ख़म ठोक ठेलता हे जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड ||१ ||
मानव जब जोर लगाता हे, पत्थर पानी बन जाता हे |
गुण बड़े एक से एक प्रखर ,हे छिपे मानव के भीतर ||२||
मेहंदी में जैसे लाली हो , वर्तिका बीच उजियारी हो |
बत्ती जो नहीं जलाता है रौशनी नहीं वो पता हे ||३||
पीसा जाता जब इक्षुदंड बहती रस की धरा अखंड |
मेहंदी जब सहती प्रहार बनती ललनाओ का श्रृंगार ||४||
जब फूल पिरोये जाते है हम उनको गले लगाते है |
कंकड़िया जिनकी सेज सुघर छाया देता केवल अम्बर ||५||
विपदाए दूध पिलाती है लोरी आंधिया सुनाती है |
जो लाक्षाग्रह में जलते है वही सूरमा निकलते है ||६||
वर्षो तक वन में घूम घूम , बाधा विघ्नों को चूम चूम |
सह धुप छाँव पानी पत्थर,पांडव आये कुछ और निखर ||७||
सोभाग्य न सब दिन सोता है, देखे आगे अब क्या होता है |
मैत्री की रह बताने को सबको सुमार्ग पर लाने को ||८||
दुर्योधन को समझाने को भीषण विध्वंश बचाने को |
भगवान हस्तिनापुर आये पांडवो का संदेशा लाये |
दो न्याय अगर तो आधा दो पर इसमे भी यदि बाधा हो |
दे दो हमको पांच ग्राम रखो अपनी भूमि तमाम |
हम वही ख़ुशी से खायेंगे परिजन पर असी न उठाएंगे |
दुर्योधन वह भी दे न सका आशीष समाज की ले न सका |
उलटे हरी को बाँधने चला जो था असाध्य साधने चला |
जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता |
हरी ने भीषण हुंकार किया अपना स्वरुप विस्तार किया |
डगमग डगमग दिग्गज बोले भगवान् कुपित होकर बोले |
जंजीर बड़ा आ बाँध मुझे हाँ हाँ दुर्योधन साध मुझे |
यह देख गगन मुझमे लय है ये देख पवन मुझमे लय है |
मुझमे विलीन संसार सकल मुझमे लय है झंकार सकल |
अमरत्व फूलता है मुंह में, संहार झूलता है मुझमे
उदयाचल मेरे दीप्त भाल ,भू–मंडल वक्ष–स्थल विशाल
भुज परिधि बाँध को घेरे है, मीनाक मेरु पग मेरे है
दीप्त जो ग्रह नक्षत्र निखर, सब है मेरे मुह के अन्दर
दृग हो तो दृश्य अखंड देख, मुझमे सारा ब्रह्माण्ड देख
चर –अचर जीव,जग क्षर अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर
शत कोटि सूर्य ,शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित सर सिन्धु मन्द्र
शत कोटि ब्रह्मा विष्णु महेश, शत कोटि जलपति जिष्णु धनेश
शत कोटि रूद्र शत कोटि काल, शत कोटि दंड धर लोकपाल
जंजीर बड़ा कर साध इन्हें, हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हें
भूतल अतल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन, यह देख महाभारत का रण
मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान कहा इसमें तू है ?
अम्बर का कुंतल जाल देख ,पद के निचे पातळ देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते है फिर लौट मुझी में जाते है |
जिह्वा से कोंधती ज्वाल सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हंसने लगती है सृष्टि उधर
मै जब मोड़ता हूँ लोचन, छा जाता चारो ओर मरण
बाँधने मुझे तू आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है ?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तू बाँध अनंत गगन
शुन्य को साध न सकता है, वो मुझे बाँध कब सकता है ?
हितवचन नहीं तुने माना मैत्री का मूल्य नहीं पहचाना |
तो ले में भी अब जाता हूँ अंतिम संकल्प सुनाता हूँ |
याचना नहीं अप रण होगा भीषण विध्वंश प्रबल होगा |
टकरायेंगे नक्षत्र निखर बरसेगी भू पर व्ही प्रखर |
फन शेषनाग का डोलेगा विकराल काल मुह खोलेगा |
दुर्योधन रण ऐसा हो फिर कभी नहीं जैसा होगा |
भाई पर भाई टूटेंगे विष बाण बूँद से छूटेंगे |
सोभाग्य मनुज के फूटेंगे वायस श्रगाल सुख लूटेंगे |
आखिर तो भूशाई होगा हिंसा का परिचायी होगा |
थी सभा सन्न सब लोग डरे ,चुप थे या थे बेहोश पड़े |
केवल दो नर न अघाते थे भीष्म विदुर सुख पाते थे |
कर जोड़ खड़े प्रमुदित्त निर्भय, दोनों पुकारते थे जय जय || इति ||
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