जो दया नहीं करते वे दया के हकदार नहीं: सर्वोच्च न्यायालय
जो दया नहीं करते वे दया के हकदार नहीं: सर्वोच्च न्यायालय
नई दिल्ली: साल 1993 के दिल्ली बम विस्फोट के दोषी देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर की मौत की सजा को सुप्रीम कोर्ट के जरिए बरकरार रखे जाने को लेकर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की अपनी-अपनी राय है. पंजाब में सत्तारुढ़ शिरोमणि अकाली दल भुल्लर की फांसी के विरुद्ध है.
भुल्लर की फांसी को लेकर यह बहस भी छिड़ी हुई है जब उसने फांसी पर फैसले के इंतज़ार में 11 साल तक जेल में गुजार दिए हैं तो फिर उसे फांसी पर लटकना इंसाफ नहीं होगा.
इसे ही आधार बनाकर भुल्लर ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी फांसी की सजा को उम्र कैद में बदलने का आग्रह किया था, जिसे शुक्रवार को कोर्ट ने खारिज कर दिया.
कोर्ट ने फांसी की सजा बरकार रखने के अपने फैसले में कहा, "आतंकवादी हत्या से पहले पलभर के लिए भी पीड़ितों के परिवार, माता-पिता, पति-पत्नी, बच्चों और रिश्देतार व दोस्तों के बारे में नहीं सोचते. जो पीड़ित होते हैं उन्हें यह ताउम्र सहना पड़ता है. आर्थिक नुकसान इसके अलावा है. यह अजीबोगरीब बात है कि जो लोग दूसरों के साथ दया और करुणा का भाव नहीं रखते वे दया की अपील करते हैं."
कोर्ट ने मानवाधिकार संगठनों को फटकार लगाते हुए कहा, "कुछ लोग ऐसे लोगों के मानवाधिकारों का हवाला देकर आतंकवादियों के जरिए किए गए मासूम लोगों की हत्या और सामूहिक हत्या का एक तरह से अनुमोदन करते हैं."
फांसी पर फैसला मुद्दों लटके रहने की बुनियाद पर मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की भुल्लर की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, यह सच है कि याचिकाकर्ता की अर्जी को निपटाने में लंबा समय लगा है. लेकिन इस केस की अजीब स्थिति को देखते हुए हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि राष्ट्रपति द्वारा मौत की सजा को बरकरार रखने के फैसले को आजीवन कारावास की सजा में नहीं बदला जा सकता है.
कोर्ट ने आगे कहा, "साल 1999 से 2011 के बीच 18 दया याचिकाएं एक से लेकर 13 साल से लंबित हैं. इससे यह संदेश जाता है कि सरकार इन मामलों को लेकर गंभीर नहीं है. हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में ऐसे मामलों का निपटारा अनुचित देरी के बिना किया जाएगा."
ग़ौरतलब है कि 1993 में दिल्ली में युवक कांग्रेस कार्यालय पर हुए बम हमले में नौ लोग मारे गए थे. इसी केस में भुल्लर को मौत की सजा सुनाई गई है.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें