फिर अकेले मोदी ही 'राक्षस' क्यों..?- मधु पूर्णिमा किश्‍वर




Mahesh Girase/ facebook

फिर अकेले मोदी ही 'राक्षस' क्यों..?
-मधु पूर्णिमा किश्‍वर
( लेखिका जानीमानी समाजविज्ञानी हैं)

फरवरी 2002 में जब हिंसक दंगों से गुजरात के कुछ हिस्से कांप उठे, तब मैंने भी राष्ट्रीय मीडिया और अपने सक्रिय प्रतिभागी मित्रों के विवरण को स्वीकार कर लिया और मान लिया कि वर्ष 2002 के दंगों में मोदी भी लिप्त थे। इस कारण से मैंने भी मोदी के खिलाफ बयानों पर हस्ताक्षर कर दिए और मानुषी में उन लेखों को छापा, जिनमें गुजरात सरकार को दोषी ठहराया गया था। हमने भी दंगा पीडि़तों के लिए फंड इकट्‍ठा किया।
लेकिन, मैं अपने नाम से कुछ भी लिखने से बचती रही क्योंकि मुझे गुजरात जाने, वहां अनुभव लेने और स्वयं स्थिति को जांचने का मौका नहीं मिला था। मेरे पहले के विभिन्न दंगों को कवर करने के अनुभव और कश्मीर तथा पंजाब में हिंसक संघर्ष की स्थितियों ने मुझे सिखा दिया था कि ऐसे मुद्‍दों पर सुनिश्चित रुख तय करने से पहले मीडिया की रिपोर्टों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि ये आमतौर पर लेखक की विचारधारा के रंग से रंगी होती हैं। इसलिए मैंने गुजरात पर कोई बयान देने से खुद को रोका।
देश के सभी बड़े दंगों को कवर करने के लिए- जिनमें 1984 का सिखों का नरसंहार शामिल है, 1980 के दशक में मेरठ और मलियाना में दंगों के दौर, 1993 के बॉम्बे के दंगे, 1989 में जम्मू के दंगे और कई अन्य बहुत से दंगों, जोकि बिहारशरीफ, भिवंडी, जमशेदपुर और अहमदाबाद तथा सूरत में हुए थे, के दौर का बारीकी से अध्ययन करने में बहुत-सा समय खर्च करने के बाद मैंने जाना कि दिल्ली में 1984 के दंगों को छोड़कर अन्य सभी दंगे भाजपा और कांग्रेस ने मिल-जुलकर भड़काए थे।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ था, इस अपराध में भाजपा के साथ कांग्रेस भी बराबर की भागीदार थी। महात्मा गांधी के वैचारिक आदर्शवाद से कभी प्रेरित रही कांग्रेस पार्टी इससे पूरी तरह दूर होकर और अपनी संदिग्ध भूमिका के कारण सारे देश में हाशिए पर आ गई है।
जानकार गुजरातियों का कहना था कि 2002 के दंगों में संघ परिवार के उपद्रवियों के साथ कांग्रेसी भी शामिल थे, जिन्होंने सामूहिक हत्याओं, आगजनी और लूट में बड़े उत्साह से भाग लिया था।
शुरुआती रिपोर्टों से यह जानकारी मिली और बाद में अनौपचारिक नेटववर्क्स से पता चला कि मुस्लिमों की ओर से भी बदले में भारी हिंसा की गई, जिसके चलते हजारों हिंदुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा और उन्हें भी शरणार्थी शिविरों में पनाह लेनी पड़ी।
इसलिए जब आमतौर पर भाजपा और विशेष रूप से मोदी को हमलों के लिए एक मात्र जिम्मेदार बताया गया और अब तक के ज्ञात इतिहास में इन दंगों से पहले और बाद में अन्य किसी राजनीतिज्ञ का इतना राक्षसीकरण नहीं किया गया। तब इस कारण से किसी में भी इतनी घृणा और मोदी हटाओ प्रचार से स्वाभाविक तौर पर बेचैनी पैदा हुई।
यह बेचैनी तब और बढ़ गई जब वर्षों के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि मोदी को राक्षस बताने और बनाने में शामिल एनजीओ, सक्रिय प्रतिभागियों, पत्रकारों, शिक्षाविदों को कांग्रेस पार्टी का सक्रिय संरक्षण मिला और कुछ को तो मोदी के खिलाफ लगातार अभियान चलाने के लिए बहुत अधिक वित्तीय सहायता भी मिली।
उत्तर भारत में 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान जो लोग पीडि़तों के लिए काम करते थे और जिन्होंने अभूतपूर्व नरसंहार के बारे में लिखा भी है, ऐसे लोगों की एक ही मांग थी कि 'दोषियों को सजा दो'।
हालांकि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, गृहमंत्री पीवी नरसिंह राव, दिल्ली के उपराज्यपाल पीजी गवई की इनमें सं‍ल‍िप्तता निर्लज्जता की हद तक जाहिर थी। लेकिन इसके बावजूद न तो प्रधानमंत्री, न ही गृहमंत्री और न ही उपराज्यपाल को राक्षस की तरह पेश नहीं किया गया था। लेकिन गुजरात के 2002 के दंगों में समूचा दोष केवल एक आदमी के मत्थे मढ़ दिया गया।
हाल ही के एक इंटरव्यू में फिल्म पटकथा लेखक सलीम खान ने एक मनोरंजक टिप्पणी की थी कि 'क्या किसी को याद है कि मुंबई दंगों के समय महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री कौन था और ये दंगे 2002 में गुजरात के दंगों से कम भीषण नहीं थे?' क्या किसी को याद है कि मेरठ और मलियाना में दंगों के समय उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री कौन था?
जब कांग्रेस के शासन काल में भागलपुर और जमशेदपुर में दंगे हुए थे तब बिहार का मुख्यमंत्री कौन था? स्वतंत्रता के बाद गुजरात में सैकड़ों दंगों के दौरान रहे मुख्‍यमंत्रियों के नामों की किसी को याद है? इनमें से कुछ दंगे तो 2002 के दंगों से भी ज्यादा भयानक थे।
राज्य में हर दो महीनों में हिंसा फैलती थी? क्या किसी को याद है कि जब 1984 में सिखों का नरसंहार किया गया था तब दिल्ली की सुरक्षा की कमान किसके हाथ में थी? लेकिन नरेन्द्र मोदी अकेले को ही एक राक्षस का 'अवतार' बना दिया जैसे कि उन्होंने खुद ही 2002 के दंगों में हत्याएं की हों?
ज्यादा अतीत के दंगों की ही बात क्यों करें, क्या किसी को लाखों की संख्या में बोडो और मुस्लिमों के दुर्भाग्य की याद है, जिन्हें जुलाई 2012 में अपने गांवों को छोड़ना पड़ा था क्योंकि उनके घरों को आग लगा दी गई थी या उन्हें नष्ट कर दिया गया था? 8 अगस्त 2012 तक करीब 400 गांवों से बेदखल होकर 4 लाख से ज्यादा लोगों को 270 राहत शिविरों में पनाह लेनी पड़ी थी। तब असम के मुख्यमंत्री ने सेना की तैनाती में चार दिनों की देरी की थी, जबकि राज्य में बड़े पैमाने पर सेना की टुकडि़यां तैनात बनी रहती हैं। हजारों की संख्या में लोग अभी भी शरणार्थी शिविरों में नारकीय स्थितियों में रह रहे हैं। उन दंगों को क्यों भुला दिया गया?
यह बात भी मुझे बहुत ही आश्चर्यजनक लगी कि मोदी के खिलाफ प्रचार युद्ध की अगुवाई करने वाले लोग न तो मुस्लिम हैं और न ही गुजरात के निवासी हैं। मोदी विरोधी ब्रिगेड की गुजरात से तीन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्तियां मुस्लिम नहीं हैं।
जब एक गुजराती मुस्लिम ने एक अलग स्वर में बोलने की को‍श‍िश की तो उस पर क्रूरतापूर्वक हमला किया गया और इसकी उन्हें इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ी कि डर के मारे लोगों ने मुंह बंद कर लिए। अत्यधिक सम्मानित और प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान मौलाना वस्तानवी को देवबंद के वाइस चांसलर पद से मात्र इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उन्होंने कह दिया था कि मोदी सरकार की समावेशी विकास नीतियों से गुजराती मुस्लिमों को लाभ हुआ है।
उर्दू दैनिक नईदुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्‍दीकी पर हमला किया गया और उन्हें लगातार गालियां दी गईं क्योंकि उन्होंने मोदी का इंटरव्यू लिया था जिसमें मोदी ने उनकी सरकार पर लगे आरोपों के खिलाफ अपनी सफाई दी थी। जल्द ही सिद्‍दीकी ने अपने सुर बदल लिए और वे भी टीवी पर मोदी विरोधी गाने गाते दिखाई देने लगे।
भारत में राजनीतिक संवाद में मोदीफोबिया के चलते वातावरण इतना दूषित हो गया कि अगर आप ग्रामीण गुजरात में सड़कों की गुणवत्ता पर संतोष जताते हैं या गुजरात के गांवों, कस्बों में चौबीसों घंटे बिजली सप्लाई पर खुशी जाहिर करते हैं तो आप तुरंत ही 'फासिस्ट समर्थक' करार दिए जाते हैं।

कश्मीरी अलगाववादियों का बचाव करना, पाकिस्तानी सरकार के साथ शांतिपूर्ण वार्ता की वकालत करना या लोगों की हत्या करने वाले माओवादियों को 'गरीबों का रक्षक' करार दिया जाना आज राजनीतिक तौर पर फैशन बन गया है। लेकिन गुजरात में सरकारी सुधारों की प्रशंसा करना राजनीतिक आत्महत्या करने जैसा है। आप पर हमेशा के लिए कलंक लगा दिया जाता है और आपके चेहरे पर फासिज्म समर्थक के रंग पोत दिए जाते हैं।
मोदी बिरोधी ब्रिगेड द्वारा पैदा किए गए इस बौद्धिक आतंक ने मुझे खुद यह पता लगाने को प्रेरित किया कि मोदी को लेकर यह सनक भरी चिंता क्यों फैली है? 'धर्मनिरपेक्षतावादी' क्यों यह याद दिलाना नहीं पसंद करते हैं कि 2002 से गुजरात मे कोई दंगा नहीं हुआ? वे क्यों यह बात नहीं लिखना चाहते हैं कि सैकड़ों दंगों को देख चुके गुजरात के हिंदुओं और ‍म‍ुस्लिमों के बीच अविश्वास की बहुत गहरी खाई है जिसके बावजूद गुजरात ने मोदी के शासनकाल में एक पहला दंगा मुक्त दशक गुजारा है? इस बारे में गुजरात के मुस्लिमों का क्या कहना है? उन्हें अपनी बात को खुद क्यों नहीं कहने दिया जाता है?
-मधु पूर्णिमा किश्‍वर ( लेखिका जानीमानी समाजविज्ञानी हैं)
Source :- http://legendnews.in/index.php?subaction=showfull&id=1366372369&archive

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